००९ आत्मा ...{Loading}...
Whitney subject
- Mystic.
VH anukramaṇī
आत्मा।
१-२२ ब्रह्मा।वामः, अध्यात्मं, आदित्यः। त्रिष्टुप्, १२, १४, १६, १८ जगती।
Whitney anukramaṇī
[Brahman.—dvāviṅśakam. vāmīyam ādityadevatyam adhyātmakaram. trāiṣṭubham: 12, 14, 16, 18. jagatī.]
Whitney
Comment
This hymn and the following (except a few verses of the latter) are one Rig-Veda hymn, namely, i. 164, and but a small part of them occur in any other Vedic text. Both are found in Pāipp. xvi., in somewhat changed verse-order, as will be noted under the different verses below. Vāit. takes no notice of this hymn; in Kāuś. it (vs. 1) is quoted in 18. 25, with various others, in a ceremony for prosperity; and the gaṇamālā (see note to Kāuś. 18. 25) reckons it as belonging to the salila gaṇa.
Translations
Translated: as RV. hymn, by Ludwig, no. 951; and Grassmann, ii. p. 456-460; also by M. Haug, under the tide, Vedische Räthselfragen und Räthselsprüche, Sb. der philos.-philol. Classe der k. bairischen Ak. der Wiss., Bd. II., Heft 3, für 1875, München, 1876 (the essay, says Whitney, “casts extremely little light upon its labored obscurities”); further, with an elaborate comment touching the significance of its philosophic content, by Deussen, Geschichte, i. 1. 105-119; parts also by Muir, v. (see Index, p. 484), and Hillebrandt, Ved. Mythol., i. (see Index, p. 542); and under the title, Zwei Sprüche über Leib und Seele, ZDMG. xlvi. 759 f., Roth explains two verses answering to our ix. 10. 8 and 16. Under the title. Das Räthsel vom Jahre, ZDMG. xlviii. 353, E. Windisch discusses the RV. verse answering to our vs. 12.
Griffith
Enunciation of mystico-theological and cosmological doctrine
०१ अस्य वामस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒स्य वा॒मस्य॑ पलि॒तस्य॒ होतु॒स्तस्य॒ भ्राता॑ मध्य॒मो अ॒स्त्यश्नः॑।
तृ॒तीयो॒ भ्राता॑ घृ॒तपृ॑ष्ठो अ॒स्यात्रा॑पश्यं वि॒श्पतिं॑ स॒प्तपु॑त्रम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒स्य वा॒मस्य॑ पलि॒तस्य॒ होतु॒स्तस्य॒ भ्राता॑ मध्य॒मो अ॒स्त्यश्नः॑।
तृ॒तीयो॒ भ्राता॑ घृ॒तपृ॑ष्ठो अ॒स्यात्रा॑पश्यं वि॒श्पतिं॑ स॒प्तपु॑त्रम् ॥
०१ अस्य वामस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Of this pleasant (vāmá) hoary invoker—of him the brother is the
midmost stone (? áśna); his third brother [is] ghee-backed; there I
saw the lord of the people who hath seven sons.
Notes
The three brothers are explained as the three forms of Agni, in heaven,
in the atmosphere (lightning), and on earth (sacrificial fire): the
‘seven sons’ are most probably his many flames. ⌊The collocation of
madhyamó with bhrā́tā would seem more natural, considering the phrase
tṛtī́yo bhrā́tā.
Griffith
The second brother of this lovely Hotar, hoary with eld, is the voracious Lightning. The third is he whose back is balmed with butter. Here have I seen the King with seven male children.
पदपाठः
अ॒स्य। वा॒मस्य॑। प॒लि॒तस्य॑। होतुः॑। तस्य॑। भ्राता॑। म॒ध्य॒मः। अ॒स्ति॒। अश्नः॑। तृ॒तीयः॑। भ्राता॑। घृ॒तऽपृ॑ष्ठः। अ॒स्य॒। अत्र॑। अ॒प॒श्य॒म्। वि॒श्पति॑म्। स॒प्तऽपु॑त्रम्। १४.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [जगत्] के (वामस्य) प्रशंसनीय, (पलितस्य) पालनकर्ता, (होतुः) तृप्ति करनेवाले (तस्य) उस [सूर्य] का (मध्यमः) मध्यवर्ती (भ्राता) भ्राता [भाई समान हितकारी] (अश्नः) [व्यापक] बिजुली (अस्ति) है। (अस्य) इस [सूर्य] का (तृतीयः) तीसरा (भ्राता) भ्राता (घृतपृष्ठः) घृतों [प्रकाश करनेवाले घी, काष्ठ आदि] से स्पर्श किया हुआ [पार्थिव अग्नि है], (अत्र) इस [सूर्य] में (सप्तपुत्रम्) सात [इन्द्रियों−त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] को शुद्ध करनेवाले (विश्पतिम्) प्रजाओं के पालनकर्ता [जगदीश्वर] को (अपश्यम्) मैंने देखा है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - संसार में सूर्य के तेजोरूप अंश बिजुली और अग्नि हैं और तीनों भाई के समान परस्पर भरण करते हैं, जिससे अनेक लोकों की स्थिति है। विज्ञानी पुरुष साक्षात् करते हैं। वह परमात्मा अन्तर्यामी रूप से विराजकर उस सूर्य को भी अपनी शक्ति में रखता है ॥१॥ १−यह मन्त्र निरुक्त ४।२६। में व्याख्यात है ॥ २−मन्त्र १-२२ ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त १६४ के मन्त्र १-२२ कहीं-कहीं आगे-पीछे और कुछ पाठभेद से हैं। मन्त्र १-४ ऋग्वेद में १-४ हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(अस्य) दृश्यमानस्य जगतः (वामस्य) प्रशस्यस्य-निघ० ३।८। (पलितस्य) फलेरितजादेश्च पः। उ० ५।३४। फल निष्पत्तौ यद्वा ञिफला विशरणे−इतच्, फस्य पः। यद्वा पल गतौ पालने च−इतच्। पालयितुः-निरु० ४।२६। (होतुः) तर्पकस्य। दातुः (तस्य) आदित्यस्य (भ्राता) अ० ४।४।५। भ्रातेव हितकारी (मध्यमः) मध्यवर्ती (अश्नः) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। अशू व्याप्तौ अश भोजने वा-न प्रत्ययः। अशनः। व्यापनः। अशनिः। विद्युत्। (तृतीयः) (भ्राता) (घृतपृष्ठः) पृष्ठं स्पृशतेः संस्पृष्टमङ्गैः-निरु० ४।३। घृतैः प्रकाशसाधनैः स्पृष्टः। (अस्य) सूर्यस्य (अत्र) सूर्ये (अपश्यम्) अद्राक्षम् (विश्पतिम्) विशां प्रजानां पालकम् (सप्तपुत्रम्) पुनातीति पुत्रः। सप्तानां त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धीनां शोधकम् ॥
०२ सप्त युञ्जन्ति
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स॒प्त यु॑ञ्जन्ति॒ रथ॒मेक॑चक्र॒मेको॒ अश्वो॑ वहति स॒प्तना॑मा।
त्रि॒नाभि॑ च॒क्रम॒जर॑मन॒र्वं यत्रे॒मा विश्वा॒ भुव॒नाधि॑ त॒स्थुः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स॒प्त यु॑ञ्जन्ति॒ रथ॒मेक॑चक्र॒मेको॒ अश्वो॑ वहति स॒प्तना॑मा।
त्रि॒नाभि॑ च॒क्रम॒जर॑मन॒र्वं यत्रे॒मा विश्वा॒ भुव॒नाधि॑ त॒स्थुः ॥
०२ सप्त युञ्जन्ति ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Seven harness (yuj) a one-wheeled chariot; one horse, having seven
names, draws (vah) [it]; of three naves [is] the wheel, unwasting,
unassailed, whereon stand all these existences.
Notes
Doubtless the sun. The verse is repeated as xiii. 3. 18. It occurs also
in TA. iii. 11. 8, with anarvāṁ yene ’mā v. bhuvanāni t. in c, d
(the accent of the verse is too corrupt to heed).
Griffith
The seven make the one-wheeled chariot ready: bearing seven names the single Courser draws it. The wheel, three-naved, is sound and undecaying: thereon these worlds of life are all dependent.
पदपाठः
स॒प्त। यु॒ञ्ज॒न्ति॒। रथ॑म्। एक॑ऽचक्रम्। एकः॑। अश्वः॑। व॒ह॒ति॒। स॒प्तऽना॑मा। त्रि॒ऽनाभि॑। च॒क्रम्। अ॒जर॑म्। अ॒न॒र्वम्। यत्र॑। इ॒मा। विश्वा॑। भुव॑ना। अधि॑। त॒स्थुः। १४.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सप्त) सात [इन्द्रियाँ त्वचा आदि-म० १] (एकचक्रम्) एक चक्रवाले [अकेले पहिये के समान काम करनेवाले जीवात्मा से युक्त] (रथम्) रथ [वेगशील वा रथ समान, शरीर] को (युञ्जन्ति) जोड़ते हैं, (एकः) अकेला (सप्तनामा) सात [त्वचा आदि इन्द्रियों] से झुकनेवाला [प्रवृत्ति करनेवाला] (अश्वः) अश्व [अश्वरूप व्यापक जीवात्मा] (त्रिनाभि) [सत्त्व, रज और तमोगुण रूप] तीन बन्धनवाले (अजरम्) चलनेवाले [वा जीर्णतारहित], (अनर्वम्) न टूटे हुए (चक्रम्) चक्र [चक्रसमान काम करनेवाले अपने जीवात्मा] को [उस परमात्मा में] (वहति) ले जाता है (यत्र) जिस [परमात्मा] में (इमा) यह (विश्वा) सब (भुवना) लोक (अधि) यथावत् (तस्थुः) ठहरे हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अकेला अपने पुरुषार्थ का भोगनेवाला जो निश्चल ब्रह्मचारी त्वचा आदि सात इन्द्रियों से सम्पन्न होकर सत्त्वादि तीनों गुणों को साक्षात् कर लेता है, वह जगदीश्वर परमात्मा में पहुँच कर आनन्द पाता है ॥२॥ १−यह मन्त्र आगे आया है-अ० १३।३।१८ ॥ २−भगवान् यास्कमुनि के अनुसार अर्थ-निरु० ४।२७ ॥ (सप्त) सात [किरण] (एकचक्रम्) अकेले चलनेवाले (रथम्) रथ [रंहणशील सूर्य] को (युञ्जन्ति) जोड़ते हैं, (एकः) अकेला (सप्तनामा) सप्तनामा [जिसके लिये सात किरणें रसों को झुकाती हैं] (अश्वः) अश्व [व्यापक सूर्य] (अजरम्) न जीर्ण होनेवाले, (अनर्वम्) विना सहारेवाले (त्रिनाभि) तीन नाभियों [तीन ऋतुओं, ग्रीष्म, वर्षा, और हेमन्त] वाले (चक्रम्) चक्र [संवत्सर] को (वहति) ले जाता है, (यत्र) जिसमें [अर्थात् संवत्सर में] (इमा विश्वा भुवना) यह सब भूत [प्राणी] (अभितस्थुः) यथावत् ठहरते हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(सप्त) त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः (युञ्जन्ति) योजयन्ति (रथम्) रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद्विपरीतस्य रममाणोऽस्मिंस्तिष्ठतीति वा रपतेर्वा रसतेर्वा-निरु० ९।१२। रंहणशीलं रथरूपं वा शरीरम्। (एकचक्रम्) एकचारिणम्-निरु० ४।२६। एकचक्रवद्भ्रमणशीलेनात्मना युक्तम्। (एकः) असहायः (अश्वः) अ० १।१६।४। अश्वरूपो व्यापकः जीवात्मा सूर्यो वा (वहति) प्रापयति (सप्तनामा) नामन्सीमन्व्योमन्०। उ०४।१५१। म्ना अभ्यासे-मनिन्। यद्वा नमतेर्नमयते र्वा-मनिन्। सप्तभिरिन्द्रियैस्त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राण- मनोबुद्धिभिर्नमतीति यः सः। सप्तनामादित्यः सप्तास्मै रश्मयो रसानभिसन्नमयन्ति सप्तैनमृषयः स्तुवन्तीति वा-निरु० ४।२७। (त्रिनाभि) सत्त्वरजस्तमांसि बन्धनानि यस्य तत्। त्रिनाभि चक्रं त्र्यृतुः संवत्सरो ग्रीष्मो वर्षा हेमन्त इति-निरु० ४।२७। (चक्रम्) स्फायितञ्चि०। उ० २।१३। चक तृप्तौ प्रतिघाते च-रक्। यद्वा क्रियतेऽनेन। कृ-घञर्थे क, द्वित्वम्। चक्रं चकतेवा चरतेर्वा क्रामतेर्वा-निरु० ४।२७। रथाङ्गम् (अजरम्) ऋच्छेररः। उ० ४।१३१। इति अज गतिक्षेपणयोः-अरप्रत्ययः। गतिशीलम्। अजरणधर्माणम्-निरु० ४।२७। (अनर्वम्) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१५५। नञ्+ऋ गतौ हिंसायां च−व प्रत्ययः। अहिंसितम्। अक्षीणम्। अप्रत्यृतमन्यस्मिन्-निरु० ४।२७। (यत्र) यस्मिन् परमात्मनि तस्मिन् (इमा) इमानि (विश्वा) सर्वाणि (भुवना) लोकाः (अधि) यथावत् (तस्थुः) लडर्थे लिट्। तिष्ठन्ति। वर्तन्ते ॥
०३ इमं रथमधि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒मं रथ॒मधि॒ ये स॒प्त त॒स्थुः स॒प्तच॑क्रं स॒प्त व॑ह॒न्त्यश्वाः॑।
स॒प्त स्वसा॑रो अ॒भि सं न॑वन्त॒ यत्र॒ गवां॒ निहि॑ता स॒प्त नामा॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒मं रथ॒मधि॒ ये स॒प्त त॒स्थुः स॒प्तच॑क्रं स॒प्त व॑ह॒न्त्यश्वाः॑।
स॒प्त स्वसा॑रो अ॒भि सं न॑वन्त॒ यत्र॒ गवां॒ निहि॑ता स॒प्त नामा॑ ॥
०३ इमं रथमधि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The seven that stand on this chariot—seven horses draw it,
seven-wheeled; seven sisters shout at [it] together, where are set
down the seven names of the kine.
