००९ विराट् ...{Loading}...
Whitney subject
- Mystic: extolling the virā́j.
VH anukramaṇī
विराट्।
१-२६ अथर्वा। कश्यपः, सर्वे ऋषयः, छन्दांसी च, विराट्। त्रिष्टुप्, २ पङ्क्तिः, ३ आस्तारपङ्क्तिः,
४-५, २३, २५-२६ अनुष्टुप्, ८, ११-१२, २२ जगती, ९ भुरिक्, १४ चतुष्पदातिजगती।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan.—ṣaḍviṅśam. kāśyapeyam uta sarvārṣaṁ chāndasam. trāiṣṭubham: 2, 3. pan̄kti (3. āstārapan̄kti); 4, 5, 23, 25, [26]. anuṣṭubh; 8, 11, 12, 22. jagatī; 9. bhurij; 14. 4p. atijagatī.]
Whitney
Comment
Found also (except vss. 19, 20) in Pāipp. xvi. ⌊with vs. 23 after vs. 24⌋. The Kāuś. takes no notice of the hymn; ⌊but the Vāit. (33. 8) allows the use of 21 vss. (from vs. 6 to the end) in the sattra sacrifice at the celebrant’s option⌋.
Translations
Translated: Ludwig, p. 439; Henry, 26, 65; Griffith, i. 416.—See also Muir, v. 370.
Griffith
An enunciation of cosmogonical, ritual, and metrical doctrine
०१ कुतस्तौ जातौ
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
कुत॒स्तौ जा॒तौ क॑त॒मः सो अर्धः॒ कस्मा॑ल्लो॒कात्क॑त॒मस्याः॑ पृथि॒व्याः।
व॒त्सौ वि॒राजः॑ सलि॒लादुदै॑तां॒ तौ त्वा॑ पृच्छामि कत॒रेण॑ दु॒ग्धा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
कुत॒स्तौ जा॒तौ क॑त॒मः सो अर्धः॒ कस्मा॑ल्लो॒कात्क॑त॒मस्याः॑ पृथि॒व्याः।
व॒त्सौ वि॒राजः॑ सलि॒लादुदै॑तां॒ तौ त्वा॑ पृच्छामि कत॒रेण॑ दु॒ग्धा ॥
०१ कुतस्तौ जातौ ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Whence [were] those two born? which side (árdha) was that? out of
what world? out of which earth? the two young (vatsá) of the virā́j
rose out of the sea (salilá); of those I ask thee: by whether [of
them was] she milked?
Notes
The ‘which’ is both times katama, implying the existence of more than
two; but Ppp. has instead katarasyāḥ pṛihivyāḥ.
Griffith
Whence were these two produced? which was that region?’ From what world, from which earth had they their being? Calves of Viraj, these two arose from water. I ask thee of these twain, who was their milker.
पदपाठः
कुतः॑। तौ। जा॒तौ। क॒त॒मः। सः। अर्धः॑। कस्मा॑त्। लो॒कात्। क॒त॒मस्याः॑। पृ॒थि॒व्याः। व॒त्सौ। वि॒ऽराजः॑। स॒लि॒लात्। उत्। ऐ॒ता॒म्। तौ। त्वा॒। पृ॒च्छा॒मि॒। क॒त॒रेण॑। दु॒ग्धा। ९.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कुतः) कहाँ से (तौ) वे दोनों [ईश्वर और जीव] (जातौ) प्रकट हुए हैं, (कतमः) [बहुतों में से] कौन सा (सः) वह (अर्धः) ऋद्धिवाला है, (कस्मात् लोकात्) कौन से लोक से और (कतमस्याः) [बहुतसियों में से] कौन सी (पृथिव्याः) पृथिवी से (विराजः) विविध ऐश्वर्यवाली [ईश्वर शक्ति, सूक्ष्म प्रकृति] के (वत्सौ) बतानेवाले (सलिलात्) व्याप्तिवाले [समुद्ररूप अगम्य दशा] से (उत् ऐताम्) वे दोनों उदय हुए हैं, (तौ) उन दोनों को (त्वा) तुझ से (पृच्छामि) मैं पूँछता हूँ, वह [विराट्] (कतरेण) [दो के बीच] कौन से करके (दुग्धा) पूर्ण की गई है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ईश्वर और जीव अपने सामर्थ्य से सब लोकों और सब कालों में व्याप्त हैं, उन्हीं दोनों से प्रकृति के विविध कर्म प्रकट होते हैं, ईश्वर महा ऋद्धिमान् है और वही प्रकृति को संयोग-वियोग आदि चेष्टा देता है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(कुतः) कस्मात् स्थानात् (तौ) ईश्वरजीवौ (जातौ) प्रादुर्भूतौ (कतमः) वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्। पा० ५।३।९३। किम्-डतमच्। बहूनां मध्ये कः (सः) ईश्वरः (अर्धः) ऋधु वृद्धौ-घञ्। प्रवृद्धः। ऋद्धिमान् (कस्मात्) (लोकात्) भुवनात् (कतमस्याः) कतम-टाप्। बह्वीनां मध्ये (कस्याः) (पृथिव्याः) भूलोकात् (वत्सौ) वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। वद व्यक्तायां वाचि, वा वस निवासे आच्छादने च-स प्रत्ययः। वदितारौ। व्याख्यातारौ (विराजः) सत्सूद्विषद्रुहदुह०। पा० ३।२।६१। वि+राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च-क्विप्। विविधैश्वर्याः। ईश्वरशक्तेः। प्रकृतेः (सलिलात्) सलिकल्यनिमहि०। उ० १।५४। पल गतौ-इलच्। व्यापनस्वभावात्। समुद्ररूपात्। अगम्यविधानात् (उदैताम्) इण् गतौ-लङ्। उद्गच्छताम् (तौ) ईश्वरजीवौ (त्वा) विद्वांसम् (पृच्छामि) अहं जिज्ञासे (कतरेण) किंयत्तदोर्निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरच्। पा० ५।३।९२। किम्-डतरच्। ईश्वरजीवयोर्मध्ये केन (दुग्धा) प्रपूरिता सा विराट् ॥
०२ यो अक्रन्दयत्सलिलम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यो अक्र॑न्दयत्सलि॒लं म॑हि॒त्वा योनिं॑ कृ॒त्वा त्रि॒भुजं॒ शया॑नः।
व॒त्सः का॑म॒दुघो॑ वि॒राजः॒ स गुहा॑ चक्रे त॒न्वः᳡ परा॒चैः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यो अक्र॑न्दयत्सलि॒लं म॑हि॒त्वा योनिं॑ कृ॒त्वा त्रि॒भुजं॒ शया॑नः।
व॒त्सः का॑म॒दुघो॑ वि॒राजः॒ स गुहा॑ चक्रे त॒न्वः᳡ परा॒चैः ॥
०२ यो अक्रन्दयत्सलिलम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- He who caused the sea to resound (krand) with greatness, making a
threefold lair (yóni) as he lay, the desire-milking young of the
virā́j; he made his bodies secret (gúhā) in the distance.
Notes
Ppp. combines yo ‘krand- at the beginning, and reads in b
tyabhijaṁ śayānaṁ.
Griffith
He who prepared a threefold home, and lying there made the water bellow through his greatness, Calf of Viraj, giving each wish fulfilment, made bodies for him- self far off, in secret.
पदपाठः
यः। अक्र॑न्दयत्। स॒लि॒लम्। म॒हि॒ऽत्वा। योनि॑म्। कृ॒त्वा। त्रि॒ऽभुज॑म्। शया॑नः। व॒त्सः। का॒म॒ऽदुघः॑। वि॒ऽराजः॑। सः। गुहा॑। च॒क्रे॒। त॒न्वः᳡। प॒रा॒चैः। ९.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- पङ्क्तिः
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (त्रिभुजम्) तीन भुजावाला, [ऊँचे नीचे और मध्यलोकरूप] (योनिम्) घर (कृत्वा) बनाकर (यः शयानः) जिस सोते हुए ने (महित्वा) अपनी महिमा से (सलिलम्) व्याप्तिवाले [अगम्य देश] को (अक्रन्दयत्) पुकारा। (सः) उस (कामदुघः) कामनापूरक, (वत्सः) बोलनवाले [परमेश्वर] ने (विराजः) विविध ईश्वरी [प्रकृति] की (गुहा) गुहा में [अपने] (तन्वः) विस्तारों को (पराचैः) दूर-दूर तक (चक्रे) किया ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने प्रलय, सृष्टि और अवसान में विराजमान होकर अपनी अगम्य शक्ति द्वारा प्रकृति में चेष्टा देकर विविध संसार रचा है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(यः) परमेश्वरः (अक्रन्दयत्) क्रदि आह्वाने रोदने च-लङ्। आहूतवान् (सलिलम्) म० १। व्यापनस्वभावम्। अगम्यदेशम् (महित्वा) महत्त्वेन (योनिम्) गृहम्-निघ० ३।४। (कृत्वा) रचयित्वा (त्रिभुजम्) उच्चनीचमध्यलोकत्रयरूपभुजयुक्तम् (शयानः) शयनं गतः (वत्सः) म० १ वदिता (कामदुघः) दुह प्रपूरणे-कप्। अ० ४।३४।८। अभीष्टपूरकः (विराजः) म० १। विविधैश्वर्याः। प्रकृतेः (सः) ईश्वरः (गुहा) गुहायाम्। हृदये (चक्रे) कृतवान् (तन्वः) विस्तृतीः (पराचैः) दूरदूरम् ॥
०३ यानि त्रीणि
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यानि॒ त्रीणि॑ बृ॒हन्ति॒ येषां॑ चतु॒र्थं वि॑यु॒नक्ति॒ वाच॑म्।
ब्र॒ह्मैन॑द्विद्या॒त्तप॑सा विप॒श्चिद्यस्मि॒न्नेकं॑ यु॒ज्यते॒ यस्मि॒न्नेक॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यानि॒ त्रीणि॑ बृ॒हन्ति॒ येषां॑ चतु॒र्थं वि॑यु॒नक्ति॒ वाच॑म्।
ब्र॒ह्मैन॑द्विद्या॒त्तप॑सा विप॒श्चिद्यस्मि॒न्नेकं॑ यु॒ज्यते॒ यस्मि॒न्नेक॑म् ॥
०३ यानि त्रीणि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What three great ones (bṛhát, n.) there are, the fourth of which
[one] disjoins [as] speech—the priest (brahmán) may know it by
penance, the inspired one, in which one (ékam) is joined, in which one
[is joined].
Notes
Ppp. reads catvāri instead of trīṇi in a. Caturthám ‘fourth’
might also be subject of ‘disjoins.’ Compare ix. 10. 27 (RV. i. 164.
45).
Griffith
Which are the three, the mighty three, whereof the fourth divides the voice, This may the Brahman know by prayer and fervour, whereto belongs the one, whereto the other.
पदपाठः
यानि॑। त्रीणि॑। बृ॒हन्ति॑। येषा॑म्। च॒तु॒र्थम्। वि॒ऽयु॒नक्ति॑। वाच॑म्। ब्र॒ह्मा। ए॒न॒त्। वि॒द्या॒त्। तप॑सा। वि॒पः॒ऽचित्। यस्मि॑न्। एक॑म्। यु॒ज्यते॑। यस्मि॑न्। एक॑म्। ९.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- आस्तारपङ्क्तिः
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यानि) जो (त्रीणि) तीन [सत्त्व, रज और तम] (बृहन्ति) बड़े-बड़े हैं, (येषाम्) जिन में (चतुर्थम्) चौथा [ब्रह्म] (वाचम्) वाणी (वियुनक्ति) विलगाता है, (विपश्चित्) बुद्धिमान् (ब्रह्मा) ब्रह्मा [वेदवेत्ता ब्राह्मण] (एनत्) इस [ब्रह्म] को (तपसा) तप से (विद्यात्) जाने, (यस्मिन्) जिस [तप] में (एकम्) एक [ब्रह्म] (यस्मिन्) जिस [तप] में (एकम्) एक [ब्रह्म] (युज्यते) ध्यान किया जाता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा ने तीनों गुणों द्वारा सृष्टि रची है और जिसने वेद द्वारा सब उपदेश किया है, उस परमात्मा का ज्ञान अनन्यध्यायी योगी को ही तप द्वारा होता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(यानि) (त्रीणि) सत्त्वरजस्तमांसि (बृहन्ति) प्रवृद्धानि (येषाम्) त्रयाणां मध्ये (चतुर्थम्) तुरीयं शुद्धं ब्रह्म (वियुनक्ति) वियोजयति। प्रकटयति (वाचम्) वाणीम् (ब्रह्मा) अ० २।७। वेदवेत्ता विप्रः। योगिजनः (एनत्) निर्दिष्टं ब्रह्म (विद्यात्) जानीयात् (तपसा) ब्रह्मचर्यादिव्रतेन (विपश्चित्) अ० ६।५२।३। मेधावी-निघ० ३।१५। (यस्मिन्) तपसि (एकम्) ब्रह्म (युज्यते) समाधीयते (यस्मिन्) (एकम्) द्विर्वचनं वीप्सायाम् ॥
०४ बृहतः परि
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बृ॑ह॒तः परि॒ सामा॑नि ष॒ष्ठात्पञ्चाधि॒ निर्मि॑ता।
बृ॒हद्बृ॑ह॒त्या निर्मि॑तं॒ कुतोऽधि॑ बृह॒ती मि॒ता ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
बृ॑ह॒तः परि॒ सामा॑नि ष॒ष्ठात्पञ्चाधि॒ निर्मि॑ता।
बृ॒हद्बृ॑ह॒त्या निर्मि॑तं॒ कुतोऽधि॑ बृह॒ती मि॒ता ॥
०४ बृहतः परि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Forth out of bṛhát [as] sixth five sāmans [were] fashioned;
bṛhát was fashioned out of bṛhatī́; out of what was bṛhatī́ made?
