००३ शत्रुनाशनम् ...{Loading}...
Whitney subject
- To Agni: against sorcerers and demons.
VH anukramaṇī
शत्रुनाशनम्।
१-२६ चातनः। अग्निः। त्रिष्टुप्, ७,१२,१४-१५,१७,२१ भुरिक्, २५ पञ्चपदा बृहतीगर्भा जगती २२-२३ अनुष्टुप्, २६ गायत्री।
Whitney anukramaṇī
[Cātana.—ṣaḍviṅśam. āgneyam. trāiṣṭubham: 7, I2, 14, 15, 17, 21. bhurij; 25. 5-p. bṛhatīgarbhā jagatī; 22, 23. anuṣṭubh; 26. gāyatrī.]
Whitney
Comment
Found also in Pāipp. xvi. (in the verse-order 1-4, 6, 5, 7-14, 18, 15, 17, 16, 19-22, 24, 26, 25, 23). The first 23 verses are (in slightly different order*) vss. 1-23 of RV. x. 87, and most of them are found in no other text. ⌊Cf. Oldenberg, Die Hymnen des RV. i. 246.⌋ *⌊Namely, with 4 after 6, with 17 and 18 inverted, and with 12 between 21 and 22.⌋
⌊Kāuś. reckons the hymn to the cātana hymns (8. 25). The comm. says (p. 587, l. 18 ff.) that the whole anuvāka, that is hymn 4 as well as 3, is to be used in a variety of practices, which he details. In the vaśāśamana ceremony (44. 16), after the victim’s “breath has been stopped” with ii. 34. 5, the performer takes his place at her right and mutters this hymn. Vs. 22 (not 21) is identical with vii. 71. 1, which was prescribed at 2. 10 for use in the parvan sacrifices, to accompany the carrying of fire thrice about the offering. Moreover, verses of this hymn are used in four expiatory rites as follows: vss. 15-18 accompany an oblation (112. 1) made when the cows give bloody milk; vs. 26 is used with vi. 63. 4 if spontaneous combustion occurs (46. 23); and the same vs. is used (130. 3) when there appears a bright glow without any fire; and yet again (131. 3), when the fire puffs (śvasati). Finally, the same vs. is used by Vāit. (6. 11) in the agnyādheya (with vi. 19. 2 etc.) with an offering to Agni śuci.⌋
Translations
Translated: Henry, 7, 43; Griffith, i. 392.
Griffith
A prayer for the destruction of demons
०१ रक्षोहणं वाजिनमा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
रक्षो॒हणं॑ वा॒जिन॒मा जि॑घर्मि मि॒त्रं प्रथि॑ष्ठ॒मुप॑ यामि॒ शर्म॑।
शिशा॑नो अ॒ग्निः क्रतु॑भिः॒ समि॑द्धः॒ स नो॒ दिवा॒ स रि॒षः पा॑तु॒ नक्त॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
रक्षो॒हणं॑ वा॒जिन॒मा जि॑घर्मि मि॒त्रं प्रथि॑ष्ठ॒मुप॑ यामि॒ शर्म॑।
शिशा॑नो अ॒ग्निः क्रतु॑भिः॒ समि॑द्धः॒ स नो॒ दिवा॒ स रि॒षः पा॑तु॒ नक्त॑म् ॥
०१ रक्षोहणं वाजिनमा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I pour ghee upon (a-ghṛ) the vigorous (vājín) demon-slayer; I go
for broadest protection to the friend; Agni, sharpened, [is] kindled
with acts of skill (? krátu); let him by day, let him by night,
protect us from harm.
Notes
This verse is found further in TS. (i. 2. 14⁶); neither RV. nor TS.
offers a variant reading.
Griffith
I balm with oil the mighty demon-slayer, to the most famous friend I come for shelter. Enkindled, sharpened by our rites, may Agni protect us in the day and night from evil.
पदपाठः
र॒क्षः॒ऽहन॑म्। वा॒जिन॑म्। आ। जि॒घ॒र्मि॒। मि॒त्रम्। प्रथि॑ष्ठम्। उप॑। या॒मि॒। शर्म॑। शिशा॑नः। अ॒ग्निः। क्रतु॑ऽभिः। सम्ऽइ॑ध्दः। सः। नः॒। दिवा॑। सः। रि॒षः। पा॒तु॒। नक्त॑म्। ३.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रक्षोहणम्) राक्षसों के मारनेवाले, (वाजिनम्) महाबली, पुरुष को (आ) भली-भाँति (जिघर्मि) प्रकाशित [प्रख्यात] करता हूँ, (प्रथिष्ठम्) अति प्रसिद्ध (मित्रम्) मित्र के पास (शर्म) शरण के लिये (उप यामि) मैं पहुँचता हूँ। (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी राजा अपने] (क्रतुभिः) कर्मों से (शिशानः) तीक्ष्ण किया हुआ और (समिद्धः) प्रकाशमान है, (सः) वह (नः) हमें (दिवा) दिन में, (सः) वह (नक्तम्) रात्रि में (रिषः) कष्ट से (पातु) बचावे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रतापी, पराक्रमी, प्रजापालक राजा की कीर्त्ति को प्रजागण गाते रहते हैं ॥१॥ मन्त्र १-२३ कुछ पदभेद और मन्त्रक्रम भेद से ऋग्वेद में है−१०।८७।१-२३ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(रक्षोहणम्) रक्षसां हन्तारम् (वाजिनम्) महाबलवन्तम् (आ) समन्तात् (जिघर्मि) घृ दीप्तौ। दीपयामि। प्रख्यापयामि (मित्रम्) सखायम् (प्रथिष्ठम्) पृथु-इष्ठन्। र ऋतो हलादेर्लघोः। पा० ६।४।१६१। इति ऋकारस्य रः। टेः। ६।४।१५५। टेर्लोपः। पृथुतमम्। अतिप्रसिद्धम् (उपयामि) उपगच्छामि (शर्म) शर्मणे। शरणाय (शिशानः) शो तनूकरणे-शानच्, शपः श्लौः, अभ्यासस्य इत्वम्, आत्वम्। तीक्ष्णीकृतः (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी राजा (क्रतुभिः) कर्मभिः-निघ० १।२। (समिद्धः) सम्यग् दीप्तः (सः) शूरः (नः) अस्मान् (दिवा) दिवसे (सः) (रिषः) रिष हिंसायाम्-क्विप्। कष्टात् (पातु) रक्षतु (नक्तम्) रात्रौ ॥
०२ अयोदंष्ट्रो अर्चिषा
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अयो॑दंष्ट्रो अ॒र्चिषा॑ यातु॒धाना॒नुप॑ स्पृश जातवेदः॒ समि॑द्धः।
आ जि॒ह्वया॒ मूर॑देवान्रभस्व क्र॒व्यादो॑ वृ॒ष्ट्वापि॑ धत्स्वा॒सन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अयो॑दंष्ट्रो अ॒र्चिषा॑ यातु॒धाना॒नुप॑ स्पृश जातवेदः॒ समि॑द्धः।
आ जि॒ह्वया॒ मूर॑देवान्रभस्व क्र॒व्यादो॑ वृ॒ष्ट्वापि॑ धत्स्वा॒सन् ॥
०२ अयोदंष्ट्रो अर्चिषा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Do thou, of iron tusks, O Jātavedas, kindled, touch the sorcerers
with thy flame (arcís); take hold of the false-worshipers with thy
tongue; cutting off (?) the flesh-eaters, shut them in thy mouth.
Notes
The comm. reads dhṛṣṭvā in d, paraphrasing it only with
dharṣitvā. RV. has vṛkivī́, which is most probably to be referred to
root vṛj. Ppp. has datsvā (for dhatsva).
Griffith
O Jatavedas, armed with teeth of iron, enkindled with thy flame, attack the demons. Seize with thy tongue the foolish gods’ adorers: rend, put with- in thy mouth the raw-flesh-eaters.
पदपाठः
अयः॑ऽदंष्ट्रः। अ॒र्चिषा॑। या॒तु॒ऽधाना॑न्। उप॑। स्पृ॒श॒। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। सम्ऽइ॑ध्दः। आ। जि॒ह्वया॑। मूर॑ऽदेवान्। र॒भ॒स्व॒। क्र॒व्य॒ऽअदः॑। वृ॒ष्ट्वा। अपि॑। ध॒त्स्व॒। आ॒सन्। ३.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (जातवेदः) प्रसिद्ध ज्ञानवाले [राजन् !] (अयोदंष्ट्रः) लोहसमान दाँतवाला [पुष्टाङ्ग], (समिद्धः) प्रकाशमान तू (अर्चिषा) [अपने] तेज से (यातुधानान्) दुःखदायी जीवों को (उप स्पृश) पाँवों से कुचल। (जिह्वया) [अपनी] जय शक्ति से (मूरदेवान्) मूढ़ [बुद्धिहीन] व्यवहारवालों को (आ रभस्व) पकड़ ले, और (वृष्ट्वा) पराक्रमी होकर तू (क्रव्यादः) मांस खानेवालों को (आसन्) [फेंकने के स्थान] कारागार में (अपिधत्स्व) बन्द कर दे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - नीतिमान्, बलवान् राजा दुष्टों को दण्ड देकर प्रजापालन करे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(अयोदंष्ट्रः) लोहवद्दन्तोपेतः (अर्चिषा) स्वतेजसा (यातुधानान्) पीडाप्रदान् पुरुषान् (उप स्पृश) उपपूर्वकः स्पृश पादैर्मर्दने। पादैश्चूर्णीकुरु (जातवेदः) हे प्रसिद्धप्रज्ञ (समिद्धः) प्रकाशितः (जिह्वया) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। जि जये-वन्, धोतोर्हुक्। जयशक्त्या (मूरदेवान्) रस्य ढः। दिवु व्यवहारे-अच्। मूरा अमूर न वयम्… मूढा वयं स्मऽमूढस्त्वमसि-निरु० ६।८। मूढव्यवहारान्। मन्दबुद्धिव्यवहारयुक्तान् (आ रभस्व) सम्यग् गृहाण (क्रव्यादः) मांसभक्षकान् (वृष्ट्वा) वृष शक्तिबन्धने पराक्रमे च। पराक्रमी भूत्वा (अपि धत्स्व) बधान (आसन्) अस्यते क्षिप्यतेऽत्र आस्यम्। असु क्षेपणे-ण्यत्। पद्दन्नोमास्० पा० ६।१।६३। आसन् आदेशः। आस्नि। क्षेपणस्थाने। कारागारे ॥
०३ उभोभयाविन्नुप धेहि
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उ॒भोभ॑यावि॒न्नुप॑ धेहि॒ दंष्ट्रौ॑ हिं॒स्रः शिशा॒नोऽव॑रं॒ परं॑ च।
उ॒तान्तरि॑क्षे॒ परि॑ याह्यग्ने॒ जम्भैः॒ सं धे॑ह्य॒भि या॑तु॒धाना॑न् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उ॒भोभ॑यावि॒न्नुप॑ धेहि॒ दंष्ट्रौ॑ हिं॒स्रः शिशा॒नोऽव॑रं॒ परं॑ च।
उ॒तान्तरि॑क्षे॒ परि॑ याह्यग्ने॒ जम्भैः॒ सं धे॑ह्य॒भि या॑तु॒धाना॑न् ॥
०३ उभोभयाविन्नुप धेहि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Apply both thy tusks, thou that hast them in both jaws (ubhayāvín),
the lower one and the upper, being harmful, sharpened; also in the
atmosphere go about, O Agni; put together thy grinders upon the
sorcerers.
Notes
RV. reads dáṅṣṭrā at end of a, and rājan for agne at end of
c. Ppp. has dehy ⌊in a, apparently⌋ and api for abhi in
d.
Griffith
Apply thy teeth, the upper and the lower, thou who hast both, enkindled and destroying. Roam also in the air, O King, around us, and with thy jaws assail the wicked spirits.