Notes
RV. reads navante in c, and nā́ma in d.
Griffith
The seven who on this seven-wheeled car are mounted have horses, seven in tale, who draw them onward. Seven sisters utter songs of praise together, in whom the Cows’ seven names are held and treasured.
पदपाठः
इ॒मम्। रथ॑म्। अधि॑। ये। स॒प्त। त॒स्थुः। स॒प्तऽच॑क्रम्। स॒प्त। व॒ह॒न्ति॒। अश्वाः॑। स॒प्त। स्वसा॑रः। अ॒भि। सम्। न॒व॒न्त॒। यत्र॑। गवा॑म्। निऽहि॑ता। स॒प्त। नाम॑। १४.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (सप्त) सात [इन्द्रियाँ त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] (इमम्) इस (रथम्) रथ [वेगशील वा रथसमान शरीर] में (अधि तस्थुः) ठहरे हैं, [वे ही] (सप्त) सात (अश्वाः) अश्व [व्यापनशील वा घोड़ों समान त्वचा, नेत्र आदि] [उस] (सप्तचक्रम्) सात चक्रवाले [चक्रसमान काम करनेवाले त्वचा, नेत्र आदि से युक्त रथ अर्थात् शरीर] को (वहन्ति) ले चलते हैं। [वही] (सप्त) सात (स्वसारः) अच्छे प्रकार चलनेवाली, [वा शरीर को चलानेवाली वा बहिनों के समान हितकारी त्वचा, नेत्र आदि] (अभि) सब ओर से [वहाँ] (सम् नवन्त=०−न्ते) मिलती हैं (यत्र) जहाँ [हृदयाकाश में] (गवाम्) इन्द्रियों के (सप्त) सात (नाम=नामानि) झुकाव [स्पर्श, रूप, शब्द, रस, गन्ध, मनन और ज्ञान, सात आकर्षण] (निहिता) धरे गये हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने शरीर में त्वचा नेत्र आदि सात इन्द्रियाँ [म० १] और स्पर्श, रूप आदि इनके सात गुण कैसे दिव्य बनाये हैं, जिनके द्वारा मनुष्य महाज्ञानी होकर मोक्षसुख पाता है ॥३॥ (नवन्त) के स्थान पर ऋग्वेद में [नवन्ते] है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(इमम्) दृश्यमानम् (रथम्) म० २। रंहणशीलं विमानादितुल्यं वा देहम् (अधि तस्थुः) लटः स्थाने लिट्। आरोहन्ति (सप्त) त्वचानेत्रादीन्द्रियाणि (सप्तचक्रम्) चक्रं व्याख्यातम्-म० २। चक्रवत् त्वचानेत्रादिसप्तेन्द्रियाणि यस्मिन् तच्छरीरम् (सप्त) (वहन्ति) चालयन्ति (अश्वाः) व्यापनशीलानि त्वचानेत्रादीन्द्रियाणि। (सप्त) (स्वसारः) अ० ६।१००।३। स्वसा सु असा स्वेषु सीदतीति वा-निरु० १०।१३। सावसेर्ऋन्। उ० २।९६। सु+असु क्षेपणे, यद्वा, अस गतिदीप्त्यादानेषु−ऋन्। सुष्ठु गन्त्र्यः। यद्वा, स्व+सारयतेः−क्विप्। स्वस्य शरीरस्य सारयित्र्यश्चालयित्र्यः। परस्परं भगिनीभूता वा त्वचानेत्रादयः (अभि) सर्वतः (सम् नवन्त) अ० ५।५।२। संनवन्ते। संगच्छन्ते (यत्र) यस्मिन् हृदयाकाशे (गवाम्) इन्द्रियाणाम् (निहिता) धृतानि (सप्त) (नाम) नामन्सीमन्०। उ० ४।१५१। णम प्रह्वत्वे शब्दे च-मनिन्, धातोर्मलोपो दीर्घश्च। नामानि। नमनानि। स्पर्शरूपशब्दरसगन्धमननज्ञानरूपाणि आकर्षणानि ॥
०४ को ददर्श
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
को द॑दर्श प्रथ॒मं जाय॑मानमस्थ॒न्वन्तं॒ यद॑न॒स्था बिभ॑र्ति।
भूम्या॒ असु॒रसृ॑गा॒त्मा क्व᳡ स्वि॒त्को वि॒द्वांस॒मुप॑ गा॒त्प्रष्टु॑मे॒तत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
को द॑दर्श प्रथ॒मं जाय॑मानमस्थ॒न्वन्तं॒ यद॑न॒स्था बिभ॑र्ति।
भूम्या॒ असु॒रसृ॑गा॒त्मा क्व᳡ स्वि॒त्को वि॒द्वांस॒मुप॑ गा॒त्प्रष्टु॑मे॒तत् ॥
०४ को ददर्श ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Who saw it first in process of birth, as the boneless one bears
(bhṛ) him that has bones? where forsooth the earth’s life (ásu),
blood, soul? who shall go to ask that of him who knows?
Notes
‘Bears,’ not in the sense of ‘gives birth to,’ but of ‘carries’ or
‘supports’ or the like.
Griffith
Who hath beheld at birth the Primal Being, when She who hath no bone supports the bony? Where is the blood of earth, the life, the spirit? Who may ap- proach the man who knows, to ask it?
पदपाठः
कः। द॒द॒र्श॒। प्र॒थ॒मम्। जाय॑मानम्। अ॒स्थ॒न्ऽवन्त॑म्। यत्। अ॒न॒स्था। बिभ॑र्ति। भूम्याः॑। असुः॑। असृ॑क्। आ॒त्मा। क᳡। स्वि॒त्। कः। वि॒द्वांस॑म्। उप॑। गा॒त्। प्रष्टु॑म्। ए॒तत्। १४.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कः) किस ने (प्रथमम्) पहिले ही पहिले (जायमानम्) उत्पन्न होते हुए (अस्थन्वन्तम्) हड्डियोंवाले [देह] को (ददर्श) देखा था, (यत्) जिस [देह] को (अनस्था) बिना हड्डियोंवाला [बिना शरीरवाला जीवात्मा अथवा विना शरीरवाली प्रकृति] (बिभर्ति) धारण करती है। (क्व स्वित्) कहाँ पर ही (भूम्याः) भूमि [संसार] का (असुः) प्राण, (असृक्) रक्त और (आत्मा) जीवात्मा [था], (कः) कौन सा पुरुष (एतत्) यह (प्रष्टुम्) पूँछने को (विद्वांसम्) विद्वान् के (उप गात्) समीप जावे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस बात को बड़े विद्वान् ही साक्षात् करते हैं कि सृष्टि की आदि में छोटे-बड़े शरीर कैसे उत्पन्न हुए, और उन शरीरों पर विभु जीवात्मा अथवा संयोजक-वियोजक प्रकृति का शासन किस प्रकार है और जगत् के रचने की प्राण वायु आदि सामग्री कहाँ से आई ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(कः) पुरुषः (ददर्श) दृष्टवान् (प्रथमम्) आदौ (जायमानम्) उत्पद्यमानम् (अस्थन्वन्तम्) छन्दस्यपि दृश्यते। पा० ७।१।७६। अस्थिशब्दस्य अनङ्। अनो नुट्। पा० ८।२।१६। मतोर्नुडागमः। अस्थियुक्तं देहम्-द० (यत्) देहम् (अनस्था) छन्दस्यपि दृश्यते। पा० ७।१।७६। अस्थिशब्दस्य अनङ्। सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ। पा० ६।४।८। उपधादीर्घः, सुलोपो नलोपश्च। अस्थिरहितः शरीररहितो जीवात्मा यद्वा, शरीररहिता प्रकृतिः। (बिभर्ति) धरति (भूम्याः) भूमेः (असुः) प्राणः (असृक्) रुधिरम् (आत्मा) जीवः (क्व) कुत्र (स्वित्) अपि (कः) (विद्वांसम्) (उप) समीपे (गात्) गम्यात् (प्रष्टुम्) जिज्ञासितुम् (एतत्) ॥
०५ इह ब्रवीतु
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इ॒ह ब्र॑वीतु॒ य ई॑म॒ङ्ग वेदा॒स्य वा॒मस्य॒ निहि॑तं प॒दं वेः।
शी॒र्ष्णः क्षी॒रं दु॑ह्रते॒ गावो॑ अस्य व॒व्रिं वसा॑ना उद॒कं प॒दाऽपुः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒ह ब्र॑वीतु॒ य ई॑म॒ङ्ग वेदा॒स्य वा॒मस्य॒ निहि॑तं प॒दं वेः।
शी॒र्ष्णः क्षी॒रं दु॑ह्रते॒ गावो॑ अस्य व॒व्रिं वसा॑ना उद॒कं प॒दाऽपुः॑ ॥
०५ इह ब्रवीतु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let him who truly knows ⌊here⌋ tell (brū) the set-down track of
this pleasant bird; the kine extract (duh) milk from his head;
clothing themselves in a wrap, they have drunk water with the foot.
Notes
Explained as relating to the clouds and the sun. The verse is vs. 7 in
RV., and also in Ppp.; the latter reads śīrṣṇā in c.
Griffith
Let him who knoweth presently declare it, this lovely Bird’s securely-founded station. Forth from his head the Cows draw milk, and wearing his ves- ture with their foot have drunk the water.
पदपाठः
इ॒ह। ब्र॒वी॒तु॒। यः। ई॒म्। अ॒ङ्ग। वेद॑। अ॒स्य। वा॒मस्य॑। निऽहि॑तम्। प॒दम्। वेः। शी॒र्ष्णः। क्षी॒रम्। दु॒ह्र॒ते॒। गावः॑। अ॒स्य॒। व॒व्रिम्। वसा॑नाः। उ॒द॒कम्। प॒दा। अ॒पुः॒। १४.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अङ्ग) हे प्यारे ! (इह) इस [ब्रह्म विषय] में (ब्रवीतु) वह बोले, (यः) जो [पुरुष] (अस्य) इस (वामस्य) मनोहर (वेः) चलनेवाले [वा पक्षी रूप सूर्य] के (निहितम्) ठहराये हुए (पदम्) मार्ग को (ईम्) सब प्रकार (वेद) जानता है। (गावः) किरणें (अस्य) इस [सूर्य] के (शीर्ष्णः) मस्तक से (क्षीरम्) जल को (दुह्रते) दुहती [देती] हैं, [जिस] (उदकम्) जल को (वव्रिम्) रूप [सूर्य के प्रकाश] को (वसानाः) ओढ़ती हुई [उन किरणों] ने (पदा) [अपने] पैर [नीचे भाग] से (अपुः) पिया था ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विज्ञानी पुरुष जानते हैं कि ईश्वरीय नियम से किरणों द्वारा जल सूर्य मण्डल में पहुँच कर फिर भूमि पर बरसता है, जिस से सब प्राणी अन्न आदि पाकर जीवन करते हैं ॥५॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।७ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(इह) अस्मिन् ब्रह्मविषये (ब्रवीतु) वदतु (यः) विद्वान् (ईम्) सर्वतः (अङ्ग) सम्बोधने (वेद) जानाति (अस्य) दृश्यमानस्य (वामस्य) म० १। मनोहरस्य (निहितम्) ब्रह्मणा स्थापितम् (पदम्) गन्तव्यं मार्गम् (वेः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। वा गतिगन्धनयोः−इण्, डित्। गन्तुः सूर्यस्य (शीर्ष्णः) मस्तकात् (क्षीरम्) जलम् (दुह्रते) बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। रुडागमः। दुहते। पूरयन्ति (गावः) किरणाः (अस्य) (वव्रिम्) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा० ३।२।१७१। वृञ् वरणे-कि, द्विर्वचनम्, कित्वाद् गुणाभावः, यणादेशः। वव्रिरिति रूपनाम वृणोतीति सतः-निरु० २।९। वरणीयं रूपं प्रकाशम्। (वसानाः) अ० ३।१२।५। आच्छादयन्तः (उदकम) जलम् (पदा) पादेन। मूलेन (अपुः) पा पाने−लुङ्। पीतवन्तः ॥
०६ पाकः पृच्छामि
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पाकः॑ पृच्छामि॒ मन॒साऽवि॑जानन्दे॒वाना॑मे॒ना निहि॑ता प॒दानि॑।
व॒त्से ब॒ष्कयेऽधि॑ स॒प्त तन्तू॒न्वि त॑त्निरे क॒वय॒ ओत॒वा उ॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
पाकः॑ पृच्छामि॒ मन॒साऽवि॑जानन्दे॒वाना॑मे॒ना निहि॑ता प॒दानि॑।
व॒त्से ब॒ष्कयेऽधि॑ स॒प्त तन्तू॒न्वि त॑त्निरे क॒वय॒ ओत॒वा उ॑ ॥
०६ पाकः पृच्छामि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Simple, not discerning (vi-jñā) with the mind, I ask about the thus
set-down tracks of the gods; over the yearling (? baṣkáya) calf have
the poets stretched out seven lines (tántu) for weaving.