Notes
Ppp. reads ṣaṣṭhaḥ instead of -ṭhāt.
Griffith
Out of the Brihat as the sixth five Salmons have been fashioned forth: From Brihati was Brihat formed: whence was the Brihati com- posed?
पदपाठः
बृ॒ह॒तः। परि॑। सामा॑नि। ष॒ष्ठात्। पञ्च॑। अधि॑। निःऽमि॑ता। बृ॒हत्। बृ॒ह॒त्याः। निःऽमि॑तम्। कुत॑ ः। अधि॑। बृ॒ह॒ती। मि॒ता। ९.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (षष्ठात्) छठे (बृहतः) बड़े [ब्रह्म] से (पञ्च) पाँच (सामानि) कर्म समाप्त करनेवाले [पाँच पृथिवी आदि भूत] (परि) सब ओर (अधि) अधिकारपूर्वक (निर्मिता) बने हैं। (बृहत्) बड़ा [जगत्] (बृहत्याः) बड़ी [विराट्, प्रकृति] से (निर्मितम्) बना है, (कुतः) कहाँ से (अधि) फिर (बृहती) बड़ी [प्रकृति] (मिता) बनी है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच तत्त्वों की अपेक्षा जो छठा ब्रह्म है, उससे वे पञ्चभूत प्रकट हुए हैं और उसी की शक्ति से वह जगत् बना है और उसी शक्तिमान् से वह शक्ति उत्पन्न हुई है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(बृहतः) प्रवृद्धाद् ब्रह्मणः (परि) सर्वतः (सामानि) सातिभ्यां मनिन्मनिणौ। उ० ४।१५३। षो अन्तकर्मणि-मनिन्। कर्मसमापकानि पृथिव्यादिभूतानि (षष्ठात्) (पञ्च) पञ्चसंख्याकानि (अधि) अधिकारे (निर्माता) रचितानि (बृहत्) प्रवृद्धं जगत् (बृहत्याः) प्रवृद्धायाः विराडाख्यायाः प्रकृतेः सकाशात् (निर्मितम्) रचितम् (कुतः) कस्मात् (अधि) (पुनः) (बृहती) महती विराट् (मिता) रचिता ॥
०५ बृहती परि
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बृ॑ह॒ती परि॒ मात्रा॑या मा॒तुर्मात्राधि॒ निर्मि॑ता।
मा॒या ह॑ जज्ञे मा॒याया॑ मा॒याया॒ मात॑ली॒ परि॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
बृ॑ह॒ती परि॒ मात्रा॑या मा॒तुर्मात्राधि॒ निर्मि॑ता।
मा॒या ह॑ जज्ञे मा॒याया॑ मा॒याया॒ मात॑ली॒ परि॑ ॥
०५ बृहती परि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Bṛhatī́ the measure (mā́trā) was fashioned forth out of measure
[as] a mother; illusion (māyā́) was born from illusion, Mātalī out of
illusion.
Notes
The desire to play upon the root mā ‘measure, fashion,’ is the leading
motive in the making of this verse. The pada-text gives the absurd
reading māyā́ḥ at beginning of c; Ppp. reads after it hi instead
of ha.
Griffith
On measure Brihati is based, and measure on the measurer: From magic might came magic might, from magic might came Matali.
पदपाठः
बृ॒ह॒ती। परि॑। मात्रा॑याः। मा॒तुः। मात्रा॑। अधि॑। निःऽमि॑ता। मा॒या। ह॒। ज॒ज्ञे॒। मा॒यायाः॑। मा॒यायाः॑। मात॑ली। परि॑। ९.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (बृहती) स्थूल सृष्टि (मात्रायाः) तन्मात्रा से (परि) सब प्रकार और (मातुः) निर्माता [परमेश्वर] से (अधि) ही (मात्रा) तन्मात्रा (निर्मिता) बनी है। (माया) बुद्धि (ह) निश्चय करके (मायायाः) बुद्धिरूप परमेश्वर से और (मायायाः) प्रज्ञारूप परमेश्वर से (मातली) इन्द्र [जीव] का रथवान् [अहंकार वा मन] (परि) सब प्रकार (जज्ञे) उत्पन्न हुआ ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर के सामर्थ्य से स्थूल और सूक्ष्म जगत्, और इन्द्र, अर्थात्, जीव का रथवान् मन भी उत्पन्न हुआ है ॥५॥ मन को अन्यत्र भी रथवान् सा माना है-यजु० ३४।६ ॥ सु॒षा॒रथिरश्वा॒निव॒ यन्म॑नु॒ष्यान्नेनी॒यते॒ऽभीशु॑भिर्वा॒जिन॑ इव। हृ॒त्प्रति॑ष्ठं॒ यद॑जि॒रं जवि॑ष्ठं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु ॥ जो [मन] मनुष्यों को [इन्द्रियों के द्वारा] लगातार लिये-लिये फिरता है, जैसे चतुर रथवान् वेगवाले घोड़ों को बागडोर से, जो हृदय में ठहरा हुआ, सबका चलानेहारा, पहाड़ी वेगवाला है वह मेरा मन मङ्गल विचार युक्त हो ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(बृहती) स्थूला सृष्टिः (परि) सर्वतः (मात्रायाः) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। माङ् माने−त्रन्। मीयन्तेऽनया विषयाः। तस्याः तन्मात्रायाः सकाशात् (मातुः) निर्मातुः परमेश्वरात् (मात्रा) तन्मात्रा (अधि) एव (निर्मिता) रचिता (माया) माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०८। मा शब्दे माने च-य, टाप्। प्रज्ञा-निघ० ३।९। (ह) एव (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (मायायाः) बुद्धिरूपात् परमेश्वरात् (मायायाः) (मातली) मतं ज्ञानं लाति गृह्णातीति मतल इन्द्रो जीवः। मत+ला-क। मतलस्यायं पुमान्। अत इञ्। पा० ४।१।९५। मतल-इञ्। सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णा०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। मातलिः। इन्द्रसारथिः। मनः यथा यजु० ३४।६। (परि) सर्वतः ॥
०६ वैश्वानरस्य प्रतिमोपरि
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वै॑श्वान॒रस्य॑ प्रति॒मोपरि॒ द्यौर्याव॒द्रोद॑सी विबबा॒धे अ॒ग्निः।
ततः॑ ष॒ष्ठादामुतो॑ यन्ति॒ स्तोमा॒ उदि॒तो य॑न्त्य॒भि ष॒ष्ठमह्नः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वै॑श्वान॒रस्य॑ प्रति॒मोपरि॒ द्यौर्याव॒द्रोद॑सी विबबा॒धे अ॒ग्निः।
ततः॑ ष॒ष्ठादामुतो॑ यन्ति॒ स्तोमा॒ उदि॒तो य॑न्त्य॒भि ष॒ष्ठमह्नः॑ ॥
०६ वैश्वानरस्य प्रतिमोपरि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Vāiśvānara’s counterpart [is] the sky above, as far as Agni forced
(bādh) apart the two firmaments; from that sixth yonder come the
sómas; up from here they go unto the sixth of the day.
Notes
For ā́ ’múto, in c, Ppp. reads āmico. The remainder of the hymn,
from this verse on, is by Vāit. 33. 8 allowed to be introduced at
pleasure in the navarātra ceremony.
Griffith
Vaisvanara’s image is the sky above us, so far as Agni forced both spheres asunder. Thence from that region as the sixth come praise-songs, and every sixth day hence again go upward.
पदपाठः
वै॒श्वा॒न॒रस्य॑। प्र॒ति॒ऽमा। उ॒परि॑। द्यौः। याव॑त्। रो॑दसी॒ इति॑। वि॒ऽब॒बा॒धे। अ॒ग्निः। ततः॑। ष॒ष्ठात्। आ। अ॒मुतः॑। य॒न्ति॒। स्तोमाः॑। उत्। इ॒तः। य॒न्ति॒। अ॒भि। ष॒ष्ठम्। अह्नः॑। ९.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (उपरि) ऊपर विराजमान (वैश्वानरस्य) सब नरों के हितकारी [परमेश्वर] की (प्रतिमा) प्रतिमा [आकृति समान] (द्यौः) आकाश है, (यावत्) जितना कि (अग्निः) अग्नि [सर्वव्यापक परमेश्वर] ने (रोदसी) सूर्य और पृथिवी लोक को (विबबाधे) अलग-अलग रोका है। (ततः) उसी के कारण (अमुतः) उस (षष्ठात्) छठे [परमेश्वर म० ४] से (अह्नः) दिन [प्रकाश] के (स्तोमाः) स्तुतियोग्य गुण [सृष्टिकाल में] (आ यन्ति) आते हैं, और (इतः) यहाँ से (षष्ठम् अभि) छठे [परमेश्वर] की ओर [प्रलय समय] (उत् यन्ति) ऊपर जाते हैं ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - आकाशसमान सर्वव्यापक और पञ्चभूतों की अपेक्षा छठे [म० ४] परमेश्वर ने सूर्य पृथिवी आदि लोकों को प्राणियों के उपकार के लिये अलग-अलग किया है, उसके ही सामर्थ्य से प्रकाश आदि प्रकट और लुप्त होते हैं ॥६॥ परमेश्वर आकाशसमान व्यापक है, जैसा कि यजुर्वेद−४०।१७। का वचन है [खं ब्रह्म] सबका रक्षक ब्रह्म आकाश [के तुल्य व्यापक है] ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(वैश्वानरस्य) अ० १।१०।१४। सर्वनरहितस्य (प्रतिमा) अ० ३।१०।३। आकृतिवत् (उपरि) सर्वोपरि विराजमानस्य (द्यौः) आकाशः (यावत्) यत्परिमाणम् (रोदसी) अ० ४।१।४। द्यावापृथिव्यौ (विबबाधे) पृथग् रुरुधे (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (ततः) तस्मात् कारणात् (षष्ठात्) म० ४। पञ्चभूतापेक्षया षष्ठात्परमेश्वरात् (अमुतः) पूर्वोक्तात् (आयन्ति) आगच्छन्ति (स्तोमाः) स्तुत्यगुणाः (उद्यन्ति) उद्गच्छन्ति (इतः) अस्माल्लोकात् (अभि) प्रति (षष्ठम्) ब्रह्म (अह्नः) दिनस्य। प्रकाशस्य ॥
०७ षट्त्वा पृच्छाम
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षट्त्वा॑ पृच्छाम॒ ऋष॑यः कश्यपे॒मे त्वं हि यु॒क्तं यु॑यु॒क्षे योग्यं॑ च।
वि॒राज॑माहु॒र्ब्रह्म॑णः पि॒तरं॒ तां नो॒ वि धे॑हि यति॒धा सखि॑भ्यः ॥
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मूलम् (VS)
षट्त्वा॑ पृच्छाम॒ ऋष॑यः कश्यपे॒मे त्वं हि यु॒क्तं यु॑यु॒क्षे योग्यं॑ च।
वि॒राज॑माहु॒र्ब्रह्म॑णः पि॒तरं॒ तां नो॒ वि धे॑हि यति॒धा सखि॑भ्यः ॥
०७ षट्त्वा पृच्छाम ...{Loading}...
Whitney
Translation
- We these six seers ask thee, O Kaśyapa, for thou didst join what is
joined and what is to be joined; they call (ah) virā́j the father of
the bráhman; distribute (? vi-dhā) it to us [thy] friends
according to [our] numbers.
Notes
Ppp. reads pṛchāmi ṛṣ- in a.
Griffith
We, Kagyapa! six present Rishis, ask thee–for thou hast prov- ed things tried and meet for trial They call Viraj the Father of Devotion: tell her to us thy friends in all her figures.
