००२ दीर्घायुःप्राप्तिः

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Whitney subject
  1. To prolong some one’s life.
VH anukramaṇī

दीर्घायुःप्राप्तिः।
१-२८ ब्रह्मा। आयुः। त्रिष्टुप्, १-२,७ भुरिक्, ३,२६ आस्तारपङ्क्तिः, ४ प्रस्तारपङ्क्तिः, ६,१५ पथ्यापङ्क्तिः,
८ पुरस्ताज्ज्योतिष्मती जगती, ९ पञ्चपदा जगती, ११ विष्टारपङ्क्तिः, १२,२२,२८ पुरस्ताद्बृहती,
१४ त्र्यवसाना षट्-पदा जगती, १९ उपरिष्टाद्बृहती, २१ सतः पङ्कतिः ५,१०,१६-१८,२०,२३-२५,२७ अनुष्टुप् (१७ त्रिपाद्)।

Whitney anukramaṇī

[Brahman.—aṣṭāviṅśakam. ārsy (ārtvy?) āyuṣyam. trāiṣṭubham*: 1, 2, 7. bhurij; 3. āstārapan̄kti; 4. prastārapan̄kti; 6. pathyāpan̄kti; 8. purastāj jyotiṣmatī jagatī; 9. 5-p. jagatī; 11. viṣṭārapan̄kti; 12. purastādbṛhatī; 14. 3-av. 6-p. jagatī; 15. pathyāpan̄kti; 19. upariṣṭādbṛhatī; 21. sataḥpan̄kti; 26. āstārapan̄kti; 22, 28. purastādbṛhatī; 5, 10, 16-18, 20, 23-25, 27. anuṣṭubh (17. tripāt).]

Whitney

Comment

Found also in Pāipp. xvi., all but the last verse, and with 9 before 8. *⌊Verse 13 appears to be the one upon the strength of which the Anukr. declares the hymn to be trāiṣṭubham (its remaining 27 vss. being exceptions!); and even this is no real triṣṭubh. It counts indeed 44 (8 + 12: 12 + 12) and might be called purastāj jyotiṣmatī.⌋

⌊Vāit. uses only vs. 16: see under 16.—The uses by Kāuś. are many. For the uses of this hymn with h. 1, see introd. to h. 1. Further, in the name-giving ceremony, it is used (58. 14) with pouring a continuous stream of water on the youth’s right hand; and this is followed (58. 15) by the binding on of an amulet of deodar (see note to vs. 28 below); and the use of vs. 16 is especially prescribed (58. 17: the text of the sītra in the comm. differs from that of Bl.) to accompany the putting a new garment upon him. Vss. 12-13 are prescribed (97. 3) in case of family quarrels (see also note to vs. 9 below); vs. 14 (comm., 14-15) is used in the tonsure ceremony (54.17); and again vs. 14 (comm., 14-15), on the child’s first going out of the house (58. 18). Vs. 17 was previously prescribed for the same tonsure ceremony (53. 19: the comm. reads kṣuram abhyukṣya triḥ pramārṣṭi) on sprinkling and wiping the razor; and the same vs. is substituted for vi. 68. 3 by the Daśa Karmāṇi in the same ceremony (53. 17 note); furthermore, it is used at the beginning of the ceremony of the reception of the Vedic student (55. 3). Vs. 18 (comm., 18-19) is used on the first feeding of the child (with rice and barley: 58. 19); and vss. 20 and 22 on his “committal” (58. 20, 21) respectively “to day and night” and “to the seasons."—Bloomfield (note to 58. 17) cites a passage describing the four “committals”: 1. to heaven and earth, with vss. 14-15; 2. to rice and barley, with vss. 18-19; 3. to day and night, with vs. 20; 4. to the seasons, with vs. 22.—Finally, the comm. regards vs. 15 as intended, with v. 1. 7 etc., at Kāuś. 46. 1-3, in the rite against false accusation.⌋

Translations

Translated: Muir, v. 447; Ludwig, p. 496; Henry, 4, 39; Griffith, i. 388; Bloomfield, 55, 573.

Griffith

The same

०१ आ रभस्वेमाममृतस्य

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आ र॑भस्वे॒माम॒मृत॑स्य॒ श्नुष्टि॒मच्छि॑द्यमाना ज॒रद॑ष्टिरस्तु ते।
असुं॑ त॒ आयुः॒ पुन॒रा भ॑रामि॒ रज॒स्तमो॒ मोप॑ गा॒ मा प्र मे॑ष्ठाः ॥

०१ आ रभस्वेमाममृतस्य ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Take thou hold. on this bundle (?) of immortality; unsevered length
    of life be thine; I bring back thy life, [thy] life-time; go not to
    the welkin (rájas), to darkness; do not perish.
Notes

SPP. with all his authorities save one (which has snú-) reads
śnúṣṭim in a, and this must doubtless be regarded as the true AV.
text: compare iii. 17. 2. The comm. glosses it here with prasnuti ‘a
dripping forth,’ and then explains amṛtasya śnuṣṭi as the stream of
water which, according to one direction in Kāuś. (58. 14), is to be
poured out while the hymn is recited. He glosses rajas with rāga,
and explains it and tamas as the two familiar guṇas so called: it
is, indeed, a little startling to find the two names here side by side.

Griffith

Seize to thyself this trust of life for ever: thine be longevity which nothing shortens. Thy spirit and thy life again I bring thee: die not, nor vanish into mist and darkness.

पदपाठः

आ। र॒भ॒स्व॒। इ॒माम्। अ॒मृत॑स्य। श्नुष्टि॑म्। अच्छि॑द्यमाना। ज॒रत्ऽअ॑ष्टिः। अ॒स्तु॒। ते॒। असु॑म्। ते॒। आयुः॑। पुनः॑। आ। भ॒रा॒मि॒। रजः॑। तमः॑। मा। उप॑। गाः॒। मा। प्र। मे॒ष्ठाः॒। २.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (अमृतस्य) अमृत की (इमाम्) इस (श्नुष्टिम्) प्राप्ति को (आ) भली-भाँति (रभस्व) ग्रहण कर, (अच्छिद्यमाना) बिना कटती हुई (जरदष्टिः) स्तुति की व्याप्ति [फैलाव] (ते) तेरे लिये (अस्तु) होवे। (ते) तेरे (असुम्) बुद्धि और (आयुः) जीवन को (पुनः) बार-बार (आ) अच्छे प्रकार (भरामि) मैं पुष्ट करता हूँ, (रजः) रजोगुण और (तमः) तमोगुण को (मा उप गाः) मत प्राप्त हो और (मा प्र मेष्ठाः) मत पीड़ित हो ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रयत्नपूर्वक सत्त्वगुण के प्रतिबन्धक रजोगुण और हित-अहित ज्ञान के बाधक तमोगुण को छोड़कर सात्त्विक होकर जीवन को सफल करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(आ) समन्तात् (रभस्व) उपक्रमस्व। गृहाण (इमाम्) वक्ष्यमाणाम् (अमृतस्य) अमरणस्य। पुरुषार्थस्य (श्नुष्टिम्) अ० ३।१७।२। ष्णुसु आदाने-क्तिन्, छान्दसं रूपम्। प्राप्तिम् (अच्छिद्यमाना) अच्छेदनीया (जरदष्टिः) अ० २।२८।५। जॄ स्तुतौ-अतृन्+असु व्यातौ-क्तिन्। स्तुति-व्याप्तिः (अस्तु) (ते) तुभ्यम् (असुम्) प्रज्ञाम्-निघ० ३।९। (ते) तव (आयुः) जीवनम् (पुनः) बारं बारम् (आ) (भरामि) पोषयामि (रजः) सत्त्वगुणप्रतिबन्धकं रजोगुणम् (तमः) हिताहितविवेकबाधकं तमोगुणम् (मा उप गाः) इण् गतौ-लुङ् मा प्राप्नुहि (मा प्र मेष्ठाः) मीञ् हिंसायाम् लुङ्। हिंसां पीडां मा प्राप्नुहि ॥

०२ जीवतां ज्योतिरभ्येह्यर्वाङा

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जीव॑तां॒ ज्योति॑र॒भ्येह्य॒र्वाङा त्वा॑ हरामि श॒तशा॑रदाय।
अ॑वमु॒ञ्चन्मृ॑त्युपा॒शानश॑स्तिं॒ द्राघी॑य॒ आयुः॑ प्रत॒रं ते॑ दधामि ॥

०२ जीवतां ज्योतिरभ्येह्यर्वाङा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Come thou hitherward unto the light of the living; I take thee in
    order to life for a hundred autumns; loosening down the fetters of
    death, imprecation, I set for thee further a longer life-time.
Notes

Some of SPP’s mss. accent falsely abhyèhi in a. Ppp. transposes
the order of c and d, and reads lokam for arvān̄ in a.

Griffith

Come to the light of living men, come hither: I draw thee to a life of hundred autumns. Loosing the bonds of Death, the curse that holds thee, I give thee age of very long duration.