Notes
Griffith
Unripe in mind, in spirit undiscerning, I ask of these the Gods’ established places. High up above the yearling Calf the sages, to form a web, their own seven threads have woven.
पदपाठः
पाकः॑। पृ॒च्छा॒मि॒। मन॑सा। अवि॑ऽजानन्। दे॒वाना॑म्। ए॒ना। निऽहि॑ता। प॒दानि॑। व॒त्से। ब॒ष्कये॑। अधि॑। स॒प्त। तन्तू॑न्। वि। त॒त्नि॒रे॒। क॒वयः॑। ओत॒वै। ऊं॒ इति॑। १४.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अविजानन्) अविज्ञानी (पाकः) रक्षा के योग्य [बालक] मैं (देवानाम्) विद्वानों के (मनसा) मनन के साथ (निहिता) रक्खे हुए (एना) इन (पदानि) पदों [पदचिह्नों] को (पृच्छामि) पूँछता हूँ। (कवयः) बुद्धिमानों ने (बष्कये) चलने योग्य (वत्से) निवासस्थान [संसार] के बीच (सप्त) [अपने] सात (तन्तून्) तन्तुओं [फैले हुए तन्तुरूप इन्द्रियों, त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] को (अधि) अधिक-अधिक (ओतवै) बुनने के लिये (उ) ही (वि) विविध प्रकार (तत्निरे) फैलाया था ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विनीत ब्रह्मचारी जन आचार्यों से उन वेदविहित मार्गों को खोजें, जिन पर महात्माओं ने चल कर उन्नति की और उत्तराधिकारियों के लिये आगे बढ़ने का उदाहरण छोड़ा है ॥६॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में ५ वाँ है, (तत्निरे) के स्थान पर वहाँ [तत्रिरे] है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(पाकः) इण्भीकापा०। उ० ३।४३। पा रक्षणे पा पाने वा-कन्। यद्वा, डुपचष् पाके-घञ्। रक्षणीयो बालकः। ब्रह्मचर्यादितपसा परिपचनीयोऽहम्-दयानन्दः (पृच्छामि) जिज्ञासे (मनसा) मननेन सह (अविजानन्) न विजानन् (देवानाम्) दिव्यानां विदुषाम् (एना) एनानि (निहिता) स्थापितानि (पदानि) पदचिह्नानि। पत्तुं प्राप्तुं ज्ञातुं योग्यानि-द० (वत्से) वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। वस निवासे-स प्रत्ययः निवासे संसारे। अपत्ये-द० (बष्कये) वलिमलितनिभ्यः कयन्। उ० ४।९९। वष्क गतौ दर्शने च-कयन्। गन्तव्ये। द्रष्टव्ये-द० (अधि) अधिकम् (सप्त) (तन्तून्) तन्तुरूपाणि त्वचादिसप्तेन्द्रियाणि (वि) विविधम् (तत्निरे) लिटि छान्दसं रूपम्। तेनिरे। विस्तारितवन्तः (कवयः) मेधाविनः (ओतवै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० ३।४।९। वेञ् तन्तुसन्ताने-तवै। वातुम्। विस्ताराय-द० (उ) वितर्के ॥
०७ अचिकित्वांश्चिकितुषश्चिदत्र कवीन्पृच्छामि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अचि॑कित्वांश्चिकि॒तुष॑श्चि॒दत्र॑ क॒वीन्पृ॑च्छामि वि॒द्वनो॒ न वि॒द्वान्।
वि यस्त॒स्तम्भ॒ षडि॒मा रजां॑स्य॒जस्य॑ रू॒पे किमपि॑ स्वि॒देक॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अचि॑कित्वांश्चिकि॒तुष॑श्चि॒दत्र॑ क॒वीन्पृ॑च्छामि वि॒द्वनो॒ न वि॒द्वान्।
वि यस्त॒स्तम्भ॒ षडि॒मा रजां॑स्य॒जस्य॑ रू॒पे किमपि॑ स्वि॒देक॑म् ॥
०७ अचिकित्वांश्चिकितुषश्चिदत्र कवीन्पृच्छामि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I, not understanding (cit), ask here the understanding poets, I
unknowing (vid), them that know; he who propped asunder these six
spaces (rájas), in the form of the goat (? ajá)—was that also alone?
Notes
The sense of the last pāda is utterly obscure, and the version given
only tentative; ajá is perhaps here really the ‘unborn one,’ as the
translators render it. RV. reads in a ácikitvāñ cik-, and, in
b, vidmáne, for which our vidvánas is apparently a mere
corruption.
Griffith
Here, ignorant, I ask the wise who know it, as one who knows not, for the sake of knowledge, What is That One, who in the Unborn’s image hath stablished and fixed firm this world’s six regions.
पदपाठः
अचि॑कित्वान्। चि॒कि॒तुषः॑। चि॒त्। अत्र॑। क॒वीन्। पृ॒च्छा॒मि॒। वि॒द्वनः॑। न। वि॒द्वान्। वि। यः। त॒स्तम्भ॑। षट्। इ॒मा। रजां॑सि। अ॒जस्य॑। रू॒पे। किम्। अपि॑। स्वि॒त्। एक॑म्। १४.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अचिकित्वान्) अज्ञानी मैं (चिकितुषः) ज्ञानवान् (कवीन्) बुद्धिमानों को (चित्) ही (अत्र) इस (ब्रह्म विषय) में (पृच्छामि) पूँछता हूँ, (विद्वान्) विद्वान् (विद्वनः) विद्वानों को (न) जैसे पूँछता है जिस [परमेश्वर] ने (इमा) इन (षट्) छह [पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और ऊपर नीचे] (रजांसि) लोकों को (वि) अनेक प्रकार (तस्तम्भ) थाँभा था, (अजस्य) [उस] जन्मरहित [परमेश्वर] के (रूपे) स्वरूप में (किम् स्वित्) कौन सा (अपि) निश्चय करके (एकम्) एक [सर्वव्यापक ब्रह्म था]।अथवाजिस [सूर्य] ने इन छह लोकों को थाँभा था, (अजस्य) [उस] चलनेवाले [सूर्य] के (रूपे) रूप [मण्डल] के भीतर कौन सा निश्चय करके एक [सर्वव्यापक ब्रह्म था] ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे विद्वान् विद्वानों से पूँछते हैं, वैसे ही श्रद्धापूर्वक ब्रह्मजिज्ञासु ब्रह्मज्ञानियों से निश्चय करे कि क्या वह अकेला परब्रह्म है, जिस ने इन सब लोकों को रचकर नियम में रक्खा है, अथवा वह अकेला परमात्मा इस सूर्य में भी शक्ति दे रहा है, जो सूर्य अपने आकर्षण-धारण में अनेक लोकों को थाँभ रहा है, और वैसे ही जिस सूर्य को अनेक लोक थाँभ रहे हैं ॥७॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में १।१६४।६ है। (विद्वनः) के स्थान पर वहाँ [विद्मने] है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(अचिकित्वान्) कित निवासे रोगापनयने ज्ञाने च-क्वसु। अविद्वान् (चिकितुषः) कित-क्वसु। विदुषः पुरुषान् (चित्) एव (अत्र) ब्रह्मविषये (कवीन्) मेधाविनः (पृच्छामि) अहं जिज्ञासे (विद्वनः) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ० ४।११४। विद ज्ञाने-क्वनिप्। विदुषः पुरुषान् (न) इव (वि) विविधम् (यः) अजः (तस्तम्भ) स्तम्भितवान्। नियमितवान्। (षट्) पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरोर्ध्वनीचानि (इमा) इमानि (रजांसि) लोकान्-निरु० ४।१९। (अजस्य) अजः=अजनः-निरु० १२।२९। अ० ९।५।१। जन्मरहितस्य परमेश्वरस्य। गतिशीलस्य सूर्यस्य। प्रकृतेर्जीवस्य वा−इति दयानन्दः (रूपे) स्वरूपे। मण्डले (किम्) अपि (स्वित्) (एकम्) इण्भीकापा०। उ० ३।४३। इण् गतौ-कन्। अद्वितीयं सर्वव्यापकं ब्रह्म ॥
०८ माता पितरमृत
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मा॒ता पि॒तर॑मृ॒त आ ब॑भाज धी॒त्यग्रे॒ मन॑सा॒ सं हि ज॒ग्मे।
सा बी॑भ॒त्सुर्गर्भ॑रसा॒ निवि॑द्धा॒ नम॑स्वन्त॒ इदु॑पवा॒कमी॑युः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मा॒ता पि॒तर॑मृ॒त आ ब॑भाज धी॒त्यग्रे॒ मन॑सा॒ सं हि ज॒ग्मे।
सा बी॑भ॒त्सुर्गर्भ॑रसा॒ निवि॑द्धा॒ नम॑स्वन्त॒ इदु॑पवा॒कमी॑युः ॥
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Whitney
Translation
- The mother portioned the father in righteousness, for with meditation
(dhītí), with mind, came together in the beginning she, repugnant,
womb-sapped, pierced; paying homage, verily, they went unto
encouragement.
Notes
The version is in part only mechanical. Ppp. combines ṛtā ”babh- in
a, and reads jajñe at end of b.
Griffith
The Mother gave the Sire his share of Order. With thought at first she wedded him in spirit. She, coyly loth, was filled with dew prolific. With adoration men approached to praise her.