पदपाठः
षट्। त्वा॒। पृ॒च्छा॒म॒। ऋष॑यः। क॒श्य॒प॒। इ॒मे। त्वम्। हि। यु॒क्तम्। यु॒यु॒क्षे। योग्य॑म्। च॒। वि॒ऽराज॑म्। आ॒हुः॒। ब्रह्म॑णः। पि॒तर॑म्। ताम्। नः॒। वि। धे॒हि॒। य॒ति॒ऽधा। सखि॑ऽभ्यः। ९.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कश्यप) हे दृष्टिमान् विद्वन् ! (त्वम्) तू ने (हि) ही (युक्तम्) ध्यान किये हुए (च) और (योग्यम्) ध्यान योग्य [पदार्थ] को (युयुक्षे) ध्यान किया है, (त्वा) तुझ से (पृच्छाम) हम पूँछें, (इमे) ये (षट्) छह (ऋषयः) ऋषि अर्थात् इन्द्रियाँ [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक और मन] (ब्रह्मणः) ब्रह्म की (विराजम्) विविधेश्वरी शक्ति को (पितरम्=अपितरम्) निश्चय करके (आहुः) बताते हैं, (ताम्) उसे (सखिभ्यः नः) हम मित्रों को, (यतिधा) जितने प्रकार हो, (वि धेहि) विधान कर ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - भूत भविष्यत् के विचारवान् विद्वान् आचार्य और शिष्य इन्द्रिय आदि पदार्थों की रचना देखकर, परब्रह्म की शक्ति विचार कर सब पदार्थों से यथावत् उपकार लेवें ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(षट्) षट्संख्याकाः (त्वा) त्वाम् (पृच्छाम)) प्रश्नेन निश्चिनवाम (ऋषयः) अ० ४।११।९। सप्त ऋषयः षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी-निरु० १२।३७। इति वचनात्, त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनांसीन्द्रियाणि (कश्यप) अ० १।१४।४। पश्यक विद्वन् (त्वम्) (हि) अवश्यम् (युक्तम्) समाहितम् (युयुक्षे) युज समाधौ-लिट्। त्वं समाहितवानसि (योग्यम्) ध्यातव्यम् (च) (विराजम्) म० १। महेश्वरीं शक्तिम् (आहुः) कथयन्ति (ब्रह्मणः) परमेश्वरस्य (पितरम्) अल्लोपः। अपितरम्। निश्चयेन (ताम्) विराजम् (नः) अस्मभ्यम् (वि धेहि) विधानेन कथय (यतिधा) यत्प्रकारेण (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः ॥
०८ यां प्रच्युतामनु
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यां प्रच्यु॑ता॒मनु॑ य॒ज्ञाः प्र॒च्यव॑न्त उप॒तिष्ठ॑न्त उप॒तिष्ठ॑मानाम्।
यस्या॑ व्र॒ते प्र॑स॒वे य॒क्षमेज॑ति॒ सा वि॒राडृ॑षयः पर॒मे व्यो॑मन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यां प्रच्यु॑ता॒मनु॑ य॒ज्ञाः प्र॒च्यव॑न्त उप॒तिष्ठ॑न्त उप॒तिष्ठ॑मानाम्।
यस्या॑ व्र॒ते प्र॑स॒वे य॒क्षमेज॑ति॒ सा वि॒राडृ॑षयः पर॒मे व्यो॑मन् ॥
०८ यां प्रच्युतामनु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- After whom, when removed, the sacrifices remove (pra-cyu),
[whom], when attending, they attend on (upa-sthā), in whose course
(vratá) ⌊and?⌋ impulse the monster (? yakṣá) stirs—that, O seers, is
the virā́j in the highest firmament.
Notes
Griffith
She whom, advancing, sacrifices follow, and when she takes her station stand beside her, By whose control and hest the spirit moveth, she is Viraj, in highest heaven, O Rishis.
पदपाठः
याम्। प्रऽच्यु॑ताम्। अनु॑। य॒ज्ञाः। प्र॒ऽच्यव॑न्ते। उ॒प॒ऽतिष्ठ॑न्ते। उ॒प॒ऽतिष्ठ॑मानाम्। यस्याः॑। व्र॒ते। प्र॒ऽस॒वे। य॒क्षम्। एज॑ति। सा। वि॒ऽराट्। ऋ॒ष॒यः॒। प॒र॒मे॒। विऽओ॑मन्। ९.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- जगती
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (याम् प्रच्युताम् अनु) जिस आगे बढ़ी हुई के पीछे (यज्ञाः) यज्ञ [संयोग-वियोग व्यवहार, सृष्टिसमय में] (प्रच्यवन्ते) आगे बढ़ते हैं, (उपतिष्ठमानाम्) ठहरती हुई के [पीछे, प्रलय में] (उपतिष्ठन्ते) ठहर जाते हैं। (यस्याः) जिस [शक्ति] के (व्रते) नियम और (प्रसवे) बड़े ऐश्वर्य में (यक्षम्) संगतियोग्य जगत् (एजति) चेष्टा करता है, (ऋषयः) हे ऋषि लोगो ! (सा) वह (विराट्) विविधेश्वरी (परमे) सर्वोत्कृष्ट (व्योमन्) विविध रक्षक परमेश्वर में है ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो परमेश्वरशक्ति जगत् की उत्पति स्थिति और प्रलय का कारण है, उसका ऋषि लोग ध्यान करते हैं ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(याम्) विराजम् (प्रच्युताम्) अग्रेगताम् (अनु) अनुसृत्य (यज्ञाः) संयोगवियोगव्यवहाराः (प्रच्यवन्ते) प्रकर्षेण गच्छन्ति (उपतिष्ठन्ते) स्थितिं प्राप्नुवन्ति (उपतिष्ठमानाम्) स्थितिं गच्छन्तीम्, अनु इति शेषः (यस्याः) विराजः (व्रते) नियमे (प्रसवे) प्रकृष्टैश्वर्ये (यक्षम्) वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२। यज संगतिकरणे-स प्रत्ययः। संगन्तव्यं जगत् (एजति) चेष्टते (सा) (विराट्) म० १। महेश्वरी (ऋषयः) हे साक्षात्कृतधर्म्माणः (परमे) परमोत्कृष्टे (व्योमन्) अ० ५।१७।६। वि+अव-रक्षणे मनिन्। विविधरक्षके परमात्मनि ॥
०९ अप्राणैति प्राणेन
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अ॑प्रा॒णैति॑ प्रा॒णेन॑ प्राण॒तीनां॑ वि॒राट् स्व॒राज॑म॒भ्य᳡ति प॒श्चात्।
विश्वं॑ मृ॒शन्ती॑म॒भिरू॑पां वि॒राजं॒ पश्य॑न्ति॒ त्वे न॒ त्वे प॑श्यन्त्येनाम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑प्रा॒णैति॑ प्रा॒णेन॑ प्राण॒तीनां॑ वि॒राट् स्व॒राज॑म॒भ्य᳡ति प॒श्चात्।
विश्वं॑ मृ॒शन्ती॑म॒भिरू॑पां वि॒राजं॒ पश्य॑न्ति॒ त्वे न॒ त्वे प॑श्यन्त्येनाम् ॥
०९ अप्राणैति प्राणेन ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Breathless, she goes by the breath of breathing ones (f.); virā́j
goes unto svarā́j from behind; virā́j that touches, that is adapted
to, everything—some see her, some see her not.
Notes
No ms. ⌊of ours⌋ inserts t between -rā́ṭ and sva- in b ⌊but
four of SPP’s do so⌋, as required by Prāt. ii. 8 (under which this is
one of the passages quoted). In d we ought properly to have emended
to tve…tve (accentless); all the mss. accent the two words, against
the uniform usage elsewhere; and the pada-mss. commit the further
blunder of giving both times tvé íti, as if the word were the Vedic
locative of the 2d pers. pronoun (as in v. 2. 3).
Griffith
Breathless, she moves by breath of living creatures, Svaraj pre- cedes, Viraj comes closely after. Some men behold her not, and some behold her, Viraj meet- shaped, who thinks of all existence.
पदपाठः
अ॒प्रा॒णा। ए॒ति॒। प्रा॒णेन॑। प्रा॒ण॒तीना॑म्। वि॒ऽराट्। स्व॒ऽराज॑म्। अ॒भि। ए॒ति॒। प॒श्चात्। विश्व॑म्। मृ॒शन्ती॑म्। अ॒भिऽरू॑पाम्। वि॒ऽराज॑म्। पश्य॑न्ति। त्वे इति॑। न। त्वे। इति॑। प॒श्य॒न्ति॒। ए॒ना॒म्। ९.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अप्राणा) न श्वास लेनेवाली (विराट्) विराट् (विविधेश्वरी) (प्राणतीनाम्) श्वास लेनेवाली [प्रजाओं] के (प्राणेन) श्वास के साथ (एति) चलती है और (पश्चात्) फिर (स्वराजम् अभि) स्वराट् [स्वयं राजा, परमेश्वर] की ओर (एति) जाती है। (विश्वम्) जगत् को (मृशन्तीम्) छूती हुई (अभिरूपाम्) मनोहर (विराजम्) विराट् [महेश्वरी] को (त्वे) कोई-कोई (पश्यन्ति) देखते हैं और (त्वे) कोई-कोई (एनाम्) इस [महेश्वरी] को (न) नहीं (पश्यन्ति) देखते हैं ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - निरन्तर व्यापिनी ईश्वरशक्ति को सूक्ष्मदर्शी पुरुष साक्षात् करते हैं, अज्ञानी उसको नहीं जानते ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(अप्राणा) नास्ति प्राणः श्वासग्रहणावकाशो यस्याः सा। निरन्तरं चेष्टायमाना। निरलसा (प्राणेन) श्वासेन (प्राणतीनाम्) प्रश्वसन्तीनां प्रजानाम् (विराट्) म० १। ईश्वरशक्तिः (स्वराजम्) राजृ-क्विप्। स्वयं राजानं परमेश्वरम् (अभि) प्रति (एति) (पश्चात्) पुनः (विश्वम्) जगत् (मृशन्तीम्) स्पृशन्तीम् (अभिरूपाम्) मनोहरम् (विराजम्) महेश्वरीम् (पश्यन्ति) साक्षात्कुर्वन्ति (त्वे) सर्वनिघृष्वरिष्व०। उ० १।१५३। तनोतेः-वन्, टिलोपो निपात्यते। त्व इति विनिग्रहार्थीयं सर्वनामानुदात्तमर्धनामेत्येके-निरु० १।७। एके विद्वांसः (न) निषेधे (त्वे) अन्ये मूढाः (पश्यन्ति) (एनाम्) विराजम् ॥
१० को विराजो
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को वि॒राजो॑ मिथुन॒त्वं प्र वे॑द॒ क ऋ॒तून्क उ॒ कल्प॑मस्याः।
क्रमा॒न्को अ॑स्याः कति॒धा विदु॑ग्धा॒न्को अ॑स्या॒ धाम॑ कति॒धा व्यु᳡ष्टीः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
को वि॒राजो॑ मिथुन॒त्वं प्र वे॑द॒ क ऋ॒तून्क उ॒ कल्प॑मस्याः।
क्रमा॒न्को अ॑स्याः कति॒धा विदु॑ग्धा॒न्को अ॑स्या॒ धाम॑ कति॒धा व्यु᳡ष्टीः ॥
१० को विराजो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Who understandeth (pra-vid) the pair-ness of virā́j? who the
seasons, who the ordering (kálpa) of her? who her steps (kráma), how
many times milked out (vi-duh)? who her abode (dhā́man), how many
times dawnings (vyùṣṭi)?
Notes
The version is much more literal than intelligent, especially at the
end, where we expect rather vyùṣṭam than -ṭīs. ‘Pair-ness,’
mithunatvám, means especially the condition of being a pair of
opposite sexes.
Griffith
Who hath perceived Viraj’s duplication, perceived her seasons and her rule and practice? Who knows her steps, how oft, how far extended, who knows her home and number of her dawnings?
पदपाठः
कः। वि॒ऽराजः॑। मि॒थु॒न॒ऽत्वम्। प्र। वे॒द॒। कः। ऋ॒तून्। ऊं॒ इति॑। कल्प॑म्। अ॒स्याः॒। क्रमा॑न्। कः। अ॒स्याः॒। क॒ति॒ऽधा। विऽदु॑ग्धान्। कः। अ॒स्याः॒। धाम॑। क॒ति॒ऽधा। विऽउ॑ष्टीः। ९.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कौन पुरुष (विराजः) विराट् की [विविधेश्वरी ईश्वरशक्ति की] (मिथुनत्वम्) बुद्धिमत्ता (प्र) भले प्रकार (वेद) जानता है, (कः) कौन (अस्याः) इस [विराट्] के (ऋतून्) ऋतुओं [नियत कालों] को, और (कः) कौन (उ) ही (कल्पम्) सामर्थ्य को। (कः) कौन (अस्याः) इसके (कतिधा) कितने ही प्रकार से (विदुग्धान्) पूर्ण किये हुए (क्रमान्) क्रमों [विधानों] को, (कः) कौन (अस्याः) इसके (धाम) घर को और (कतिधा) कितने ही प्रकार की (व्युष्टीः) समृद्धियों को [जानता है] ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - दूरदर्शी, विवेकी जन परमात्मा की शक्ति के विविध स्वभावों को जानते हैं ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०−(कः) (विराजः) म० १। विविधैश्वर्याः (मिथुनत्वम्) क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।५५। मिथ वधे मेधायां च-उनन्, भावे त्व। बुद्धिमत्ताम् (प्र) प्रकर्षेण (वेद) जानाति (ऋतून्) वसन्तादितुल्यनियतकालान् (कः) (उ) एव (कल्पम्) कृपू सामर्थ्ये-अच् घञ् वा। सामर्थ्यम् (अस्याः) पूर्वोक्तायाः (क्रमान्) विधानानि (कः) (अस्याः) (कतिधा) कतिप्रकारेण। बहुप्रकारेण (विदुग्धान्) विविधपूरितान् (कः) (अस्याः) (धाम) गृहम् (कतिधा) (व्युष्टीः) वि+वस निवासे, आच्छादने प्रीतौ च, उष दाहे, वश कान्तौ वा-क्तिन्। समृद्धीः। प्रकाशान्। स्तुतीः ॥
११ इयमेव सा
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इ॒यमे॒व सा या प्र॑थ॒मा व्यौच्छ॑दा॒स्वित॑रासु चरति॒ प्रवि॑ष्टा।
म॒हान्तो॑ अस्यां महि॒मानो॑ अ॒न्तर्व॒धूर्जि॑गाय नव॒गज्जनि॑त्री ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒यमे॒व सा या प्र॑थ॒मा व्यौच्छ॑दा॒स्वित॑रासु चरति॒ प्रवि॑ष्टा।
म॒हान्तो॑ अस्यां महि॒मानो॑ अ॒न्तर्व॒धूर्जि॑गाय नव॒गज्जनि॑त्री ॥
११ इयमेव सा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- This same is she that first shone forth; among these other ones (f.)
she goes about having entered; great mightinesses [are] within her;
the woman, the new-going generatrix, hath conquered.
Notes
This verse occurred above, as iii. 10. 4. It is found also in other
texts in connection with the four verses which follow it here. Ppp. has
⌊in a, b⌋ the same readings as in iii. 10. ⌊4 a, b⌋; ⌊and, here
also, it inverts the order of c and d⌋.