पदपाठः
उ॒भा। उ॒भ॒या॒वि॒न्। उप॑। धे॒हि॒। दंष्ट्रौ॑। हिं॒स्रः। शिशा॑नः। अव॑रम्। पर॑म्। च॒। उ॒त। अ॒न्तरि॑क्षे। परि॑। या॒हि॒। अ॒ग्ने॒। जम्भैः॑। सम्। धे॒हि॒। अ॒भि। या॒तु॒ऽधाना॑न्। ३.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (उभयाविन्) हे पूर्ति की रक्षा करनेवाले ! तू [शत्रुओं का] (हिंस्रः) नाश करनेवाला और (शिशानः) तीक्ष्ण होकर (अवरम्) नीचे के (च) और (परम्) ऊपर के (उभा) दोनों (दंष्ट्रौ) दाँतों को (उप धेहि) काम में ला। (उत) और (अग्ने) हे अग्नि [समान प्रतापी राजन् !] (अन्तरिक्षे) आकाश में [विमान से हमारे] (परि) आस-पास (याहि) विचर, (यातुधानान् अभि) दुःखदायी दुर्जनों पर (जम्भैः) दाँतों [दँतीले तेज हथियारों] से (सम् धेहि) लक्ष्य कर [वेध ले] ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा दुर्जनों को इस प्रकार दबाकर रक्खे, जैसे दाँतों के बीच वस्तु को दबा लेते हैं और आकाशमार्ग से सावधानी रखकर दुष्टों का नाश करे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(उभा) द्वौ (उभयाविन्) वलिमलितनिभ्यः कयन्। उ० ४।९९। उभ पूर्तौ-कयन्। सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये। पा० ३।२।७८। उभय+अव रक्षणे-णिनि। हे पूर्तिरक्षक (उप धेहि) उपयोगय (दंष्ट्रौ) दन्तौ (हिंस्रः) शत्रुनाशकः (शिशानः) म० १। तीक्ष्णीकृतः (अवरम्) अधोवर्तमानं दंष्ट्रम् (परम्) उपरि वर्तमानम् (च) (उत) अपि (अन्तरिक्षे) आकाशे विमानेन (परि) सर्वतः (याहि) संचर (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (जम्भैः) जभि नाशने-घञ्। नाशकर्मभिः। दन्तयुक्तायुधैः (सन्धेहि) लक्ष्यीकुरु (अभि) अभिलक्ष्य (यातुधानान्) पीडादायकान् ॥
०४ अग्ने त्वचम्
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अग्ने॒ त्वचं॑ यातु॒धान॑स्य भिन्धि हिं॒स्राशनि॒र्हर॑सा हन्त्वेनम्।
प्र पर्वा॑णि जातवेदः शृणीहि क्र॒व्यात्क्र॑वि॒ष्णुर्वि चि॑नोत्वेनम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अग्ने॒ त्वचं॑ यातु॒धान॑स्य भिन्धि हिं॒स्राशनि॒र्हर॑सा हन्त्वेनम्।
प्र पर्वा॑णि जातवेदः शृणीहि क्र॒व्यात्क्र॑वि॒ष्णुर्वि चि॑नोत्वेनम् ॥
०४ अग्ने त्वचम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- O Agni, split the skin of the sorcerer; let the harmful thunderbolt
smite him with flame (háras); crush his joints, O Jātavedas; let the
flesh-eating, flesh-craving ⌊one⌋ divide him.
Notes
RV. (vs. 5; its vs. 4 is our 6) reads vṛkṇám for enam at the end.
The comm. understands ‘a wolf or the like’ in d, and takes vi-ci
as ‘scatter about, dragging him to and fro to eat him.’ It more probably
refers to the flesh-eating Agni.
Griffith
Pierce through the Yatudhana’s skin, O Agni; let the destroying dart with fire consume him. Rend his joints, Jatavedas! let the eater of raw flesh, seeking flesh, tear and destroy him.
पदपाठः
अग्ने॑। त्वच॑म्। या॒तु॒ऽधान॑स्य। भि॒न्धि॒। हिं॒स्रा। अ॒शनिः॑। हर॑सा। ह॒न्तु॒। ए॒न॒म्। प्र। पर्वा॑णि। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। शृ॒णी॒हि॒। क्र॒व्य॒ऽअत्। क्र॒वि॒ष्णुः। वि। चि॒नो॒तु॒। ए॒न॒म्। ३..४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (यातुधानस्य) दुःखदायी दुष्ट की (त्वचम्) खाल (भिन्धि) उजाड़ दे, [तेरी] (हिंस्रा) वध करनेवाली (अशनिः) बिजुली [बिजुली का वज्र] (हरसा) अपने तेज से (एनम्) इस [अत्याचारी] को (हन्तु) मारे। (जातवेदः) हे महाधनी राजन् ! [उसके] (पर्वाणि) जोड़ों को (प्र शृणीहि) कुचल डाल, (क्रव्यात्) मांस खानेवाला, (क्रविष्णुः) भयंकर [सिंह, गीदड़, गिद्ध आदि जीव] (एनम्) इसको (वि चिनोतु) चींथ डाले ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा दुराचारियों को बिजुली वा अग्नि के हथियारों से कठिन दण्ड देकर विनाश करदे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (त्वचम्) अ० १।२३।४। चर्म (यातुधानस्य) पीडाप्रदस्य (हिंस्रा) हिंसिका (अशनिः) विद्युत्। वज्रः (हरसा) तेजसा-निरु० ५।१२। (हन्तु) नाशयतु (प्र) प्रकर्षेण (पर्वाणि) शरीरग्रन्थीन् (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन (शृणीहि) मर्दय (क्रव्यात्) मांसभक्षकः (क्रविष्णुः) णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। क्लव भये, णिच्-इष्णुच्, लस्य रः, णिलोपश्छान्दसः। क्रावयिष्णुः। भयङ्करो जन्तुः (वि चिनोतु) आकृष्य विप्रकीर्णं करोतु (एनम्) दुष्टम् ॥
०५ यत्रेदानीं पश्यसि
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यत्रे॒दानीं॒ पश्य॑सि जातवेद॒स्तिष्ठ॑न्तमग्न उ॒त वा॒ चर॑न्तम्।
उ॒तान्तरि॑क्षे॒ पत॑न्तं यातु॒धानं॒ तमस्ता॑ विध्य॒ शर्वा॒ शिशा॑नः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यत्रे॒दानीं॒ पश्य॑सि जातवेद॒स्तिष्ठ॑न्तमग्न उ॒त वा॒ चर॑न्तम्।
उ॒तान्तरि॑क्षे॒ पत॑न्तं यातु॒धानं॒ तमस्ता॑ विध्य॒ शर्वा॒ शिशा॑नः ॥
०५ यत्रेदानीं पश्यसि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Wherever now, O Jātavedas, thou seest a sorcerer standing, O Agni, or
also moving, also flying in the atmosphere, him [as] archer, pierce
with a shaft, being sharpened.
Notes
RV. (vs. 6) has a quite different c, yád vā ’ntárikṣe pathíbhiḥ
pátantam. Ppp. (vs. 6) reads in d viddhi śarvā. Many mss.
(including our Bp.W.E.O.T.) have sárvā in d.
Griffith
Where now thou seest, Agni Jatavedas! a Yatudhana, standing still or roaming. Or one that flieth through the air’s mid-region, kindled to fury as an archer pierce him.
पदपाठः
यत्र॑। इ॒दानी॑म्। पश्य॑सि। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। तिष्ठ॑न्तम्। अ॒ग्ने॒। उ॒त। वा॒। चर॑न्तम्। उ॒त। अ॒न्तरि॑क्षे। पत॑न्तम्। या॒तु॒ऽधान॑म्। तम। अस्ता॑। वि॒ध्य॒। शर्वा॑। शिशा॑नः। ३.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (जातवेदः) हे प्रसिद्ध ज्ञानवाले ! (अग्ने) हे अग्नि [समान प्रतापी राजन् !] (यत्र) जहाँ कहीं (इदानीम्) अब (तिष्ठन्तम्) खड़े हुए, (उत) और (वा) अथवा (चरन्तम्) घूमते हुए (उत) और (अन्तरिक्षे) आकाश में [विमान आदि से] (पतन्तम्) उड़ते हुए (यातुधानम्) दुःखदायी जन को (पश्यसि) तू देखता है, (शिशानः) तीक्ष्णस्वभाव, (अस्ता) बाण चलानेवाला तू (शर्वा) बाण वा वज्र से (तम्) उसे (विध्य) वेध ले ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा पृथिवी, समुद्र और आकाश के उपद्रवियों का नाश करके प्रजा को पाले ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(यत्र) (इदानीम्) (पश्यसि) निरीक्षसे (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञान (तिष्ठन्तम्) स्थितिं कुर्वन्तम् (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (उत) अपि (वा) अथवा (चरन्तम्) गच्छन्तम् (उत) (अन्तरिक्षे) आकाशे (पतन्तम्) उड्डीयमानम् (यातुधानम्) दुःखप्रदं जनम् (तम्) (अस्ता) बाणानां क्षेप्ता (विध्य) ताडय (शर्वा) शरुणा। बाणेन वज्रेण वा (शिशानः)-म० १। तीक्ष्णस्वभावः ॥
०६ यज्ञैरिषूः सन्नममानो
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य॒ज्ञैरिषूः॑ सं॒नम॑मानो अग्ने वा॒चा श॒ल्याँ अ॒शनि॑भिर्दिहा॒नः।
ताभि॑र्विध्य॒ हृद॑ये यातु॒धाना॑न्प्रती॒चो बा॒हून्प्रति॑ भङ्ग्ध्येषाम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
य॒ज्ञैरिषूः॑ सं॒नम॑मानो अग्ने वा॒चा श॒ल्याँ अ॒शनि॑भिर्दिहा॒नः।
ताभि॑र्विध्य॒ हृद॑ये यातु॒धाना॑न्प्रती॒चो बा॒हून्प्रति॑ भङ्ग्ध्येषाम् ॥
०६ यज्ञैरिषूः सन्नममानो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- By sacrifices, O Agni, straightening (sam-nam) thine arrows, by
speech smearing their tips with thunderbolts—with them pierce in the
heart the sorcerers; break back (pratīcás) their arms.
Notes
‘By sacrifices,’ ‘by speech’—i.e. in virtue of our offerings and praise.
RV. (vs. 4) offers no variant; Ppp. (vs. 5) reads śalyam in b.
Griffith
Bending thy shafts through sacrifices, Agni! dipping thine arrows in the hymn to point them, Pierce to the heart therewith the Yatudhanas, and break their arms uplifted to attack thee.
पदपाठः
य॒ज्ञैः। इषूः॑। स॒म्ऽनम॑मानः। अ॒ग्ने॒। वा॒चा। श॒ल्यान्। अ॒शनि॑ऽभिः। दि॒हा॒नः। ताभिः॑। वि॒ध्य॒। हृद॑ये। या॒तु॒ऽधाना॑न्। प्र॒ती॒चः। बा॒हून्। प्रति॑। भ॒ङ्ग्धि॒। ए॒षा॒म्। ३.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (वाचा) वाणी [विद्या] द्वारा (यज्ञैः) संयोग-वियोग व्यवहारों से (इषूः) बाणों को (संनममानः) सीधा करता हुआ, और (अशनिभिः) बिजुलियों से (शल्यान्) [उनके] शिरों को (दिहानः) पोतता हुआ [तीक्ष्ण करता हुआ] तू (ताभिः) उन [बाणों] से (यातुधानान्) दुःखदायी जनों को (हृदये) हृदय में (विध्य) वेधले और (एषाम्) उनकी (बाहून्) भुजाओं को (प्रतीचः) उलटा करके (प्रति भङ्ग्धि) तोड़ दे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा अपने शस्त्र-अस्त्रों को बिजुली आदि के प्रयोग से तीक्ष्ण रखकर शत्रुओं को मारे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(यज्ञैः) संयोगवियोगव्यवहारैः (इषूः) बाणान् (संनममानः) ऋजूकुर्वन् (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् (वाचा) वाण्या। विद्यया (शल्यान्) बाणाग्राणि (अशनिभिः) विद्युत्प्रयोगैः (दिहानः) दिग्धान् कुर्वन् (ताभिः) इषुभिः (विध्य) ताडय (यातुधानान्) पीडाप्रदान् (प्रतीचः) प्रतिमुखान् कृत्वा (बाहून्) भुजान् (प्रति) प्रतिकूलम् (भङ्ग्धि) भञ्जो आमर्दने। आमर्दय (एषाम्) यातुधानानाम् ॥६॥
०७ उतारब्धान्त्स्पृणुहि जातवेद
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उ॒तार॑ब्धान्त्स्पृणुहि जातवेद उ॒तारे॑भा॒णाँ ऋ॒ष्टिभि॑र्यातु॒धाना॑न्।
अग्ने॒ पूर्वो॒ नि ज॑हि॒ शोशु॑चान आ॒मादः॒ क्ष्विङ्का॒स्तम॑द॒न्त्वेनीः॑ ॥
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मूलम् (VS)
उ॒तार॑ब्धान्त्स्पृणुहि जातवेद उ॒तारे॑भा॒णाँ ऋ॒ष्टिभि॑र्यातु॒धाना॑न्।
अग्ने॒ पूर्वो॒ नि ज॑हि॒ शोशु॑चान आ॒मादः॒ क्ष्विङ्का॒स्तम॑द॒न्त्वेनीः॑ ॥
०७ उतारब्धान्त्स्पृणुहि जातवेद ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Both those that are seized do thou win (spṛ), O Jātavedas, and also
the sorcerers that have seized with spears; do thou, O Agni, first,
greatly gleaming, smite [him] down; let the variegated
raw-flesh-eating kṣvín̄kās eat him.