पदपाठः
मा॒ता। पि॒तर॑म्। ऋ॒ते। आ। ब॒भा॒ज॒। धी॒ती। अग्रे॑। मन॑सा। सम्। हि। ज॒ग्मे। सा। बी॒भ॒त्सुः। गर्भ॑ऽरसा। निऽवि॑ध्दा। नम॑स्वन्तः। इत्। उ॒प॒ऽवा॒कम्। ई॒युः॒। १४.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (माता) निर्मात्री [पृथिवी] ने (ऋते) जल में [वर्तमान] (पितरम्) रक्षक [सूर्य] को (आ) मर्यादापूर्वक (बभाज) पृथक् किया, (हि) क्योंकि वह [पृथिवी] (अग्रे) पहिले [ईश्वरीय] (धीती) आधार और (मनसा) विज्ञान के साथ [सूर्य से] (सम् जग्मे) मिली हुई थी। [फिर] (सा) वह [पृथिवी, सूर्य] (बीभत्सुः) बन्धन की इच्छा करनेवाली (गर्भरसा) रस [जलादि, उत्पादन समर्थ्य] को गर्भ में रखनेवाली और (निविद्धा) नियम अनुसार ताड़ी गयी [दूर हटाई गयी थी] [इसी प्रकार] (नमस्वन्तः) झुकाव रखनेवाले [सूर्य का आकर्षण रखनेवाले दूसरे लोक] (इत्) भी (उपवाकम्) वाक्य अवस्था [पिण्ड बनने से नाम, स्थान आदि] को (ईयुः) प्राप्त हुए ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रलय में सब पदार्थ परमाणुरूप से प्रकृति में लीन रहते हैं। सृष्टि में पहिले जल होता है, सूर्य और पृथिवी एक पिण्ड में मिले रहते हैं, फिर दोनों अलग-अलग हो जाते हैं। पृथिवी और सूर्य की पृथक्ता और आकर्षण से वर्षा, शीत और ग्रीष्म ऋतुएँ संसार को सुख पहुँचाते रहते हैं। यही नियम सूर्यलोक सम्बन्धी दूसरे लोकों का है ॥८॥ मनु भगवान् कहते हैं-अध्याय १। श्लोक ८, ९ ॥ सोऽभिध्याय शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः। अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् ॥१॥ तदण्डमभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम्। तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ॥२॥ उस [परमात्मा] ने अपने शरीर [सत्ता] से नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा करके ध्यानमात्र से पहिले जल उत्पन्न किया, उस में बीज को छोड़ दिया ॥१॥ वह [बीज] चमकीला सहस्रों किरणों से पूर्ण प्रकाशवाला अण्डा हुआ, उस [अण्डे] में ब्रह्मा [परमात्मा] सब लोकों का पितामह अपने आप प्रकट हुआ [सब सृष्टि का आदि कारण परमात्मा ही जान पड़ा] ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(माता) सर्वनिर्मात्री पृथिवी (पितरम्) पालकं सूर्यम् (ऋते) ऋतमुदकम्-निघ० १।१२। जले वर्त्तमानम् (आ) सीमायाम् (बभाज) भज भागसेवयोः-लिट्। विभक्तं कृतवती (धीती) धीङ् आधारे दधातेर्वा-क्तिन्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। पूर्वसवर्णदीर्घः। धीत्या। आधारेण। धारणेन (अग्रे) सृष्टेः प्राक् (मनसा) विज्ञानेन (हि) किल। यस्मात् (सम् जग्मे) संश्लिष्टा बभूव। (बीभत्सुः) मानबधदान्शान्भ्यो दीर्घश्चाभ्यासस्य। पा० ३।१।६। बध बन्धने निन्दायाम् च-सन्, अभ्यासस्य चेकारस्य दीर्घः। बन्धनेच्छुका (गर्भरसा) रसः=उदकम्-निघ० १।१२। जलमुत्पादनसामर्थ्यं गर्भे यस्याः सा (निविद्धा) व्यध ताडने-क्त। नियमेन ताडिता दूरीकृता सूर्येण। नितरां विद्युदादिभिस्ताडिता−इति दयानन्दः (नमस्वन्तः) णम प्रह्वत्वे शब्दे च-असुन्। नमनवन्तः। सूर्याकर्षणे वर्तमाना लोकाः (इत्) एव (उपवाकम्) वच परिभाषणे-घञ्, कुत्वम्। वाक्यावस्थां नामस्थानादिरूपाम्। (ईयुः) इण् गतौ-लिट्। प्रापुः ॥
०९ युक्ता मातासीद्धुरि
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यु॒क्ता मा॒तासी॑द्धु॒रि दक्षि॑णाया॒ अति॑ष्ठ॒द्गर्भो॑ वृज॒नीष्व॒न्तः।
अमी॑मेद्व॒त्सो अनु॒ गाम॑पश्यद्विश्वरू॒प्यं᳡ त्रि॒षु योज॑नेषु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यु॒क्ता मा॒तासी॑द्धु॒रि दक्षि॑णाया॒ अति॑ष्ठ॒द्गर्भो॑ वृज॒नीष्व॒न्तः।
अमी॑मेद्व॒त्सो अनु॒ गाम॑पश्यद्विश्वरू॒प्यं᳡ त्रि॒षु योज॑नेषु ॥
०९ युक्ता मातासीद्धुरि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The mother was yoked to the pole of the sacrificial gift; the embryo
stood among the wiles (? vṛjanī́); the calf bleated, looked after the
cow of all forms, in the three distances (yójana).
Notes
⌊Kaṭha variants, WZKM. xii. 282, vṛjanéṣv antáḥ and yojáneṣu.—Cf.
IFA. vi. 180, as noted above.⌋
Griffith
Yoked was the Mother to the boon Cow’s car-pole; in humid folds of cloud the infant rested. Then the Calf lowed and looked upon the Mother, the Cow who wears all shapes in three directions.
पदपाठः
यु॒क्ता। मा॒ता। आ॒सी॒त्। धु॒रि। दक्षि॑णायाः। अति॑ष्ठत्। गर्भः॑। वृ॒ज॒नीषु॑। अ॒न्तः। अमी॑मेत्। व॒त्सः। अनु॑। गाम्। अ॒प॒श्य॒त्। वि॒श्व॒ऽरू॒प्य᳡म्। त्रि॒षु। योजने॑षु। १४.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (माता) निर्माण करनेवाली [पृथिवी] (दक्षिणायाः) [अपनी] शीघ्र गति से (धुरि)) कष्ट में (युक्ता) युक्त (आसीत्) हुई, (गर्भः) गर्भ [के समान सूर्य] (वृजनीषु अन्तः) रोकने की शक्तियों [आकर्षणों] के भीतर (अतिष्ठत्) स्थिर हुआ। (वत्सः) निवासदाता [सूर्य] ने (विश्वरूप्यम्) सब रूपों [श्वेत, नील, पीत आदि सात वर्णों] में रहनेवाली (गाम्) किरण को (त्रिषु) तीनों [ऊँचे, नीचे और मध्य] (योजनेषु) लोकों में (अनु) अनुकूलता से (अमीमेत्) फैलाया और [उन लोकों को] (अपश्यत्) बाँधा [आकर्षित किया] ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - दूरदर्शी परमेश्वर ने पृथिवी की गति विचल न होने के लिये सूर्य को ऐसा बनाया कि जैसे गर्भ का बालक माता के उदर को पकड़े रहता है, वैसे ही सूर्य भूमि आदि लोकों को अपनी श्वेत, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश और चित्र किरणों द्वारा अपने आकर्षण में रखता है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(युक्ता) संयुक्ता (माता) निर्मात्री भूमिः। पृथिवी-दयानन्दः। (आसीत्) (धुरि) धुर्वी हिंसायाम्−क्विप्। हिंसने। कष्टे। या धरति तस्याम् द० (दक्षिणायाः) अ० ५।७।१। दक्ष वृद्धौ शैघ्र्ये च−इनन्, टाप्। शीघ्रगतेः (अतिष्ठत्) (गर्भः) गर्भरूपः सूर्यः (वृजनीषु) अ० ७।५०।७। कॄपॄवृजि०। उ० २।८१। वृजी वर्जने−क्यु, ङीष्। वर्जनशक्तिषु। आकर्षणेषु। वर्जनीयासु कक्षासु-दयानन्दः (अन्तः) मध्ये (अमीमेत्) डुमिञ् प्रक्षेपणे-लङ्। दीर्घः श्लुश्च छान्दसः। अमीमेत्। अमिनोत् प्रक्षिप्तवान्। विस्तारितवान् (वत्सः) वस निवासे-स। निवासयिता सूर्यः (अनु) अनुकूलतया (गाम्) किरणम् (अपश्यत्) पश बन्धनग्रन्थनयोः−श्यन् छान्दसः। अपीपशत्। बद्धवान्। आकर्षितवान् (विश्वरूप्यम्) सर्वरूपेषु श्वेतनीलपीतादिषु भवम् (त्रिषु) उच्चनीचमध्येषु (योजनेषु) लोकेषु। बन्धनेषु-द० ॥
१० तिस्रो मतॄस्त्रीन्पितॄन्बिभ्रदेक
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ति॒स्रो म॒तॄस्त्रीन्पि॒तॄन्बिभ्र॒देक॑ उ॒र्ध्वस्त॑स्थौ॒ नेमव॑ ग्लापयन्त।
म॒न्त्रय॑न्ते दि॒वो अ॒मुष्य॑ पृ॒ष्ठे वि॑श्व॒विदो॒ वाच॒मवि॑श्वविन्नाम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ति॒स्रो म॒तॄस्त्रीन्पि॒तॄन्बिभ्र॒देक॑ उ॒र्ध्वस्त॑स्थौ॒ नेमव॑ ग्लापयन्त।
म॒न्त्रय॑न्ते दि॒वो अ॒मुष्य॑ पृ॒ष्ठे वि॑श्व॒विदो॒ वाच॒मवि॑श्वविन्नाम् ॥
१० तिस्रो मतॄस्त्रीन्पितॄन्बिभ्रदेक ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The one, bearing three mothers [and] three fathers, stood
upright; verily they do not exhaust him; on the back of yon sky the
all-knowing ones talk a speech not found by all.
Notes
RV. reads glāpayanti at end of b ⌊and the translation follows that
reading⌋, and, for d, viśvavídaṁ vā́cam áviśvaminvām. The
pada-text reads glapayanta; Prāt. iv. 93 notes the case. Ppp. agrees
with RV. in glāpayanti and viśvavidam.
Griffith
Bearing three mothers and three fathers, single he stood erect: they never made him weary. On yonder heaven’s high ridge they speak together in speech not known to all, themselves all-knowing.
पदपाठः
ति॒स्रः। मा॒तृः। त्रीन्। पि॒तृन्। बिभ्र॑त्। एकः॑। ऊ॒र्ध्वः। त॒स्थौ॒। न। ई॒म्। अव॑। ग्ल॒प॒य॒न्त॒। म॒न्त्रय॑न्ते। दि॒वः। अ॒मुष्य॑। पृ॒ष्ठे। वि॒श्व॒ऽविदः॑। वाच॑म्। अवि॑श्वऽविन्नाम्। १४.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (एकः) एक [सर्वव्यापक परमेश्वर] (तिस्रः) तीन [सत्त्व, रज और तमोगुण रूप] (मातॄः) निर्माणशक्तियों और (त्रीन्) तीन [ऊँचे, नीचे और मध्य, अथवा भूत, भविष्यत् और वर्तमान] (पितॄन्) पालन करनेवाले [लोकों वा कालों] को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (ऊर्ध्वः) ऊपर (तस्थौ) स्थित हुआ, (ईम्) इस [परमेश्वर] को वे [ऊपर कहे हुए] (न अव ग्लपयन्त=०−न्ति) कभी नहीं ग्लानि पहुँचाते हैं। (विश्वविदः) जगत् के जाननेवाले लोग (अमुष्य) उस (दिवः) प्रकाशमान [सूर्य] के (पृष्ठे) पीठ [पीठ समान सहारा देनेवाले ब्रह्म] के विषय में (अविश्वविन्नाम्) सब को न मिलनेवाली (वाचम्) वाणी को (मन्त्रयन्ते) मनन करते हैं ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - एक परमात्मा ही संसार के सब कालों और सब लोकों का स्वामी, सूर्य आदि का रचनेवाला है, उस परब्रह्म को सृष्टिविद्या जाननेवाले विज्ञानी जानते हैं, सामान्य मनुष्य नहीं ॥१०॥ (ग्लापयन्त, विश्वविदः, अविश्वविन्नाम्) के स्थान पर [ग्लापयन्ति, विश्वविदम्, अविश्वमिन्वाम्] पद हैं−ऋ० १।१६४।१० ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०−(तिस्रः) सत्त्वरजस्तमोगुणरूपाः (मातॄः) निर्माणशक्तीः। (त्रीन्) उच्चनीचमध्यमान् भूतभविष्यद्वर्तमानान् वा। (पितॄन्) पालकान् लोकान् कालान् वा (बिभ्रत्) धरन् सन् (एकः) अद्वितीयः सर्वव्यापकः परमेश्वरः। सूत्रात्मा वायुः-द० (ऊर्ध्वः) उच्चः (तस्थौ) स्थितवान् (न) निषेधे (ईम्) एनम् (अव) निश्चये। अनादरे (ग्लपयन्त) ग्लै हर्षक्षये-णिच्, लट्। ग्लपयन्ति। ग्लानिं प्रापयन्ति (मन्त्रयन्ते) अ० ९।८।१। मन्त्रं मननं कुर्वन्ति (दिवः) दीप्यमानस्य सूर्यस्य (अमुष्य) दूरे स्थितस्य सूर्यस्य-द० (पृष्ठे) पृष्ठरूपाधारे परमेश्वरविषये (विश्वविदः) जगद्वेत्तारः (वाचम्) वाणीम् (अविश्वविन्नाम्) विद्लृ लाभे-क्त। असर्वैः प्राप्ताम् ॥
११ पञ्चारे चक्रे
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पञ्चा॑रे च॒क्रे प॑रि॒वर्त॑माने॒ यस्मि॑न्नात॒स्थुर्भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
तस्य॒ नाक्ष॑स्तप्यते॒ भूरि॑भारः स॒नादे॒व न च्छि॑द्यते॒ सना॑भिः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
पञ्चा॑रे च॒क्रे प॑रि॒वर्त॑माने॒ यस्मि॑न्नात॒स्थुर्भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
तस्य॒ नाक्ष॑स्तप्यते॒ भूरि॑भारः स॒नादे॒व न च्छि॑द्यते॒ सना॑भिः ॥
११ पञ्चारे चक्रे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- On the five-spoked circumvolving wheel on which stood all
existences—its axle, much-burdened, is not heated; even from of old it
is not severed with the nave.
Notes
RV. and Ppp. count this verse as 13, our version inverting the order of
11-13. In b, RV. reads tásminn ā́ tasthur bh. v., and Ppp.
samārohanti bh. v.; and RV. has śīryate for chidyate in d.
Griffith
Upon the five-spoked wheel revolving ever, whereon all crea- tures rest and are dependent, The axle, heavy-laden, is not heated: the nave from ancient time remains unheated.