पदपाठः

जीव॑ताम्। ज्योतिः॑। अ॒भि॒ऽएहि॑। अ॒वाङ्। आ। त्वा॒। ह॒रा॒मि॒। श॒तऽशा॑रदाय। अ॒व॒ऽमु॒ञ्चन्। मृ॒त्यु॒ऽपा॒शान्। अश॑स्तिम्। द्राघी॑यः। आयुः॑। प्र॒ऽत॒रम्। ते॒। द॒धा॒मि॒। २.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (जीवताम्) जीते हुए मनुष्यों की (ज्योतिः) ज्योति (अर्वाङ्) सन्मुख होकर (अभ्येहि) सब ओर से प्राप्त कर, (त्वा) तुझको (शतशारदाय) सौ शरद् ऋतुओंवाले [जीवन] के लिये (आ) सब प्रकार (हरामि) स्वीकार करता हूँ। (मृत्युपाशान्) मृत्यु के फन्दों और (अशस्तिम्) अपकीर्त्ति को (अवमुञ्चन्) छोड़ता हुआ मैं (द्राघीयः) अधिक दीर्घ और (प्रतरम्) अधिक उत्तम (आयुः) जीवन को (ते) तेरे लिये (दधामि) पुष्ट करता हूँ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य जीते हुए अर्थात् पुरुषार्थी जनों का अनुकरण करके मानसिक और शारीरिक रोगों और निन्दित कर्मों से अलग रहकर कीर्ति बढ़ावें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(जीवताम्) जीव प्राणधारणे-शतृ। प्राणिनां पुरुषार्थिनाम् (ज्योतिः) अनुकरणरूपं प्रकाशम् (अभ्येहि) सर्वतः प्राप्नुहि (अर्वाङ्) अभिमुखः सन् (आ) समन्तात् (त्वा) त्वां पुरुषम् (हरामि) स्वीकरोमि (शतशारदाय) अ० १।३५।१। शतसंवत्सरयुक्ताय जीवनाय (अवमुञ्चन्) उत्सृजन् (मृत्युपाशान्) दुःखबन्धान् (अशस्तिम्) अपकीर्तिम् (द्राघीयः) प्रियस्थिर०। पा० ६।४।१५७। दीर्घ-ईयसुन्, द्राघादेशः। दीर्घतरम् (आयुः) जीवनम् (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (ते) तुभ्यम् (दधामि) पोषयामि ॥

०३ वातात्ते प्राणमविदम्

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वाता॑त्ते प्रा॒णम॑विदं॒ सूर्या॒च्चक्षु॑र॒हं तव॑।
यत्ते॒ मन॒स्त्वयि॒ तद्धा॑रयामि॒ सं वि॒त्स्वाङ्गै॒र्वद॑ जि॒ह्वयाल॑पन् ॥

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Whitney
Translation
  1. From the wind have I found thy breath, from the sun I thy sight; what
    is thy mind, that I maintain in thee; be in concord with thy limbs;
    speak with thy tongue, not babbling.
Notes

The comm. reads in d viśvān̄gāis and ālapan.

Griffith

Thy breath have I recovered from the Wind, thy vision from the Sun. Thy mind I stablish and secure within thee: feel in thy members,. use thy tongue, conversing.

पदपाठः

वाता॑त्। ते॒। प्रा॒णम्। अ॒वि॒द॒म्। सूर्या॑त्। चक्षुः॑। अ॒हम्। तव॑। यत्। ते। मनः॑। त्वयि॑। तत्। धा॒र॒या॒मि॒। सम्। वि॒त्स्व॒। अङ्गैः॑। वद॑। जि॒ह्वया॑। अल॑पन्। २.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • आस्तारपङ्क्तिः
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (वातात्) वायु से (ते) तेरे (प्राणम्) प्राण को और (सूर्यात्) सूर्य से (तव) तेरी (चक्षुः) दृष्टि (अहम्) मैंने (अविदम्) पायी है। (यत्) जो (ते) तेरा (मनः) मन है, (तत्) उस को (त्वयि) तुझ में (धारयामि) स्थापित करता हूँ, (अङ्गैः) [शास्त्र के] सब अङ्गों से (सम् वित्स्व) यथावत् जान, (जिह्वया) जीभ से (अलपन्) बकवाद न करता हुआ (वद) बोल ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे वायु से प्राण और सूर्य से दृष्टि स्थिर रहती है, वैसे ही मनुष्य आत्मा में मन को निश्चल करके पदार्थों के तत्त्व को साक्षात् करके सारांश का उपदेश करे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(वातात्) वायुसकाशात् (ते) तव (प्राणम्) जीवनम् (अविदम्) लब्धवानस्मि (सूर्यात्) आदित्यात् (चक्षुः) दृष्टिम् (अहम्) प्राणी (तव) (यत्) (ते) तव (मनः) अन्तःकरणम् (त्वयि) तवात्मनि (तत्) मनः (धारयामि) स्थापयामि (सम् वित्स्व) समो गम्यृच्छिप्रच्छिस्वरत्यर्तिश्रुविदिभ्यः। पा० १।३।२९। सं पूर्वाद् विद ज्ञाने आत्मनेपदम्। सम्यग् ज्ञानं प्राप्नुहि (अङ्गैः) शास्त्राङ्गैः (वद) उदीरय (जिह्वया) रसनया (अलपन्) लपनं प्रलापमनर्थकथनमकुर्वन् ॥

०४ प्राणेन त्वा

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प्रा॒णेन॑ त्वा द्वि॒पदां॒ चतु॑ष्पदाम॒ग्निमि॑व जा॒तम॒भि सं ध॑मामि।
नम॑स्ते मृत्यो॒ चक्षु॑षे॒ नमः॑ प्रा॒णाय॑ तेऽकरम् ॥

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Whitney
Translation
  1. I blow together upon thee with the breath of bipeds [and]
    quadrupeds as upon [new-] born fire; homage, O death, to thy sight,
    homage to thy breath have I made.
Notes
Griffith

I blow upon thee with the breath of bipeds and quadrupeds, as on a fire new-kindled. To thee, O Death, and to thy sight and breath have I paid reverence.

पदपाठः

प्रा॒णेन॑। त्वा॒। द्वि॒ऽपदा॑म्। चतुः॑ऽपदाम्। अ॒ग्निम्ऽइ॑व। जा॒तम्। अ॒भ‍ि। सम्। ध॒मा॒मि॒। नमः॑। ते॒। मृ॒त्यो॒ इति॑। चक्षु॑षे। नमः॑। प्रा॒णाय॑। ते॒। अ॒क॒र॒म्। २.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • प्रस्तारपङ्क्तिः
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (त्वा) तुझको (द्विपदाम्) दो पायों और (चतुष्पदाम्) चौपायों के (प्राणेन) प्राण से (अभि) सब ओर से (सम् धमामि) मैं फूँकता हूँ, (इव) जैसे (जातम्) उत्पन्न हुए (अग्निम्) अग्नि को। (मृत्यो) हे मृत्यु ! (ते) तेरी (चक्षुषे) दृष्टि को (नमः) नमस्कार और (ते) तेरे (प्राणाय) प्राण [प्रबलता] को (नमः) नमस्कार (अकरम्) मैंने किया है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य मृत्यु की दृष्टि और प्रबलता विचार कर दोपाये और चौपाये आदि प्राणियों से पुरुषार्थ सीखकर अपने पराक्रम से प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी होवें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(प्राणेन) जीवनेन (त्वा) (द्विपदाम्) मनुष्यादीनाम् (चतुष्पदाम्) गवाश्वादीनाम् (अग्निम्) भौतिकपावकम् (इव) यथा (जातम्) नवोत्पन्नम् (अभि) सर्वतः (सम्) सम्यक् (धमामि) ध्मा शब्दाग्निसंयोगयोः। दीर्घश्वासेन संयोजयामि (नमः) नमस्कारः (ते) तव (मृत्यो) (चक्षुषे) दृष्टये (नमः) प्राणाय प्रकृष्टाय बलाय (ते) तव (अकरम्) कृतवानस्मि ॥

०५ अयं जीवतु

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अ॒यं जी॑वतु॒ मा मृ॑ते॒मं समी॑रयामसि।
कृ॒णोम्य॑स्मै भेष॒जं मृत्यो॒ मा पुरु॑षं वधीः ॥

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Whitney
Translation
  1. Let this man live; let him not die; him we send together; I make a
    remedy for him; death, do not slay the man.
Notes

The majority of the mss. (including all ours save Bp.O.) leave mṛtyo
in d accentless. ⌊Both editions read mṛ́tyo.⌋

Griffith

Let this man live, let him not die: we raise him, we recover him. I make for him a healing balm. O Death, forbear to slay this man.

पदपाठः

अ॒यम्। जी॒व॒तु॒। मा। मृ॒त॒। इ॒मम्। सम्। ई॒र॒या॒म॒सि॒। कृ॒णोमि॑। अ॒स्मै॒। भे॒ष॒जम्‌। मृत्यो॒ इति॑। मा। पुरु॑षम्। व॒धीः॒। २.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह [जीव] (जीवतु) जीता रहे (मा मृत) न मरे, (इमम्) इस [जीव] को (सम् ईरयामसि) हम वायुसमान [शीघ्र] चलाते हैं। (अस्मै) इस के लिये मैं (भेषजम्) औषध (कृणोमि) करता हूँ (मृत्यो) हे मृत्यु ! (पुरुषम्) [इस] पुरुष को (मा वधीः) मत मार ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो पुरुषार्थी निरालसी होकर धर्म में वायुसमान शीघ्र चलते हैं, वे अमर मनुष्य दुःख में नहीं फँसते ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(अयम्) जीवः (जीवतु) प्राणान् धरतु (मा मृत) मृङ् प्राणत्यागे-लुङ्। प्राणान् मा त्यजतु (इमम्) आत्मानम् (समीरयामसि) वायुवच्छीघ्रं प्रेरयामः (कृणोमि) करोमि (अस्मै) जीवाय (भेषजम्) औषधम् (मृत्यो) (पुरुषम्) जीवम् (मा वधीः) मा जहि ॥

०६ जीवलां नघारिषाम्

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जी॑व॒लां न॑घारि॒षां जी॑व॒न्तीमोष॑धीम॒हम्।
त्रा॑यमा॒णां सह॑मानां॒ सह॑स्वतीमि॒ह हु॑वे॒ऽस्मा अ॑रि॒ष्टता॑तये ॥

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Whitney
Translation
  1. The lively, by-no-means-harming, living herb, the preserving,
    overpowering, powerful, do I call hither, for this man’s freedom from
    harm.
Notes

⌊Pādas a and b are repeated at viii. 7. 6.⌋ The accent of the
two participles jīvantī́m and trāyamāṇā́m seems to mark them as
appellatives rather than proper participles. Naghāriṣá, like
naghamārá, seems a fusion of the phrase na ghā (or gha) riṣyati
etc.; the pada-mss. chance mostly to agree in the frequent error of
reading for ri (nagha॰ṛṣā́m; Bp. ॰riṣā́m); the comm. reads and
explains nagharuṣām, taking -gha- as representing root han:
yasyāḥ kopo ‘pi na ghātakaḥ; he regards the plant intended as the
paths (Clypea hernandifolia). Ppp. reads naghāriṣaṁ, adds
arundhatīm after sahasvatīm in d, and has hvaye for huve.
The long ī in óṣadhīm is expressly taught by Prāt. iii. 6;
naghāriṣām is mentioned in the introduction to the fourth chapter
(add. note 4, at 11. 7).