Notes
This verse differs somewhat, and inconsistently, from RV., which has
ā́labdham in a, and, without utá, ālebhānā́t…yātudhā́nāt in
b, giving the clear sense ‘win away him that is seized from the
sorcerer that has seized him,’ and agreeing with the sing. tám in
d. The AV. version yields no acceptable meaning; and most of the
saṁhitā-mss. read ārabdhāṁ in a (including our P.M.W.I.: some of
the others not noted), as if the word were after all a singular. The
comm. reads kṣvan̄kās in d, and explains it simply as
pakṣiviśeṣās. He gives a most absurd version of a, b: ‘protect
(us) who have begun (to praise thee) and (slay) with spears the
sorcerers who have made a noise’! ⌊Comm. seems to read rebhāṇān and to
take it from root ribh: cf. note to vs. 21.⌋ Ppp. has our version of
a, b, except that it reads utā ”lab- in a, and omits uta in
b ⌊i.e., if I understand R., it appears to begin b with
ārebhāṇāṅ⌋.
Griffith
Rescue the captives also, Jatavedas! yea, those whom Yatudha- nas’ spears have captured. Strike down that fiend, blazing before him, Agni! Let spotted carrion-eating kites devour him.
पदपाठः
उ॒त। आऽर॑ब्धान्। स्पृ॒णु॒हि॒। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। उ॒त। आ॒ऽरे॒भा॒णान्। ऋ॒ष्टिऽभिः॑। या॒तु॒ऽधाना॑न्। अग्ने॑। पूर्वः॑। नि। ज॒हि॒। शोशु॑चानः। आ॒म॒ऽअदः॑। क्ष्विङ्काः॑। तम्। अ॒द॒न्तु॒। एनीः॑। ३.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (उत) और (जातवेदः) हे प्रसिद्धधनवाले राजन् ! (आरब्धान्) [शत्रुओं करके] पकड़े हुओं को (स्पृणुहि) पाल (उत) और (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (पूर्वः) सब से पहिले और (शोशुचानः) अति प्रकाशमान तू (आरेभाणान्) [हमें] पकड़नेवाले (यातुधानान्) दुःखदायियों को (ऋष्टिभिः) दो धारा तरवारों से (नि जहि) मार डाल, (आमादः) मांस खानेवाली (एनीः) चितकबरी, (क्ष्विङ्काः) अव्यक्त शब्द बोलनेवाली [चील आदि पक्षी] (तम्) हिंसक चोर को (अदन्तु) खा जावें ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा प्रजा के पालने और वैरियों के मारने में सदा उद्यत रहे ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(उत) अपि च (आरब्धान्) रभ उपक्रमे-क्त। शत्रुभिर्गृहीतान् (स्पृणुहि) स्पृ पालने। पालय (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन राजन् (उत) (आरेभाणान्) रभ उपक्रमे-कानच्। अत एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि। पा० ६।४।१२०। अकारस्य एत्वम्, अभ्यासलोपश्च। ग्रहणशीलान् (ऋष्टिभिः) ऋषी गतौ-क्तिन्। उभयतो धारयुक्तैः खङ्गैः (यातुधानान्) पीडाप्रदान् (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (पूर्वः) अग्रगामी (नि) निरन्तरम् (जहि) मारय (शोशुचानः) अ० ४।११।३। भृशं दीप्यमानः (आमादः) मांसाशनाः (क्ष्विङ्काः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। ञिक्ष्विदा स्नेहमोचनयोः, अव्यक्त-शब्दे च-इण्, स च डित्। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। क्ष्वि+कै शब्दे-क। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। पा० ६।३।१४। इत्यलुक्। चिल्लादिपक्षिणः (तम्) तर्द हिंसने-ड। हिंसकं चोरम् (अदन्तु) भक्षयन्तु (एनीः) अ० ६।८३।२। कुर्बुरवर्णाः ॥
०८ इह प्र
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒ह प्र ब्रू॑हि यत॒मः सो अ॑ग्ने यातु॒धानो॒ य इ॒दं कृ॑णोति।
तमा र॑भस्व स॒मिधा॑ यविष्ठ नृ॒चक्ष॑स॒श्चक्षु॑षे रन्धयैनम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒ह प्र ब्रू॑हि यत॒मः सो अ॑ग्ने यातु॒धानो॒ य इ॒दं कृ॑णोति।
तमा र॑भस्व स॒मिधा॑ यविष्ठ नृ॒चक्ष॑स॒श्चक्षु॑षे रन्धयैनम् ॥
०८ इह प्र ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Proclaim thou here which that [is], O Agni—the sorcerer that is
doing this; him take hold of with the fuel, O youngest [god]; subject
him to the eye of the men-watcher.
Notes
RV. inserts another yás at beginning of b, and Ppp. has the same.
The comm. reads kṛṇoṣi (explaining it ⌊alternatively⌋ as = kṛṇoti)
at end of b, and yaviṣṭhya at end of c. ⌊Better, perhaps, in
a, ‘Proclaim which one he [is]’ etc.⌋
Griffith
Here tell this forth, O Agni: whosoever is, he himself, or acteth as, a demon, Grasp him, O thou most youthful, with thy fuel: to the Man- Seer’s eye give him as booty.
पदपाठः
इ॒ह। प्र। ब्रू॒हि॒। य॒त॒मः। सः। अ॒ग्ने॒। या॒तु॒ऽधानः॑। यः। इ॒दम्। कृ॒णोति॑। तम्। आ। र॒भ॒स्व॒। स॒म्ऽइधा॑। य॒वि॒ष्ठ॒। नृ॒ऽचक्ष॑सः। चक्षु॑षे। र॒न्ध॒य॒। ए॒न॒म्। ३.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (इह) यहाँ पर (प्र ब्रूहि) बतला दे, (यतमः) जो कोई (सः) वह (यातुधानः) दुःखदायी, [है] (यः) जो (इदम्) यह [दुष्कर्म] (कृणोति) करता है। (यविष्ठ) हे बलिष्ठ ! (तम्) उसे (समिधा) [अपने] तेज से (आ रभस्व) पकड़ ले, और (निर्चक्षसः) मनुष्यों पर दृष्टि रखनेवाले की [अर्थात् अपनी] (चक्षुषे) दृष्टि के लिये (एनम्) उसे (रन्धय) आधीन कर ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा प्रसिद्ध दुराचारियों को पकड़ कर दृष्टिगोचर रखकर उनका वृत्तान्त जानता रहे ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(इह) अस्मिन् समाजे (प्र ब्रूहि) विज्ञापय (यतमः) तेषां मध्ये यः कश्चित् (सः) (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (यातुधानः) (यः) (इदम्) दुष्कर्म (कृणोति) करोति (तम्) पापिनम् (आ रभस्व) निगृहाण (समिधा) स्वतेजसा (यविष्ठ) हे युवतम बलिष्ठ (नृचक्षसः) मनुष्याणां द्रष्टुः (चक्षुषे) दर्शनाय (रन्धय) अ० ४।२२।१। वशीकुरु (एनम्) दुष्टम् ॥
०९ तीक्ष्णेनाग्ने चक्षुषा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ती॒क्ष्णेना॑ग्ने॒ चक्षु॑षा रक्ष य॒ज्ञं प्राञ्चं॒ वसु॑भ्यः॒ प्र ण॑य प्रचेतः।
हिं॒स्रं रक्षां॑स्य॒भि शोशु॑चानं॒ मा त्वा॑ दभन्यातु॒धाना॑ नृचक्षः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ती॒क्ष्णेना॑ग्ने॒ चक्षु॑षा रक्ष य॒ज्ञं प्राञ्चं॒ वसु॑भ्यः॒ प्र ण॑य प्रचेतः।
हिं॒स्रं रक्षां॑स्य॒भि शोशु॑चानं॒ मा त्वा॑ दभन्यातु॒धाना॑ नृचक्षः ॥
०९ तीक्ष्णेनाग्ने चक्षुषा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- With sharp eye, O Agni, defend thou the sacrifice; conduct it forward
to the Vasus, O forethoughtful one; thee that art harmful, greatly
gleaming against the demons, let not the sorcerers injure, O
men-watcher.
Notes
Ppp. reads hiṅsrā at beginning of c. The comm. appears to regard
abhiśośucānam as a compound.
Griffith
With keen glance guard the sacrifice, O Agni: thou Sage, con- duct it onward to the Vasus. Let not the fiends, O Man-Beholder, harm thee burning against the Rakshasas to slay them.
पदपाठः
ती॒क्ष्णेन॑। अ॒ग्ने॒। चक्षु॑षा। र॒क्ष॒। य॒ज्ञम्। प्राञ्च॑म्। वसु॑ऽभ्यः। न॒य॒। प्र॒ऽचे॒तः॒। हिं॒स्रम्। रक्षां॑सि। अ॒भि। शोशु॑चानम्। मा। त्वा॒। द॒भ॒न्। या॒तु॒ऽधानाः॑। नृ॒ऽच॒क्षः॒। ३.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान प्रतापी राजन् !] (तीक्ष्णेन चक्षुषा) तीक्ष्ण दृष्टि से (प्राञ्चम्) श्रेष्ठ (यज्ञम्) पूजनीय व्यवहार की (रक्ष) रक्षा कर (प्रचेतः) हे दूरदर्शी [राजन् !] (वसुभ्यः) धनों के लिये [हमें] (प्र णय) आगे बढ़ा। (नृचक्षः) हे मनुष्यों पर दृष्टि रखनेवाले ! (रक्षांसि अभि) राक्षसों पर (हिंस्रम्) हिंसा करनेवाले और (शोशुचानम्) अति प्रकाशमान (त्वा) तुझको (यातुधानाः) दुःखदायी लोग (मा दभन्) न सतावें ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो प्रतापी दूरदर्शी राजा उत्तम व्यवहारों की रक्षा करके अपना और प्रजा का धन बढ़ाता है, उसे शत्रु नहीं सता सकते ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(तीक्ष्णेन) क्रूरेण (अग्ने) (चक्षुषा) दृष्ट्या (रक्ष) पालय (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (प्राञ्चम्) प्रगतम्। श्रेष्ठम् (वसुभ्यः) धनानां लाभाय (प्र णय) प्रगमय (प्रचेतः) दूरदर्शिन् राजन् (हिंस्रम्) हिंसकम् (रक्षांसि) राक्षसान् (अभि) प्रति (शोशुचानम्) भृशं दीपयन्तम् (मा दभन्) मा हिंसिषुः (त्वा) त्वाम् (यातुधानाः) राक्षसाः (नृचक्षः) हे मनुष्याणां द्रष्टः ॥
१० नृचक्षा रक्षः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
नृ॒चक्षा॒ रक्षः॒ परि॑ पश्य वि॒क्षु तस्य॒ त्रीणि॒ प्रति॑ शृणी॒ह्यग्रा॑।
तस्या॑ग्ने पृ॒ष्टीर्हर॑सा शृणीहि त्रे॒धा मूलं॑ यातु॒धान॑स्य वृश्च ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
नृ॒चक्षा॒ रक्षः॒ परि॑ पश्य वि॒क्षु तस्य॒ त्रीणि॒ प्रति॑ शृणी॒ह्यग्रा॑।
तस्या॑ग्ने पृ॒ष्टीर्हर॑सा शृणीहि त्रे॒धा मूलं॑ यातु॒धान॑स्य वृश्च ॥
१० नृचक्षा रक्षः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- A men-watcher, do thou look around for the demon among the people
(vikṣú); crush back his three points (ágra); crush, O Agni, his ribs
with flame (háras); cut up threefold the root of the sorcerer.