पदपाठः
पञ्च॑ऽअरे। च॒क्रे। प॒रि॒ऽवर्त॑माने। यस्मि॑न्। आ॒ऽत॒स्थुः। भुव॑नानि। विश्वा॑। तस्य॑। न। अक्षः॑। त॒प्य॒ते॒। भूरि॑ऽभारः। स॒नात्। ए॒व। न। छि॒द्य॒ते॒। सऽना॑भिः। १४.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पञ्चारे) [पृथिवी आदि पाँच तत्त्व रूप] पाँच अरावाले (परिवर्तमाने) सब ओर घूमते हुए (यस्मिन्) जिस (चक्रे) पहिये पर [पहिये समान जगत् में] (विश्वा) भुवनानि) सब लोक (आतस्थुः) ठहरे हुए हैं। (तस्य) उस [चक्ररूप जगत्] का (भूरिभारः) बड़े बोझवाला (सनाभिः) नाभि में लगा हुआ (अक्षः) धुरा [धुरा रूप परमेश्वर] (सनात् एव) सदा से ही (न तप्यते) न तो तपता है और (न छिद्यते) न टूटता है ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश पाँच भूतों से निर्मित जगत् में सब लोक स्थित हैं, उस जगत् का स्वामी अजर-अमर परमात्मा है। और जैसे रथ में अधिक बोझ लादने से धुरा तपकर टूट जाता है, वैसे परमेश्वर इस सृष्टि का इतना बोझ अनादि काल से उठाने पर भी क्लेश नहीं पाता ॥११॥ (यस्मिन्, छिद्यते) के स्थान पर [तस्मिन्, शीर्यते] हैं−ऋ० १।१६४।१३ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ११−(पञ्चारे) पृथिव्यादिपञ्चभूतरूपैररैर्युक्ते (चक्रे) चक्रवत्परिवर्तिनि संसारे। चक्रवद्गम्यमाने-द० (परिवर्तमाने) परिभ्राम्यति सति (यस्मिन्) (आतस्थुः) अधितिष्ठन्ति (भुवनानि) लोकाः (विश्वा) सर्वाणि (तस्य) (न) निषेधे (अक्षः) अक्षू व्याप्तौ-अच्। चक्रावयवः (तप्यते) तप्तो भवति। पीड्यते (भूरिभारः) सकलभुवनवहनेन प्रभूतभारः (सनात्) सदा (एव) (छिद्यते) भिद्यते (सनाभिः) नाभौ चक्रमध्ये स्थितः ॥
१२ पञ्चपादं पितरम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पञ्च॑पादं पि॒तरं॒ द्वाद॑शाकृतिं दि॒व आ॑हुः॒ परे॒ अर्धे॑ पुरी॒षिण॑म्।
अथे॒मे अ॒न्य उप॑रे विचक्ष॒णे स॒प्तच॑क्रे॒ षड॑र आहु॒रर्पि॑तम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
पञ्च॑पादं पि॒तरं॒ द्वाद॑शाकृतिं दि॒व आ॑हुः॒ परे॒ अर्धे॑ पुरी॒षिण॑म्।
अथे॒मे अ॒न्य उप॑रे विचक्ष॒णे स॒प्तच॑क्रे॒ षड॑र आहु॒रर्पि॑तम् ॥
१२ पञ्चपादं पितरम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The five-footed father, of twelve shapes (-ā́kṛti), they call rich
in ground (purīṣín) in the far (pára) half of the sky; then these
others call [him] set (árpita) in the lower outlook that is
seven-wheeled, six-spoked.
Notes
RV. and Ppp. have the easier and better reading vicakṣaṇám in c,
and Ppp. reads before it upari. ⌊The Kaṭha reading also is úpari,
WZKM. xii. 282.⌋ Read in b páre (an accent sign slipped out of
place). ⌊See Roth, KZ. xxvi. 66, and Windisch as cited in the
introduction; cf. also IFA. vi. 181, as noted above.⌋
Griffith
They call him in the farther half of heaven the Sire five-footed, of twelve forms, wealthy in watery store. These others, later still, say that he takes his stand upon a seven- wheeled car, six-spoked, whose sight is clear.
पदपाठः
पञ्च॑ऽपादम्। पि॒तर॑म्। द्वाद॑शऽआकृतिम्। दि॒वः। आ॒हुः। परे॑। अर्धे॑। पु॒री॒षिण॑म्। अथ॑। इ॒मे। अ॒न्ये। उप॑रे। वि॒ऽच॒क्ष॒णे। स॒प्तऽच॑क्रे। षट्ऽअ॑रे। आ॒हुः॒। अर्पि॑तम्। १४.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- जगती
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पञ्चपादम्) पाँच [पृथिवी आदि पाँच तत्त्वों] में गतिवाले (पितरम्) पालन करनेवाले, (द्वादशाकृतिम्) बारह [पाँच ज्ञानेन्द्रिय−कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका और पाँच कर्मेन्द्रिय−वाक्, हाथ, पाँव, पायु और उपस्थ और दो मन और बुद्धि] को आकार देनेवाले, (पुरीषिणम्) पूर्तिवाले [परमेश्वर] को (दिवः) प्रत्येक व्यवहार की (परे) परम (अर्धे) ऋद्धि [वृद्धि] के बीच (आहुः) वे [ऋषि लोग] बताते हैं। (अथ) और (इमे) यह (अन्ये) दूसरे [विवेकी] (उपरे) उपरति [निवृत्ति, विषयों से वैराग्य] वाले, (सप्तचक्रे) सात [दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख-अ० १०।२।६] के द्वारा तृप्त होनेवाले, (षडरे) छह [पूर्वादि चार ऊपर और नीचे की दिशाओं] में गतिवाले (विचक्षणे) विविध देखनेवाले [पण्डित योगी] के भीतर [परमात्मा को] (अर्पितम्) जड़ा हुआ (आहुः) बताते हैं ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - योगी विद्वान् जन परमात्मा को अपने बाहिर और भीतर साक्षात् करके परम आनन्द पाते हैं ॥१२॥ (विचक्षणे) के स्थान पर ऋग्वेद में [विचक्षणम्] पद है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १२−(पञ्चपादम्) पञ्चसु पृथिव्यादितत्त्वेषु गतिमन्तम् (पितरम्) पालकम्। (द्वादशाकृतिम्) पञ्चज्ञानकर्मेन्द्रियमनोबुद्धिनामाकृती रूपं यस्मात् तम् (दिवः) दिवु व्यवहारे द्युतौ च-डिवि। प्रत्येकव्यवहारस्य (परे) उत्कृष्टे (अर्धे) ऋधु वृद्धौ-घञ्। ऋद्धौ। वृद्धौ (पुरीषिणम्) शॄपॄभ्यां किच्च। उ० ४।२७। पॄ पालनपूरणयोः−ईषन्, इनि। पूर्तिमन्तं परमेश्वरम् (अथ) (इमे) (अन्ये) विवेकिनः (उपरे) उपरमतेर्डप्रत्ययः। उपरतिर्निवृत्तिर्विषयवैराग्यं यस्य तस्मिन् (विचक्षणे) अनुदात्तेतश्च हलादेः। पा० ३।२।१४९। वि+चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि दर्शने च-युच्। विविधं द्रष्टरि पण्डिते। (सप्तचक्रे) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। चक तृप्तौ-रन्। सप्तभिः शीर्षण्यच्छिद्रैर्द्वारा तृप्तियुक्ते। (षडरे) ऋ गतौ-अच्। उच्चनीचसहितासु पूर्वादिचतसृषु दिक्षु अरो गतिर्यस्य तस्मिन् (आहुः) (अर्पितम्) स्थापितम् ॥
१३ द्वादशारं नहि
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द्वाद॑शारं न॒हि तज्जरा॑य॒ वर्व॑र्ति च॒क्रं परि॒ द्यामृ॒तस्य॑।
आ पु॒त्रा अ॑ग्ने मिथु॒नासो॒ अत्र॑ स॒प्त श॒तानि॑ विंश॒तिश्च॑ तस्थुः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
द्वाद॑शारं न॒हि तज्जरा॑य॒ वर्व॑र्ति च॒क्रं परि॒ द्यामृ॒तस्य॑।
आ पु॒त्रा अ॑ग्ने मिथु॒नासो॒ अत्र॑ स॒प्त श॒तानि॑ विंश॒तिश्च॑ तस्थुः ॥
१३ द्वादशारं नहि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The twelve-spoked wheel—for that is not to be worn out—revolves
greatly about the sky of righteousness; there, O Agni, stood the sons,
paired, seven hundred and twenty.
Notes
Here the ’twelve’ and the ‘seven hundred and twenty’ are plainly the
months, and the days and nights, of the year of 360 days. The verse, as
noted above, is vs. 11 in RV. and Ppp. The more proper reading in b
would be várvartti.
Griffith
Formed with twelve spokes, too strong for age to weaken, this wheel of during Order rolls round heaven. Herein established, joined in pairs together, seven hundred sons and twenty stand, O Agni.
पदपाठः
द्वाद॑शऽअरम्। न॒हि। तत्। जरा॑य। वर्व॑र्ति। च॒क्रम्। परि॑। द्याम्। ऋ॒तस्य॑। आ। पु॒त्राः। अ॒ग्ने॒। मि॒थु॒नासः॑। अत्र॑। स॒प्त। श॒तानि॑। विं॒श॒तिः। च॒। त॒स्थुः॒। १४.१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतस्य) सत्य [सत्यस्वरूप ब्रह्म] की (जराय) जरा [पुरानापन] करने के लिये (द्याम् परि) आकाश के सब ओर वर्तमान (द्वादशारम्) बारह [महीने रूप] अरेवाला (तत्) वह (चक्रम्) चक्र [संवत्सर अर्थात् काल] (नहि) नहीं (वर्वर्ति) कतरा-कतरा कर घूमता है। (अग्ने) हे विद्वान् ! (अत्र) इस [संवत्सर] में (सप्त शतानि) सात सौ (च) और (विंशतिः) बीस (मिथुनासः) जोड़े-जोड़े (पुत्राः) पुत्र [संवत्सर के पुत्र रूप दिन और रात के जोड़] (आ तस्थुः) भले प्रकार खड़े हुए हैं ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - अनादि अनन्त परमेश्वर को आकाश में सब ओर घूमता हुआ काल वश में नहीं कर सकता, जैसे वह संसार के अन्य पदार्थों को घात लगा लगाकर पकड़ लेता है ॥१३॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में ११ वाँ है ॥ इस मन्त्र का कुछ भाग-निरु० ४।२७। में व्याख्यात है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३−(द्वादशारम्) द्वादश अरा मासा अवयवा यस्य तं संवत्सरम्-दयानन्दभाष्यम् (नहि) (तत्) (जराय) हानये (वर्वर्ति) नित्यं कौटिल्ये गतौ। पा० ३।१।२३। वृतु वर्तने-यङ्लुकि। कुटिलं भ्राम्यति (चक्रम्) चक्रवद् वर्तमानः संवत्सरः (परि) सर्वतः (द्याम्) आकाशम् (ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य ब्रह्मणः। सत्यस्य कारणस्य-द० (आ) समन्तात् (पुत्राः) तनया इव-द० (अग्ने) विद्वान् (मिथुनासः) युग्मरूपाः रात्रिदिवसाः (अत्र) संवत्सरे (सप्त) (शतानि) (विंशतिः) (च) (तस्थुः) तिष्ठन्ति ॥
१४ सनेमि चक्रमजरम्
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सने॑मि च॒क्रम॒जरं॒ वि वा॑वृत उत्ता॒नायां॒ दश॑ यु॒क्ता व॑हन्ति।
सूर्य॑स्य॒ चक्षू॒ रज॑सै॒त्यावृ॑तं॒ यस्मि॑न्नात॒स्थुर्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सने॑मि च॒क्रम॒जरं॒ वि वा॑वृत उत्ता॒नायां॒ दश॑ यु॒क्ता व॑हन्ति।
सूर्य॑स्य॒ चक्षू॒ रज॑सै॒त्यावृ॑तं॒ यस्मि॑न्नात॒स्थुर्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥
१४ सनेमि चक्रमजरम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The unwasting wheel, with rim, rolls about; ten harnessed ones draw
upon the outstretched one (fem.); the sun’s eye goes surrounded with the
welkin (rájas), in which stood all existences.
Notes
Ppp. has vrajanti for vahanti in b, and, for d yasminn
ārpitā bhuvanāny ārpitā; RV. has tásminn ā́rpitā for our yásminn
ātasthúḥ. The Anukr. calls the verse simply a jagatī, though only two
of its pādas have 12 syllables.
Griffith
The wheel revolves, unwasting, with its felly: ten draw it, yoked to the far-stretching car-pole. Girt by the region moves the eye of Surya, on whom dependent rest all living creatures.