Griffith

Here for sound health I invocate a living animating plant, Preserving, queller of disease, victorious, full of power and might.

पदपाठः

जी॒व॒लाम्। न॒घ॒ऽरि॒षाम्। जी॒व॒न्तीम्। ओष॑धीम्। अ॒हम्। त्रा॒य॒मा॒णाम्। सह॑मानाम्। सह॑स्वतीम्। इ॒ह। हु॒वे॒। अ॒स्मै। अ॒रि॒ष्टऽता॑तये। २.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • पथ्यापङ्क्तिः
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (जीवलाम्) जीवन देनेवाली, (नघारिषाम्) न कभी हानि करनेवाली, (जीवन्तीम्) जीव रखनेवाली, (त्रायमाणाम्) रक्षा करनेवाली, (सहमानाम्) [रोग] दबा लेनेवाली, (सहस्वतीम्) बलवाली (ओषधीम्) ओषधि [समान वेदविद्या] को (इह) यहाँ [आत्मा में] (अस्मै) इस [पुरुष] को (अरिष्टतातये) शुभ करने के लिये (अहम्) मैं (हुवे) बुलाता हूँ ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य ओषधिसमान वेदविद्या का सेवन करते हैं, वे शुभ भोगते हैं ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(जीवलाम्) जीव+ला दाने-क, टाप्। जीवप्रदाम् (नघारिषाम्) स घा वीरो न रिष्यति-ऋक्० १।१८।४। एवमत्र (न) निषेधे (घ) अवधारणे, सांहितिको दीर्घः, रिष हिंसायाम्-क, टाप्। नैव हिंसाशीलाम् (जीवन्तीम्) रुहिनन्दिजीविप्राणिभ्यः षिदाशिषि। उ० ३।१२७। जीव प्राणधारणे-झच्, षित्त्वात् ङीष्। प्राणधारिकाम्। अशुष्काम् (ओषधीम्) भेषजम् (त्रायमाणाम्) रक्षन्तीम् (सहमानाम्) रोगस्याभिभवित्रीम् (सहस्वतीम्) बलवतीम् (इह) आत्मनि (हुवे) आह्वयामि (अस्मै) जीवहिताय (अरिष्टतातये) अ० ३।५।५। शुभकरणाय ॥

०७ अधि ब्रूहि

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अधि॑ ब्रूहि॒ मा र॑भथाः सृ॒जेमं तवै॒व सन्त्सर्व॑हाया इ॒हास्तु॑।
भवा॑शर्वौ मृ॒डतं॒ शर्म॑ यच्छतमप॒सिध्य॑ दुरि॒तं ध॑त्त॒मायुः॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. Bless thou [him]; do not take hold; let him loose; even being
    thine, let him be one of completed years (?) here; O Bhava-and-śarva, be
    ye gracious; yield protection; driving away difficulty, bestow ye
    life-time.
Notes

The obscure -hāyas in b is translated here as if akin with
hāyana ⌊cf. vs. 8 d⌋; the comm. glosses sarvahāyas with
sarvagati; the Petersburg Lexicons conjecture ‘having complete
liveliness or power.’ For sā́n, the comm. reads sam ⌊and joins it
with sṛjā́, supplying prāṇāis⌋.

Griffith

Seize him not, but encourage and release him: here let him stay, though thine, in all his vigour. Bhava and Sarva, pity and protect him: give him full life and drive away misfortunes.

पदपाठः

अधि॑। ब्रू॒हि॒। मा। आ। र॒भ॒थाः॒। सृ॒ज। इ॒मम्। तव॑। ए॒व। सन्। सर्व॑ऽहायाः। इ॒ह। अ॒स्तु॒। भवा॑शर्वौ। मृ॒डत॑म्। शर्म॑। य॒च्छ॒त॒म्। अ॒प॒ऽसिध्य॑। दुः॒ऽइ॒तम्। ध॒त्त॒म्। आयुः॑। २.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मृत्यु-म० ८] (अधि ब्रूहि) ढाढ़स दे, (मा आ रभथाः) मत पकड़, (इमम्) इस [पुरुष] को (सृज) छोड़, यह (तव एव सन्) तेरा ही होकर (सर्वहायाः) सब गतिवाला (इह) यहाँ (अस्तु) रहे। (भवाशर्वौ) भव, [सुख देनेवाले प्राण] और शर्व [क्लेश वा मल नाश करनेवाले अपान वायु] तुम दोनों (मृडतम्) प्रसन्न हो, (शर्म) सुख (यच्छतम्) दान करो और (दुरितम्) दुर्गति (अपसिध्य) हटा कर (आयुः) जीवन (धत्तम्) पुष्ट करो ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य मृत्यु अर्थात् विपत्ति को सम्पत्ति का कारण समझकर पूर्ण साहसी होकर आत्मिक और शारीरिक बल से विघ्न हटाकर कीर्तिमान् होवें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(अधि ब्रूहि) अनुग्रहेण वद (मा आ रभथाः) मा गृहाण (सृज) त्यज (इमम्) जीवम् (तव) (एव) (सन्) (सर्वहायाः) वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। ओहाङ् गतौ-असुन्, युगागमः। सर्वगतिः (इह) अस्मिन् संसारे (अस्तु) (भवाशर्वौ) अ० ४।२८।१। सुखस्य भावयिता कर्ता भवः प्राणः, दुःखस्य शरिता नाशकः शर्वोऽपानवायुश्च तौ (मृडतम्) सुखिनौ भवतम् (शर्म) सुखम् (यच्छतम्) दत्तम् (अपसिध्य) निराकृत्य (दुरितम्) दुर्गतिम् (धत्तम्) पोषयतम् (आयुः) जीवनम् ॥

०८ अस्मै मृत्यो

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अ॒स्मै मृ॑त्यो॒ अधि॑ ब्रूही॒मं द॑य॒स्वोदि॒तो॒३॒॑ऽयमे॑तु।
अरि॑ष्टः॒ सर्वा॑ङ्गः सु॒श्रुज्ज॒रसा॑ श॒तहा॑यन आ॒त्मना॒ भुज॑मश्नुताम् ॥

०८ अस्मै मृत्यो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Bless thou this man, O death; pity him; let him go up from here;
    unharmed, whole-limbed, well-hearing, hundred-yeared by old age, let him
    attain enjoyment with himself.
Notes

Ppp. reads him for ’yam in b, and combines in d-e -hāyanā
”tm-
. The comm. paraphrases ātmánā in d with ananyāpekṣaḥ san.
⌊Read as 8 + 11: 8 + 8 + 8.⌋

Griffith

Comfort him, Death, and pity him: let him arise and pass away, Unharmed, with all his members, hearing well, with old, may he through hundred years win profit with his soul.

पदपाठः

अ॒स्मै। मृ॒त्यो॒ ‍ इति॑। अधि॑। ब्रू॒हि॒। इ॒मम्। द॒य॒स्व॒। उत्। इ॒तः। अ॒यम्। ए॒तु॒। अरि॑ष्टः। सर्व॑ऽअङ्गः। सु॒ऽश्रुत्। ज॒रसा॑। श॒तऽहा॑यनः। आ॒त्मना॑। भुज॑म्। अ॒श्नु॒ता॒म्। २.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • पुरस्ताज्ज्योतिष्मती जगती
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मृत्यो) हे मृत्यु (अस्मै) इस [मनुष्य] को (अधि ब्रूहि) ढाढ़स दे, (इमम्) इस पर (दयस्व) दया कर, (अयम्) यह [मनुष्य] (उत् इतः=उदितः) उदय होता हुआ (एतु) चले। (अरिष्टः) निर्हानि, (सर्वाङ्गः) पूरे अङ्गोंवाला, (सुश्रुत्) भली-भाँति सुननेवाला, (जरसा) स्तुति के साथ (शतहायनः) सौ वर्षोंवाला होकर (आत्मना) आत्मबल से (भुजम्) पालनसामर्थ्य (अश्नुताम्) प्राप्त करे ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विपत्तियों में ढाढ़स बाँधकर आगे बढ़ते जाते हैं, वे आत्मावलम्बी [सूर्य के समान अन्धकार से] उदय होकर पूरा सुख भोगते हैं ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(अस्मै) मनुष्याय (मृत्यो) (अधि) अनुग्रहेण (ब्रूहि) वद (इमम्) मनुष्यम् (दयस्व) दय पालने। दयां कुरु (उदितः) उद्गतः। उन्नतः (अयम्) मनुष्यः (एतु) गच्छतु (अरिष्टः) निर्हानिः (सर्वाङ्गः) पूर्णशरीरावयवः (सुश्रुत्) सुष्ठु श्रोता (जरसा) अ० १।३०।२। स्तुत्या (शतहायनः) शतसंवत्सरायुर्युक्तः (आत्मनः) स्वावलम्बनेन (भुजम्) भुज पालने-क। पालनसामर्थ्यम् (अश्नुताम्) प्राप्नोतु ॥

०९ देवानां हेतिः

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दे॒वानां॑ हे॒तिः परि॑ त्वा वृणक्तु पा॒रया॑मि त्वा॒ रज॑स॒ उत्त्वा॑ मृ॒त्योर॑पीपरम्।
आ॒राद॒ग्निं क्र॒व्यादं॑ नि॒रूहं॑ जी॒वात॑वे ते परि॒धिं द॑धामि ॥

०९ देवानां हेतिः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let the missile of the gods avoid thee; I make thee pass from the
    welkin (rájas); I have made thee pass up out of death; removing afar
    the flesh-eating Agni, I set for thee an enclosure in order to living.
Notes

The comm. reads in c nirāuham; SPP. follows grammatical rule and
reads -haṅ jīv- this time ⌊cf. note to 1. 19. 4⌋ because all his
saṁhitā-mss. happen to agree in doing so; some of ours, however, do
not. The comm. explains rájasas in b as mūrchālakṣaṇād āvaraṇāt.
⌊At 97. 6, Kāuś. gives in full, for use in case of a family quarrel (cf.
above, introd.), a verse whose first half agrees entirely with the
second half of this.⌋

Griffith

May the Gods’ missile pass thee by. I bring thee safe from the mist: from death have I preserved thee. Far have I banished flesh-consuming Agni: I place a rampart for thy life’s protection.