Notes
The comm. attempts no explanation of the ’three points,’ but simply
glosses agra with uparibhāga.
Griffith
Look on the fiend, ‘mid men, as Man-Beholder: rend thou his three extremities in pieces. Demolish with thy flame his ribs, O Agni: the Yatudhana’s root destroy thou triply.
पदपाठः
नृ॒ऽचक्षाः॑। रक्षः॑। परि॑। प॒श्य॒। वि॒क्षु। तस्य॑। त्रीणि॑। प्रति॑। शृ॒णी॒हि॒। अग्रा॑। तस्य॑। अ॒ग्ने॒। पृ॒ष्टीः। हर॑सा। शृ॒णी॒हि॒। त्रे॒धा। मूल॑म्। या॒तु॒ऽधान॑स्य। वृ॒श्च॒। ३.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नृचक्षाः) मनुष्यों पर दृष्टि रखनेवाला तू (रक्षः) राक्षस को (विक्षु) मनुष्यों के बीच (परि पश्य) जाँच कर देख, (तस्य) उसके (त्रीणि) तीन (अग्रा) अग्रभाग [मस्तक और दो कंधे] (प्रति शृणीहि) तरेड़ दे। (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (तस्य) उसकी (पृष्टीः) पसलियाँ (हरसा) बल से (शृणीहि) कुचल डाल, (यातुधानस्य) दुःखदायी की (मूलम्) जड़ को (त्रेधा) तीन प्रकार से [दोनों जङ्घा और कटिभाग से] (वृश्च) काट दे ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा उपद्रवियों को दण्ड देने में सदा कठोरहृदय रहे ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०−(नृचक्षाः) नॄणां द्रष्टा (रक्षः) दुष्टम् (परि) सर्वतः (पश्य) अवलोकय (विक्षु) मनुष्येषु। विशो मनुष्याः-निघ० २।३। (तस्य) (त्रीणि) त्रिसंख्याकानि (प्रति) प्रत्यक्षम् (शृणीहि) नाशय (अग्रा) अग्राणि। शिरः स्कन्धद्वयं च (तस्य) (अग्ने) (पृष्टीः) पार्श्वास्थीनि (शृणीहि) (त्रेधा) त्रिप्रकारेण। जङ्घाद्वयं कटिभागं च (मूलम्) शरीरस्य नीचभागम् (यातुधानस्य) (वृश्च) छिन्धि ॥
११ त्रिर्यातुधानः प्रसितिम्
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त्रिर्या॑तु॒धानः॒ प्रसि॑तिं त एत्वृ॒तं यो अ॑ग्ने॒ अनृ॑तेन॒ हन्ति॑।
तम॒र्चिषा॑ स्फूर्जय॑ञ्जातवेदः सम॒क्षमे॑नं गृण॒ते नि यु॑ङ्ग्धि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्रिर्या॑तु॒धानः॒ प्रसि॑तिं त एत्वृ॒तं यो अ॑ग्ने॒ अनृ॑तेन॒ हन्ति॑।
तम॒र्चिषा॑ स्फूर्जय॑ञ्जातवेदः सम॒क्षमे॑नं गृण॒ते नि यु॑ङ्ग्धि ॥
११ त्रिर्यातुधानः प्रसितिम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let the sorcerer thrice come within thy reach (? prásiti), who, O
Agni, slays truth (ṛtá) with untruth; roaring [at] him with thy
flame (arcís), O Jātavedas, do thou put him down (ni-yuj) before the
eyes of the singer.
Notes
Our ní yun̄dhi at the end is a weakened corruption of RV. ni vṛn̄dhi,
which is read also by Ppp., the comm., and one of SPP’s authorities.
SPP. reads yun̄gdhi, not heeding the rule of the Prāt. (ii. 20) to the
contrary. ⌊Cf. his bhan̄gdhi in vs. 6. And in his “Corrections” to vol.
ii., he is at pains thrice to correct vṛn̄dhi of p. 71-2 to vṛn̄gdhi.⌋
The majority of the mss. (including all ours save D.R.p.m.K.) accent
ágne in b; both editions, of course, emend to agne. The comm.
paraphrases prásitim with jvālām; he does not deign to add any
explanation to sphūrjáyan. The occurrence of enam in d seems to
require us to regard tám as object of sphūrjáyan.
Griffith
Thrice, Agni, let thy noose surround the demon who with his falsehood injures holy Order. Loud roaring with thy flame, Jatavedas, fetter him in the pre- sense of the singer.
पदपाठः
त्रिः। या॒तु॒ऽधानः॑। प्रऽसि॑तिम्। ते॒। ए॒तु॒। ऋ॒तम्। यः। अ॒ग्ने॒। अनृ॑तेन। हन्ति॑। तम्। अ॒र्चिषा॑। स्फू॒र्जय॑न्। जा॒त॒ऽवेदः। स॒म्ऽअ॒क्षम्। ए॒न॒म्। गृ॒ण॒ते। नि। यु॒ङ्ग्धि॒ । ३.११।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान प्रतापी राजन् !] (यातुधानः) वह दुःखदायी पुरुष (त्रिः) तीन बार (ते) तेरी (प्रसितिम्) बेड़ी को (एतु) प्राप्त हो, (यः) जो (ऋतम्) सत्य को (अनृतेन) असत्य से (हन्ति) तोड़ता है। (जातवेदः) हे प्रसिद्ध ज्ञानवाले [राजन् !] (अर्चिषा) अपने तेज से (तम् स्फूर्जयन्) उस पर गरजता हुआ तू (समक्षम्) सब के सन्मुख (एनम्) इस [शत्रु] को (गृणते) स्तुति करनेवाले के [हित के] लिये (नि युङ्ग्धि) बाँध ले ॥११॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा चोर डाकू आदि दुष्टों को प्रजा के हित के लिये यथावत् दण्ड देवे ॥११॥(त्रिः) तीन बार से प्रयोजन ऊपर, नीचे और मध्य पाश है, देखो अ० ७।८३।३ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ११−(त्रिः) त्रिवारम् (यातुधानः) पीडाप्रदः (प्रसितिम्) प्र+षिञ् बन्धने-क्तिन्। प्रसितिः प्रसयनात्तन्तुर्वा जालं वा-निरु० ६।१२। बन्धनम् (ते) तव (एतु) प्राप्नोतु (ऋतम्) सत्यनियमम् (यः) (अग्ने) तेजस्विन् राजन् (अनृतेन) मिथ्याकथनेन (हन्ति) नाशयति (तम्) दुष्टम् (अर्चिषा) तेजसा (स्फूर्जयन्) स्फुर्ज वज्रशब्दे-शतृ। गर्जयन् (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञान (समक्षम्) प्रत्यक्षम् (एनम्) शत्रुम् (गृणते) स्त्रोत्रं कुर्वते (नियुङ्ग्धि) युज संयमने, चुरादिः, रुधादित्वं छान्दसम्। नियोजय। बधान ॥
१२ यदग्ने अद्य
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यद॑ग्ने अ॒द्य मि॑थु॒ना शपा॑तो॒ यद्वा॒चस्तृ॒ष्टं ज॒नय॑न्त रे॒भाः।
म॒न्योर्मन॑सः शर॒व्या॒३॒॑ जाय॑ते॒ या तया॑ विध्य॒ हृद॑ये यातु॒धाना॑न् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यद॑ग्ने अ॒द्य मि॑थु॒ना शपा॑तो॒ यद्वा॒चस्तृ॒ष्टं ज॒नय॑न्त रे॒भाः।
म॒न्योर्मन॑सः शर॒व्या॒३॒॑ जाय॑ते॒ या तया॑ विध्य॒ हृद॑ये यातु॒धाना॑न् ॥
१२ यदग्ने अद्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What, O Agni, the pair utter in curses today, what harshness
(tṛṣṭá) of speech the reciters (rebhá) produce: the shaft that is
born of fury of the mind—with that pierce thou the sorcerers in the
heart.
Notes
‘That’ in d is fem., as if referring to the ‘shaft’ alone; and the
comm. regards a and b as describing faults caused by the
sorcerers, which Agni is to requite—which is doubtless the true
connection. Mithunā is explained as = strīpuṅsāu, and śapātas as =
parasparam ākrośatas. The verse is RV. vs. 13, its vs. 12 being found
much further on, as our vs. 21. Ppp. again reads viddhi for vidhya
in d.
Griffith
Agni, what curse the pair this day may utter, what rude rough word the worshippers have spoken, Each arrowy taunt sped from the angry spirit,–pierce to the heart therewith the Yatudhanas.
पदपाठः
यत्। अ॒ग्ने॒। अ॒द्य। मि॒थु॒ना। शपा॑तः। यत्। वा॒चः। तृ॒ष्टम्। ज॒नय॑न्तः। रे॒भाः। म॒न्योः। मन॑सः। श॒र॒व्या᳡। जाय॑ते। या। तया॑। वि॒ध्य॒। हृद॑ये। या॒तु॒ऽधाना॑न्। ३.१२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (यत्) जो (अद्य) आज (मिथुना) दो हिंसक मनुष्य [सत्पुरुषों से] (शपातः) कुवचन बोलते हैं, और (यत्) जो (रेभाः) शब्द करनेवाले [शत्रु लोग] (वाचः) वाणी की (तृष्टम्) कठोरता (जनयन्त) उत्पन्न करते हैं (मन्योः) क्रोध से (मनसः) मन की (या) जो (शरव्या) बाणों की झड़ी (जायते) उत्पन्न होती है, (तया) उससे (यातुधानान्) दुःखदायियों को (हृदये) हृदय में (विध्य) वेध ले ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा दुर्वचनभाषियों को विचारपूर्वक दण्ड देता रहे ॥१२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १२−(यत्) (अग्ने) (अद्य) अस्मिन् दिने (मिथुना) अ० ६।१४१।२। मिथृ वधे-उनन्। हिंसकौ (शपातः) शपतः (यत्) (वाचः) वाण्याः (तृष्टम्) ञितृषा पिपासायाम्-भावे क्त। तृष्णाम्। कटुत्वमित्यर्थः (जनयन्त) जनयन्ति। उत्पादयन्ति (रेभाः) रेभृ शब्दे-अच्। शब्दायमानाः शत्रवः (मन्योः) क्रोधात् (मनसः) अन्तःकरणस्य (शरव्या) अ० १।१९।१। शरु-यत्। बाणसंहतिः (जायते) उत्पद्यते (या) (तया) (विध्य) ताडय (हृदये) (यातुधानान्) पीडाप्रदान् ॥
१३ परा शृणीहि
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परा॑ शृणीहि॒ तप॑सा यातु॒धाना॒न्परा॑ग्ने॒ रक्षो॒ हर॑सा शृणीहि।
परा॒र्चिषा॒ मूर॑देवाञ्छृणीहि॒ परा॑सु॒तृपः॒ शोशु॑चतः शृणीहि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
परा॑ शृणीहि॒ तप॑सा यातु॒धाना॒न्परा॑ग्ने॒ रक्षो॒ हर॑सा शृणीहि।
परा॒र्चिषा॒ मूर॑देवाञ्छृणीहि॒ परा॑सु॒तृपः॒ शोशु॑चतः शृणीहि ॥
१३ परा शृणीहि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Crush away the sorcerers with heat; crush away, O Agni, the demon
with flame (háras); crush away with burning (arcís) the
false-worshipers; crush away the greatly gleaming ones that feed on
lives (? asutṛ́p).
Notes
RV. (vs. 14) is quite different in d: párā ’sutṛ́po abhí śóśucānaḥ.
The comm. paraphrases asutṛpas with paraprāṇāir ātmānaṁ tarpayantaḥ.