Griffith
She here who first of all sent forth her lustre moves onward resting on these lower creatures. Exalted power and might are stored within her: the woman hath prevailed, the new-come mother.
पदपाठः
इ॒यम्। ए॒व। सा। या। प्र॒थ॒मा। वि॒ऽऔच्छ॑त्। आ॒सु। इत॑रासु। च॒र॒ति॒। प्रऽवि॑ष्टा। म॒हान्तः॑। अ॒स्या॒म्। म॒हि॒मानः॑। अ॒न्तः। व॒धूः। जि॒गा॒य॒। न॒व॒ऽगत्। जनि॑त्री। ९.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- जगती
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इयम् एव) यही (सा) यह ईश्वरी, [विराट्, ईश्वरशक्ति] है, (या) जो (प्रथमा) प्रथम (व्यौच्छत्) प्रकाशमान हुई है, और (आसु) इन सब और (इतरासु) दूसरी [सृष्टियों] में (प्रविष्टा) प्रविष्ट होकर (चरति) विचरती है। (अस्याम् अन्तः) इसके भीतर (महान्तः) बड़ी-बड़ी (महिमानः) महिमाएँ हैं, उस (नवगत्) नवीन-नवीन गतिवाली (वधूः) प्राप्तियोग्य (जनित्री) जननी ने [अनर्थों को] (जिगाय) जीत लिया है ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ईश्वरशक्ति की महिमाओं को अनुभव करके विद्वान् लोग विघ्नों का नाश करते हैं ॥११॥ यह मन्त्र आचुका है-अ० ३।१०।४ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ११−(इयम्) परिदृश्यमाना विराट् (एव) (सा) ईश्वरी (या) विराट्। अन्यत् पूर्ववत्-अ० ३।१०।४ ॥
१२ छन्दःपक्षे उषसा
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छन्दः॑पक्षे उ॒षसा॒ पेपि॑शाने समा॒नं योनि॒मनु॒ सं च॑रेते।
सूर्य॑पत्नी॒ सं च॑रतः प्रजान॒ती के॑तु॒मती॑ अ॒जरे॒ भूरि॑रेतसा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
छन्दः॑पक्षे उ॒षसा॒ पेपि॑शाने समा॒नं योनि॒मनु॒ सं च॑रेते।
सूर्य॑पत्नी॒ सं च॑रतः प्रजान॒ती के॑तु॒मती॑ अ॒जरे॒ भूरि॑रेतसा ॥
१२ छन्दःपक्षे उषसा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The two meter-winged dawns, greatly adorning themselves, move on
together toward the same lair (yóni); spouses of the sun, they move on
together, understanding, having ensigns, unaging, having abundant seed.
Notes
The Pet. Lexx. give the first word in the form chándaspakṣa, although
Prāt. ii. 62 expressly requires -aḥpa-, and all the mss. read it
except Bp., which has -aṣpa-. The verse is found also in TS. iv. 3.
11¹, MS. ii. 13. 10, K. xxxix. 10. Both TS. and MS. have at the
beginning chándasvatī; MS. reads uṣásāu, and at the end -retasāu;
at end of b, MS. gives anusáṁcarete and TS. ánu saṁcárantī; both
have ví for sám in c, and TS. ketúṁ kṛṇvāné for ketumátī in
d. Ppp. reads carati in c.
Griffith
Both Dawns on wings of song, with rich adornment, move on together to their common dwelling. Surya’s two wives, unwasting, most prolific, knowing their way, move, rich in light, together.
पदपाठः
छन्दः॑पक्षे॒ इति॒ छन्दः॑ऽपक्षे। उ॒षसा॑। पेपि॑शाने॒ इति॑। स॒मा॒नम्। योनि॑म्। अनु॑। सम्। च॒रे॒ते॒ इति॑। सूर्य॑पत्नी॒ इति॒ सूर्य॑ऽपत्नी। सम्। च॒र॒तः॒। प्र॒जा॒न॒ती इति॑ प्र॒ऽजा॒न॒ती। के॒तु॒मती॒ इति॑ के॒तु॒ऽमती॑। अ॒जरे॒ इति॑। भूरि॑ऽरेतसा। ९.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- जगती
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (उषसा) उषा [प्रभात वेला] के साथ (पेपिशाने) अत्यन्त सुवर्ण वा रूप करती हुई, (छन्दःपक्षे) स्वतन्त्रता का ग्रहण करती हुईं दोनों (समानम्) एक (योनिम् अनु) घर [परमेश्वर] के पीछे-पीछे (सम् चरेते) मिलकर चलती हैं। (प्रजानती) [मार्ग] जानती हुई, (केतुमती) झण्डा रखती हुई [जैसे], (अजरे) शीघ्र चलनेवाली, (भूरिरेतसा) बड़ी सामर्थ्यवाली, (सूर्यपत्नी) सूर्य की दोनों पत्नियाँ [रात्रि और प्रभातवेलायें] (सम् चरतः) मिलकर विचरती हैं ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - उसी विराट् की महिमा से रात्रि और दिन विविध प्रकार संसार का उपकार करते हैं ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १२−(छन्दःपक्षे) छदि संवरणे-असुन्+पक्ष परिग्रहे-अच्। स्वेच्छया ग्रहीत्र्यौ (उषसा) प्रभातवेलया सह (पेपिशाने) ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चानश्। पा० ३।३।१२९। पिश अवयवे प्रकाशे-च। यङ्लुकि-चानश्। पेशो हिरण्यनाम-निघ० १।२, रूपनाम-निघ० ३।७। अत्यन्तं पेशो हिरण्यं रूपं वा कुर्वाणे (समानम्) सामान्यम् (योनिम्) गृहम्। परमेश्वरम् (अनु) अनुसृत्य (सम् चरेते) समस्तृतीयायुक्तात्। पा० १।३।५४। आत्मनेपदम्। मिलित्वा चरतः (सूर्यपत्नी) सूर्यस्य पत्न्यौ यथा रात्रिप्रभातवेले (सम्) सम्यक् (चरतः) विचरतः (प्रजानती) मार्गं ज्ञात्र्यौ (केतुमती) पताकावत्यौ तथा (अजरे) अजराः क्षिप्रनाम-निघ० २।१५। क्षिप्रगामिन्यौ (भूरिरेतसा) बहुवीर्यवत्यौ ॥
१३ ऋतस्य पन्थामनु
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ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मनु॑ ति॒स्र आगु॒स्त्रयो॑ घ॒र्मा अनु॒ रेत॒ आगुः॑।
प्र॒जामेका॒ जिन्व॒त्यूर्ज॒मेका॑ रा॒ष्ट्रमेका॑ रक्षति देवयू॒नाम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मनु॑ ति॒स्र आगु॒स्त्रयो॑ घ॒र्मा अनु॒ रेत॒ आगुः॑।
प्र॒जामेका॒ जिन्व॒त्यूर्ज॒मेका॑ रा॒ष्ट्रमेका॑ रक्षति देवयू॒नाम् ॥
१३ ऋतस्य पन्थामनु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Three (f.) have come along the road of righteousness; three heats
(gharmá) have come after the seed; one (f.) enlivens the progeny, one
the refreshment (ū́rj); one defends the realm of the godly ones.
Notes
The verse follows the preceding in the other three texts also. TS.MS.
rectify the meter of b by reading gharmā́sas, and for rétas MS.
has rétasā and TS. jyótiṣā; TS. gives rákṣati for jínvati in
c; and for rāṣṭrám in d TS. has vratám and MS. kṣatrám.
Griffith
The three have passed along the path of Order–three warm libations have regarded offspring One quickens progeny, one strengthens vigour, and one protects the kingdom of the pious.
पदपाठः
ऋ॒तस्य॑। पन्था॑म्। अनु॑। ति॒स्रः। आ। अ॒गुः॒। त्रयः॑। ध॒र्माः। अनु॑। रेतः॑। आ। अ॒गुः॒। प्र॒ऽजाम्। एका॑। जिन्व॑ति। ऊर्ज॑म्। एका॑। रा॒ष्ट्रम्। एका॑। र॒क्ष॒ति॒। दे॒व॒ऽयू॒नाम्। ९.१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (तिस्रः) तीन [देवियाँ अर्थात् १−इडा स्तुतियोग्य भूमि वा नीति, २−सरस्वती प्रशस्त विज्ञानवाली विद्या वा बुद्धि, ३−और भारती पोषण करनेवाली शक्ति वा विद्या] (ऋतस्य) सत्य शास्त्र के (पन्थाम् अनु) पथ पर (आ अगुः) चलती आयी हैं और (त्रयः) तीन (घर्माः) सींचनेवाले यज्ञ [अर्थात् देवपूजा, संगतिकरण और दान] (रेतः अनु) वीरता के साथ-साथ (आ अगुः) चलते आये हैं। (एका) एक [इडा] (प्रजाम्) प्रजा को (एका) एक [सरस्वती] (ऊर्जम्) पुरुषार्थ वा अन्न को (जिन्वति) भरपूर करती हैं, (एकाः) एक [भारती] (देवयूनाम्) दिव्यगुण प्राप्त करनेवाले [धर्म्मात्माओं] के (राष्ट्रम्) राज्य की (रक्षति) रक्षा करती है ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - धर्म्मात्मा पुरुषार्थी पुरुष वेदमार्ग पर चल कर पुरुषार्थपूर्वक प्रजा और राज्य की रक्षा करते हैं ॥१३॥ तीन देवियों के विषय में देखो-अ० ५।३।७। और ५।१२।८ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३−(ऋतस्य) सत्यशास्त्रस्य, वेदस्य (पन्थाम्) पन्थानम् (अनु) अनुसृत्य (तिस्रः) तिस्रो देव्यः, इडासरस्वतीभारत्यः-अ० ५।३।७। तथा ५।१२।८। (आ अगुः) आगतवत्यः (त्रयः) देवपूजासंगतिकरणदानरूपाः (घर्माः) सेचकव्यवहारा यज्ञाः-निघ० ३।१७। (अनु) अनुलक्ष्य (रेतः) वीर्यम्। पुरुषार्थम् (आ अगुः) आगतवन्तः (प्रजाम्) सन्तानभृत्यादिरूपाम् (एका) इडा (जिन्वति) तर्पयति (ऊर्जम्) ऊर्ज बलप्राणनयोः-क्विप्। पुरुषार्थम्। अन्नम्-निघ० २।७। (एका) सरस्वती (राष्ट्रम्) राज्यम् (एका) भारती (रक्षति) पाति (देवयूनाम्) अ० ४।२१।२। दिव्यगुणप्रापकानाम्। धर्मात्मनाम् ॥
१४ अग्नीषोमावदधुर्या तुरीयासीद्यज्ञस्य
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अ॒ग्नीषोमा॑वदधु॒र्या तु॒रीयासी॑द्य॒ज्ञस्य॑ प॒क्षावृष॑यः क॒ल्पय॑न्तः।
गा॑य॒त्रीं त्रि॒ष्टुभं॒ जग॑तीमनु॒ष्टुभं॑ बृहद॒र्कीं यज॑मानाय॒ स्व᳡रा॒भर॑न्तीम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒ग्नीषोमा॑वदधु॒र्या तु॒रीयासी॑द्य॒ज्ञस्य॑ प॒क्षावृष॑यः क॒ल्पय॑न्तः।
गा॑य॒त्रीं त्रि॒ष्टुभं॒ जग॑तीमनु॒ष्टुभं॑ बृहद॒र्कीं यज॑मानाय॒ स्व᳡रा॒भर॑न्तीम् ॥
१४ अग्नीषोमावदधुर्या तुरीयासीद्यज्ञस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- She that was fourth set Agni-and-Soma; the seers arranging the (two)
wings of the sacrifice—gāyatrī́, triṣṭúbh, jágatī, anuṣṭúbh, bṛhadarkī́,
bringing heaven (svàr) for the sacrificer.
Notes
The meter-names in the second half-verse are all in the accusative,
possibly as coordinate with ‘wings’ in b; but comparison with the
other texts indicates that the verse is very corrupt. The translation
implies emendation of adadhus to adadhāt in a; it would not be
absolutely impossible to take ’the seers’ as subject in a, and ‘her
that was fourth’ as joint object with ‘Agni-and-Soma.’ Of the other
texts (as above), TS. begins with catuṣṭomó abhavad, and MS. with
catuṣṭomám adadhā; both rectify the meter of a by omitting ā́sīt;
in b both have ṛṣayas as vocative, and after it bhávantī, and
MS. has pakṣā́ (for -ṣāú) before it; in c, MS. has virā́jam for
anuṣṭúbham; in d, TS. begins with bṛhád arkám, MS. with arkám
alone; and both follow it with yuñjānā́ḥ svàr (TS., of course, súvar)
ā́ ’bharann idám. Ppp’s only variant is bṛhadarkīr in d.
Griffith
She who was fourth was made by Agni, Soma, and Rishis as. they formed both halves of worship, Gayatri, Trishtup, Jagati, Anushtup, Brihadarki lightening the sacrificer.