पदपाठः

दे॒वाना॑म्। हे॒तिः। परि॑। त्वा॒। वृ॒ण॒क्तु॒। पा॒रया॑मि। त्वा॒। रज॑सः। उत्। त्वा॒। मृ॒त्योः। अ॒पी॒प॒र॒म्। आ॒रात्। अ॒ग्निम्। क्र॒व्य॒ऽअद॑म्। निः॒ऽऊह॑न्। जी॒वात॑वे। ते॒। प॒रि॒ऽधिम्। द॒धा॒मि॒। २.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • पञ्चपदा जगती
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवानाम्) इन्द्रियों की (हेतिः) चोट (त्वा) तुझे (परि) सर्वथा (वृणक्तु) त्यागे, मैं (त्वा) तुझे (रजसः) राग से (पारयामि) पार करता हूँ, (त्वा) तुझे (मृत्योः) मृत्यु से (उत्) भले प्रकार (अपीपरम्) मैंने पचाया है। (क्रव्यादम्) मांसभक्षक [रोगोत्पादक] (अग्निम्) अग्नि को (आरात्) दूर (निरूहन्) हटाता हुआ मैं (ते) तेरे (जीवातवे) जीवन के लिये (परिधिम्) परिकोटा (दधामि) स्थापित करता हूँ ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य इन्द्रियों के विकार और विघ्नों को हटा कर अपना जीवन स्थिर करें ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(देवानाम्) इन्द्रियाणाम् (हेतिः) हननम् (परि) सर्वतः (त्वा) (वृणक्तु) वर्जयतु (पारयामि) तारयामि (त्वा) (रजसः) रागात् (उत्) उत्कर्षेण (मृत्योः) मरणात् (अपीपरम्) अ० ८।१।१७। अपालयम् (आरात्) दूरे (अग्निम्) (क्रव्यादम्) मांसभक्षकम्। रोगोत्पादकम् (निरूहन्) निर+वह प्रापणे शतृ, वस्य ऊकारश्छान्दसः। निर्गमयन् (जीवातवे) अ० ६।५।२। जीवनाय (ते) तव (परिधिम्) प्राकारम् (दधामि) स्थापयामि ॥

१० यत्ते नियानम्

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यत्ते॑ नि॒यानं॑ रज॒सं मृत्यो॑ अनवध॒र्ष्य᳡म्।
प॒थ इ॒मं तस्मा॒द्रक्ष॑न्तो॒ ब्रह्मा॑स्मै॒ वर्म॑ कृण्मसि ॥

१० यत्ते नियानम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The down-going in the welkin, not to be ventured down upon, which is
    thine, O death—from that road defending this man, we make bráhman a
    covering (varman) for him.
Notes

The comm. reads in b anavadhṛṣyam; root dhṛṣ+ ava is found
only in these two derivatives. For rajasám ⌊cf. Gram. §1209 b⌋ Ppp.
has rajasas; the comm. simply paraphrases the former by rajomayam.
One or two of the pada-mss. (including our Bp.) leave mṛtyo
unaccented in b; Ppp. elides ‘nav- after it; and, in c,
combines pathāi ’maṁ (satisfying the meter).

Griffith

Saving him from that misty path of thine which cannot be defined. From that descent of thine, O Death, we make for him a shield of prayer.

पदपाठः

यत्। ते॒। नि॒ऽयान॑म्। र॒ज॒सम्। मृत्यो॒ इति॑। अ॒न॒व॒ऽध॒र्ष्य᳡म्। प॒थः। इ॒मम्। तस्मा॑त्। रक्ष॑न्तः। ब्रह्म॑। अ॒स्मै॒। वर्म॑। कृ॒ण्म॒सि॒। २.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मृत्यो) हे मृत्यु ! (यत्) जो (ते) तेरा (रजसम्) संसारसम्बन्धी (नियानम्) मार्ग (अनवधर्ष्यम्) अजेय है, (तस्मात्) उस (पथः) मार्ग से (इमम्) इस [पुरुष] को (रक्षन्तः) बचाते हुए हम (अस्मै) इस [पुरुष] के लिये (ब्रह्म) ब्रह्म [वेदविद्या का परमेश्वर] को (वर्म) कवच (कृण्मसि) बनाते हैं ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस कठिनाई को सामान्य पुरुष नहीं रोक सकते, उसको ब्रह्मवादी जन पार करके मोक्षसुख पाते हैं ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १०−(यत्) (ते) तव (नियानम्) निरन्तरगमनम्। मार्गः (रजसम्) अर्शआद्यच्। लोकसंबद्धम् (मृत्यो) (अनवधर्ष्यम्) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। ञिधृषा प्रागल्भ्ये-ण्यत्। धर्षितुं जेतुमशक्यम्। अजेयम् (पथः) मार्गात् (इमम्) पुरुषम् (तस्मात्) प्रसिद्धात् (रक्षन्तः) पालयन्तः (ब्रह्म) परिवृढं वेदं परमेश्वरं वा (अस्मै) पुरुषाय (वर्म) कवचम् (कृण्मसि) कृण्मः। कुर्मः ॥

११ कृणोमि ते

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कृ॒णोमि॑ ते प्राणापा॒नौ ज॒रां मृ॒त्युं दी॒र्घमायुः॑ स्व॒स्ति।
वै॑वस्व॒तेन॒ प्रहि॑तान्यमदू॒तांश्च॑र॒तोऽप॑ सेधामि॒ सर्वा॑न् ॥

११ कृणोमि ते ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I make for thee breath-and-expiration, old age as [mode of] death,
    long life-time, welfare; all the messengers of Yama, sent forth by
    Vivasvant’s son, moving about, I drive away.
Notes

Ppp. reads in b jarāmṛtyum, and, in d, caratā ”rān (i.e.
carata ārād?) apa.

Griffith

I give thee both the acts of breath, health, lengthened life, and death by age. All Yama’s messengers who roam around, sent by Vaivasvata, I chase away.

पदपाठः

कृ॒णोमि॑। ते॒। प्रा॒णा॒पा॒नौ। ज॒राम्। मृ॒त्युम्। दी॒र्घम्। आयुः॑। स्व॒स्ति। वै॒व॒स्व॒तेन॑। प्रऽहि॑तान्। य॒म॒ऽदू॒तान्। च॒र॒तः। अप॑। से॒धा॒मि॒। सर्वा॑न्। २.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • विष्टारपङ्क्तिः
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ते) तेरे लिये (प्राणापानौ) प्राण और अपान, (जराम्=जरया) स्तुति के साथ (मृत्युम्) मृत्यु [प्राणत्याग], (दीर्घम्) दीर्घ (आयुः) जीवन और (स्वस्ति) कल्याण [अच्छी सत्ता] को (कृणोमि) मैं करता हूँ। (वैवस्वतेन) मनुष्यसम्बन्धी [कर्म] द्वारा (प्रहितान्) भेजे हुए, (चरतः) घूमते हुए (सर्वान्) सब (यमदूतान्) मृत्यु के दूतों को (अप सेधामि) मैं हटाता हूँ ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ब्रह्मवादी लोग अपनी शारीरिक और आत्मिक दशा सुधारकर सब दरिद्रता, रोग आदि दुःखों को हटाते हैं ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ११−(कृणोमि) करोमि (ते) तव (प्राणापानौ) शरीरे ऊर्ध्वाधःसंचारिणौ वायू (जराम्) अ० ३।११।७। तृतीयार्थे द्वितीया। जरया स्तुत्या (मृत्युम्) मरणम् (दीर्घम्) लम्बमानम् (आयुः) जीवनम् (स्वस्ति) सुसत्ताम्। क्षेमम् (वैवस्वतेन) अ० ६।११६।१। विवस्वत्-अण्। विवस्वन्तो मनुष्याः-निघ० २।३। मनुष्यसम्बन्धिना कर्मणा (प्रहितान्) प्रेरितान् (यमदूतान्) मृत्युसंदेशहरान्। निर्धनत्वरोगादीन् (चरतः) परिभ्रमतः (अप सेधामि) दूरं गमयामि (सर्वान्) निःशेषान् ॥

१२ आरादरातिं निरृतिम्

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आ॒रादरा॑तिं॒ निरृ॑तिं प॒रो ग्राहिं॑ क्र॒व्यादः॑ पिशा॒चान्।
रक्षो॒ यत्सर्वं॑ दुर्भू॒तं तत्तम॑ इ॒वाप॑ हन्मसि ॥

१२ आरादरातिं निरृतिम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Afar niggardliness, perdition, away seizure (grā́hi), the
    flesh-eating piśācás, every demon that is of evil nature—that we smite
    away, as it were into darkness.
Notes

Or ’like darkness.’ The comm. reads in b purogrāhim, and, in
d, eva for iva. Ppp. has tavāi ’va for tat tama iva. ‘Afar’
and ‘away’ in a, b anticipate as it were the ‘we smite away’ of
d.