Griffith
With fervent heat exterminate the demons: destroy the fiends with glow and flame, O Agni. Destroy with fire the foolish gods’ adorers: destroy the insatiate fiercely-burning creatures.
पदपाठः
परा॑। शृ॒णी॒हि॒। तप॑सा। या॒तु॒ऽधाना॑न्। परा॑। अ॒ग्ने॒। रक्षः॑। हर॑सा। शृ॒णी॒हि॒। परा॑। अ॒र्चिषा॑। मूर॑ऽदेवान्। शृ॒णी॒हि॒। परा॑। अ॒सु॒ऽतृपः॑। शोशु॑चतः। शृ॒णी॒हि॒। ३.१३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि ! [समान तेजस्वी राजन् !] (तपसा) अपने तप [ऐश्वर्य वा प्रताप] से (यातुधानान्) दुःखदायिओं को (परा शृणीहि) कुचल डाल, (रक्षः) राक्षसों [दुराचारियों वा रोगों] को (हरसा) अपने बल से (परा शृणीहि) मिटा दे। (अर्चिषा) अपने तेज से (मूरदेवान्) मूढ़ [निर्बुद्धि] व्यवहारवालों को (परा शृणीहि) नाश करदे, (शोशुचतः) अत्यन्त दमकते हुए, (असुतृपः) [दूसरों के] प्राणों से तृप्त होनेवालों को (परा शृणीहि) चूर-चूर कर दे ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा अत्यन्त क्लेशदायक प्राणियों के नाश करने में सदा उद्यत रहे ॥१३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १३−(परा शृणीहि) सर्वथा विनाशय (तपसा) तापकेन तेजसा। ऐश्वर्येण। प्रतापेन (यातुधानान्) दुःखदायकान् (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (रक्षः) बहुवचनस्यैकवचनम्। रक्षांसि। रोगान् दुष्टप्राणिनो वा (हरसा) बलेन (परा शृणीहि) विमर्दय (अर्चिषा) तेजसा (मूरदेवान्) मन्त्र २। निर्बुद्धिव्यवहारयुक्तान् (असुतृपः) असुभिः परप्राणैरात्मानं तर्पयन्तः प्राणिनः (शोशुचतः) शुच दीप्तौ यङ्लुकि छान्दसः शतृ। शोशुचानान् भृशं देदीप्यमानान् (परा शृणीहि) चूर्णीकुरु ॥
१४ पराद्य देवा
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परा॒द्य दे॒वा वृ॑जि॒नं शृ॑णन्तु प्र॒त्यगे॑नं श॒पथा॑ यन्तु सृ॒ष्टाः।
वा॒चास्ते॑नं॒ शर॑व ऋच्छन्तु॒ मर्म॒न्विश्व॑स्यैतु॒ प्रसि॑तिं यातु॒धानः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
परा॒द्य दे॒वा वृ॑जि॒नं शृ॑णन्तु प्र॒त्यगे॑नं श॒पथा॑ यन्तु सृ॒ष्टाः।
वा॒चास्ते॑नं॒ शर॑व ऋच्छन्तु॒ मर्म॒न्विश्व॑स्यैतु॒ प्रसि॑तिं यातु॒धानः॑ ॥
१४ पराद्य देवा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let the gods crush away today the wicked one (vṛjiná); let [his]
curses sent forth go back upon him; let shafts strike (ṛch) in the
vitals him who steals by [magic] speech; let the sorcerer come within
every one’s reach.
Notes
RV. (vs. 15) reads tṛṣṭā́s (for sṛṣṭā́s) at end of b, and the
comm. and one of SPP’s authorities have the same. The comm. this time
paraphrases prásitim with prakarṣeṇa abhibhavitrīṁ hetim, adding as
alternative agner jvālām.
Griffith
May Gods destroy to-day the evil-doer: may uttered curses turn again and strike him. Let arrows pierce the liar in his vitals, and Visva’s net enclose the Yatudhana.
पदपाठः
परा॑। अ॒द्य। दे॒वाः। वृ॒जि॒नम्। शृ॒ण॒न्तु॒। प्र॒त्यक्। ए॒न॒म्। श॒पथाः॑। य॒न्तु॒। सृ॒ष्टाः। वा॒चाऽस्ते॑नम्। शर॑वः। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। मर्म॑न्। विश्व॑स्य। ए॒तु॒। प्रऽसि॑तिम्। या॒तु॒ऽधानः॑। ३.१४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) विजय चाहनेवाले शूर (अद्य) आज (वृजिनम्) पापी को (परा शृणन्तु) कुचल डालें, (सृष्टाः) [उसके] छोड़े हुए [कहे हुए] (शपथाः) कुवचन (एनम्) उसको (प्रत्यक्) प्रतिकूल गति से (यन्तु) पहुँचें। (शरवः) [हमारे] तीर (वाचास्तेनम्) बतचोर [छली] पुरुष को (मर्मन्) मर्मस्थान मे (ऋच्छन्तु) प्राप्त होवें, (विश्वस्य) सब में प्रवेश करनेवाले राजा की (प्रसितिम्) बेड़ी को (यातुधानः) दुःखदायी (एतु) पावे ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वीर राजा मिथ्यावादी, चोर, डाकुओं को दण्ड देकर नाश कर दे ॥१४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १४−(अद्य) अस्मिन् दिने (देवाः) विजिगीषवः शूराः (वृजिनम्) अ० १।१०।३। पापिनम्। वक्रस्वभावम् (पराशृणन्तु) दुरे नाशयन्तु (प्रत्यक्) प्रतिकूलगत्या (एनम्) वृजिनम् (शपथाः) कुवचनानि (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (सृष्टाः) त्यक्ताः। उच्चारिताः (वाचास्तेनम्) मृषावचनेन हर्तारम् (शरवः) बाणाः (ऋच्छन्तु) ऋच्छ गतीन्द्रियप्रलयमूर्तिभावेषु। प्राप्नुवन्तु (मर्मन्) अ० ५।८।९। जीवमरणस्थाने (विश्वस्य) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। विश प्रवेशने-क्वन्। सर्वत्र प्रवेशकस्य राज्ञः (एतु) गच्छतु (प्रसितिम्) म० ११। निगडम्। शृङ्खलाम् (यातुधानः) दुःखदायकः ॥
१५ यः पौरुषेयेण
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यः पौरु॑षेयेण क्र॒विषा॑ सम॒ङ्क्ते यो अश्व्ये॑न प॒शुना॑ यातु॒धानः॑।
यो अ॒घ्न्याया॒ भर॑ति क्षी॒रम॑ग्ने॒ तेषां॑ शी॒र्षाणि॒ हर॒सापि॑ वृश्च ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यः पौरु॑षेयेण क्र॒विषा॑ सम॒ङ्क्ते यो अश्व्ये॑न प॒शुना॑ यातु॒धानः॑।
यो अ॒घ्न्याया॒ भर॑ति क्षी॒रम॑ग्ने॒ तेषां॑ शी॒र्षाणि॒ हर॒सापि॑ वृश्च ॥
१५ यः पौरुषेयेण ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The sorcerer that smears himself (sam-añj) with the flesh of men,
who with that of horses, with cattle, who bears [off] the milk of the
inviolable [cow], O Agni—their heads cut thou into with flame.
Notes
Ppp. reads bharata in c. ⌊The áśveyena of Aufrecht’s RV.² seems
to be a misprint.⌋
Griffith
The fiend who smears himself with flesh of cattle, with flesh of horses and of human bodies, Who steals the milch-cow’s milk away, O Agni,–tear off the heads of such with fiery fury.
पदपाठः
यः। पौरु॑षेयेण। क्र॒विषा॑। स॒म्ऽअ॒ङ्क्ते। यः। अश्व्ये॑न। प॒शुना॑। या॒तु॒ऽधानः॑। यः। अ॒घ्न्यायाः॑। भर॑ति। क्षी॒रम्। अ॒ग्ने॒। तेषा॑म्। शी॒र्षाणि॑। हर॑सा। अपि॑। वृ॒श्च॒। ३.१५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मांसभक्षक के शिर काटने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (यातुधानः) दुःखदायी जीव (पौरुषेयेण) पुरुषवध से [प्राप्त] (क्रविषा) मांस से, (यः) जो (अश्व्येन) घोड़े के [मांस से] और (पशुना) [दूसरे] पशु से (समङ्क्ते) [अपने को] पुष्ट करता है। और (यः) जो (अघ्न्यायाः) [नहीं मारने योग्य] गौ के (क्षीरम्) दूध को (भरति=हरति) नष्ट करता है, (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (तेषाम्) उनके (शीर्षाणि) शिरों को (हरसा) अपने बल से (अपि वृश्च) काट डाल ॥१५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो कोई पुरुष, मनुष्य वा घोड़े वा अन्य पशु का मांस खावे वा गौ को मारकर दूध को घटावे, राजा उसका शिर कटवा दे ॥१५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १५−(यः) राक्षसः (पौरुषेयेण) अ० ७।१०५।१। पुरुषवधेन प्राप्तेन (क्रविषा) अर्चिशुचिहु०। उ० २।१०८। क्रव वधे-इसि। मांसेन (समङ्क्ते) सम्पूर्वकः अञ्जू भरणे भक्षणे च। आत्मानं पोषयति (यः) (अश्व्येन) भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। अश्व-यत्। अश्वसम्बन्धिना क्रविषा (पशुना) अजादिप्राणिना (यातुधानः) दुःखदायकः (यः) (अघ्न्यायाः) अ० ३।३०।१। अहन्तव्याया गोः (भरति) हस्य भः। हरति नाशयति (क्षीरम्) दुग्धम् (अग्ने) (तेषाम्) यातुधानानाम् (शीर्षाणि) शिरांसि (हरसा) बलेन (अपि वृश्च) सर्वथा छिन्धि ॥
१६ विषं गवाम्
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वि॒षं गवां॑ यातु॒धाना॑ भरन्ता॒मा वृ॑श्चन्ता॒मदि॑तये दु॒रेवाः॑।
परै॑णान्दे॒वः स॑वि॒ता द॑दातु॒ परा॑ भा॒गमोष॑धीनां जयन्ताम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वि॒षं गवां॑ यातु॒धाना॑ भरन्ता॒मा वृ॑श्चन्ता॒मदि॑तये दु॒रेवाः॑।
परै॑णान्दे॒वः स॑वि॒ता द॑दातु॒ परा॑ भा॒गमोष॑धीनां जयन्ताम् ॥
१६ विषं गवाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let the sorcerers bear [off] poison of the kine; let them of evil
courses fall under the wrath of Aditi; let god Savitar abandon them; let
them lose their share of the herbs.
Notes
‘Lose’: lit. ‘have it conquered from them.’ RV. (vs. 18: RV. inverts the
order of our vss. 16 and 17) reads pibantu for bharantām (with Ppp.)
in a, has the proper passive form vṛścyantām in b (Ppp. has
mṛddhyantām), and leaves enān unlingualized in c; the
lingualization in our text is by Prāt. iii. 80, where the commentary
quotes this passage.
Griffith
Let the fiends steal the poison of the cattle: may Aditi cast off the evil-doers. May the God Savitar give them up to ruin, and be their share of herbs and plants denied them.