पदपाठः
सऽने॑मि। च॒क्रम्। अ॒जर॑म्। वि। व॒वृ॒ते॒। उ॒त्ता॒नाया॑म्। दश॑। यु॒क्ताः। व॒ह॒न्ति॒। सूर्य॑स्य। चक्षुः॑। रज॑सा। ए॒ति॒। आऽवृ॑तम्। यस्मि॑न्। आ॒ऽत॒स्थुः। भुव॑नानि। विश्वा॑। १४.१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- जगती
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [उस ब्रह्म में] (सनेमि) एकसी पुट्ठीवाला [पहिये का बाहिरी भाग वा चलाने का बल एक सा रखनेवाला], (अजरम्) शीघ्रगामी (चक्रम्) चक्र [चक्रसमान संवत्सर वा काल] (वि) खुला हुआ (ववृते=वर्तते) घूमता है, [उसी ब्रह्म में] (उत्तानायाम्) उत्तमता से फैली हुई [सृष्टि] के भीतर (दश) दस (युक्ताः) जुड़ी हुई [दिशाएँ] (वहन्ति) बहती हैं। [और उसी ब्रह्म में] (सूर्यस्य) सूर्य का (चक्षुः) नेत्र (रजसा) अन्तरिक्ष के साथ (आवृतम्) फैला हुआ (याति) चलता है, (यस्मिन्) जिस [ब्रह्म] के भीतर (विश्वा भुवनानि) सब लोक (आतस्थुः) यथावत् ठहरे हैं ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा में सब लोक समष्टिरूप से स्थित हैं, उसी में काल, दिशाएँ और सूर्य आदि व्यष्टिरूप से वर्तमान हैं ॥१४॥ (यस्मिन्, आतस्थुः) के स्थान पर ऋग्वेद में म० १४ [तस्मिन् आर्पिता] पद हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १४−(सनेमि) नियो मिः। उ० ४।४३। णीञ् प्रापणे-मि। समानचालनसामर्थ्ययुक्तम्। एकप्रकारबहिर्वलयम् (चक्रम्) म० २। रथाङ्गवत् संवत्सराख्यं कालाख्यं वा (अजरम्) अ० २।२९।७। ऋच्छेररः। उ० ३।१३१। अज गतिक्षेपणयोः-अरप्रत्ययः। शीघ्रगामि (वि) व्याप्य (ववृते) लटि लिट्। वर्तते (उत्तानायाम्) उत्+तनु विस्तारे-घञ् टाप्। उत्कृष्टतया विस्तृतायां जगत्याम् (दश) उच्चनीचान्तर्दिक् सहिताः पूर्वादिदिशाः। (युक्ताः) संयुक्ताः (वहन्ति) गच्छन्ति (सूर्यस्य) (चक्षुः) नेत्रस्थानीयं मण्डलम्। चक्षुः ख्यातेर्वा चष्टेर्वा-निरु० ४।३। (रजसा) अन्तरिक्षेण-निरु० १२।७। लोकैः सह-द० (एति) गच्छति (आवृतम्) वृणोतेः-क्त। व्याप्तम् (यस्मिन्) ब्रह्मणि (आतस्थुः) समन्तात् तिष्ठन्ति (भुवनानि) लोकाः (विश्वा) सर्वाणि ॥
१५ स्त्रियः सतीस्ताँ
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स्त्रियः॑ स॒तीस्ताँ उ॑ मे पुं॒सः आ॑हुः॒ पश्य॑दक्ष॒ण्वान्न वि चे॑तद॒न्धः।
क॒विर्यः पु॒त्रः स ई॒मा चि॑केत॒ यस्ता वि॑जा॒नात्स पि॒तुष्पि॒तास॑त् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स्त्रियः॑ स॒तीस्ताँ उ॑ मे पुं॒सः आ॑हुः॒ पश्य॑दक्ष॒ण्वान्न वि चे॑तद॒न्धः।
क॒विर्यः पु॒त्रः स ई॒मा चि॑केत॒ यस्ता वि॑जा॒नात्स पि॒तुष्पि॒तास॑त् ॥
१५ स्त्रियः सतीस्ताँ ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Them, being women, they declared (ah) to me to be men; he who hath
eyes may see, [but] the blind will not distinguish (vi-cit); the son
that is a poet, he verily understood (ā-cit); whoever knows those
things apart, he shall be [his] father’s father.
Notes
RV. and Ppp. put this verse after our vs. 16. It is found also in TA. i.
11. 4, with tā́ u in a, imā́s in c for īm ā́, and savitúḥ
p- in d. Some of our mss. (P.s.m.O.K.T.) reads pitúḥ p- in d;
we had the phrase once before, at ii. 1. 2, and the combination falls
under Prāt. ii. 73. We might expect, in d, tā́ḥ, referring to
stríyaḥ, but the pada-texts have tā́, as neuter pl.
Griffith
They told me these were males, though truly females. He who hath eyes sees this, the blind discerns not. The son who is a sage hath comprehended: who knows this rightly is his father’s father.
पदपाठः
स्त्रियः॑। स॒तीः। तान्। ऊं॒ इति॑। मे॒। पुं॒सः। आ॒हुः॒। पश्य॑त्। अ॒क्ष॒ण्ऽवान्। न। वि। चे॒त॒त्। अ॒न्धः। क॒विः। यः। पु॒त्रः। सः। ई॒म्। आ। चि॒के॒त॒। यः। ता। वि॒ऽजा॒नात्। सः। पि॒तुः। पि॒ता। अ॒स॒त्। १४.१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तान् उ) उन ही [जीवात्माओं] को (पुंसः) पुरुष और (स्त्रियः सतीः) स्त्रियाँ होते हुए (मे) मुझसे (आहुः) वे [तत्त्वदर्शी] कहते हैं, (अक्षण्वान्) आँखोंवाला [यह बात] (पश्यत्=०-ति) देखता है, (अन्धः) अन्धा (न) नहीं (वि चेतत्-०-ति) जानता है। (यः) जो (पुत्रः) पुत्र (कविः) बुद्धिमान् है, (सः) उसने (ईम्) इस [अर्व वा जीवात्मा को] (आ) भली-भाँति (चिकेत) जान लिया है, (यः) जो [पुरुष] (ता=तानि) उन [तत्त्वों] को (विजानात्) जान लेता है, (सः) वह (पितुः) पिता का (पिता) पिता [उपदेशक] (असत्) होता है ॥१५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्राणियों के आत्माओं में स्त्रीपन, पुरुषपन और नपुंसकपन नहीं है, जैसा शरीर होता है वैसा ही आत्मा भान होने लगता है। इसी प्रकार जगत्पिता परमात्मा में भी स्त्री-पुरुष और नपुंसक का चिह्न नहीं है। इस गूढ़ मर्म को तत्त्वदर्शी साक्षात् करते हैं ॥१५॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में १६ वाँ है और निरुक्त १४।२०। में भी व्याख्यात है। इस मन्त्र के उत्तर भाग का मिलान अ० २।१।२। में करो ॥ इस मन्त्र पर श्री सायणाचार्य ने यह श्लोक उद्धृत किया है ॥ नैव स्त्री न पुमानेष नैव चायं नपुंसकः। यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स चोद्यते ॥१॥ यह न तो स्त्री है न पुरुष है और न यह नपुंसक ही है। जिस-जिस शरीर को पाता है, उस-उसके साथ वही कहा जाता है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १५−(स्त्रियः) स्त्रीत्वं प्राप्ताः (सतीः) वर्तमानाः (तान्) जीवात्मनः (उ) अवधारणे (मे) मह्यम् (पुंसः) पुरुषान् (आहुः) कथयन्ति (पश्यत्) पश्यति (अक्षण्वान्) दृष्टिमान्। विज्ञानी-द० (न) निषेधे (वि) विशेषेण (चेतत्) चेतति जानाति। (अन्धः) नेत्रविहीनः (कविः) मेधावी (यः) (पुत्रः) पवित्रोपचितः-दयानन्दभाष्ये (सः) (ईम्) एनमर्थं जीवात्मानं वा (आ) समन्तात् (चिकेत) कित ज्ञाने-लिट्। ज्ञातवान् (यः) (ता) तानि तत्त्वानि (विजानात्) विजानीयात् (सः) (पितुः) अल्पज्ञानस्य पुरुषस्येत्यर्थः (पिता) पितृवत्पूज्यः (असत्) भवेत् ॥
१६ साकञ्जानां सप्तथमाहुरेकजम्
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सा॑कं॒जानां॑ स॒प्तथ॑माहुरेक॒जं षडिद्य॒मा ऋष॑यो देव॒जा इति॑।
तेषा॑मि॒ष्टानि॒ विहि॑तानि धाम॒श स्था॒त्रे रे॑जन्ते॒ विकृ॑तानि रूप॒शः ॥
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मूलम् (VS)
सा॑कं॒जानां॑ स॒प्तथ॑माहुरेक॒जं षडिद्य॒मा ऋष॑यो देव॒जा इति॑।
तेषा॑मि॒ष्टानि॒ विहि॑तानि धाम॒श स्था॒त्रे रे॑जन्ते॒ विकृ॑तानि रूप॒शः ॥
१६ साकञ्जानां सप्तथमाहुरेकजम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Of those born together the seventh they call sole-born; six, they
say, are twins, god-born seers; the sacrifices (? iṣṭá) of them,
distributed according to their abodes, quake in their station, being
altered (vi-kṛ) in respect to form.
Notes
Iṣṭā́ni in c might equally mean ’things desired.’ Sthātré in
d is most probably loc. of -trá, since, if from sthātṛ́, we
should expect instead the ablative. ⌊The vs. recurs at TA. i. 3. 1 with
udyamā́s for íd yamā́s.⌋
Griffith
Of the co-born they call the seventh single-born: the six twin, pairs are called the Rishis, sons of Gods. Their good gifts sought of men are ranged in order due, and, various, form by form, move for their guiding Lord.
पदपाठः
सा॒क॒म्ऽजाना॑म्। स॒प्तथ॑म्। आ॒हूः॒। ए॒क॒ऽजम्। षट्। इत्। य॒माः। ऋष॑यः। दे॒व॒ऽजाः। इति॑। तेषा॑म्। इ॒ष्टानि॑। विऽहि॑तानि। धा॒म॒ऽशः। स्था॒त्रे। रे॒ज॒न्ते॒। विऽकृ॑तानि। रू॒प॒ऽशः। १४.१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- जगती
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (साकंजानाम्) एक साथ उत्पन्न हुओं में से (सप्तथम्) सातवें [जीवात्मा] को (एकजम्) अकेला उत्पन्न हुआ (आहुः) वे [तत्त्वदर्शी] बताते हैं, [और कि] (षट्) छह [कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका पाँच ज्ञानेन्द्रिय और मन] (इत्) ही (यमाः) नियम में चलानेवाले (ऋषयः) [अपने विषयों को देखनेवाली] इन्द्रिय (देवजाः) देव [गतिशील जीवात्मा] के साथ उत्पन्न होनेवाले हैं, (इति) यह [वे बताते हैं]। (तेषाम्) उन, [इन्द्रियों] के (विहितानि) विहित [ईश्वर के ठहराये] (विकृतानि) विविध प्रकारवाले (इष्टानि) इष्ट कर्म (स्थात्रे) अधिष्ठाता [जीवात्मा] के लिये (धामशः) स्थान-स्थान में और (रूपशः) प्रत्येक रूप में (रेजन्ते) चमकते हैं ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - कर्मफल के अनुसार अकेले जीवात्मा के साथ सब इन्द्रियाँ उत्पन्न होकर उसके वश में रहकर अनेक विषयों को प्रकाशित करती हैं। इसी से जितेन्द्रिय पुरुष परम आनन्द प्राप्त करते हैं ॥१६॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में २५ है और निरु० १४।१९। में व्याख्यात है−“एक साथ उत्पन्न हुए छह इन्द्रियों में आत्मा सातवाँ है ॥ और निरु० १२।३७। में वर्णन है−“सात ऋषि शरीर में रक्खे हुए छह इन्द्रियाँ और सातवीं विद्या आत्मा में ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १६−(साकंजानाम्) सहोत्पन्नानां सप्तानां मध्ये (सप्तथम्) थट् च च्छन्दसि। पा० ५।२।५०। इति थट्। सप्तमं जीवात्मानम्। सहजातानां षण्णामिन्द्रियाणामात्मा सप्तमः-निरु० १४।१९। (आहुः) कथयन्ति (एकजम्) एकोत्पन्नम् (षट्) पञ्चज्ञानेन्द्रियमनांसि (इत्) एव (यमाः) नियन्तारः (ऋषयः) अ० २।६।१। ऋषिर्दर्शनात्-निरु० १२।३७। (देवजाः) देवाज्जीवात्मनो जाताः (इति) प्रकारार्थे (तेषाम्) इन्द्रियाणाम् (इष्टानि) अभिमतकर्माणि (विहितानि) विदधातेः-क्त। ईश्वरस्थापितानि (धामशः) धामानि धामानि (स्थात्रे) अधिष्ठात्रे जीवात्मने (रेजन्ते) रेजृ दीप्तौ। दीप्यन्ते। रेजत इति भयवेपनयोः-निरु० ३।२१। (विकृतानि) विविधप्रकाराणि (रूपशः) प्रत्येकरूपे ॥
१७ अवः परेण
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अ॒वः परे॑ण प॒र ए॒नाव॑रेण प॒दा व॒त्सं बिभ्र॑ती॒ गौरुद॑स्थात्।
सा क॒द्रीची॒ कं स्वि॒दर्धं॒ परा॑गा॒त्क्व᳡ स्वित्सूते न॒हि यू॒थे अ॒स्मिन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒वः परे॑ण प॒र ए॒नाव॑रेण प॒दा व॒त्सं बिभ्र॑ती॒ गौरुद॑स्थात्।
सा क॒द्रीची॒ कं स्वि॒दर्धं॒ परा॑गा॒त्क्व᳡ स्वित्सूते न॒हि यू॒थे अ॒स्मिन् ॥
१७ अवः परेण ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Below the distant (pára), thus beyond the lower, bearing (bhṛ)
her calf with her foot, the cow hath stood up; whitherwards, to what
quarter (árdha) hath she forsooth gone away? where giveth she birth?
for [it is] not in this herd.