Griffith

Far off we drive Malignity, Destruction, Pisachas banqueters on flesh, and Grahi. And all the demon kind, the brood of sin, like darkness, we dispel.

पदपाठः

आ॒रात्। अरा॑तिम्। निःऽऋ॑तिम्। प॒रः। ग्राहि॑म्। क्र॒व्य॒ऽअद॑। पि॒शा॒चान्। रक्षः॑। यत्। सर्व॑म्। दुः॒ऽभू॒तम्। तत्। तमः॑ऽइव। अप॑। ह॒न्म॒सि॒। २.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • पुरस्ताद्बृहती
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अरातिम्) निर्दानता, (निर्ऋतिम्) महामारी [दरिद्रता आदि महाविपत्ति] को (आरात्) दूर, (ग्राहिम्) जकड़नेवाली पीड़ा, (क्रव्यादः) मांस खानेवाले [रोगों] और (पिशाचान्) मांस भखनेवाले [जीवों] को (परः) परे। और (यत्) जो कुछ (दूर्भूतम्) कुशील (रक्षः) राक्षस [दुष्ट प्राणी है], (तत्) उस (सर्वम्) सब को (तमः इव) अन्धकार के समान (अप हन्मसि) हम मार हटाते हैं ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य हिंसक रोगों, जीवों और दोषों से चौकस रहकर सुखी रहें ॥१२॥ x

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ११−(कृणोमि) करोमि (ते) तव (प्राणापानौ) शरीरे ऊर्ध्वाधःसंचारिणौ वायू (जराम्) अ० ३।११।७। तृतीयार्थे द्वितीया। जरया स्तुत्या (मृत्युम्) मरणम् (दीर्घम्) लम्बमानम् (आयुः) जीवनम् (स्वस्ति) सुसत्ताम्। क्षेमम् (वैवस्वतेन) अ० ६।११६।१। विवस्वत्-अण्। विवस्वन्तो मनुष्याः-निघ० २।३। मनुष्यसम्बन्धिना कर्मणा (प्रहितान्) प्रेरितान् (यमदूतान्) मृत्युसंदेशहरान्। निर्धनत्वरोगादीन् (चरतः) परिभ्रमतः (अप सेधामि) दूरं गमयामि (सर्वान्) निःशेषान् ॥

१३ अग्नेष्टे प्राणममृतादायुष्मतो

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अ॒ग्नेष्टे॑ प्रा॒णम॒मृता॒दायु॑ष्मतो वन्वे जा॒तवे॑दसः।
यथा॒ न रिष्या॑ अ॒मृतः॑ स॒जूरस॒स्तत्ते॑ कृणोमि॒ तदु॑ ते॒ समृ॑ध्यताम् ॥

१३ अग्नेष्टे प्राणममृतादायुष्मतो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Thy breath I win from immortal Agni, from long-lived Jātavedas, that
    thou mayest take no harm, mayest be immortal in alliance [with him]:
    that I make for thee; let that prove successful for thee.
Notes

A number of the mss. (including our Bp.E.D.) read ṛ́ṣyās in c. Ppp.
has vanave for vanve in b, and yatrā at beginning of c.

Griffith

I win thy life from Agni, from the living everlasting Jatavedas. This I procure for thee, that thou, undying, mayst not suffer harm, that thou mayst be content, that all be well with thee.

पदपाठः

अ॒ग्नेः। ते॒। प्रा॒णम्। अ॒मृता॑त्। आयु॑ष्मतः। व॒न्वे॒। जा॒तऽवे॑दसः। यथा॑। न। रिष्याः॑। अ॒मृतः॑। स॒ऽजूः। असः॑। तत्। ते॒। कृ॒णो॒मि॒। तत्। ऊं॒ इति॑। ते॒। सम्। ऋ॒ध्य॒ता॒म्। २.१३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ते) तेरे (प्राणम्) प्राण को (अमृतात्) अमर, (आयुष्मतः) बड़ी आयुवाले, (जातवेदसः) उत्पन्न पदार्थों के जाननेवाले (अग्नेः) अग्नि [सर्वव्यापक परमेश्वर] से (वन्वे) मैं माँगता हूँ। (यथा) जिससे (न रिष्याः) तू न मरे, (सजूः) [उसके साथ] प्रीतिवाला तू (अमृतः) अमर (असः) रहे, मैं (तत्) वह [कर्म] (ते) तेरे लिये (कृणोमि) करता हूँ, (तत् उ) वही (ते) तेरे लिये (सम्) यथावत् (ऋध्यताम्) सिद्ध होवे ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा और गुरुजनों की शिक्षा में चलते हैं, वे बलवान् होकर सुख भोगते हैं ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १३−(अग्नेः) सर्वव्यापकात् परमेश्वरात् (ते) तव (प्राणम्) जीवनम् (अमृतात्) अमरात् (आयुष्मतः) दीर्घायुर्युक्तात् (वन्वे) अहं याचे (जातवेदसः) उत्पन्नपदार्थज्ञात् (यथा) येन प्रकारेण (न रिष्याः) मा मृथाः (अमृतः) अमरः (सजूः) परमेश्वरेण सह प्रीतिः (तत्) कर्म (ते) तुभ्यम् (कृणोमि) करोमि (तत्) (उ) अवधारणे (ते) तुभ्यम् (सम्) सम्यक् (ऋध्यताम्) सिध्यतु ॥

१४ शिवे ते

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शि॒वे ते॑ स्तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॑संता॒पे अ॑भि॒श्रियौ॑।
शं ते॒ सूर्य॒ आ त॑पतु॒ शं वातो॑ वातु ते हृ॒दे।
शि॒वा अ॒भि क्ष॑रन्तु॒ त्वापो॑ दि॒व्याः पय॑स्वतीः ॥

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Whitney
Translation
  1. Let heaven-and-earth be propitious to thee, not distressing,
    conferring fortune (? abhiśrī́); let the sun burn weal unto thee; let
    the wind blow weal to thy heart; let the heavenly waters, rich in
    fatness (páyas), flow propitious upon thee.
Notes

Ppp. combines sūryā ”tapatu in c, reads kṣaranti in e, and
adds further at the end śivās te santv oṣadhīḥ. The comm. gives
adhiśriyāu in b, glossing it with prāptaśrīke śrīprade.

Griffith

Gracious to thee be Heaven and Earth, bringing no grief, and drawing nigh! Pleasantly shine the Sun for thee, the Wind blow sweetly to thy heart! Let the celestial Waters full of milk flow happily for thee.

पदपाठः

श‍ि॒वे इति॑। ते॒। स्ता॒म्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अ॒सं॒ता॒पे इत्य॑स॒म्ऽता॒पे। अ॒भि॒ऽश्रियौ॑। शम्। ते॒। सूर्यः॑। आ। त॒प॒तु॒। शम्। वातः॑। वा॒तु॒। ते॒। हृ॒दे। शि॒वाः। अ॒भि। क्ष॒र॒न्तु॒। त्वा॒। आपः॑। द‍ि॒व्याः। पय॑स्वतीः। २.१४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • त्र्यवसाना षट्पदा जगती
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ते) तेरे लिये (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी (शिवे) मङ्गलकारी, (असन्तापे) सन्तापरहित और (अभिश्रियौ) सब ओर से ऐश्वर्यप्रद (स्ताम्) होवें। (सूर्यः) सूर्य (ते) तेरे लिये (शम्) शान्ति से (आ तपतु) तपता रहे, और (वातः) पवन (ते) तेरे (हृदे) हृदय के लिये (शम्) शान्ति से (वातु) चले। (शिवाः) मङ्गलकारी, (दिव्याः) दिव्य गुणवाले, (पयस्वतीः) दूध [उत्तम रस] वाले (आपः) जल (त्वा अभि) तेरे लिये (क्षरन्तु) बहें ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य आकाश पृथिवी आदि पदार्थों से यथावत् उपकार लेकर सुख प्राप्त करें ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १४−(शिवे) कल्याणकारिण्यौ (ते) तुभ्यम् (स्ताम्) भवताम् (द्यावापृथिवी) आकाशभूमी (असन्तापे) सन्तापरहिते (अभिश्रियौ) अभितः सर्वतः श्रीर्लक्ष्मीर्याभ्यां ते। अभिश्रीप्रदे (शम्) यथा तथा सुखम् (ते) त्वदर्थम् (सूर्यः) आदित्यः (आ तपतु) प्रकाशयतु (शम्) सुखम् (वातः) वायुः (वातु) वहतु (ते) तव (हृदे) हृदयाय (शिवाः) मङ्गलकारिण्यः (अभि) प्रति (क्षरन्तु) स्रवन्तु (त्वा) त्वाम् (आपः) जलानि (दिव्याः) उत्तमगुणाः (पयस्वतीः) पयसा दुग्धेन श्रेष्ठरसेन युक्ताः ॥

१५ शिवास्ते सन्त्वोषधय

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शि॒वास्ते॑ स॒न्त्वोष॑धय॒ उत्त्वा॑हार्ष॒मध॑रस्या॒ उत्त॑रां पृथि॒वीम॒भि।
तत्र॑ त्वादि॒त्यौ र॑क्षतां सूर्याचन्द्र॒मसा॑वु॒भा ॥

१५ शिवास्ते सन्त्वोषधय ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Propitious to thee be the herbs; I have caught thee up from the
    lower unto the upper earth; there let both the Ādityas, sun and moon,
    defend thee.
Notes

Ppp. reads ā ’hāriṣam in b, and ati for abhi in c, and
combines -masā ubhā at the end.