पदपाठः
वि॒षम्। गवा॑म्। या॒तु॒ऽधानाः॑। भ॒र॒न्ता॒म्। आ। वृ॒श्च॒न्ता॒म्। अदि॑तये। दुः॒ऽएवा॑। परा॑। ए॒ना॒न्। दे॒वः। स॒वि॒ता। द॒दा॒तु॒। परा॑। भा॒गम्। ओष॑धीनाम्। ज॒य॒न्ता॒म्। ३.१६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यातुधानाः) दुःखदायी जन [जो] (गवाम्) गौओं का (विषम्) जल (भरन्ताम्=हरन्ताम्) बिगाड़ें, [तो वे] (दुरेवः) दुराचारी लोग (अदितये) अखण्ड नीति के लिये (आ) सर्वथा (वृश्चन्ताम्) काट दिये जावें। (देवः) व्यवहार जाननेवाला (सविता) सर्वप्रेरक राजा (एनान्) उनको (पराददातु) दूर हटावे, और वे [राजपुरुष] उनके (ओषधीनाम्) ओषधियों [अन्न आदि वस्तुओं] के (भागम्) भाग को (परा जयन्ताम्) जीत लेवें ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो दुराचारी लोग गौ घाट आदि स्थानों को नष्ट करें, राजा उनको नीति अनुसार दण्ड देवे ॥१६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १६−(विषम्) विष्लृ व्याप्तौ-क। यद्वा। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। वि+ष्णा शौचे-ड। णलोपः, यद्वा, षच सेवने-ड। विषमित्युदकनाम विष्णातेर्विपूर्वस्य स्नातेः शुद्ध्यर्थस्य, विपूर्वस्य वा सचतेः-निरु० १२।२६। जलम् (गवाम्) धेनूनाम् (यातुधानाः) दुःखदायिनः (भरन्ताम्) हरन्ताम्। नाशयन्तु (आ) समन्तात् (वृश्चन्ताम्) यकारलोपः। वृश्च्यन्ताम्। छिन्ना भवन्तु (अदितये) अ० २।२८।४। अदितिः=वाक्-निघ० १।११। अखण्डायै नीतये (दुरेवाः) अ० ७।५०।७। दुष्टगतियुक्ताः (परा ददातु) निरस्यतु (एनान्) दुष्टान् (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) सर्वप्रेरको राजा (भागम्) अंशम् (ओषधीनाम्) व्रीहियवादीनाम् (परा जयन्ताम्) जयेन गृह्णन्तु राजपुरुषाः ॥
१७ संवत्सरीणं पय
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सं॑वत्स॒रीणं॒ पय॑ उ॒स्रिया॑या॒स्तस्य॒ माशी॑द्यातु॒धानो॑ नृचक्षः।
पी॒यूष॑मग्ने यत॒मस्तितृ॑प्सा॒त्तं प्र॒त्यञ्च॑म॒र्चिषा॑ विध्य॒ मर्म॑णि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सं॑वत्स॒रीणं॒ पय॑ उ॒स्रिया॑या॒स्तस्य॒ माशी॑द्यातु॒धानो॑ नृचक्षः।
पी॒यूष॑मग्ने यत॒मस्तितृ॑प्सा॒त्तं प्र॒त्यञ्च॑म॒र्चिषा॑ विध्य॒ मर्म॑णि ॥
१७ संवत्सरीणं पय ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Yearly [is] the milk of the ruddy [cow]; of that let not the
sorcerer partake (aś), O men-watcher; whatever one [of them], O
Agni, would fain enjoy (tṛp) the beestings, him do thou pierce back in
the vitals with thy burning (arcís).
Notes
Our pada-text divides wrongly mā́: āśīt in b; RV. has the true
reading, mā́: aśīt. RV. also has márman at the end, making the
triṣṭubh verse regular. Ppp. once more reads vidhi (not viddhi
this time) for vidhya in d, and marman after it.
Griffith
The cow gives milk each year, O Man-Beholder: let not the Yatudhana ever taste it. Agni, if one should glut him with the biestings, pierce with thy flame his vitals as he meets thee.
पदपाठः
स॒म्ऽव॒त्स॒रीण॑म्। पयः॑। उ॒स्रिया॑याः। तस्य॑। मा। आ॒शी॒त्। या॒तु॒ऽधानः॑। नृ॒ऽच॒क्षः॒। पी॒यूष॑म्। अ॒ग्ने॒। य॒त॒मः। तितृ॑प्सात्। तम्। प्र॒त्यञ्च॑म्। अ॒र्चिषा॑। वि॒ध्य॒। मर्म॑णि। ३.१७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (उस्रियायाः) गौ का [हमारे] (संवत्सरीणम्) निवासस्थान में उपस्थित [जो] (पयः) दूध है, (नृचक्षः) हे मनुष्यों पर दृष्टि रखनेवाले राजन् ! (यातुधानः) दुःखदायी जन (तस्य) उसका (मा आशीत्) न भोजन करे। (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (यतमः) जो कोई [उनमें से हमारे] (अमृतम्) अमृत [अन्न दुग्ध आदि से] (तितृप्सात्) पेट भरना चाहे, (तम् प्रत्यञ्चम्) उस प्रतिकूलवर्ती को (अर्चिषा) अपने तेज से (मर्मणि) मर्मस्थान में (विध्य) छेद ले ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा सावधानी रक्खे कि कोई दुष्ट जन प्रजा के पदार्थों को न हड़प जावे ॥१७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १७−(संवत्सरीणम्) अ० ७।७७।३। सम्+वस निवासे-सरन्, ख-प्रत्ययो भवे। सम्यग् निवासे गृहे भवम् (पयः) दुग्धम् (उस्रियायाः) अ० ४।२६।५। गोः (तस्य) पयसः (मा आशीत्) अश भोजने-लुङ्, अङ्भावश्छान्दसः। मा आशीत्-यथा ऋग्वेदपदपाठे। न भोजनं कुर्यात् (यातुधानः) (नृचक्षः) हे नॄणां द्रष्टः (पीयूषम्) पीयेरूषन्। उ० ४।७६। पीय प्रीणने-ऊषन्। अमृतम्। दुग्धम् (अग्ने) (यतमः) तेषां यः कश्चित् (तितृप्सात्) तृप्यतेः सनि। एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्। पा० ७।२।१०। इण्निषेधः, लेटि आडागमः। तर्पयितुमिच्छेत्, आत्मानम् (तम्) दुष्टम् (प्रत्यञ्चम्) प्रतिकूलगतिमन्तम् (अर्चिषा) तेजसा (विध्य) ताडय (मर्मणि) जीवमरणस्थाने ॥
१८ सनादग्ने मृणसि
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स॒नाद॑ग्ने मृणसि यातु॒धाना॒न्न त्वा॒ रक्षां॑सि॒ पृत॑नासु जिग्युः।
स॒हमू॑रा॒ननु॑ दह क्र॒व्यादो॒ मा ते॑ हे॒त्या मु॑क्षत॒ दैव्या॑याः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स॒नाद॑ग्ने मृणसि यातु॒धाना॒न्न त्वा॒ रक्षां॑सि॒ पृत॑नासु जिग्युः।
स॒हमू॑रा॒ननु॑ दह क्र॒व्यादो॒ मा ते॑ हे॒त्या मु॑क्षत॒ दैव्या॑याः ॥
१८ सनादग्ने मृणसि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- From of old, O Agni, thou killest the sorcerers; the demons have not
conquered thee in fights; burn up the flesh-eaters together with their
dupes (? mūrá); let them not be freed from thy heavenly missile.
Notes
We had this verse above, as v. 29. 11. The only variant in the version
of RV. (vs. 19) is that, in c, sahámūrān is put after ánu daha;
⌊so also SV. i. 80, which has besides kayā́das for kravyā́das. The
comm. regards -mūrān as for -mūlān, and renders it mūlasahitān
’together with their roots,’ and it is perhaps one of the cases
contemplated by Prāt. i. 66—at least, the commentary there quotes this
passage as one of the instances of substitution of r for l; and it
is very likely that the tradition is right.
Griffith
Agni, from days of old thou slayest demons: never have Rakshasas in fight o’ercome thee. Burn up the foolish ones, the flesh-devourers: let none of them escape thy heavenly arrow.
पदपाठः
स॒नात्। अ॒ग्ने॒। मृ॒ण॒सि॒। या॒तु॒ऽधाना॑न्। न। त्वा॒। रक्षां॑सि। पृत॑नासु। जि॒ग्युः॒। स॒हऽमू॑रान्। अनु॑। द॒ह॒। क्र॒व्य॒ऽअदः॑। मा। ते॒। हे॒त्याः। मु॒क्ष॒त॒। दैव्या॑याः। ३.१८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे विद्वान् राजन् ! तू (यातुधानान्) पीड़ा देनेवाले [प्राणियों वा रोगों] को (सनात्) नित्य (मृणसि) नष्ट करता है, (रक्षांसि) राक्षसों ने (त्वा) तुझे (पृतनासु) संग्रामों में (न) नहीं (जिग्युः) जीता है। (क्रव्यादः) मांसभक्षकों को (सहमूरान्) [उनके] मूल [अथवा मूढ़ मनुष्यों] सहित (अनु दह) भस्म कर दे, (ते) तेरे (दैव्यायाः) दिव्य गुणवाले (हेत्याः) वज्र से (मा मुक्षत) वे न छूटें ॥१८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा दुःखदायी मनुष्यों को उनके मूल और साथियों सहित नाश करने में उत्साही रहे ॥१८॥ यह मन्त्र आ चुका है-अथर्व० ५।२९।११ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १८−(सहमूरान्) मूलेन कारणेन सहितान्। यद्वा मूढमनुष्यैः सहितान्। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ५।२९।११ ॥
१९ त्वं नो
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त्वं नो॑ अग्ने अध॒रादु॑द॒क्तस्त्वं प॒श्चादु॒त र॑क्षा पु॒रस्ता॑त्।
प्रति॒ त्ये ते॑ अ॒जरा॑स॒स्तपि॑ष्ठा अ॒घशं॑सं॒ शोशु॑चतो दहन्तु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्वं नो॑ अग्ने अध॒रादु॑द॒क्तस्त्वं प॒श्चादु॒त र॑क्षा पु॒रस्ता॑त्।
प्रति॒ त्ये ते॑ अ॒जरा॑स॒स्तपि॑ष्ठा अ॒घशं॑सं॒ शोशु॑चतो दहन्तु ॥
१९ त्वं नो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Do thou, O Agni, from below, from above, do thou defend us from
behind and from in front; let those [flames] of thine, unaging,
extremely hot, greatly paining, burn against the evil-plotter.
Notes
RV. (vs. 20) reads údaktāt at end of a, and té for tyé in
c; in the latter case, the comm. does the same; he supplies
sphulin̄gas as the missing noun in c, d. An accent-mark has dropped
out in our edition under the -du- of paścā́d utá in b.
Griffith
Guard us, O Agni, from above and under, protect us from be- hind and from before us; And may thy flames, most fierce and never wasting, glowing with fervent heat, consume the sinner.
पदपाठः
त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। अ॒ध॒रात्। उ॒द॒क्तः। त्वम्। प॒श्चात्। उ॒त। र॒क्ष॒। पु॒रस्ता॑त्। प्रति॑। त्ये। ते॒। अ॒जरा॑सः। तपि॑ष्ठाः। अ॒घऽशं॑सम्। शोशु॑चतः। द॒ह॒न्तु॒। ३.१९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (त्वम्) तू (नः) हमें (अधरात्) नीचे से, (उदक्तः) ऊपर से, (त्वम्) तू (पश्चात्) पीछे से (उत) और (पुरस्तात्) आगे से (रक्ष) बचा। (ते) तेरे (त्ये) वे (अजरासः) अजर (तपिष्ठाः) अत्यन्त तपानेवाले, (शोशुचतः) अत्यन्त चमकते हुए [वज्र] (अघशंसम्) बुरा चीतनेवाले को (प्रति दहन्तु) जला डालें ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा समुद्र, आकाश, पहाड़, पृथिवी आदि के डाकुओं से बिजुली और अग्नि के शस्त्र-अस्त्रों द्वारा प्रजा की रक्षा करे ॥१९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १९−(त्वम्) (नः) अस्मान् (अग्ने) अग्निवत् तेजस्विन् राजन् (अधरात्) अधोदेशात् (उदक्तः) उदक्-तसिल्। उदग्देशात्। उपरिस्थानात् (त्वम्) (पश्चात्) (उत) अपि च (रक्ष) (पुरस्तात्) अग्रदेशात् (प्रति) प्रतिकूलम् (त्ये) ते प्रसिद्धाः (ते) तव (अजरासः) अजराः। सुदृढाः (तपिष्ठाः) तापयितृतमाः (अघशंसम्) अ० ४।२१।७। अनिष्टचिन्तकम् (शोशुचतः) म० १३। नाभ्यस्ताच्छतुः। पा० ७।१।७८। नुम्निषेधः। भृशं दीप्यमाना वज्राः (दहन्तु) भस्मसात् कुर्वन्तु ॥
२० पश्चात्पुरस्तादधरादुतोत्तरात्कविः काव्येन
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प॒श्चात्पु॒रस्ता॑दध॒रादु॒तोत्त॒रात्क॒विः काव्ये॑न॒ परि॑ पाह्यग्ने।
सखा॒ सखा॑यम॒जरो॑ जरि॒म्णे अग्ने॒ मर्ताँ॒ अम॑र्त्य॒स्त्वं नः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प॒श्चात्पु॒रस्ता॑दध॒रादु॒तोत्त॒रात्क॒विः काव्ये॑न॒ परि॑ पाह्यग्ने।
सखा॒ सखा॑यम॒जरो॑ जरि॒म्णे अग्ने॒ मर्ताँ॒ अम॑र्त्य॒स्त्वं नः॑ ॥
२० पश्चात्पुरस्तादधरादुतोत्तरात्कविः काव्येन ...{Loading}...