पदपाठः
अ॒ग्नीषोमौ॑। अ॒द॒धुः॒। या। तु॒रीया॑। आसी॑त्। य॒ज्ञस्य॑। प॒क्षौ। ऋष॑यः। क॒ल्पय॑न्तः। गा॒य॒त्रीम्। त्रि॒ऽस्तुभ॑म्। जग॑तीम्। अ॒नु॒ऽस्तुभ॑म्। बृ॒ह॒त्ऽअ॒र्कीम्। यज॑मानाय। स्वः᳡। आ॒ऽभर॑न्तीम्। ९.१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- चतुष्पदातिजगती
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञस्य) यज्ञ [रसों के संयोग-वियोग] के (पक्षौ) ग्रहण करनेवाले (अग्नीषोमौ) सूर्य और चन्द्रमा [के समान] (ऋषयः) ऋषि लोगों ने, (या) जो [वेदवाणी] (तुरीया) वेगवती वा ब्रह्म की [जो सत्व, रज और तम तीन गुणों से परे चौथा है] (आसीत्) थी, (यजमानाय) यजमान के लिये (स्वः) मोक्ष सुख (आभरन्तीम्) भर देनेवाली [उस] (गायत्रीम्) गाने योग्य, (त्रिष्टुभम्) [कर्म, उपासना और ज्ञान इन] तीन से पूजी गयी, (जगतीम्) प्राप्तियोग्य, (बृहदर्कीम्) बड़े सत्कारवाली (अनुष्टुभम्) निरन्तर स्तुतियोग्य [विराट् वा वेदवाणी] को (कल्पयन्तः) समर्थन करते हुए (अदधुः) धारण किया है ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार ऋषि महात्माओं ने यथावत् नियम पर चलकर वेदवाणी को ग्रहण किया है, उसी प्रकार सब मनुष्य वेदवाणी को स्वीकार कर के मोक्षपद प्राप्त करें ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १४−(अग्नीषोमौ) सूर्यचन्द्रौ यथा (अदधुः) धारितवन्तः (या) अनुष्टुप् वाक् (तुरीया) घच्छौ च। पा० ४।४।११७। तुर−छः, तत्र भव इत्यर्थे। तुरे वेगे भवा। वेगवती। यद्वा चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च। वा० पा० ५।२।५१। चतुर्-छ, चलोपः। सत्त्वरजस्तमोगुणत्रयपरं तुरीयं चतुर्थं ब्रह्म। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। तुरीय-अच्, टाप्। ब्रह्मसम्बन्धिनी (आसीत्) (यज्ञस्य) रसानां संयोगवियोगस्य (पक्षौ) ग्रहीतारौ (ऋषयः) मुनयः (कल्पयन्तः) कृपू सामर्थ्ये-णिचि-शतृ। समर्थयन्तः (गायत्रीम्) अ० ३।३।२। अभिनक्षियजिवधिपतिभ्योऽत्रन्। उ० ३।१०५। गै गाने-अत्रन्, ङीप्। गायत्री गायतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ७।१२। गानयोग्याम् (त्रिष्टुभम्) अ० ६।४८।३। त्रि+ष्टुभ पूजायाम्-क्विप्। स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। त्रिष्टुप् स्तोभत्युत्तरपदा, का तु त्रिता स्यात् तीर्णतमं छन्दस्त्रिवृद्वज्रस्तस्य स्तोभतीति वा, यत् त्रिरस्तोभत् तत् त्रिष्टुभस्त्रिष्टुप्त्वमिति विज्ञायते-निरु० ७।१२। त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः पूजिता (जगतीम्) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। गम्लृ गतौ-अति, ङीप्। जगती गोनाम-निघ० २।११। जगती गततमं छन्दो जलचरगतिर्वा जलगल्यमानोऽसृजदिति च ब्राह्मणम्-निघ० ७।१३। गम्यमानाम्। प्राप्तव्याम् (अनुष्टुभम्) अनु+ष्टुभ्-क्विप्। स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। अनुष्टुबनुष्टोभनात्-निरु० ७।१२। वाचम्-निघ० १।११। निरन्तरस्तुत्यां विराजं वेदवाचां वा (बृहदर्कीम्) बहुपूजावतीम् (यजमानाय) याजकाय (स्वः) मोक्षसुखम् (आभरन्ताम्) समन्तात् पोषयन्तीम् ॥
१५ पञ्च व्युष्टीरनु
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पञ्च॒ व्यु᳡ष्टी॒रनु॒ पञ्च॒ दोहा॒ गां पञ्च॑नाम्नीमृ॒तवोऽनु॒ पञ्च॑।
पञ्च॒ दिशः॑ पञ्चद॒शेन॒ क्लृप्तास्ता एक॑मूर्ध्नीर॒भि लो॒कमेक॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
पञ्च॒ व्यु᳡ष्टी॒रनु॒ पञ्च॒ दोहा॒ गां पञ्च॑नाम्नीमृ॒तवोऽनु॒ पञ्च॑।
पञ्च॒ दिशः॑ पञ्चद॒शेन॒ क्लृप्तास्ता एक॑मूर्ध्नीर॒भि लो॒कमेक॑म् ॥
१५ पञ्च व्युष्टीरनु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Five milkings after five dawnings; five seasons after the five-named
cow; five quarters arranged by the fifteenth—those (f.) [are]
one-headed toward one world.
Notes
‘The fifteenth’ (masc. or neut. sing.) might mean also ‘fifteen-fold, of
fifteen parts,’ etc. The verse is found in the three other texts (as
above), but in TS.MS. (also in K.?) separated at some distance from
those that here precede; also in PGS. iii. 3. 5: all read
samānámūrdhnīs instead of ékamū- in d.
Griffith
Five milkings answer to the fivefold dawning, five seasons to the cow who bears five titles. The five sky-regions made fifteen in number, one head have these to one sole world directed.
पदपाठः
पञ्च॑। विऽउ॑ष्टीः। अनु॑। पञ्च॑। दोहाः॑। गाम्। पञ्च॑ऽनाम्नीम्। ऋ॒तवः॑। अनु॑। पञ्च॑। पञ्च॑। दिशः॑। प॒ञ्च॒ऽद॒शेन॑। क्लृ॒प्ताः। ताः। एक॑ऽमूर्ध्नीः। अ॒भि। लो॒कम्। एक॑म्। ९.१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पञ्च) पाँच (व्युष्टीः) विविध प्रकार वास करनेवाली [तन्मात्राओं] के (अनु) साथ-साथ (पञ्च) पाँच [पृथिवी आदि पाँच भूत सम्बन्धी] (दोहाः) पूर्तिवाले पदार्थ हैं, (पञ्चनाम्नीम्) पूर्व आदि पाँच नामवाली, यद्वा पाँच ओर झुकनेवाली (गाम् अनु) दिशा के साथ-साथ (पञ्च) पाँच, (ऋतवः) ऋतुएँ हैं [अर्थात् शरद्, हेमन्त, शिशिर सहित, वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा]। (पञ्च) पाँच [पूर्वादि चार और एक ऊपरवाली] (दिशः) दिशाएँ (पञ्चदशेन) [पाँच प्राण अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान+पाँच इन्द्रिय अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, और घ्राण+पाँच भूत अर्थात् भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन] पन्द्रह पदार्थवाले जीवात्मा के साथ (क्लृप्ताः) समर्थ की गई हैं, (ताः) वे (एकमूर्ध्नीः) एक [परमेश्वर रूप] मस्तकवाली [दिशायें] (एकम्) एक (लोकम् अभि) देश की ओर [वर्तमान हैं] ॥१५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - उसी परमात्मा की शक्ति से पञ्चभूत, ऋतुएँ और दिशाएँ आदि जीवों के सुख के लिये उत्पन्न हुए हैं ॥१५॥ पाँच ऋतुओं के लिये देखो-अ० ८।२।२२ और निरु० ४।२७ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १५−(पञ्च) पञ्चसंख्याकाः (व्युष्टीः) म० १०। वि+वस निवासे-क्तिन्। विविधनिवासशीलाः। तन्मात्राः (अनु) अनुसृत्य (पञ्च) पृथिव्यादिपञ्चभूतसम्बन्धिनः (दोहाः) पूरिताः पदार्थाः (गाम्) दिशाम् (पञ्चनाम्नीम्) पूर्वादिचतस्र उच्चस्था चैका, ताभिः सह नामयुक्ताम्। यद्वा पञ्चदिक्षु नमनशीलाम् (ऋतवः) वसन्तादयः (अनु) अनुलक्ष्य (पञ्च) अ० ८।२।२२। पञ्चर्तवः…. हेमन्तशिशिरयोः समासेन-निरु० ४।२७। (पञ्च) पूर्वादिचतस्र उच्चस्था चैका (दिशः) आशाः (पञ्चदशेन) संख्ययाऽव्ययासन्नादूराधिकसंख्याः संख्येये। पा० २।२।२५। इति पञ्चाधिका दश यत्र स पञ्चदशः। बहुव्रीहौ संख्येये डजबहुगणात्। पा० ५।४।७३। पञ्चदशन्-डच्। पञ्चप्राणेन्द्रियभूतानि यस्मिन् तेन जीवात्मना (क्लृप्ताः) समर्थिताः (एकमूर्ध्नीः) श्वन्नुक्षन्पूषन्। उ० १।१५९। मुर्वी बन्धने-कनिन्। एकः परमेश्वरो मूर्धरूपो यासां ता दिशाः (अभि) अभिलक्ष्य (लोकम्) देशम् (एकम्) ॥
१६ षड्जाता भूता
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षड्जाता भू॒ता प्र॑थम॒जर्तस्य॒ षडु॒ सामा॑नि षड॒हं व॑हन्ति।
ष॑ड्यो॒गं सीर॒मनु॒ साम॑साम॒ षडा॑हु॒र्द्यावा॑पृथि॒वीः षडु॒र्वीः ॥
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मूलम् (VS)
षड्जाता भू॒ता प्र॑थम॒जर्तस्य॒ षडु॒ सामा॑नि षड॒हं व॑हन्ति।
ष॑ड्यो॒गं सीर॒मनु॒ साम॑साम॒ षडा॑हु॒र्द्यावा॑पृथि॒वीः षडु॒र्वीः ॥
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Whitney
Translation
- Six [are] born the beings first-born of righteousness; six
sā́mans carry the six-day (?) [sacrifice]; after the six-yoked plough
(sī́ra) severally a sā́man; six they call (ah) the heavens and
earths, six the wide [spaces].
Notes
The translation implies in b the reading ṣaḍahám; this is given in
our text, against the authority of our pada-mss. ⌊which have ṣáṭ:
ahám⌋; the saṁhitā-mss. (except O.p.m.) have ṣaḍ-. All the latter
read in a -já rtásya (p. prathama॰jā́: ṛtásya ⌊cf. JAGS. x. 451⌋.
Griffith
Six Elements arose, first-born of Order: the six-day time is carried by six Samans. Six-yoked the plough is, as each trace is numbered: they call both broad ones six; six, Earth and Heaven.
पदपाठः
षट्। जा॒ता। भू॒ता। प्र॒थ॒म॒ऽजा। ऋ॒तस्य॑। षट्। ऊं॒ इति॑। सामा॑नि। ष॒ट्ऽअ॒हम्। व॒ह॒न्ति॒। ष॒ट्ऽयो॒गम्। सीर॑म्। अनु॑। साम॑ऽसाम। षट्। आ॒हुः॒। द्यावा॑पृथि॒वीः। षट्। उ॒र्वीः। ९.१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतस्य) सत्यस्वरूप परमेश्वर के [सामर्थ्य, से] (प्रथमजा) विस्तार के साथ [वा पहिले] उत्पन्न (षट् भूता) छह इन्द्रियाँ [स्थूल त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक और मन] (जाता) प्रकट हुईं, (षट् उ) छह ही (सामानि) कर्म समाप्त करनेवाली [इन्द्रियाँ] (षडहम्) छह [इन्द्रियों] से व्याप्तिवाले [देह] को (वहन्ति) ले चलती हैं। (षड्योगम्) छह [स्पर्श, दृष्टि, श्रुति, रसना, घ्राण और मनन सूक्ष्म शक्तियों] से संयोगवाले (सीरम् अनु) बन्धन के साथ-साथ (सामसाम) प्रत्येक कर्म समाप्त करनेवाली [स्थूल इन्द्रिय है], [लोग] (षट् षट्) छह-छह [स्थूल इन्द्रियों और उनकी सूक्ष्म शक्तियों से सम्बन्धवाले] (उर्वीः) विस्तृत (द्यावापृथिवीः) प्रकाशमान और अप्रकाशमान लोकों को (आहुः) बताते हैं ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वानों ने निश्चय किया है कि परमेश्वर के सामर्थ्य से स्थूल इन्द्रियाँ और उनकी सूक्ष्म शक्तियाँ उत्पन्न हुईं और उनके ही आश्रित संसार के सब पदार्थ हैं ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १६−(षट्) षट्संख्याकानि (जाता) प्रादुर्भूतानि (भूता) म० ७। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनांसि स्थूलेन्द्रियाणि (प्रथमजा) प्रथेरमच्। उ० ५।६८। प्रथ प्रख्याने विस्तारे च-अमच्। विस्तारेण, आदौ वा जातानि (ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य परमात्मनः, सामर्थ्यात् इति शेषः (षट्) षट्संख्याकानीन्द्रियाणि (उ) एव (सामानि) म० ४। कर्मसमापकानीन्द्रियाणि (षडहम्) अह व्याप्तौ-घञर्थे क। षडिन्द्रियैः सह व्यापकं देहम् (वहन्ति) गमयन्ति (षड्योगम्) षडिन्द्रियाणां सूक्ष्मशक्तियुक्तम् (सीरम्) शुसिचिमीनां दीर्घश्च। उ० २।२५। षिञ् बन्धने-क्रन्, बन्धम् (अनु) अनुसृत्य (सामसाम) म० ४। प्रत्येक कर्मसमापकेन्द्रियम् (षट्) षट्स्थूलेन्द्रियसंबद्धाः (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (द्यावापृथिवीः) प्रकाशमानाप्रकाशमानलोकान् (षट्) षडिन्द्रियाणां सूक्ष्मसामर्थ्ययुक्ताः (उर्वीः) विस्तृताः ॥
१७ षडाहुः शीतान्षडु
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षडा॑हुः शी॒तान्षडु॑ मा॒स उ॒ष्णानृ॒तुं नो॒ ब्रूत॑ यत॒मोऽति॑रिक्तः।
स॒प्त सु॑प॒र्णाः क॒वयो॒ नि षे॑दुः स॒प्त च्छन्दां॒स्यनु॑ स॒प्त दी॒क्षाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
षडा॑हुः शी॒तान्षडु॑ मा॒स उ॒ष्णानृ॒तुं नो॒ ब्रूत॑ यत॒मोऽति॑रिक्तः।
स॒प्त सु॑प॒र्णाः क॒वयो॒ नि षे॑दुः स॒प्त च्छन्दां॒स्यनु॑ स॒प्त दी॒क्षाः ॥
१७ षडाहुः शीतान्षडु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Six they call the cold, and six the hot months; tell ye us the
season, which one [is] in excess (átirikta); seven eagles
(suparṇá), poets, sat down; seven meters after seven consecrations.