Griffith

Auspicious be the Plants to thee! I have upraised thee, borne thee from the lower to the upper earth: Let the two Sons of Aditi, the Sun and Moon, protect thee there.

पदपाठः

शि॒वाः। ते॒। स॒न्तु॒। ओष॑धयः। उत्। त्वा॒। अ॒हा॒र्ष॒म्। अध॑रस्याः। उत्त॑राम्। पृ॒थि॒वीम्। अ॒भि। तत्र॑। त्वा॒। आ॒दि॒त्यौ। र॒क्ष॒ता॒म्। सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑। उ॒भा। २.१५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • पथ्यापङ्क्तिः
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ते) तेरे लिये (ओषधयः) ओषधें [अन्न आदि] (शिवाः) मङ्गलकारी (सन्तु) होवें, मैंने (त्वा) तुझको (अधरस्याः) नीची [पृथिवी] से (उत्तराम्) ऊँची (पृथिवीम्) अभि) पृथिवी पर (उत् अहार्षम्) उठाया है। (तत्र) वहाँ [ऊँचे स्थान पर] (त्वा) तुझको (उभा) दोनों (आदित्यौ) प्रकाशमान (सूर्याचन्द्रमसौ) सूर्य और चन्द्रमा [के समान नियम] (रक्षताम्) बचावें ॥१५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य अन्न आदि पदार्थों के सुन्दर उपयोग से दिन-दिन अधिक उन्नति करके प्रत्यक्ष सूर्य चन्द्रमा के समान परस्पर पालन करें ॥१५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १५−(शिवाः) सुखकराः (ते) तुभ्यम् (सन्तु) (ओषधयः) व्रीह्यादयः (उत् अहार्षम्) उद्धृतवानस्मि (त्वा) त्वाम् (अधरस्याः) नीचायाः पृथिव्याः (उत्तराम्) उत्कृष्टाम् (पृथिवीम्) भूमिम् (अभि) प्रति (तत्र) उत्तरस्यां पृथिव्याम् (आदित्यौ) अ० १।९।१। आदीप्यमानौ (रक्षताम्) पालयताम् (सूर्याचन्द्रमसौ) सूर्यचन्द्रौ यथा (उभा) उभौ ॥

१६ यत्ते वासः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यत्ते॒ वासः॑ परि॒धानं॒ यां नी॒विं कृ॑णु॒षे त्वम्।
शि॒वं ते॑ त॒न्वि॒३॒॑ तत्कृ॑ण्मः संस्प॒र्शेऽद्रू॑क्ष्णमस्तु ते ॥

१६ यत्ते वासः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What enveloping (paridhā́na) garment thou hast, what inner wrap
    (nīví) thou makest for thyself, that we make propitious unto thy body;
    be it not harsh to thy touch.
Notes

SPP. reads, “with all his authorities,” ádrūkṣṇam in d. Our mss.
might doubtless all be understood in the same way, but some of them look
more like -ḍū- or -dū-; -rū-, which our text unfortunately gives,
is not found in any; neither rūkṣṇa nor drūkṣṇa appears to be met
with elsewhere; the comm. glosses with arūkṣam; he also reads aśnute
for astu te at the end. Ppp. has ‘dukṣaṇam. ⌊Vāit. (10. 6) employs
the vs. in the paśubandha on draping the sacrificial post.⌋

Griffith

Whatever robe to cover thee or zone thou makest for thyself, We make it pleasant to thy frame: may it be soft and smooth to touch.

पदपाठः

यत्। ते॒। वासः॑। प॒रि॒ऽधान॑म्। याम्। नी॒विम्। कृ॒णु॒षे। त्वम्। शि॒वम्। ते॒। त॒न्वे᳡। तत्। कृ॒ण्मः॒। स॒म्ऽस्प॒र्शे। अद्रू॑क्ष्णम्। अ॒स्तु॒। ते॒। २.१६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (यत्) जिस (वासः) वस्त्र को (परिधानम्) ओढ़ना और (याम्) जिस (नीविम्) पेटी [फेंटा] को (ते) अपने लिये (त्वम्) तू (कृणुषे) बनाता है। (तत्) उसे (ते) तेरे (तन्वे) शरीर के लिये (शिवम्) सुख देनेवाला (कृण्मः) हम बनाते हैं, वह (ते) तेरे लिये (संस्पर्शे) छूने में (अद्रूक्ष्णम्) अनखुरखुरा (अस्तु) होवे ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य कवच, अङ्गरक्षा आदि वस्त्र शरीर के लिये, सुखदायक बनावें ॥१६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १६−(यत्) (ते) त्वदर्थम्। स्वस्मै (वासः) वस्त्रम् (परिधानम्) उपर्य्याच्छादनम् (याम्) (नीविम्) नौ व्यो यलोपः पूर्वस्य च दीर्घः। उ० ४।१३६। नि+व्येञ् संवरणे-इण्, स च डित्, यलोपश्च। कटिबन्धनम् (कृणुषे) करोषि (त्वम्) (शिवम्) सुखकरम् (ते) तव (तन्वे) शरीराय (तत्) वस्त्रम् (कृण्मः) कुर्मः (संस्पर्शे) स्पर्शकरणे (अद्रूक्ष्णम्) इण्सिञ्जि०। उ० ३।२। रूक्ष पारुष्ये−नक्, दकारश्छान्दसः। अरूक्ष्णम्। अकोठरम् (अस्तु) (ते) तुभ्यम् ॥

१७ यत्क्षुरेण मर्चयता

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यत्क्षु॒रेण॑ म॒र्चय॑ता सुते॒जसा॒ वप्ता॒ वप॑सि केशश्म॒श्रु।
शुभं॒ मुखं॒ मा न॒ आयुः॒ प्र मो॑षीः ॥

१७ यत्क्षुरेण मर्चयता ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. In that with a dangerous (? marcáyant) very sharp (sutejás)
    razor thou, a hair-dresser, shearest hair and beard, adorning the face,
    do not thou steal away our life-time.
Notes

The translation given implies in c the reading śúmbhan, which, it
can hardly be questioned, is the true one, although it is read by only
one ms. (our W.) and by Ppp.; the rest of our mss. all have, and our
edition with them, śúmbham. SPP. accepts the unintelligible śúbham,
with the comm., and with, as he reports, the majority of his
authorities, the rest reading, like ours, śúmbhaṁ; the comm. explains
śúbham with dīptaṁ tejasvi and has to supply after it kuru to make
any sense. Ppp. further reads -śmaśrū in b, and māi ’nam for
nas
in c. According to the distinct direction of the Prāt. (ii.
76), we ought to read ā́yuṣ prá in d, and its authority is
sufficient to establish that as the true text, against both the
editions; half SPP’s authorities give it, though only one of ours (R.);
on such a point the mss. are often at odds, and their evidence of little
weight. The verse occurs also in several Gṛhya-Sūtras, AGS. (i. 17. 16);
PCS. (ii. 1. 19), and HGS. (i. 9. 16); all read supeśasā in a; in
b, HGS. has vaptar, PGS. vapati, AGS. and PGS. keśān; in
c, the two latter have śunddhi śiras, HGS. varcayā mukham; in
d, AGS. and PGS. give asya for nas; all have āyuḥ pra. ⌊Found
also MP. ii. 1. 7: see also MGS. i. 21. 7 and p. 153.⌋ ⌊Cf. Oldenberg,
IFA. vi. 184.⌋

Griffith

When, with a very keen and cleasing razor, our hair and beards thou shavest as a barber, Smoothing our face steal not our vital forces.

पदपाठः

यत्। क्षु॒रेण॑। म॒र्चय॑ता। सु॒ऽते॒जसा॑। वप्ता॑। वप॑सि। के॒श॒ऽश्म॒श्रु। शुभ॑म्। मुख॑म्। मा। नः॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒। २.१७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • त्रिपदानुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वप्ता) नापित तू (मर्चयता) [केशों का] पकड़नेवाले (सुतेजसा) बड़े तेज (यत्) जिस (क्षुरेण) छुरा से (केशश्मश्रु) केश और और डाढ़ी-मूँछ को (वपसि) बनाता है, [उससे] (नः) हमारे (शुभम्) सुन्दर (मुखम्) मुख और (आयुः) जीवन को (मा प्र मोषीः) मत घटा ॥१७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य केशछेदन कराके मुख और जीवन की शोभा बढ़ावें ॥१७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से स्वामिदयानन्दकृतसंस्कारविधि चूड़ाकर्म प्रकरण में आया है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १७−(यत्) येन (क्षुरेण) क्षौरास्त्रेण (मर्चयता) मर्च शब्दे ग्रहणे च-शतृ। केशानां ग्रहीत्रा (सुतेजसा) सुतीक्ष्णेन (वप्ता) टुवप बीजसन्ताने मुण्डने च-तृन्। केशच्छेत्ता। नापितः (वपसि) मुण्डयसि। छिनत्सि (केशश्मश्रु) क्लिशेरन् लो लोपश्च। उ० ५।३३। क्लिश उपतापे, क्लिशू विबाधने-अन्, लस्य लोपः। इति केशः कचः। श्मश्रु यथा-अ० ५, १९।२। शिरोरोमाणि मुखरोमाणि च (शुभम्) शोभनम् (मुखम्) (नः) अस्माकम् (आयुः) जीवनम् (मा प्र मोषीः) मा प्रहिंसीः ॥

१८ शिवौ ते

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शि॒वौ ते॑ स्तां व्रीहिय॒वाव॑बला॒साव॑दोम॒धौ।
ए॒तौ यक्ष्मं॒ वि बा॑धेते ए॒तौ मु॑ञ्चतो॒ अंह॑सः ॥

१८ शिवौ ते ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Propitious to thee be rice and barley, free from balā́sa, causing
    no burning (?); these drive off the yákṣma; these free from distress.
Notes

Compare Grohmann in Ind. Stud. ix. 399. The comm. does not connect
abalāsāú with balā́sa, but regards it as a-bala-asa, and glosses it
with śārīrabalasyā ’kṣeptārāu. Adomadhāú (cf. adomadám, vi. 63. 1,
and note) is very obscure; Ppp. reads instead adhomadhāu; the comm.
adomadhū, glossing it with upayogānantaram madhurāu. Ppp. reads
yatas for etāu in both c and d, and follows it in d by
muñcata mā ’ṅhasaḥ.