Whitney
Translation
- From behind, in front, below, and above, do thou, O Agni, a poet,
protect us about with poesy; [as] friend a friend, [as] unaging in
order to old age, [as] an immortal mortals, do thou [protect] us, O
Agni.
Notes
RV. (vs. 21) reads again údaktāt for utó ’ttarā́t in a, also
rājan for agne at end of b, and sákhe at beginning of c;
and it combines -mṇé ‘gne between c and d. The comm. has
martyān in d.
Griffith
From rear, from front, from under, from above us, Agni, pro- tect us as a sage with wisdom. Guard to old age thy friend as friend eternal: O Agni, as im- mortal, guard us mortals.
पदपाठः
प॒श्चात्। पु॒रस्ता॑त्। अ॒ध॒रात्। उ॒त। उ॒त्त॒रात्। क॒विः। काव्ये॑न। परि॑। पा॒हि॒। अ॒ग्ने॒। सखा॑। सखा॑यम्। अ॒जरः॑। ज॒रि॒म्णे। अग्ने॑। मर्ता॑न्। अम॑र्त्यः। त्वम्। नः॒। ३.२०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान प्रतापी राजन् !] (कविः) बुद्धिमान् तू (काव्येन) अपनी बुद्धिमत्ता के साथ (पश्चात्) पीछे से, (पुरस्तात्) आगे से, (अधरात्) नीचे से (उत) और (उत्तरात्) ऊपर से, (अग्ने) हे राजन् ! (अजरः) अजर (सखा) मित्र [के समान] (सखायम्) मित्र को (जरिम्णे) स्तुति के लिये, (अमर्त्यः) अमर (त्वम्) तू (नः) हम (मर्तान्) मनुष्यों को (परि) सब ओर से (पाहि) बचा ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - नीतिमान् राजा अपनी नीतिकुशलता से दृढ़ चित्त होकर प्रजा की रक्षा करके संसार में स्तुति पावे ॥२०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २०−(उत्तरात्) उपरिदेशात् (कविः) मेधावी-निघ० ३।१५। (काव्येन) कविकर्मणा। बुद्धिमत्तया (परि) सर्वतः (पाहि) रक्ष (सखा) सुहृत् (सखायम्) सुहृदं यथा (अजरः) अजीर्णः (जरिम्णे) अ० २।२९।१। जॄ स्तुतौ-भावे-इमनिन्। स्तुतये (मर्तान्) मनुष्यान् (अमर्त्यः) अमरः (त्वम्) (नः) अस्मान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
२१ तदग्ने चक्षुः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तद॑ग्ने॒ चक्षुः॒ प्रति॑ धेहि रे॒भे श॑फा॒रुजो॒ येन॒ पश्य॑सि यातु॒धाना॑न्।
अ॑थर्व॒वज्ज्योति॑षा॒ दैव्ये॑न स॒त्यं धूर्व॑न्तम॒चितं॒ न्यो᳡ष ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तद॑ग्ने॒ चक्षुः॒ प्रति॑ धेहि रे॒भे श॑फा॒रुजो॒ येन॒ पश्य॑सि यातु॒धाना॑न्।
अ॑थर्व॒वज्ज्योति॑षा॒ दैव्ये॑न स॒त्यं धूर्व॑न्तम॒चितं॒ न्यो᳡ष ॥
२१ तदग्ने चक्षुः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Set thou in the reciter, O Agni, that eye with which thou seest the
hoof-breaking sorcerers; Atharvan-like, with brightness of the gods,
scorch (uṣ) down the truth-damaging fool (acít).
Notes
The obscure epithet in b is divided in pada-text śapha॰ārújaḥ
(RV. -jam, and later yātudhā́nam). The comm. is in part obscure:
śaphārujaḥ śaphavat śaphāḥ: nakhā ity arthaḥ; but he adds as
alternative atha vā paśurūpadhāriṇāṁ śaphā api sambhavanti: tāir
ārujantī ’ti śaphārujaḥ: i.e. ‘breaking things with their hoofs.’ The
irregularity of meter allows us to suspect the tradition of the word.
The comm. also strangely explains rebhe as śabdaṁ kurvate rakṣase!
⌊Root ribh: cf. note to vs. 7.⌋ Ppp. reads in d atiti for
acitam. The verse is RV. vs. 12, where it is decidedly better in
place.
Griffith
Lend thou the worshipper that eye, O Agni, where with thou lookest on the hoof-armed demons. With light celestial in Atharvan’s manner burn up the fool who ruins truth with falsehood.
पदपाठः
तत्। अ॒ग्ने॒। चक्षुः॑। प्रति॑। धे॒हि॒। रे॒भे। श॒फ॒ऽआ॒रुजः॑। येन॑। पश्य॑सि। या॒तु॒ऽधाना॑न्। अ॒थ॒र्व॒ऽवत्। ज्योति॑षा। दैव्ये॑न। स॒त्यम्। धूर्व॑न्तम्। अ॒चित॑म्। नि। ओ॒ष॒। ३.२१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (तत्) वह [क्रोधभरी] (चक्षुः) आँख (रेभे) कोलाहल मचानेवाले [शत्रु] पर (परि धेहि) डाल, (येन) जिससे (शफारुजः) शान्ति तोड़नेवाले (यातुधानान्) दुःखदायिओं को (पश्यसि) तू देखता है। (अथर्ववत्) निश्चल स्वभाववाले ऋषि के समान तू (दैव्येन) देवताओं [विद्वानों] से पाये हुए (ज्योतिषा) तेज से (सत्यम्) सत्य (धूर्वन्तम्) नाश करनेवाले (अचितम्) अचेत को (नि ओष) जला दे ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - नीतिमान् राजा विद्वानों की सम्मति से प्रजा की शान्ति में विघ्नकारी, मिथ्यावादी दुष्टों को नाश करे ॥२१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २१−(तत्) क्रूरम् (अग्ने) (चक्षुः) दृष्टिम् (प्रति) प्रतिकूलम् (धेहि) स्थापय (रेभे)-म० १२। शब्दायमाने कोलाहलं कुर्वाणे दुष्टे (शफारुजः) शम शान्तौ-अच् मस्य फः पृषोदरादित्वात्-इति शब्दस्तोममहानिधिः। शफ+आ+रुजो भङ्गे-क्विप्। शान्तिसम्भञ्जकान् (येन) चक्षुषा (पश्यसि) अवलोकयसि (यातुधानान्) पीडाप्रदान् (अथर्ववत्) अ० ४।१।७। निश्चलस्वभावो मुनिर्यथा (ज्योतिषा) तेजसा (दैव्येन) देवाद् यञञौ। वा० पा० ४।१।८५। देव-यञ्। देवेभ्यो विद्वद्भ्यः प्राप्तेन (सत्यम्) यथार्थम् (धूर्वन्तम्) धुर्वी हिंसायाम्-शतृ। हिंसन्तम् (अचितम्) अचेत्तारम् निर्बुद्धिम् (नि) नितराम् (ओष) उष दाहे-लोट्। दह ॥
२२ परि त्वाग्ने
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परि॑ त्वाग्ने॒ पुरं॑ व॒यं विप्रं॑ सहस्य धीमहि।
धृ॒षद्व॑र्णं दि॒वेदि॑वे ह॒न्तारं॑ भङ्गु॒राव॑तः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
परि॑ त्वाग्ने॒ पुरं॑ व॒यं विप्रं॑ सहस्य धीमहि।
धृ॒षद्व॑र्णं दि॒वेदि॑वे ह॒न्तारं॑ भङ्गु॒राव॑तः ॥
२२ परि त्वाग्ने ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Thee the devout, O Agni, powerful one, would we fain put about us
[as] a stronghold, [thee] of daring color, day by day, slayer of the
destructive one.
Notes
We have had this verse above, as vii. 71. 1; for its different
correspondences and variants, see the note at that place; ⌊but Ppp. here
ends with bhan̄gurāvatām⌋. The comm., though he notes it as ’explained
above,’ goes on to give a new explanation, curiously accordant with and
yet not a little different from the other; the most important point of
difference is that, in explaining pari dhīmahi, he there gave us our
choice between parito dhārayāmaḥ and paridhiṁ kurmaḥ, while here he
gives us our choice between the latter and dhyāyemahi. The real reason
of the repetition probably is that he this time reads at the end
bhan̄gurāvatām, with RV. ⌊and Ppp.⌋, while before he had no variant
from our AV. text. ⌊Here and in vs. 23, W. queries his version of
bhan̄g- as he did at vii. 71, which see.⌋
Griffith
We set thee round us as a fort, victorious Agni! thee, a sage, In conquering colour day by day, destroyer of the treacherous foe.
पदपाठः
परि॑। त्वा॒। अ॒ग्ने॒। पुर॑म्। व॒यम्। विप्र॑म्। स॒ह॒स्य॒। धी॒म॒हि॒। धृ॒षत्ऽव॑र्णम्। दि॒वेऽदि॑वे। ह॒न्तार॑म्। भ॒ङ्गु॒रऽव॑तः। ३.२२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- अनुष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्य) हे बल के हितकारी ! (अग्ने) तेजस्वी सेनापति ! (पुरम्) दुर्गरूप, (विप्रम्) बुद्धिमान्, (धृषद्वर्णम्) अभयस्वभाव, (भङ्गुरावतः) नाश कर्मवाले [कपटी] के (हन्तारम्) नाश करनेवाले (त्वा) तुझको (दिवेदिवे) प्रतिदिन (वयम्) हम (परि धीमहि) परिधि बनाते हैं ॥२२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रजागण शूर वीर सेनापति पर विश्वास करके शत्रुओं के नाश करने में उससे सहायता लेवें ॥२२॥ यह मन्त्र आचुका है-अ० ७।७१।१ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २२-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ७।७१।१ ॥
२३ विषेण भङ्गुरावतः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि॒षेण॑ भङ्गु॒राव॑तः॒ प्रति॑ स्म र॒क्षसो॑ जहि।
अग्ने॑ ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॒ तपु॑रग्राभिर॒र्चिभिः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वि॒षेण॑ भङ्गु॒राव॑तः॒ प्रति॑ स्म र॒क्षसो॑ जहि।
अग्ने॑ ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॒ तपु॑रग्राभिर॒र्चिभिः॑ ॥
२३ विषेण भङ्गुरावतः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- With poison smite thou back the destructive ones, the demoniacs, O
Agni, with keen brightness (śocís), with heat-pointed flames (arcí).
Notes
RV. in b lingualizes the particle to ṣma, and reads daha for
jahi; and it ends d with ṛṣṭíbhis instead of the anomalous
arcíbhis. Ppp. has in c śukrena instead of tigména.
The RV. hymn ends with four anuṣṭubh verses, of which only the first
two find place thus in our text.
Griffith
With deadly poison strike thou back the treacherous brood of Rakshasas, O Agni, with thy sharpened glow, with rays that flash with points of flame.