Notes
The Anukr. takes no notice of the redundant syllable in a; we may
suppose pará enā́- to be combined to parāí ’nā́-. ⌊The verse is
repeated below as xiii. 1. 41. RV. ends with antáḥ for asmín. The
Kaṭha variant párākāt for párāgāt (WZKM. xii. 282) shows an exchange
of surd and sonant, the reverse of that noted at ii. 13. 3.⌋
Griffith
Beneath the upper realm, above this lower, bearing her Calf at foot, the Cow hath risen. Whitherward, to what place hath she departed? Where doth she calve? Not in this herd of cattle.
पदपाठः
अ॒वः। परे॑ण। प॒रः। ए॒ना। अव॑रेण। प॒दा। व॒त्सम्। बिभ्र॑ती। गौः। उत्। अ॒स्था॒त्। सा। क॒द्रीची॑। कम्। स्वि॒त्। अर्ध॑म्। परा॑। अ॒गा॒त्। क्व᳡। स्वि॒त्। सू॒ते॒। न॒हि। यू॒थे। अ॒स्मिन्। १४.१७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वत्सम्) [निवासस्थान] देह को (बिभ्रती) धारण करती हुई (गौः) गौ [गतिशील जीवरूप शक्ति] (परेण) ऊँचे (पदा) पद [अधिकार वा मार्ग] से (अवः) नीचे को, और (एना) इस (अवरेण) नीचे [पद] से (परः) ऊपर को (उत् अस्थात्) उठी है। (सा) वह [जीवरूप शक्ति] (कद्रीची) किस ओर चलती हुई, (कं स्वित्) कौन से (अर्धम्) ऋद्धिवाले [अर्थात् परमेश्वर] को (परा) पराक्रम से (अगात्) पहुँची है, (क्व स्वित्) कहाँ पर (सूते) उत्पन्न होती है, (अस्मिन्) इस [देहधारी] (यूथे) समूह में तो (नहि) नहीं [उत्पन्न होती] ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य को सदा विचारना चाहिये कि हमारे पूर्वज कैसे उच्च गति से नीच गति को और नीच गति से उच्च गति को पहुँचे। आत्मा किस उत्तम मार्ग पर चलकर समृद्धिशाली परमात्मा को पहुँचता है, यह सूक्ष्म आत्मा देह से नहीं उत्पन्न होता, फिर कहाँ से आता है ॥१७॥ (अस्मिन्) के स्थान पर ऋग्वेद मन्त्र १७ में [अन्तः] पद है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १७−(अवः) अवस्तात्। अधोदेशे (परेण) श्रेष्ठेन (परः) परस्तात् उपरिदेशे (एना) एनेन। अनेन (अवरेण) अधमेन (पदा) पदेन, अधिकारेण, मार्गेण (वत्सम्) वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। वस निवासे-स। निवासस्थानं देहम् (बिभ्रती) धरन्ती (गौः) गाव इन्द्रियाणि-निरु० १४।१५। गतिशीला जीवरूपा शक्तिः (उत्) उत्कर्षेण (अस्थात्) स्थितवती (सा) गौः (कद्रीची) ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। किम्+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। छन्दसि स्त्रियां बहुलम्। वा० पा० ६।३।९२। किं शब्दस्य टेरद्र्यादेशः। उगितश्च। पा० ४।१।६। ङीप्। अचः। पा० ६।४।१३८। अकारलोपः। चौ। पा० ६।३।१३८। इति दीर्घः। क्व गता सती (कं स्वित्) (अर्धम्) ऋधु वृद्धौ-घञ्। ऋद्धिशालिनं परमेश्वरम् (परा) पराक्रमेण (अगात्) अगमत्। गच्छति-द० (क्व) कुत्र (स्वित्) (सूते) सूयते, उत्पद्यते (नहि) निषेधे (यूथे) समूहे (अस्मिन्) ॥
१८ अवः परेण
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अ॒वः परे॑ण पि॒तरं॒ यो अ॑स्य॒ वेदा॒वः परे॑ण प॒र ए॒नाव॑रेण।
क॑वी॒यमा॑नः॒ क इ॒ह प्र वो॑चद्दे॒वं मनः॒ कुतो॒ अधि॒ प्रजा॑तम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒वः परे॑ण पि॒तरं॒ यो अ॑स्य॒ वेदा॒वः परे॑ण प॒र ए॒नाव॑रेण।
क॑वी॒यमा॑नः॒ क इ॒ह प्र वो॑चद्दे॒वं मनः॒ कुतो॒ अधि॒ प्रजा॑तम् ॥
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Whitney
Translation
- Below the distant whoever knows his father, below the distant, thus
beyond the lower—who, playing the poet, shall proclaim [him] here?
from whence [is] heavenly mind produced?
Notes
RV. and Ppp. read, in a, b, yó asyā ’nuvéda pará enā́-, rectifying
the meter and lightening the construction. Only the first two pādas have
any “jagatī” character, and they are very irregular. But by giving
this name the Anukr. shows that it reads our version; in RV. and Ppp.
the verse is a pure triṣṭubh. Read in d kúto (for kṛ́to).
Griffith
Who, that the father of this Calf discerneth beneath the upper realm, above the lower, Showing himself a sage, may here declare him? Whence hath the godlike spirit had its rising?
पदपाठः
अ॒वः। परे॑ण। पि॒तर॑म्। यः। अ॒स्य॒। वेद॑। अ॒वः। परे॑ण। प॒रः। ए॒ना। अव॑रेण। क॒वि॒ऽयमा॑नः। कः। इ॒ह। प्र। वो॒च॒त्। दे॒वम्। मनः॑। कुतः॑। अधि॑। प्रऽजा॑तम्। १४.१८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- जगती
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [पुरुष] (एना) इस (अवरेण) नीचे [मार्ग] से (परः) ऊपर [वर्तमान], (अस्य) इस [देह] के (पितरम्) पालक [आत्मा] को (परेण) ऊँचे [मार्ग] से (अवः) नीचे, (परेण) ऊँचे [मार्ग] से (अचः) नीचे (वेद) जानता है। (कवीयमानः) बुद्धिमान् का सा आचरण करनेवाला (कः) कौन [पुरुष] (इह) इस [विषय] में (प्र वोचत्) बोले? और (कुतः) कहाँ से [उसका] (देवम्) दिव्य गुणवाला (मनः) मन [मनन सामर्थ्य] (अधि) अधिकारपूर्वक (प्रजातम्) अच्छे प्रकार उत्पन्न [होवे ?] ॥१८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अपने आत्मा को अत्यन्त गिरा जानता है, वह अपुरुषार्थी उन्नति का उपाय नहीं पा सकता ॥१८॥ (वेद, अवः, परेण) के स्थान पर ऋग्वेद मन्त्र १८ में [अनुवेद] पद है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १८−(अवः) अवस्तात् (परेण) उच्चमार्गेण (पितरम्) पालकमात्मानम् (यः) (अस्य) देहस्य (वेद) जानाति (अवः) (परेण) (परः) परस्तात् (एना) एनेन (अवरेण) अधमेन (कवीयमानः) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। कवि-क्यङ्। अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः। पा० ७।४।२५। इति दीर्घः, कवीय-शानचि मुक्, पदच्छेदे कविशब्दस्य ह्रस्वत्वं प्रकृतिसूचकम्। कविवदाचरन्। अतीव विद्वान्-द० (कः) (इह) अस्मिन् विषये (प्र वोचत्) प्रवदेत् (देवम्) दिव्यगुणसम्पन्नम् (मनः) मननसामर्थ्यम् (कुतः) कस्माद्देशात् (अधि) अधिकृत्य (प्रजातम्) प्रकर्षेणोत्पन्नम् ॥
१९ ये अर्वाञ्चस्ताँ
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ये अ॒र्वाञ्च॒स्ताँ उ॑ परा॑च आहु॒र्ये परा॑ञ्च॒स्ताँ उ॑ अ॒र्वाच॑ आहुः।
इन्द्र॑श्च॒ या च॒क्रथुः॑ सोम॒ तानि॑ धु॒रा न यु॒क्ता रज॑सो वहन्ति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ये अ॒र्वाञ्च॒स्ताँ उ॑ परा॑च आहु॒र्ये परा॑ञ्च॒स्ताँ उ॑ अ॒र्वाच॑ आहुः।
इन्द्र॑श्च॒ या च॒क्रथुः॑ सोम॒ तानि॑ धु॒रा न यु॒क्ता रज॑सो वहन्ति ॥
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Whitney
Translation
- Them that are hitherward they call off-ward; them, again, that are
off-ward they call hitherward; what things, O Soma, thou and Indra have
done, those they draw, harnessed as it were with the pole of the welkin.
Notes
The verse is found also in JB. i. 279, with no various readings that are
not evident corruptions. The ’them’ of a, b is masc., probably the
same with the ’they’ of d (yuktā́ḥ, p.). Ppp. reads niyuktā
instead of na yuktā.
Griffith
Those that come hitherward they call departing, those that depart they call directed hither. Whatever ye have made, Indra and Soma! steeds draw, as’ twere, yoked to the region’s car-pole.
पदपाठः
ये। अ॒र्वाञ्चः॑। तान्। ऊं॒ इति॑। परा॑चः। आ॒हुः॒। ये। परा॑ञ्चः। तान्। ऊं॒ इति॑। अ॒र्वाचः॑। आ॒हुः॒। इन्द्रः॑। च॒। या। च॒क्रथुः॑। सो॒म॒। तानि॑। धु॒रा। न। यु॒क्ता। रज॑सः। व॒ह॒न्ति॒। १४.१९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [इस चक्ररूप संसार में] (ये) जो [लोक] (अर्वाञ्चः) नीचे जानेवाले हैं, (तान् उ) उन्हीं को (पराचः) ऊपर जानेवाले (आहुः) कहते हैं, और (ये) जो (पराञ्चः) ऊपर जानेवाले हैं (तान् उ) उन्हीं को (अर्वाचः) नीचे जानेवाले (आहुः) कहते हैं। (इन्द्रः) हे परमेश्वर ! (च) और (सोम) हे जीवात्मा ! (या) जिन [व्रतों] को (चक्रथुः) तुम दोनों ने बनाया था, (तानि) वे [व्रत] संसार को (वहन्ति) ले चलते हैं, (न) जैसे (धुरा) धुर [जूए] से (युक्ताः) जुते हुए [घोड़े आदि, रथ को ले चलते हैं] ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे ईश्वर के आकर्षण और धारण विशेष से सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, नक्षत्र आदि एक दूसरे से ऊँचे वा नीचे दिखाई देते हैं, वैसे ही जीव भी अपने कर्मों के अनुसार ईश्वरनियम से एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँचे-नीचे होते हैं। यह संसार इसी नियम पर चल रहा है, जैसे जूए में जुते घोड़े आदि से रथ चलता है ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १९−(ये) लोकाः (अर्वाञ्चः) अवर+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्, अर्वादेशः। अधोगामिनः (तान्) (उ) एव (पराचः) पर+अञ्चु−क्विन्। उपरिगामिनः (आहुः) कथयन्ति (ये) (पराञ्चः) उपरिगताः (तान्) (उ) एव। वितर्के-द० (अर्वाचः) अधोगतान् (आहुः) (इन्द्रः) सम्बुद्धौ सुः। हे परमेश्वर (या) व्रतानि (चक्रथुः) युवां कृतवन्तौ (सोम) अ० १।६।२। सोमः सूर्यः प्रसवनात्, सोम आत्माप्येतस्मादेव-निरु० १४।१२। हे जीवात्मन् (तानि) व्रतानि (धुरा) धुर्वी हिंसायाम्−क्विप्, यद्वा, धारयतेः−क्विप्, आकारस्य उकारः। यानमुखेन, भारेण सह (न) इव (युक्ताः) सम्बद्धा अश्वादयः−(रजसः) द्वितीयार्थे षष्ठी। रजः। लोकम् (वहन्ति) चालयन्ति ॥
२० द्वा सुपर्णा
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द्वा सु॑प॒र्णा स॒युजा॒ सखा॑या समा॒नं वृ॒क्षं परि॑ षस्वजाते।
तयो॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्त्यन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भि चा॑कशीति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
द्वा सु॑प॒र्णा स॒युजा॒ सखा॑या समा॒नं वृ॒क्षं परि॑ षस्वजाते।
तयो॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्त्यन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भि चा॑कशीति ॥
२० द्वा सुपर्णा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Two eagles (suparṇá), joint companions, embrace the same tree; of
them the one eats the sweet berry; the other looks on all the time, not
partaking.