Griffith

Auspicious unto thee be rice and barley, causing no painful sick- ness or consumption, these deliver from calamity.

पदपाठः

शि॒वौ। ते॒। स्ता॒म्। व्री॒हि॒ऽय॒वौ। अ॒ब॒ला॒सौ। अ॒दो॒म॒धौ। ए॒तौ। यक्ष्म॑म्। वि। बा॒धे॒ते॒ इति॑। ए॒तौ। मु॒ञ्च॒तः॒। अंह॑सः। २.१८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ते) तेरे लिये (व्रीहियवौ) चावल और जौ (शिवौ) मङ्गल करनेवाले, (अबलासौ) बल के न गिरानेवाले और (अदोमधौ) भोजन में हर्ष करनेवाले (स्ताम्) हों। (एतौ) यह दोनों (यक्ष्मम्) राजरोग को (वि) विशेष करके (बाधेते) हटाते हैं, (एतौ) यह दोनों (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतः) छुड़ाते हैं ॥१८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चावल और जौ आदि सात्त्विक अन्न का भोजन प्रसन्न होकर करना चाहिये, जिससे वह पुष्टिकारक हो ॥१८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १८−(शिवौ) सुखकरौ (ते) तुभ्यम् (स्ताम्) (व्रीहियवौ) अन्नविशेषौ (अबलासौ) अ० ६।६३।१। अ+बल+अनु क्षेपणे-क्विप्। शरीरबलस्य अक्षेप्तारौ (अदोमधौ) अद भक्षणे-असुन्+मद हर्षे-अच्, दस्य धः। भोजने हर्षकरौ (एनौ) व्रीहियवौ (यक्ष्मम्) राजरोगम् (वि) विशेषेण (बाधेते) अपनयतः (एतौ) (मुञ्चतः) मोचयतः (अंहसः) कष्टात् ॥

१९ यदश्नासि यत्पिबसि

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यद॒श्नासि॒ यत्पि॑बसि धा॒न्यं᳡ कृ॒ष्याः पयः॑।
यदा॒द्यं१॒॑ यद॑ना॒द्यं सर्वं॑ ते॒ अन्न॑मवि॒षं कृ॑णोमि ॥

१९ यदश्नासि यत्पिबसि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. What thou eatest (), what thou drinkest, of grain, milk of the
    plowing—what should be eaten, what should not be eaten—all food I make
    for thee poisonless.
Notes

The comm. reads strangely kṛchrāt instead of kṣsyās in b.

Griffith

Thy food, thy drink, whate’er they be corn grown by cultivation, milk, Food eatable, uneatable, I make all poisonless for thee.

पदपाठः

यत्। अ॒श्नासि॑। यत्। पिब॑सि। धा॒न्य᳡म्। कृ॒ष्या। पयः॑। यत्। आ॒द्य᳡म्। यत्। अ॒ना॒द्यम्। सर्व॑म्। ते॒। अन्न॑म्। अ॒वि॒षम्। कृ॒णो॒मि॒। २.१९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • उपरिष्टाद्बृहती
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (यत्) जो तू (कृष्याः) खेती का [उपजा] (धान्यम्) धान्य (अश्नासि) खाता है, और (यत्) जो तू (पयः) दूध वा जल (पिबसि) पीता है। (यत्) चाहे (आद्यम्) पुराना [धरा हुआ], (यत्) चाहे (अनाद्यम्) नवीन [पुराने से भिन्न] हो, (सर्वम्) वह सब (अन्नम्) अन्न (ते) तेरे लिये (अविषम्) निर्विष (कृणोमि) करता हूँ ॥१९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य खान-पान विचारपूर्वक करते हैं, वे नीरोग रहते हैं ॥१९॥ सायणाचार्य ने अर्थ किया है−(आद्यम्) खाने योग्य, सुख से भक्षणीय और (अनाद्यम्) न खाने योग्य, कठिन वा अत्यन्त कटु तिक्त द्रव्य ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १९−(यत्) यत्किञ्चित् (अश्नासि) खादसि (यत्) (पिबसि) (धान्यम्) अन्नम् (कृष्याः) कृषिकर्मणः प्राप्तम् (पयः) दुग्धं जलं वा (यत्) यदि वा (आद्यम्) दिगादिभ्यो यत्। पा० ४।३।५४। आदि-यत्। आदौ भवम्। प्रथमम्। पुराणम्। यद्वा अद भक्षणे-ण्यत्। अदनीयम्। सुखेन भक्षणीयम्-यथा सायणः (यत्) अनाद्यम्-आद्येन प्रथमेन भिन्नम्। नवीनम्। यद्वा अदनानर्हं कठिनद्रव्यम्, अत्यन्तकटुतिक्तत्वाद् वा अनाद्यम्-इति सायणः (सर्वम्) (ते) तुभ्यम् (अन्नम्) जीवनसाधनं भक्षणीयं वा द्रव्यम् (अविषम्) निर्विषम्। नीरोगम् (कृणोमि) करोमि ॥

२० अह्ने च

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अह्ने॑ च त्वा॒ रात्र॑ये चो॒भाभ्यां॒ परि॑ दद्मसि।
अ॒राये॑भ्यो जिघ॒त्सुभ्य॑ इ॒मं मे॒ परि॑ रक्षत ॥

२० अह्ने च ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Both to day and to night, to them both we commit thee. Defend ye
    this man for me from the arā́yas that seek to devour [him].
Notes

Some of SPP’s authorities, also the comm. and Ppp., read dadhmasi at
end of b. Ppp. further has rāyebhyas at beginning of c, and
nas (for me) in d. The comm. explains arāyebhyas as =
adhanebhyo dhanāpahartṛbhyo vā.

Griffith

We give thee over as a charge to Day and Night, in trust to both. Keep him for me from stingy fiends, from those who fain would feed on him.

पदपाठः

अह्ने॑। च॒। त्वा॒। रात्र॑ये। च॒। उ॒भाभ्या॑म्। परि॑। द॒द्म॒सि॒। अ॒राये॑भ्यः। जि॒घ॒त्सुऽभ्यः॑। इ॒मम्। मे॒। परि॑। र॒क्ष॒त॒। २.२०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वा) तुझे (उभाभ्याम्) दोनों (अह्ने) दिन (च च) और (रात्रये) रात्रि को (परि दद्मसि) हम सौंपते हैं। (अरायेभ्यः) निर्दानी और (जिघत्सुभ्यः) खाना चाहनेवाले लोगों से (इमम्) इस [पुरुष] को (मे) मेरे लिये (परि) सब प्रकार (रक्षत) तुम बचाओ ॥२०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रकाश अन्धकार और समय कुसमय का विचार करके शत्रुओं से परस्पर रक्षा करें ॥२०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २०−(अह्ने) दिनाय। प्रकाशकालाय (त्वा) त्वाम् (रात्रये) अन्धकारकालाय (च च) समुच्चये (उभाभ्याम्) द्वाभ्याम् (परि दद्मसि) समर्पयामः (अरायेभ्यः) रा दाने-घञ्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। अदातृभ्यः (जिघत्सुभ्यः) अद भक्षणे-सन्-उ प्रत्ययः। लुङ्सनोर्घस्लृ। पा० २।४।३७। अदेर्घस्लादेशे। एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्। पा० ७।२।१०। इट्प्रतिषेधः। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। इति तत्वम्। भक्षणेच्छुकेभ्यः पुरुषेभ्यः (इमम्) पुरुषम् (मे) मह्यम् (परि) सर्वतः (रक्षत) पालयत ॥

२१ शतं तेऽयुतम्

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श॒तं ते॒ऽयुतं॑ हाय॒नान्द्वे यु॒गे त्रीणि॑ च॒त्वारि॑ कृण्मः।
इ॑न्द्रा॒ग्नी विश्वे॑ दे॒वास्तेऽनु॑ मन्यन्ता॒महृ॑णीयमानाः ॥

२१ शतं तेऽयुतम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. A hundred, a myriad years, two periods (yugá), three, four, we
    make for thee; let Indra-and-Agni, let all the gods, approve thee, not
    showing enmity.
Notes

The second half-verse is i. 35. 4 c, d. The ‘periods’ here are not
at all likely to be those of the later chronology, though the comm.
naturally thinks them so. ⌊Alternatively, he makes yugé =
‘generations.’⌋ Ppp. has santu for kṛṇmas in b, and omits te
in c. The pada-mss. read té: ánu instead of te: ánu: compare
under i. 35. 4. ⌊We had a “sataḥpan̄kti” at vi. 20. 3.⌋

Griffith

A hundred, yea, ten thousand years we give thee, ages two, three, four. May Indra, Agni, all the Gods, with willing favour look on thee.