Notes
None of the mss. read śītā́nṭ ṣáḍ in a, as demanded by Prāt. ii. 9.
In d the construction of the two nouns is reversible.
Griffith
They call the cold months six, and six the hot ones. Which, tell us, of the seasons is redundant? Seven sages, eagles, have sat down together: seven metres match the seven Consecrations.
पदपाठः
षट्। आ॒हुः॒। शी॒तान्। षट्। ऊं॒ इति॑। मा॒सः। उ॒ष्णान्। ऋ॒तुम्। नः॒। ब्रू॒त॒। य॒त॒मः। अति॑ऽरिक्तः। स॒प्त। सु॒ऽप॒र्णाः। क॒वयः॑। नि। से॒दुः॒। स॒प्त। छन्दां॑सि। अनु॑। स॒प्त। दी॒क्षाः। ९.१७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - वे [ईश्वरनियम] (षट्) छह (शीतान्) शीत और (षट् उ) छह ही (उष्णान्) उष्ण (मासः) महीने (आहुः) बताते हैं, (ऋतुम्) [वह] ऋतु (नः) हमें (ब्रूत) बताओ (यतमः) जो कोई (अतिरिक्तः) भिन्न है। (सप्त) सात [वा सात वर्णवाली] (सुपर्णाः) बड़ी पालनेवाली (कवयः) गतिशील इन्द्रियाँ [वा सूर्य की किरणें] (सप्त) सात (छन्दांसि अनु) ढकनों [मस्तक के छिद्रों] के साथ (सप्त) सात (दीक्षाः) संस्कारों में (नि षेदुः) बैठी हैं ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - (कः स॒प्त खानि॒ वि त॑तर्द शी॒र्षणि॒ कर्णा॑वि॒मौ नासि॒॑के॒ चक्ष॑णी॒ मुख॑म्। येषां॑ पुरु॒त्रा विज॒यस्य॑ म॒ह्मनि॒ चतु॒ष्पादो द्वि॒पदो॒ यन्ति॒ याम॑म् ॥) अ० १०।२।६ ॥प्रजापति ने मस्तक में सात गोलक खोदे, यह दोनों कान, दो नथने, दो आँखें, और एक मुख। जिनके विजय की महिमा में चौपाये और दोपाये जीव अनेक प्रकार से मार्ग चलते हैं ॥ मस्तक में सात गोलक होने में यह अथर्ववेद १०।२।६ का प्रमाण मन्त्र है, इसका प्रमाण अ० २।१२।७ में आ चुका है। विराट्, ईश्वरशक्ति से वर्ष में द्वन्द्वसूचक शीत और उष्ण दो ऋतु हैं, अन्य ऋतुएँ इनके अन्तर्गत हैं। यह ऋतुएँ सूर्य की किरणों के तिरछे और सीधे पड़ने से होती हैं। किरणों में, शुल्क, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश और चित्र यह सात वर्ण हैं। इन किरणों का प्रभाव मस्तक के सात छिद्रों दो-दो कानों, नथनों, आँखों और एक मुख पर पड़ता है। उस से सात संस्कार, दो-दो प्रकार के श्रवण, गन्ध, दर्शन और एक कथन शक्ति उत्पन्न होकर समस्त शरीर का पालन करते हैं ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १७−(षट्) (आहुः) कथयन्ति परमात्मनियमाः (शीतान्) अ० १।२५।४। शीतलान् (षट्) (उ) एव (मासः) माङ् माने-असुन्। मासान् (उष्णान्) शीतभिन्नान् (ऋतुम्) वसन्तादिकम् (नः) अस्मभ्यम् (ब्रूत) कथयत (यतमः) यः कश्चित् (अतिरिक्तः) भिन्नः (सप्त) शुक्लनीलपीतादिसप्तवर्णयुक्ताः (सुपर्णाः) अ० १।२४।१। सुपर्णाः सुपतना आदित्यरश्मयः-निरु० ३।१२। आदित्यरश्मयः (कवयः)कवतेः धातोः गत्यर्थस्य कविः, कवति गच्छत्यसौ नित्यम्-इति दुर्गाचार्यो निरुक्तटीकायाम्, १२।१३। कवीनां कवीयमानानामादित्यरश्मीनाम्, कवीनां कवीयमानानामिन्द्रियाणाम्-निरु० १४।१३। गतिशीलानीन्द्रियाणि। गतिशीला आदित्यरश्मयः (निषेदुः) निषीदन्ति (सप्त) (छन्दांसि) अ० ४।३४।१। छदि आच्छादने-असुन्। कः सप्त खानि… अ० १०।२।६। इति श्रवणात्। आवरकाणि कर्णादीनि शीर्षण्यानि छिद्राणि (अनु) अनुसृत्य (सप्त) (दीक्षाः) अ० ८।५।१५। संस्कारान् ॥
१८ सप्त होमाः
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स॒प्त होमाः॑ स॒मिधो॑ ह स॒प्त मधू॑नि स॒प्तर्तवो॑ ह स॒प्त।
स॒प्ताज्या॑नि॒ परि॑ भू॒तमा॑य॒न्ताः स॑प्तगृ॒ध्रा इति॑ शुश्रुमा व॒यम् ॥
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मूलम् (VS)
स॒प्त होमाः॑ स॒मिधो॑ ह स॒प्त मधू॑नि स॒प्तर्तवो॑ ह स॒प्त।
स॒प्ताज्या॑नि॒ परि॑ भू॒तमा॑य॒न्ताः स॑प्तगृ॒ध्रा इति॑ शुश्रुमा व॒यम् ॥
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Whitney
Translation
- Seven [are] the offerings (hóma), the fuels seven, the sweet
things (mádhu, n.) seven, the seasons seven; seven sacrificial butters
(ā́jya) went about the existent thing (bhūtá); those (f .) are
seven-vultured, so have we heard.
Notes
The version is as literal as possible; to modify it would imply an
understanding of it. The nearest fem. word for ’those’ in d to
relate to is ‘fuels’ in a. All the saṁhitā-mss. combine saptá
rtávo in b. Ppp. reads in b nu for ha, and has instead of
our c, d: sapta jyāyāṁ parihūta gāyaṁ saptahotā ṛtudayajetitās
sapta gṛdhrā iti śuśravā ’haṁ. Nearly all the mss. (all of ours save
E.) read āyam (the saṁhitā-mss. -aṁ) at end of c.
Griffith
Seven are the Homas, seven the logs for burning, seven are the streams of mead, and seven the seasons. Into the world have come seven streams of butter; those we have heard of as the Seven Vultures.
पदपाठः
स॒प्त। होमाः॑। स॒म्ऽइधः॑। ह॒। स॒प्त। मधू॑नि। स॒प्त। ऋ॒तवः॑। ह॒। स॒प्त। स॒प्त। आज्या॑नि। परि॑। भू॒तम्। आ॒य॒न्। ताः। स॒प्त॒ऽगृ॒ध्राः। इति॑। शु॒श्रु॒म॒। व॒यम्। ९.१८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सप्त) सात (होमाः) [विषयों की] ग्रहण करनेवाली [इन्द्रियाँ, त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] (सप्त) सात (ह) ही (समिधः) विषय प्रकाश करनेवाली [इन्द्रियों की सूक्ष्म शक्तियाँ], (सप्त) सात (मधूनि) ज्ञान [विषय] और (सप्त) सात (ह) ही (ऋतवः) गति [प्रवृत्ति] हैं। [वे ही] (सप्त) सात (आज्यानि) विषयों के प्रकाशसाधन (भूतम् परि) प्रत्येक प्राणी के साथ (ताः) उन [प्रसिद्ध] (सप्तगृध्राः) सात इन्द्रियों से उत्पन्न हुई वासनाओं को (आयन्) प्राप्त हुए हैं, (इति) यह (वयम्) हम ने (शुश्रुम्) सुना है ॥१८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वानों ने वेदादि शास्त्रों से निश्चय किया है कि सात इन्द्रियों और उनकी सूक्ष्म शक्तियों द्वारा विषय का ज्ञान प्राप्त करके प्राणी कामों में प्रवृत्ति करता है ॥१८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १८−(सप्त) (होमाः) हु दानादानादनेषु-मन्। विषयाणां ग्राहिकास्त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः (समिधः) ज्ञानादिप्रकाशिकाः समिद्रूपा इन्द्रियशक्तयः (ह) एव (सप्त) (मधूनि) ज्ञाने-उ। ज्ञानानि। इन्द्रियविषयाः सप्त (ऋतवः) अर्त्तेश्च तुः। उ० १।७२। ऋ गतौ-तु। गतयः प्रवृत्तयः (सप्त) (आज्यानि) अ० ५।८।१। विषयाणां व्यक्तीकराणि साधनानि (परि) परीत्य। प्राप्य (भूतम्) जीवम् (आयन्) प्राप्नुवन् (ताः) प्रसिद्धाः (सप्तगृध्राः) सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२४। गृधु अभिकाङ्क्षायाम्-क्रन्। गृध्राणीन्द्रियाणि गृध्यतेर्ज्ञानकर्मणः-निरु० १४।१३। सप्त गृध्राणीन्द्रियाणि यासां ता वासनाः (इति) एवम् (शुश्रुम) श्रुतवन्तः (वयम्) ज्ञानिनः ॥
१९ सप्त छन्दांसि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स॒प्त छन्दां॑सि चतुरुत्त॒राण्य॒न्यो अ॒न्यस्मि॒न्नध्यार्पि॑तानि।
क॒थं स्तोमाः॒ प्रति॑ तिष्ठन्ति॒ तेषु॒ तानि॒ स्तोमे॑षु क॒थमार्पि॑तानि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स॒प्त छन्दां॑सि चतुरुत्त॒राण्य॒न्यो अ॒न्यस्मि॒न्नध्यार्पि॑तानि।
क॒थं स्तोमाः॒ प्रति॑ तिष्ठन्ति॒ तेषु॒ तानि॒ स्तोमे॑षु क॒थमार्पि॑तानि ॥
१९ सप्त छन्दांसि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Seven [are] the meters increasing (-úttara) by four, the one set
upon the other: how do the praises (stóma) stand firm in them? how are
they set in the praises?
Notes
The gender of anyás at beginning of b speaks strongly for a
compound like the later anyo ‘nya; but the double accent and the
pada-reading (anyáḥ: anyásmin) are against it. The pada-text
divides ā́rpitāni (ā॰árp-) at end of b, but not at end of d.
The verse is wanting in Ppp.
Griffith
Seven metres, by four syllables increasing, each of the seven founded upon another How are the hymns of praise on these supported, and how are these imposed upon the praise-songs?
पदपाठः
स॒प्त। छन्दां॑सि। च॒तुः॒ऽउ॒त्त॒राणि॑। अ॒न्यः। अ॒न्यस्मि॑न्। अधि॑। आर्पि॑तानि। क॒थम्। स्तोमाः॑। प्रति॑। ति॒ष्ठ॒न्ति॒। तेषु॑। तानि॑। स्तोमे॑षु। क॒थम्। आर्पि॑तानि। ९.१९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (चतुरुत्तराणि) [धर्म अर्थ काम मोक्ष] चतुर्वर्ग से अधिक उत्तम किये गये (सप्त) सात (छन्दांसि) ढकने [मस्तक के सात छिद्र] (अन्यः अन्यस्मिन्) एक दूसरे में (अधि) यथावत् (आर्पितानि) यथावत् जड़े हुए हैं। (कथम्) कैसे (स्तोमाः) स्तुतियोग्य गुण (तेषु) उन [मस्तक के गोलकों] में (प्रति तिष्ठन्ति) दृढ़ता से स्थित हैं, (तानि) वे [मस्तक के छिद्र] (स्तोमेषु) स्तुतियोग्य गुणों में (कथम्) कैसे (आर्पितानि) ठीक-ठीक जमे हुए हैं ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मस्तक के सात गोलक दो कान, दो नथने, दो आँखें, और एक मुख के द्वारा धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति से मनुष्य उत्तम सुख भोगते हैं, यह दृढ़ ईश्वरनियम है ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १९−(सप्त) (छन्दांसि) म० १७। शीर्षण्यानि छिद्राणि (चतुरुत्तराणि) उत्-तरप्। चतुर्वर्गेण धर्मार्थकाममोक्षरूपपुरुषार्थेन (अन्योऽन्यस्मिन्) परस्परम् (अधि) अधिकारे (आर्पितानि) सम्यक् निवेशितानि। संलग्नानि (कथम्) केन प्रकारेण (प्रति) निश्चयेन (तिष्ठन्ति) (तेषु) छन्दःसु (तानि) छन्दांसि (स्तोमेषु) स्तुत्यगुणेषु ॥
२० कथं गायत्री
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
क॒थं गा॑य॒त्री त्रि॒वृतं॒ व्या᳡प क॒थं त्रि॒ष्टुप्प॑ञ्चद॒शेन॑ कल्पते।
त्र॑यस्त्रिं॒शेन॒ जग॑ती क॒थम॑नु॒ष्टुप्क॒थमे॑कविं॒शः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
क॒थं गा॑य॒त्री त्रि॒वृतं॒ व्या᳡प क॒थं त्रि॒ष्टुप्प॑ञ्चद॒शेन॑ कल्पते।
त्र॑यस्त्रिं॒शेन॒ जग॑ती क॒थम॑नु॒ष्टुप्क॒थमे॑कविं॒शः ॥
२० कथं गायत्री ...{Loading}...