पदपाठः
वि॒षेण॑। भ॒ङ्गु॒रऽव॑तः। प्रति॑। स्म॒। र॒क्षसः॑। ज॒हि॒। अग्ने॑। ति॒ग्मेन॑। शो॒चिषा॑। तपुः॑ऽअग्राभिः। अ॒र्चिऽभिः॑। ३.२३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- अनुष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (विषेण) विष से [वा अपनी व्याप्ति से] (भङ्गुरावतः) नाश कर्मवाले (रक्षसः) राक्षसों का (स्म) अवश्य (तिग्मेन) तीव्र (शोचिषा) तेज से और (तपुरग्राभिः) तापयुक्त शिखाओंवाली (अर्चिभिः) ज्वालाओं से (प्रति जहि) नाश कर दे ॥२३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा उपद्रवियों को तीव्र दण्ड देता रहे ॥२३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २३−(विषेण) गरलेन स्वव्यापनेन वा (भङ्गुरावतः) अ० ७।७१।१। नाशकर्मयुक्तान् (प्रति) प्रतिकूलम् (स्म) अवश्यम् (रक्षसः) पुंल्लिङ्गत्वं छान्दसम्। रक्षांसि (जहि) नाशय (अग्ने) (तिग्मेन) तीक्ष्णेन (शोचिषा) तेजसा (तपुरग्राभिः) अर्तिपॄवपि०। उ० २।११७। तप दाहे-उसि। तापकशिखायुक्ताभिः (अर्चिभिः) ज्वालाभिः ॥
२४ वि ज्योतिषा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि ज्योति॑षा बृह॒ता भा॑त्य॒ग्निरा॒विर्विश्वा॑नि कृणुते महि॒त्वा।
प्रादे॑वीर्मा॒याः स॑हते दु॒रेवाः॒ शिशी॑ते॒ शृङ्गे॒ रक्षो॑भ्यो वि॒निक्ष्वे॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वि ज्योति॑षा बृह॒ता भा॑त्य॒ग्निरा॒विर्विश्वा॑नि कृणुते महि॒त्वा।
प्रादे॑वीर्मा॒याः स॑हते दु॒रेवाः॒ शिशी॑ते॒ शृङ्गे॒ रक्षो॑भ्यो वि॒निक्ष्वे॑ ॥
२४ वि ज्योतिषा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- With great light Agni shineth out; he maketh all things manifest by
his greatness; he forceth away the ill-conditioned ungodly wiles; he
sharpeneth his two horns to gore the demons.
Notes
All the authorities read at the end viníkṣve, and even the comm. is
with them, calling the v a Vedic accretion (vakāropajanaś
chāndasaḥ). RV., in the corresponding verse (v. 2. 9: repeated without
variant in TS. i. 2. 14⁷), has viníkṣe, which our edition reads by
emendation, SPP. retaining the totally inadmissible v, which seems to
have blundered into the word out of ví nikṣva in the following verse.
RV. (and TS.) has before it rákṣase (sing.).
Griffith
Agni shines far and wide with lofty splendour, and by his great- ness makes all things apparent. He conquers godless and malign enchantments, and sharpens both his horns to gore the ogres.
पदपाठः
वि। ज्योति॑षा। बृ॒ह॒ता। भा॒ति॒। अ॒ग्निः। आ॒विः। विश्वा॑नि। कृ॒णु॒ते॒। म॒हि॒ऽत्वा। प्र। अदे॑वीः। मा॒याः। स॒ह॒ते॒। दुः॒ऽएवाः॑। शिशी॑ते। शृङ्गे॒ इति॑। रक्षः॑ऽभ्यः। वि॒ऽनिक्ष्वे॑। ३.२४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी राजा] (बृहता) बड़ी (ज्योतिषा) तेज के साथ (वि भाति) चमकता है, और (विश्वानि) सब वस्तुओं को (महित्वा) अपनी महिमा से (आविः कृणुते) प्रकट करता है। (अदेवीः) अशुद्ध, (दुरेवाः) दुर्गतिवाली (मायाः) बुद्धियों को (प्रसहते) जीत लेता है, और (शृङ्गे) दो प्रधान सामर्थ्य [प्रजापालन और शत्रुनाशन] को (रक्षोभ्यः) दुष्टों के (विनिक्ष्वे) विनाश के लिये (शिशीते) तेज करता है ॥२४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य अग्नि आदि प्रकाश करके सब पदार्थों को दिखाता और अन्धकार मिटाता है, वैसे ही प्रतापी राजा अपनी प्रधानता से प्रजा का पालन और शत्रुओं का नाश करता है ॥२४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−५।२।९।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २४−(वि) विविधम् (ज्योतिषा) तेजसा (बृहता) महता (भाति) प्रकाशते (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी राजा (आविः) अर्चिशुचिहु०। उ० २।१०८। आङ्+अव रक्षणादिषु-इसि। प्राकट्ये (विश्वानि) सर्वाणि वस्तूनि (कृणुते) करोति (महित्वा) महिम्ना (प्र) प्रकर्षेण (अदेवीः) अशुद्धाः (मायाः) बुद्धीः (सहते) अभिभवति। जयति (दुरेवाः) अ० ७।५०।७। दुर्गतियुक्ताः (शिशीते) तेजते (शृङ्गे) शृणातेर्ह्रस्वश्च। उ० १।१२६। शॄ हिंसायाम्-गन्, स च कित्, नुट् च। शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणातेर्वा शरणायोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वा-निरु० २।७। शृङ्गं प्राधान्यसान्वोश्च-इत्यमरः २३।२६। द्विप्रकारे प्राधान्ये प्रजापालनं शत्रुनाशनं च (रक्षोभ्यः) षष्ठ्यर्थे चतुर्थी वक्तव्या। वा० पा० २।३।६२। रक्षसाम्। दुष्टानाम् (विनिक्ष्वे) भृमृशीङ्०। १।७। णिक्ष चुम्बने, विपूर्वको नाशने-उ प्रत्ययः, यणादेशः। विनिक्ष्वे। विनाशाय ॥
२५ ये ते
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ये ते॒ शृङ्गे॑ अ॒जरे॑ जातवेदस्ति॒ग्महे॑ती॒ ब्रह्म॑संशिते।
ताभ्यां॑ दु॒र्हार्द॑मभि॒दास॑न्तं किमी॒दिनं॑ प्र॒त्यञ्च॑म॒र्चिषा॑ जातवेदो॒ वि नि॑क्ष्व ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ये ते॒ शृङ्गे॑ अ॒जरे॑ जातवेदस्ति॒ग्महे॑ती॒ ब्रह्म॑संशिते।
ताभ्यां॑ दु॒र्हार्द॑मभि॒दास॑न्तं किमी॒दिनं॑ प्र॒त्यञ्च॑म॒र्चिषा॑ जातवेदो॒ वि नि॑क्ष्व ॥
२५ ये ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The two horns that thou hast, O Jātavedas, unaging, of keen thrust,
sharpened by devotion (bráhman)—with them do thou gore, O Jātavedas,
the attacking enemy (durhā́rd), the advancing kimīdín with thy flame
(arcís).
Notes
At the end of this verse, nikṣva seems to have been taken for a 2d sing,
middle; but it is doubtless a corruption* for nikṣa, the root showing
an a-stem elsewhere. Ppp. avoids the error by reading nṛcakṣaḥ; and
also yātudhānam for arciṣā before it, which gets rid of yet another
difficulty of construction, though it makes the irregular meter yet
worse. In our edition, in d, the accent-mark which should stand
under the do of jātavedo has slipped out of place to the left, under
ve. *⌊We must assume that the corruption is an old one if the v of
viníkṣve is to be ascribed to it. Since the forms from stem nikṣa-
are so few (in 3 AV. verses), perhaps we might after all assume that
this is a root-class imperative, nikṣ-ṣva.⌋
Griffith
Thy two unwasting horns, O Jatavedas, keen-pointed weapons, sharpened by devotion With these transfix the wicked-souled Kimidin, with fierce flame, Jatavedas! when he meets thee.
पदपाठः
ये इति॑। ते॒। शृङ्गे॒ इति॑। अ॒जरे॒ इति॑। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। ति॒ग्महे॑ती इति॑ ति॒ग्मऽहे॑ती। ब्रह्म॑संशिते॒ इति॑ ब्रह्म॑ऽसशिते। ताभ्या॑म्। दुः॒ऽहार्द॑म्। अ॒भि॒ऽदास॑न्तम्। कि॒मी॒दिन॑म्। प्र॒त्यञ्च॑म्। अ॒र्चिषा॑। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। वि। नि॒क्ष्व॒। ३.२५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- पञ्चपदा बृहतीगर्भा जगती
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (जातवेदः) हे बड़े ज्ञानवाले राजन् ! (ये) जो (ते) तेरे (अजरे) अजर [अनश्वर] (शृङ्गे) दो प्रधान सामर्थ्य [प्रजापालन और शत्रुनाशन] (तिग्महेती) तेज हथियारोंवाले, (ब्रह्मसंशिते) वेद से तीक्ष्ण किये गये हैं। (ताभ्याम्) उन दोनों से (दुर्हार्दम्) दुष्ट हृदयवाले, (अभिदासन्तम्) अति दुःख देनेवाले, (प्रत्यञ्चम्) प्रतिकूल चलनेवाले, (किमीदिनम्) [अब क्या हो रहा है, वह क्या हो रहा है, ऐसे] खोजी शत्रु को (अर्चिषा) अपने तेज से, (जातवेदः) हे बड़े धनवाले ! (वि निक्ष्व) तू नाश कर दे ॥२५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो वेदानुगामी राजा, अपनी राज्यशक्ति को प्रजापालन और शत्रुनाशन में लगाता है, वह कीर्तिमान् होता है ॥२५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २५−(ये) (ते) तव (शृङ्गे) म० २४। द्वे प्राधान्ये प्रजापालनं शत्रुनाशनं च (अजरे) अजीर्णे। अनश्वरे (जातवेदः) हे प्रभूतधन (तिग्महेती) सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णा०। पा० ७।१।३९। पूर्वसवर्णदीर्घः। तिग्महेतिनी। तीक्ष्णायुधे (ब्रह्मसंशिते) वेदद्वारा तीक्ष्णीकृते (ताभ्याम्) प्राधान्याभ्याम् (दुर्हार्दम्) अ० २।७।५। दुष्टहृदयम् (अभिदासन्तम्) सर्वतो हिंसन्तम् (किमीदिनम्) अ० १।७।१। पिशुनं शत्रुम् (प्रत्यञ्चम्) प्रतिकूलगन्तारम् (अर्चिषा) तेजसा (जातवेदः) हे बहुधन (वि निक्ष्व)-म० २४। विनाशय ॥
२६ अग्नी रक्षांसि
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अ॒ग्नी रक्षां॑सि सेधति शु॒क्रशो॑चि॒रम॑र्त्यः।
शुचिः॑ पाव॒क ईड्यः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒ग्नी रक्षां॑सि सेधति शु॒क्रशो॑चि॒रम॑र्त्यः।
शुचिः॑ पाव॒क ईड्यः॑ ॥
२६ अग्नी रक्षांसि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Agni drives off the demons, he of bright brightness, immortal,
bright, purifying, laudable.
Notes
This verse is RV. vii. 15. 10, and is found also in TB. (ii. 4. 1⁶) and
MS. (iv. 11. 5); the text is the same in all. ⌊Ritual uses, above.⌋
⌊Here ends the third artka-sūkta and the quoted Anukr. says tṛtīyaṁ
tu.⌋
Griffith
Bright, radiant, meet to be adored, immortal with refulgent glow, Agni drives Rakshasas away.
पदपाठः
अ॒ग्निः। रक्षां॑सि। से॒ध॒ति॒। शु॒क्रऽशो॑चिः। अम॑र्त्य। शुचिः॑। पा॒व॒कः। ईड्यः॑। ३.२६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- गायत्री
- शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शुक्रशोचिः) शुद्धतेजवाला, (अमर्त्यः) अमर, (शुचिः) पवित्र, (पावकः) शुद्ध करनेवाला, (ईड्यः) स्तुति योग्य वा खोजने योग्य (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी सेनापति] (रक्षांसि) दुष्टों को (सेधति) शासन में रखता है ॥२६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रतापी, अमर अर्थात् शूर वीर पराक्रमी शुद्धाचरणी राजा दुष्टों को जीतकर कीर्ति पावे ॥२६॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−७।१५।१० ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २६−(अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी सेनाधीशः (रक्षांसि) दुष्टान् (सेधति) षिधु शासने। शास्ति (शुक्रशोचिः) शुद्धतेजाः (अमर्त्यः) अमरणधर्मा। महापुरुषार्थी (शुचिः) पवित्रः (पावकः) संशोधकः (ईड्यः) स्तुत्यः। अन्वेषणीयः ॥