Notes
Ppp. reads in a suyujā. Here and in the next verse, as everywhere
else, some of our mss. read píṣpalam. ⌊The vs. plays a rôle in the
Upanishads: cf. śvet. iv. 6; Muṇḍ. iii. 1. 1. Hillebrandt, Ved.
Mythol., i. 466, 399, treats this and the following vss.⌋
Griffith
Two Birds with fair wings, knit with bonds of friendship, in the same sheltering tree have found a refuge, One of the twain eats the sweet Fig-tree’s berry: the other, eat- ing not, regardeth only.
पदपाठः
द्वा। सु॒ऽप॒र्णा। स॒ऽयुजा॑। सखा॑या। स॒मा॒नम्। वृ॒क्षम्। परि॑। स॒स्व॒जा॒ते॒ इति॑। तयोः॑। अ॒न्यः। पिप्प॑लम्। स्वा॒दु। अत्ति॑। अन॑श्नन्। अ॒न्यः। अ॒भि। चा॒क॒शी॒ति॒। १४.२०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (द्वा) दोनों [ब्रह्म और जीव] (सुपर्णा) सुन्दर पालन वा पूर्तिवाले [अथवा सुन्दर पक्षोंवाले पक्षीरूप], (सयुजा) एक साथ मिले हुए और (सखाया) [समान ख्यातिवाले] मित्र होकर (समानम्) एक ही (वृक्षम्) स्वीकरणीय [कार्य कारण रूप वा पेड़ रूप संसार] में (परि) सब प्रकार (सस्वजाते) चिपटे रहते हैं। (तयोः) उन दोनों में से (अन्यः) एक [जीव] (स्वादु) चखने योग्य (पिप्पलम्) [पालन वा पूर्ति करनेवाले] फल को (अत्ति) खाता है, (अनश्नन्) न खाता हुआ (अन्यः) दूसरा [परमात्मा] (अभि) सब ओर [सृष्टि और प्रलय में] (चाकशीति) चमकता रहता है ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - तीनों ब्रह्म और जीव और जगत् का कारण अनादि सनातन हैं। ब्रह्म और जीव व्यापक और व्याप्य भाव से संसार के बीच मित्रसमान चले आते हैं। जीव कार्यरूप जगत् में शरीर धरकर पुण्य-पाप का फल भोगता है। सर्वशासक परमेश्वर सृष्टि और प्रलय में एक रस बना रहता है ॥२०॥ यह मन्त्र निरुक्त १४।३०। और मुण्डकोपनिषद्, मुण्डक ३ खण्ड १। मन्त्र १ में भी व्याख्यात है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २०−(द्वा) ब्रह्मजीवात्मानौ। द्वौ, अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः (सुपर्णा) अ० १।२४।१। सु+पॄ पालनपूरणयोः-न, यद्वा पत्लृ गतौ-न, तस्य रः। सुपतनौ-निरु० ३।१२। शोभनपालनौ, शोभनपूरणौ, शोभनगमनौ, सुपक्षिणौ (सयुजा) सह युज्यमानौ (सखाया) समानख्यानौ (समानम्) एकमेव (वृक्षम्) अ० ३।६।८। वृक्ष वरणे-क, यद्वा, स्नुव्रश्चि०। उ० ३।६६। ओव्रश्चू छेदने-स प्रत्ययः, कित्। वृक्षो−व्रश्चनात्-निरु० १२।२९। कार्यकारणरूपं यद्वा द्रुमवत्स्वीकरणीयं क्लेशच्छेदकं वा संसारम्। (परि) सर्वतः (सस्वजाते) ष्वञ्ज आलिङ्गने-लट्, श्लुत्वम्। स्वजेते। आश्रयतः (तयोः) जीवब्रह्मणोरनाद्योः-द० (अन्यः) जीवः (पिप्पलम्) कलस्तृपश्च। उ० १।१०४। पा पालने, वा पॄ पालनपूरणयोः-कल। पृषोदरादित्वम्। पिप्पलमुदकम्-निघ० १।१२। पालकं पूरकं वा फलम् (स्वादु) आस्वादनीयम् (अत्ति) भुङ्क्ते (अनश्नन्) अभुञ्जानः (अन्यः) परमेश्वरः-द० (अभि) सर्वतः (चाकशीति) काशृ दीप्तौ, यद्वा कश शब्दं यङ्लुकि-लट्। अवचाकशत् पश्यतिकर्मा-निघ० ३।११। भृशं दीप्यते ॥
२१ यस्मिन्वृक्षे मध्वदः
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यस्मि॑न्वृ॒क्षे म॒ध्वदः॑ सुप॒र्णा नि॑वि॒शन्ते॒ सुव॑ते॒ चाधि॒ विश्वे॑।
तस्य॒ यदा॒हुः पिप्प॑लं स्वा॒द्वग्रे॒ तन्नोन्न॑श॒द्यः पि॒तरं॒ न वेद॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यस्मि॑न्वृ॒क्षे म॒ध्वदः॑ सुप॒र्णा नि॑वि॒शन्ते॒ सुव॑ते॒ चाधि॒ विश्वे॑।
तस्य॒ यदा॒हुः पिप्प॑लं स्वा॒द्वग्रे॒ तन्नोन्न॑श॒द्यः पि॒तरं॒ न वेद॑ ॥
२१ यस्मिन्वृक्षे मध्वदः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- On what tree the honey-eating eagles all settle and give birth—what
they call the sweet berry in the top of it, that cannot he attain who
knoweth not [his] father.
Notes
RV. has íd āhuḥ instead of yád āhúḥ in c, and so also Ppp. (but
āhuṣ). In RV. this verse follows after our vs. 22. There is a
redundant syllable in c of which the Anukr. takes no notice (and the
pāda is also capable of being crowded together into eleven syllables).
Griffith
The tree whereon the fine Birds eat the sweetness, where they all rest and procreate their offspring Upon the top, they say the fruit is luscious: none gaineth it who knoweth not the Father.
पदपाठः
यस्मि॑न्। वृ॒क्षे। म॒धु॒ऽअदः॑। सु॒ऽप॒र्णाः। नि॒ऽवि॒शन्ते॑। सुव॑ते। च॒। अधि॑। विश्वे॑। तस्य॑। यत्। आ॒हुः॒। पिप्प॑लम्। स्वा॒दु। अग्रे॑। तत्। न। उत्। न॒श॒त्। यः। पि॒तर॑म्। न। वेद॑। १४.२१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस (वृक्षे) स्वीकरणीय [परमात्मा] में (मध्वदः) मधु [वेदज्ञान] चखनेवाले (विश्वे) सब (सुपर्णाः) सुन्दर पालनेवाले [प्राण वा इन्द्रियाँ] (निविशन्ते) भीतर पैठ जाते हैं (च) और (अधि) ऐश्वर्य के साथ (सुवते) उत्पन्न [उदय] होते हैं। (तस्य) उस [परमात्मा] के (यत्) जिस (पिप्पलम्) पालन करनेवाले [मोक्षपद] को (अग्रे) सब से आगे [बढ़िया] (स्वादु) स्वादु [चखने योग्य] (आहुः) वे [तत्त्वज्ञानी] बताते हैं, (तत्) उस [मोक्षपद] को वह मनुष्य (न उत्) कभी नहीं (नशत्) पाता, (यः) जो (पितरम्) पिता [पालनकर्ता परमेश्वर] को (न) नहीं (वेद) जानता है ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सबके आश्रयदाता स्वीकरणीय परमात्मा को जब मनुष्य अपने श्वास-प्रश्वास में भीतर-बाहिर साक्षात् करता है, तब मोक्ष पद पाता है, उसको अज्ञानी पाखण्डी नहीं पा सकता ॥२१॥ (यत्) के स्थान पर [इत्] है, ऋग्वेद म० २२ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २१−(यस्मिन्) (वृक्षे) म० २०। स्वीकरणीये परमेश्वरे (मध्वदः) मधुनो ज्ञानस्य अत्तारः (सुपर्णाः) म० २०। सुपर्णाः सुपतना आदित्यरश्मयः, सुपर्णाः सुपतनानीन्द्रियाणि-निरु० ३।१२। सुपालकाः प्राणाः। शोभनपर्णाः पालनकर्माणः-द० (निविशन्ते) अन्तः प्रविशन्ति, आलीयन्ते (सुवते) षूङ् प्राणिगर्भविमोचने, आदादिकः। उत्पद्यन्ते, उद्यन्ति। जायन्ते-द० (च) (अधि) ऐश्वर्येण (विश्वे) सर्वे (तस्य) परमात्मनः (यत्) (आहुः) (पिप्पलम्) म० २०। पालकं मोक्षपदम् (स्वादु) आस्वादनीयम् (अग्रे) प्राधान्ये (तत्) पिप्पलम् (न) निषेधे (उत्) एव (नशत्) नशत्, व्याप्तिकर्मा-निघ० २।१२। नशति प्राप्नोति। (पितरम्) पालकं परमेश्वरम्। परमात्मानम्-द० (न) (वेद) जानाति ॥
२२ यत्रा सुपर्णा
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यत्रा॑ सुप॒र्णा अ॒मृत॑स्य भ॒क्षमनि॑मेषं वि॒दथा॑भि॒स्वर॑न्ति।
ए॒ना विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य गो॒पाः स मा॒ धीरः॒ पाक॒मत्रा वि॑वेश ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यत्रा॑ सुप॒र्णा अ॒मृत॑स्य भ॒क्षमनि॑मेषं वि॒दथा॑भि॒स्वर॑न्ति।
ए॒ना विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य गो॒पाः स मा॒ धीरः॒ पाक॒मत्रा वि॑वेश ॥
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Whitney
Translation
- Where the eagles, with counsel (vidátha), sound incessantly
(ánimeṣam) unto the draught of amṛ́ta,—thus the shepherd of all
existence, he the wise one entered there into me that am simple.
Notes
RV. reads bhāgám for bhakṣám in a. For enā́ in c, RV. has
inás, and Ppp. yo no; ⌊Ppp’s yo no seems to be an attempt to make
sense out of the rare and probably unintelligible inó⌋. ⌊The Kaṭha
variant (WZKM. xii. 282) is ánimiṣam.]
⌊The quoted Anukr. says navadaśe ca.⌋
Griffith
Where the fine birds hymn ceaselessly their portion of life eter- nal, and the sacred synods. There is the Universe’s Guard and Keeper who, wise hath entered into me the simple.
पदपाठः
यत्र॑। सु॒ऽप॒र्णाः। अ॒मृत॑स्य। भ॒क्षम्। अनि॑ऽमेषम्। वि॒दथा॑। अ॒भि॒ऽस्वर॑न्ति। ए॒ना। विश्व॑स्य। भुव॑नस्य। गो॒पाः। सः। मा॒। धीरः॑। पाक॑म्। अत्र॑। आ। वि॒वे॒श॒। १४.२२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) जिस (विदथा) ज्ञान के भीतर (सुपर्णाः) सुन्दर पालन करनेवाले [वा सुन्दर गतिवाले, प्राणी] (अमृतस्य) अमृतपन [मोक्षसुख] के (भक्षम्) भोग को (अनिमेषम्) लगातार (अभिस्वरन्ति) सब ओर से पाते हैं। (एना) इसी विज्ञान के साथ (विश्वस्य) सब (भुवनस्य) संसार का (गोपाः) रक्षक (सः) वह (धीरः) धीर [बुद्धिमान् परमेश्वर] (पाकम्) पक्के मनवाले (मा) मुझ में (अत्र) इस [देह] के भीतर (आ) यथावत् (विवेश) पैठा है ॥२२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार योगी जन परमात्मा के विज्ञान से मोक्ष सुख भोगते हैं, वैसे ही प्रत्येक उपासक दृढबुद्धि हो मोक्ष सुख प्राप्त करे ॥२२॥ यह मन्त्र निरुक्त ३।१२। में भी व्याख्यात है ॥ (भक्षम्, एना) के स्थान पर [भागम्, इनः] पद हैं, ऋग्वेद मन्त्र २१ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २२−(यत्र) यस्मिन् ज्ञाने (सुपर्णाः) म० २१। सुपालकाः प्राणिनः। शोभनकर्माणो जीवाः-द० (अमृतस्य) मोक्षस्य-द० (भक्षम्) भोगम् (अनिमेषम्) निरन्तरम् (विदथा) रुविदिभ्यां ङित्। उ० ३।११५। विद ज्ञाने-अथ। वेदेन ज्ञानेन (अभिस्वरन्ति) स्वरतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। अभिप्रयन्ति-निरु० ३।१२। सर्वतः प्राप्नुवन्ति (एना) एनेन विदथेन (विश्वस्य) समग्रस्य (भुवनस्य) संसारस्य (गोपाः) गोपायिता रक्षिता (सः) (मा) माम् (धीरः) धीमान्-निरु० ३।१२। ध्यानवान्-द० (पाकम्) पाकः पक्तव्यो भवति विपक्वप्रज्ञ आत्मा-निरु० ३।१२। परिपक्वमनस्कम् (अत्र) अस्मिन् देहे (आ) समन्तात् (विवेश) प्रविशति ॥