Whitney
Translation
- How did gāyatrī permeate (vi-āp) the triple [stóma]? how is
triṣṭúbh adapted to that of fifteen? how jāgatī to that of
thirty-three? how [is] anuṣṭúbh that of twenty-one?
Notes
This verse, like the preceding, is wanting in Ppp.; and they are in a
manner interruptions of the progress of the hymn.
Griffith
How hath the Gayatri filled out three triads? On the fifteen how is the Trishtup moulded, Jagati fashioned on the three-and-thirty? How is Anushtup formed? how Ekavinsa?
पदपाठः
क॒थम्। गा॒य॒त्री। त्रि॒ऽवृत॑म्। वि। आ॒प॒। क॒थम्। त्रि॒ऽस्तुप्। प॒ञ्च॒ऽद॒शेन॑। क॒ल्प॒ते॒। त्र॒यः॒ऽत्रिं॒शेन॑। जग॑ती। क॒थम्। अ॒नु॒ऽस्तुप्। क॒थम्। ए॒क॒ऽविं॒शः। ९.२०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गायत्री) गाने योग्य [वह विराट्] (त्रिवृतम्) [सत्त्व, रज और तमोगुण−इन] तीनों के साथ वर्तमान [जीवात्मा] को (कथम्) कैसे (वि आप) व्यापी है, (त्रिष्टुप्) [कर्म, उपासना और ज्ञान इन] तीनों द्वारा पूजी गयी [मुक्ति] (पञ्चदशेन) [म० १४। पाँच प्राण, पाँच इन्द्रिय, और पञ्चभूत-इन] पन्द्रह पदार्थवाले [जीवात्मा] के साथ (कथम्) कैसे (कल्पते) समर्थ होती है। (त्रयस्त्रिंशेन) [८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य, १ इन्द्र और १ प्रजापति−इन] तेंतीस [देवताओं] को अपने में रखनेवाले [परमात्मा] के साथ (कथम्) कैसे (जगती) प्राप्तियोग्य [प्रकृति, सृष्टि] और (कथम्) कैसे (अनुष्टुप्) निरन्तर स्तुतियोग्य [वेदवाणी] और (एकविंशः) [५ महाभूत, ५ प्राण, ५ ज्ञान इन्द्रिय, ५ कर्म इन्द्रिय और १ अन्तःकरण−इन] इक्कीस पदार्थोंवाला [जीवात्मा] [समर्थ होता है] ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ईश्वर की विविध शक्तियों को साक्षात् करके विज्ञानी योगीजन अपनी शक्तियाँ बढ़ाकर आनन्द पाते हैं ॥२०॥ तेंतीस देवता यह हैं−८ वसु, अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य द्यौः वा प्रकाश, चन्द्रमा और नक्षत्र,−११ रुद्र, अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय यह दश प्राण और ग्यारहवाँ जीवात्मा,−१२ आदित्य अर्थात् महीने,−१ इन्द्र अर्थात् बिजुली−१ प्रजापति अर्थात् यज्ञ,-अथर्व० ६।१३९।१। तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ६६।६८ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २०−(कथम्) केन प्रकारेण (गायत्री) म० १४। गानयोग्या विराट् (त्रिवृतम्) वृतु वर्तने-क्विप्। त्रिभिः सत्त्वरजस्तमोगुणैः सह वर्तमानं जीवात्मानम् (व्याप) व्याप्तवती (कथम्) (त्रिष्टुप्) म० १४। कर्मोपासनाज्ञानैः पूजिता (मुक्तिः) (पञ्चदशेन) म० १५। पञ्चप्राणेन्द्रियभूतानि यत्र तेन जीवात्मना (कल्पते) समर्था भवति (त्रयस्त्रिंशेन) त्र्यधिका त्रिंशत् यस्मिन् स त्रयस्त्रिंशः। बहुव्रीहौ संख्येये डजबहुगणात्। पा० ५।४।७३। बहुव्रीहौ डच्। वसुरुद्रादित्येन्द्रप्रजापतयस्त्रयस्त्रिंशद् देवा यस्मिन् तेन परमात्मना (जगती) म० १४। प्राप्तियोग्या। प्रकृतिः। सृष्टिः (कथम्) (अनुष्टुप्) म० १४। निरन्तरस्तुत्या वेदवाणी (कथम्) (एकविंशः) पूर्ववत् डच्। एकाधिका विंशतिर्यस्मिन् सः। पञ्चमहाभूतप्राणज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियैरन्तःकरणेन च सह वर्तमानो जीवात्मा ॥
२१ अष्ट जाता
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अ॒ष्ट जा॒ता भू॒ता प्र॑थम॒जर्तस्या॒ष्टेन्द्र॒र्त्विजो॒ दैव्या॒ ये।
अ॒ष्टयो॑नि॒रदि॑तिर॒ष्टपु॑त्राष्ट॒मीं रात्रि॑म॒भि ह॒व्यमे॑ति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒ष्ट जा॒ता भू॒ता प्र॑थम॒जर्तस्या॒ष्टेन्द्र॒र्त्विजो॒ दैव्या॒ ये।
अ॒ष्टयो॑नि॒रदि॑तिर॒ष्टपु॑त्राष्ट॒मीं रात्रि॑म॒भि ह॒व्यमे॑ति ॥
२१ अष्ट जाता ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Eight [are] born the beings first-born of righteousness; eight, O
Indra, are the priests (ṛtvíj) who are of the gods; Aditi has eight
wombs (yóni), eight sons; the oblation (havyám) goes unto the eighth
night.
Notes
With a compare 16 a above; here as there all the saṁhitā-mss.
combine -já rtásya, as in b all combine indra rtv-. Ppp. reads
from the beginning: aṣṭāu dhāmāni prathamajaṁ tasyā ’ṣṭe ’ndra ṛtv-;
and, in d, api for abhi.
Griffith
Eight Elements sprang up, first born of Order: the Priests divine are eight in number, Indra! Eight are the wombs of Aditi, eight her children; for the eighth night is the libation destined.
पदपाठः
अ॒ष्ट। जा॒ता। भू॒ता। प्र॒थ॒म॒ऽजा। ऋ॒तस्य॑। अ॒ष्ट। इ॒न्द्र॒। ऋ॒त्विजः॑। दैव्याः॑। ये। अ॒ष्टऽयो॑निः। अदि॑तिः। अ॒ष्टऽपु॑त्राः। अ॒ष्ट॒मीम्। रात्रि॑म्। अ॒भि। ह॒व्यम्। ए॒ति॒। ९.२१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अष्ट) आठ [महत्तत्त्व, अहंकार, पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश और मन से सम्बन्धवाले] (जाता) उत्पन्न (भूता) जीव (प्रथमजा) आदिकारण [प्रकृति] से प्रकट हैं, (ये) जो (अष्ट) आठ [चार दिशा और चार विदिशा में स्थित], (इन्द्र) हे जीव ! (ऋतस्य) सत्य नियम के (ऋत्विजः) सब ऋतुओं में देनेवाले (दैव्याः) दिव्य गुणवाले [पदार्थ हैं]। (अष्टयोनिः) [यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, इन] आठ से संयोगवाली, (अष्टपुत्रा) [अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व और कामावसायिता, इन आठ ऐश्वर्यरूप] आठ पुत्रवाली (अदितिः) अखण्ड [विराट् ईश्वरशक्ति] (अष्टमीम्) व्याप्त [जगत्] को नापनेवाली (रात्रिम् अभि) रात्रि [विश्राम देनेवाली मुक्ति] में (हव्यम्) स्वीकारयोग्य [सुख] [मनुष्य को] (एति) पहुँचाती हैं ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - संसार के बीच पुरुषार्थी योगी जन परमात्मा की ईश्वरता में स्थिरचित्त होकर ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २१−(अष्ट) महत्तत्त्वाहंकारपञ्चभूतमनोभिः संबद्धानि (जाता) उत्पन्नानि (भूता) भूतानि। जीवाः (प्रथमजा) प्रथमात् कारणाज्जातानि (ऋतस्य) सत्यनियमस्य (अष्ट) दिग्भिश्चावान्तरदिग्भिश्च सह स्थिताः (इन्द्र) हे जीव (ऋत्विजः) अ० ६।२।१। ये ऋतौ ऋतौ यजन्ति ददति ते (दैव्याः) दिव्यगुणाः पदार्थाः (अष्टयोनिः) अष्ट+यु मिश्रणामिश्रणयोः-नि। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि-योगदर्शने २।२९। एतैः सह संयुक्ता (अष्टपुत्रा) अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा ईशित्वं च वशित्वं च तथा कामावसायिता। इत ऐश्वर्याणि पुत्रसदृशानि यस्याः सा (अष्टमीम्) अशू व्याप्तौ-क्त। अष्टं व्याप्तं जगत् माति, मा-क। व्याप्तस्य जगतः परिमात्रीम् (रात्रिम्) अ० १।१६।१। रात्रिः कस्मात् प्ररमयति भूतानि नक्तंचारीण्युपरमयतीतराणि ध्रुवीकरोति रातेर्वा स्याद् दानकर्मणः प्रदीयन्तेऽस्यामवश्यायाः-निरु० २।१८। विश्रामदात्रीं मुक्तिम् (अभि) अभीत्य (हव्यम्) हु आदाने-यत्। ग्राह्यं सुखम् (एति) अन्तर्गतो णिच्। आययति। गमयति ॥
२२ इत्थं श्रेयो
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इ॒त्थं श्रेयो॒ मन्य॑माने॒दमाग॑मं यु॒ष्माकं॑ स॒ख्ये अ॒हम॑स्मि॒ शेवा॑।
स॑मा॒नज॑न्मा॒ क्रतु॑रस्ति॒ वः शि॒वः स वः॒ सर्वाः॒ सं च॑रति प्रजा॒नन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒त्थं श्रेयो॒ मन्य॑माने॒दमाग॑मं यु॒ष्माकं॑ स॒ख्ये अ॒हम॑स्मि॒ शेवा॑।
स॑मा॒नज॑न्मा॒ क्रतु॑रस्ति॒ वः शि॒वः स वः॒ सर्वाः॒ सं च॑रति प्रजा॒नन् ॥
२२ इत्थं श्रेयो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Thus thinking what is better have I come hither; in your friendship
I am auspicious (śéva); being of the same birth, your skill is
propitious; it (m.), understanding, goes about to you all (f.).
Notes
The adjectives in a, b are fem., seeming to indicate that the
virāj is regarded as speaking. Ppp. has ā ’gaṁ at end of a, and
nas for vas both times in c, d. ‘It’ in d apparently refers to
‘skill.’
Griffith
So planning bliss for you have I come hither to win your friendship: kind am I, and gracious. Born from one source, propitious is your wisdom: knowing full well to all of you it cometh.
पदपाठः
इ॒त्थम्। श्रेयः॑। मन्य॑मानाः। इ॒दम्। आ। अ॒ग॒म॒म्। यु॒ष्माक॑म्। स॒ख्ये। अ॒हम्। अ॒स्मि॒। शेवा॑। स॒मा॒नऽज॑न्मा। क्रतुः॑। अ॒स्ति॒। वः॒। शि॒वः। सः। वः॒। सर्वाः॑। सम्। च॒र॒ति॒। प्र॒ऽजा॒नन्। ९.२२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- जगती
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (इत्थम्) इस प्रकार (श्रेयः) आनन्द (मन्यमाना) मनाती हुई (अहम्) मैं [विराट्] (इदम्) इस [चराचर जगत्] में (आ अगमम्) आयी हूँ, और (युष्माकम्) तुम्हारी (सख्ये) मित्रता में (शेवा) सुख देनेवाली (अस्मि) हूँ। (समानजन्मा) [कर्मफल के साथ] एक जन्मवाला (वः क्रतुः) तुम्हारा बोध (शिवः) मङ्गलकारी (अस्ति) है, (सः) वह [बोध] (वः) तुम्हारी (सर्वाः) सब [आशायें] (प्रजानन्) समझता हुआ (संचरति) संचार करता है ॥२२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों के कल्याण के लिये ईश्वरशक्ति प्रकट होकर उन्हें संचित कर्म अनुसार बुद्धि देकर आगे के लिये पुरुषार्थ का उपदेश देती है ॥२२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २२−(इत्थम्) एवम् (श्रेयः) प्रशस्य-ईयसुन्। कल्याणम् (मन्यमाना) जानन्ती (इदम्) चराचरं जगत् (आ अगमम्) आगतवती (युष्माकम्) (सख्ये) मित्रभावे (अहम्) विराट् (अस्मि) (शेवा) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। शीङ् शयने-वन्। शेव इति सुखनाम शिष्यतेर्वकारो नामकरणोऽन्तस्थान्तरोपलिङ्गी विभाषितगुणः शिवमित्यप्यस्य भवति-निरु० १०।१७। सुखदा (समानजन्मा) एकोत्पत्तियुक्तः कर्मफलैः सह (क्रतुः) प्रज्ञा-निघ० ३।९ (अस्ति) (वः) युष्माकम् (शिवः) शङ्करः (सः) क्रतुः (वः) युष्माकम् (सर्वाः) अखिला आशा दीर्घाकाङ्क्षाः (संचरति) (प्रजानम्) प्रबोधन् ॥
२३ अष्टेन्द्रस्य षड्यमस्य
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अ॒ष्टेन्द्र॑स्य॒ षड्य॒मस्य॒ ऋषी॑णां स॒प्त स॑प्त॒धा।
अ॒पो म॑नु॒ष्या॒३॒॑नोष॑धी॒स्ताँ उ॒ पञ्चानु॑ सेचिरे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒ष्टेन्द्र॑स्य॒ षड्य॒मस्य॒ ऋषी॑णां स॒प्त स॑प्त॒धा।
अ॒पो म॑नु॒ष्या॒३॒॑नोष॑धी॒स्ताँ उ॒ पञ्चानु॑ सेचिरे ॥
२३ अष्टेन्द्रस्य षड्यमस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Eight of Indra, six of Yama, seven of the seers, seven-fold; waters,
men (manuṣyà), herbs—them five followed (sac) after.
Notes
The nouns in c are accusatives, and are apparently summed up in
’them’ (tā́n). All the mss. this time read with our text yamásya ṛ́ṣ-
in a-b. Ppp. puts the verse after our 24.
Griffith
To Indra eight, to Yama six, seven to the Rishis, seven to each: The number five accompanies waters and men and healing herbs.
पदपाठः
अ॒ष्ट। इन्द्र॑स्य। षट्। य॒मस्य॑। ऋषी॑णाम्। स॒प्त। स॒प्त॒ऽधा। अ॒पः। म॒नु॒ष्या᳡न्। ओष॑धीः। तान्। ऊं॒ इति॑। पञ्च॑। अनु॑। से॒चि॒रे॒। ९.२३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यमस्य) नियमवान् (इन्द्रस्य) जीव की (अष्ट) आठ [चार दिशा और चार विदिशायें], (षट्) छह [वसन्त, घाम, वर्षा, शरद्, शीत और शिशिर ऋतुएँ-अ० ६।५५।२], और (ऋषीणाम्) इन्द्रियों के (सप्त) सात [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि-अ० ४।११।९] (सप्तधा) [उनकी शक्तियों सहित] सात प्रकार से [हितकारक हैं] (अपः) कर्म और (ओषधीः) ओषधियों [अन्न आदि वस्तुओं] ने (तान्) उन [विद्वान्] (मनुष्यान्) मनुष्यों को (उ) ही (पञ्च अनु) [पृथिवी आदि] पाँच भूतों के पीछे-पीछे (सेचिरे) सींचा है ॥२३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - नियमवान् पुरुष, सब स्थानों और सब कालों में सब इन्द्रिय और सब पदार्थों से यथावत् उपकार लेकर पूर्वजों के समान उन्नति करता है ॥२३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २३−(अष्ट) पूर्वादिदिशा विदिशाश्च (इन्द्रस्य) जीवस्य (षट्) अ० ६।५५।२। वसन्ताद्यृतवः (यमस्य) यमो यच्छतीति सतः-निघ० १०।१९। नियमवतः (ऋषीणाम्) अ० ४।१९।९। त्वक्चक्षुरादीनाम् (सप्त) षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी-निरु० १२।३७। (सप्तधा) सप्तप्रकारेण स्वशक्तिभिः सह (अपः) कर्म-निघ० २।१। (मनुष्यान्) (ओषधीः) अन्नादिपदार्थाः (तान्) (उ) एव (पञ्च) पृथिव्यादिभूतानि (अनु) अनुसृत्य (सेचिरे) षच समवाये सेके च। सिक्तवत्यः। वर्द्धितवत्यः ॥
२४ केवलीन्द्राय दुदुहे
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केव॒लीन्द्रा॑य दुदु॒हे हि गृ॒ष्टिर्वशं॑ पी॒यूषं॑ प्रथ॒मं दुहा॑ना।
अथा॑तर्पयच्च॒तुर॑श्चतु॒र्धा दे॒वान्म॑नु॒ष्याँ॒३॒॑ असु॑रानु॒त ऋषी॑न् ॥
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मूलम् (VS)
केव॒लीन्द्रा॑य दुदु॒हे हि गृ॒ष्टिर्वशं॑ पी॒यूषं॑ प्रथ॒मं दुहा॑ना।
अथा॑तर्पयच्च॒तुर॑श्चतु॒र्धा दे॒वान्म॑नु॒ष्याँ॒३॒॑ असु॑रानु॒त ऋषी॑न् ॥
२४ केवलीन्द्राय दुदुहे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Since the heifer milked solely (kévalī) for Indra [his] will
(váśa), the beestings, [when] first milked, then [she] gratified
in four ways the four—gods, men, Asuras, and seers.
Notes
Ppp. reads at the end atha rṣīn; all our mss. save O. make the
combination utá ṛ́ṣin as in the printed text.
Griffith
The Heifer, all his own, poured forth for Indra control and milk at her first time of milking; And he then satisfied the four divisions, the Gods and men and Asuras and Rishis.
पदपाठः
केव॑ली। इन्द्रा॑य। दु॒दु॒हे। हि। गृ॒ष्टिः। वश॑म्। पी॒यूष॑म्। प्र॒थ॒मम्। दुहा॑ना। अथ॑। अ॒त॒र्प॒य॒त्। च॒तुरः॑। च॒तुः॒ऽधाः। दे॒वान्। म॒नु॒ष्या᳡न्। असु॑रान्। उ॒त। ऋषी॑न्। ९.२४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (प्रथमम्) पहिले से (दुहाना) पूर्ति करती हुई, (केवली) अकेली (गृष्टिः) ग्रहणयोग्य [विराट्] ने (हि) ही (इन्द्राय) जीव के लिये (वशम्) प्रभुता और (पीयूषम्) अमृत [अन्न, दुग्ध आदि] (दुदुहे) पूर्ण कर दिया है (अथ) तब उस [विराट्] ने (चतुर्धा) चार प्रकार से [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष द्वारा] (चतुरः) चारों (देवान्) विजय चाहनेवालों, (मनुष्यान्) मननशीलों, (असुरान्) बुद्धिमानों (उत) और (ऋषीन्) ऋषियों [धर्म के साक्षात् करनेवालों] को (अतर्पयत) तृप्त किया है ॥२४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने अपनी शक्ति से प्राणियों के पालन के लिये उनके कर्म अनुसार सब सामग्री उपस्थित करके उनके पुरुषार्थ द्वारा उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का भागी बनाया है ॥२४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २४−(केवली) एकैव (इन्द्राय) जीवहिताय (दुदुहे) पूरितवती (हि) एव (गृष्टिः) अ० २।१३।३। ग्रह-क्तिच्, पृषोदरादिरूपम्। ग्राह्या विराट् (वशम्) प्रभुत्वम् (पीयूषम्) अ० ८।३।१७। अमृतम्। अन्नदुग्धादिकम् (प्रथमम्) अग्रे (दुहाना) प्रपूरयन्ती (अथ) अनन्तरम् (अतर्पयत्) तर्पितवती (चतुरः) (चतुर्धा) चतुष्प्रकारेण धर्मार्थकाममोक्षद्वारा (देवान्) विजिगीषून् (मनुष्यान्) मननशीलान् (असुरान्) अ० १।१०।१। प्रज्ञावतः-निरु० १०।३४। (उत) अपि (ऋषीन्) अ० २।६।१। साक्षात्कृतधर्माणः पुरुषान् ॥
२५ को नु
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को नु गौः क ए॑कऋ॒षिः किमु॒ धाम॒ का आ॒शिषः॑।
य॒क्षं पृ॑थि॒व्यामे॑क॒वृदे॑क॒र्तुः क॑त॒मो नु सः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
को नु गौः क ए॑कऋ॒षिः किमु॒ धाम॒ का आ॒शिषः॑।
य॒क्षं पृ॑थि॒व्यामे॑क॒वृदे॑क॒र्तुः क॑त॒मो नु सः ॥
२५ को नु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What now [is] the ox (gó), who the sole seer, what the abode
(dhā́man), what the blessings (āśís)? the monster on the earth [is]
simple (ekavṛ́t); the sole season—which now is that?
Notes
Ppp. reads sāma for dhāma in b. All our mss. combine ekaṛṣís
in a, but all ekartús (also Ppp.) in d. It is necessary here
and in the next verse to render gāús ‘ox,’ because the accompanying
adjectives are masculine. ‘Which’ in d is the superlative katamá.
⌊Over “simple” W. has interlined “single."⌋
Griffith
Who is the Cow? Who is the Single Rishi? What is the law, what are the benedictions? What on the earth is the one only Spirit? Which of the number is the Single Season?
पदपाठः
कः। नु। गौः। कः। ए॒क॒ऽऋ॒षिः। किम्। ऊं॒ इति॑। धाम॑। काः। आ॒ऽशिषः॑। य॒क्षम्। पृ॒थि॒व्याम्। ए॒क॒ऽवृत्। ए॒क॒ऽऋ॒तुः। क॒त॒मः। नु। सः। ९.२५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (कः नु) कौन सा (गौः) [लोगों का] चलानेवाला, (कः) कौन (एकऋषिः) अकेला ऋषि [सन्मानदर्शक], (उ) और (किम्) कौन (धाम) ज्योतिःस्वरूप है, और (काः) कौनसी (आशिषः) हितप्रार्थनाएँ हैं। (पृथिव्याम्) पृथिवी पर [जो] (एकवृत्) अकेला वर्तमान (यक्षम्) पूजनीय [ब्रह्म] है, (सः) वह (एकर्तुः) एक ऋतुवाला [एकरस वर्तमान] (कतमः नु) कौन सा [पुरुष है] ॥२५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इन प्रश्नों का उत्तर अगले मन्त्र में है ॥२५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २५−(कः) (नु) प्रश्ने (गौः) गमेर्डोः। उ० २।६७। णिजर्थाद् गमेर्डो। गौरादित्यो भवति, गमयति रसान्, गच्छत्यन्तरिक्षे-निरु० २।१४। लोकानां गमयिता (कः) (एकऋषिः) अ० २।६।१। ऋषिः दर्शनात्-निरु० २।१। अद्वितीयसन्मार्गदर्शकः (किम्) (उ) (धाम) ज्योतिःस्वरूपम् (काः) (आशिषः) अ० २।२५।७। हितप्रार्थनाः (यक्षम्) म० ८। यज पूजायाम्-स। पूजनीयं ब्रह्म (पृथिव्याम्) भूमौ (एकवृत्) अद्वितीयवर्तमानम् (एकर्तुः) एकस्मिन् ऋतौ सदा वर्तमानः कालेनानवच्छेदात् (कतमः) सर्वेषां कः (नु) (सः) ॥
२६ एको गौरेक
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ए॒को गौरेक॑ एकऋ॒षिरेकं॒ धामै॑क॒धाशिषः॑।
य॒क्षं पृ॑थि॒व्यामे॑क॒वृदे॑क॒र्तुर्नाति॑ रिच्यते ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ए॒को गौरेक॑ एकऋ॒षिरेकं॒ धामै॑क॒धाशिषः॑।
य॒क्षं पृ॑थि॒व्यामे॑क॒वृदे॑क॒र्तुर्नाति॑ रिच्यते ॥
२६ एको गौरेक ...{Loading}...
Whitney
Translation
- One [is] the ox, one the sole seer, one the abode, singly the
blessings; the monster on the earth [is] single; the sole season is
not in excess.
Notes
Again Ppp. reads sāma for dhāma, and all the mss. (with Ppp.) have
ekaṛṣís but ekartús.
⌊Here ends the ninth artha-sūkta. It begins with kútaḥ. The quoted
Anukr. here says kutaḥ.⌋
Griffith
One is the Cow, one is the Single Spirit, one is the law, single are benedictions. The Spirit dwelling on the earth is single: the Single Season never is transcended.
पदपाठः
एकः॑। गौः। एकः॑। ए॒क॒ऽऋ॒षिः। एक॑म्। धाम॑। ए॒क॒ऽधा। आ॒ऽशिषः॑। य॒क्षम्। पृ॒थि॒व्याम्। ए॒क॒ऽवृत्। ए॒क॒ऽऋ॒तुः। न। अति॑। रि॒च्य॒ते॒। ९.२६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- विराट् सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (एकः) एक [सर्वव्यापक परमेश्वर] (गौः) [लोकों का] चलानेवाला, (एकः) एक (एकऋषिः) अकेला ऋषि [सन्मार्गदर्शक], (एकम्) एक [ब्रह्म] (धाम) ज्योतिःस्वरूप है, (एकधा) एक प्रकार से (आशिषः) हित प्रार्थनाएँ हैं। (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (एकवृत्) अकेला वर्तमान (यक्षम्) पूजनीय [ब्रह्म], (एकर्तुः) एक ऋतुवाला [एकरस वर्तमान परमात्मा] [किसी से] (न अति रिच्यते) नहीं जीता जाता है ॥२६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - एक, अद्वितीय, परमेश्वर अपनी अनुपम शक्ति से सर्वशासक है, उसी की आज्ञापालन सब प्राणियों के लिये हितकारक है ॥२६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २६−(एकः) इण्भीकापा०। उ० ३।४३। इण् गतौ-कन्। एति प्राप्नोतीत्येकः। सर्वव्यापकः केवलः परमेश्वरः (न) निषेधे (अति रिच्यते) पराभूयते केनापि। अन्यत् पूर्ववत् म० २५ ॥