पदपाठः

श॒तम्। ते॒। अ॒युत॑म्। हा॒य॒नान्। द्वे इति॑। यु॒गे इति॑। त्रीणि॑। च॒त्वारि॑। कृ॒ण्मः॒। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। विश्वे॑। दे॒वाः। ते। अनु॑। म॒न्य॒न्ता॒म्। अहृ॑णीयमानाः। २.२१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • सतःपङ्क्तिः
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ते) तेरे लिये (शतम्) सौ और (अयुतम्) दश सहस्र (हायनान्) वर्षों को [क्रम से] (द्वे युगे) दो युग, (त्रीणि) तीन [युग] और (चत्वारि) चार [युग] (कृण्मः) हम करते हैं। (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि और (ते) वे [प्रसिद्ध] (विश्वे देवाः) सब दिव्य पदार्थ [सूर्य, पृथिवी आदि] (अहृणीयमानाः) संकोच न करते हुए (अनु मन्यन्ताम्) अनुकूल रहें ॥२१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने यह सृष्टि और काल चक्र मनुष्य के उपकार के लिये बनाये हैं। विज्ञानी पुरुष परमेश्वर की अपार महिमा में अपना पराक्रम बढ़ाकर नये-नये आविष्कार करके अमर नाम करते हैं ॥२१॥ इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध आ चुका है-अ० १।३५।४ ॥ मन्त्र के पूर्वार्द्ध में सृष्टि का समयक्रम कलियुग, द्वापर, त्रेता और सत्ययुग और वर्षों का अर्थ दैववर्ष जान पड़ता है, सो इस प्रकार है− सन्धिकाल युगकाल १००१=१०० १०,०००१=१०,००० १००२=२०० १०,०००२=२०,००० १००३=३०० १०,०००३=३०,००० १००४=४०० १०,०००४=४०,००० योगसन्धि १,००० वर्ष योगयुग १,००,००० योगसन्धि और युग १,०१,००० १-अथर्ववेद काण्ड ८ सूक्त २ मन्त्र २१ के अनुसार युगवर्ष गणना ॥ सूचना−मन्त्र में केवल [सौ, दश सहस्र, वर्षे, दो युग, तीन और चार] पद हैं, कलि आदि पदों की कल्पना की गयी है। एक दैववर्ष में ३६० [तीन सौ साठ] मानुष वा सौर वर्ष होते हैं ॥ सन्धि कलि द्वापर त्रेता कृतयुग चतुर्युगी और दैव वर्ष मानुष दैव वर्ष मानुष दैव वर्ष मानुष दैव वर्ष मानुष दैव वर्ष मानुष युग वा सौर वर्ष वा सौर वर्ष वा सौर वर्ष वा सौर वर्ष वा सौर वर्षसन्धि १०,००० ३६,००० युग १००३६,००,००० २००२०,००० ७२,०००७२,००,००० ३००३०,००० १,०८,०००१,०८,००० ४००४०,००० १,४४,०००१,४४,००,००० १,०००१,००,००० ३,६०,०००३,६०,००,०००योग १०,१०० ३६,३६,००० २०,२०० ७२,७२,००० ३०,३०० १,०९,०८,००० ४०,४०० १,४५,४४,००० १,०१,००० ३,६™३,६०,०००२-मनु अध्याय १ श्लोक ६९-७० और सूर्य सिद्धान्त अध्याय १ श्लोक १५-१७ के अनुसार युग वर्ष गणना ॥सन्धिऔर युग कृतयुग श्रेतायुग द्वापरयुग कलियुग चतुर्युगी दैव वर्ष मानुष वा सौर वर्ष दैव वर्ष मानुष वा सौर वर्ष दैव वर्ष मानुष वा सौर वर्ष दैव वर्ष मानुष वा सौर वर्ष दैव वर्ष मानुष वा सौर वर्षसन्ध्या वर्षयुग वर्षसंध्यांशवर्ष ४००4000४०० १,४४,०००१४,४०,०००१,४४,०००3003000३०० १,०८,०००१०,८०,०००१,०८,००० २००2000२०० ७२,०००७,२०,०००७२,००० १००1000१०० ३६,०००३,६०,०००३६,००० १०००10000१,००० ™३,६०,०००३६,००,०००३,६०,०००योग ४,८०० १७,२८,००० ३,६०० १२,९६,००० २,४०० ८,६४,००० १,२०० ४,३२,००० १२,००० ४३,२०,०००[आगे मनु श्लोक ७१, ७२ के अनुसार बारह सहस्र चतुर्युगी का एक दैव युग और एक सहस्र दैव युग का ब्रह्मा का एक दिन, और इतनी ही रात्री। अर्थात् १२,००० दैव वर्ष१००० युग३६० मानुष वर्ष= ४,३२,००,००,०० [चार अरब बत्तीस करोड़] मानुष वर्ष का एक दिन और इतनी वर्षों की ब्रह्मा की रात्री है, परन्तु मन्त्र का संबन्ध इससे नहीं है] ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २१−(शतम्) कलिसन्धेः शतदैववर्षाणि (ते) तुभ्यम् (अयुतम्) कलियुगस्य दशसहस्रदैववर्षाणि (हायनान्) अ० ३।१०।९। संवत्सरान् (द्वे युगे) द्विगुणितं शतं चायुतं च द्वापरस्य सन्धियुगयोर्दैववर्षाणि (त्रीणि) त्रिगुणितं शतं चायुतं च त्रेतायुगस्य सन्धियुगयोर्दैववर्षाणि (चत्वारि) चतुर्गुणितं शतं चायुतं च कृतयुगस्य सन्धियुगयोर्दैववर्षाणि (कृण्मः) कुर्मः। अन्यद् यथा-अ० १।३५।४। (इन्द्राग्नी) वाय्वग्नी (विश्वे) सर्वे (देवाः) दिव्यगुणाः पदार्थाः (ते) प्रसिद्धाः (अनुमन्यन्ताम्) अनुकूला भवन्तु (अहृणीयमानाः) असंकुचन्तः ॥

२२ शरदे त्वा

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श॒रदे॑ त्वा हेम॒न्ताय॑ वस॒न्ताय॑ ग्री॒ष्माय॒ परि॑ दद्मसि।
व॒र्षाणि॒ तुभ्यं॑ स्यो॒नानि॒ येषु॒ वर्ध॑न्त॒ ओष॑धीः ॥

२२ शरदे त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Unto autumn, unto winter, unto spring, unto summer, we commit thee;
    [be] the rains pleasant to thee, in which the herbs grow.
Notes

Ppp. has again dadhmasi in b.

Griffith

To Autumn we deliver thee, to Winter, Spring and Summer’s care. We trust thee with auspicious years wherein the plants and herbs grow up.

पदपाठः

श॒रदे॑। त्वा॒। हे॒म॒न्ताय॑। व॒स॒न्ताय॑। ग्री॒ष्माय॑। परि॑। द॒द्म॒सि॒। व॒र्षाणि॑। तुभ्य॑म्। स्यो॒नानि॑। येषु॑। वर्ध॑न्ते। ओष॑धीः। २.२२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • पुरस्ताद्बृहती
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (त्वा) तुझे (शरदे) शरद्, (हेमन्ताय) हेमन्त [और शिशिर], (वसन्ताय) वसन्त और (ग्रीष्माय) ग्रीष्म [ऋतु] को (परि दद्मसि) हम सौंपते हैं। (वर्षाणि) वर्षाएँ (तुभ्यम्) तेरे लिये (स्योनानि) मनभावनी [होवें], (येषु) जिनमें (ओषधीः) औषधें [अन्न आदि वस्तुयें] (वर्द्धन्ते) बढ़ती हैं ॥२२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य सब ऋतुओं से यथावत् उपयोग लेकर सुखी रहें ॥२२॥ इस मन्त्र का मिलान अ० ६।५५।२। से करो जहाँ छह ऋतुएँ वर्णित हैं ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २२−(परि दद्मसि) समर्पयामः (वर्षाणि) श्रावणभाद्रात्मको मेघकालः (तुभ्यम्) (स्योनानि) सुखकराणि (येषु) (वर्द्धन्ते) उत्पद्यन्ते (ओषधीः) व्रीहियवादयः। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ६।५५।२। (शरदे) आश्विनकार्तिकात्मकाय कालाय (त्वा) त्वाम् (हेमन्ताय) आग्रहायणपौषात्मकाय कालाय। शिशिरसहिताय माघफाल्गुनसहिताय (ग्रीष्माय) ज्येष्ठाषाढात्मकाय कालाय ॥

२३ मृत्युरीशे द्विपदाम्

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मृ॒त्युरी॑शे द्वि॒पदां॑ मृ॒त्युरी॑शे॒ चतु॑ष्पदाम्।
तस्मा॒त्त्वां मृ॒त्योर्गोप॑ते॒रुद्भ॑रामि॒ स मा बि॑भेः ॥

२३ मृत्युरीशे द्विपदाम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Death is master of bipeds; death is master of quadrupeds; from that
    death, lord of kine, I bear thee up; ⌊so⌋ do thou not be afraid.
Notes

Ppp. reads for d ud dharāmi sa mā mṛta ⌊intending mṛthās?⌋.

Griffith

Death is the lord of bipeds, Death is sovran lord of quadrupeds. Away I bear thee from that: Death the ruler: be not thou afraid.

पदपाठः

मृ॒त्युः। ई॒शे॒। द्वि॒ऽपदा॑म्। मृ॒त्युः। ई॒शे॒। चतुः॑ऽपदाम्। तस्मा॑त्। त्वाम्। मृ॒त्योः। गोऽप॑तेः। उत्। भ॒रा॒मि॒। सः। मा। बि॒भेः॒। २.२३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मृत्युः) मृत्यु (द्विपदाम्) दोपायों का (ईशे) शासक है, (मृत्युः) मृत्यु (चतुष्पदाम्) चौपायों का (ईशे) शासक है। (तस्मात्) उस (गोपतेः) पृथिवी के स्वामी (मृत्योः) मृत्यु से (त्वाम्) तुझे (उत् भरामि) ऊपर उठाता हूँ (सः) सो तू (मा बिभेः) मत भय कर ॥२३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ब्रह्मज्ञानी पुरुष प्रबल मृत्यु से निर्भय होकर विचरते रहते हैं ॥२३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २३−(मृत्युः) (ईशे) ईष्टे। शासको भवति (द्विपदाम्) पदद्वयोपेतानां मनुष्यपक्ष्यादीनाम् (मृत्युः) (ईशे) (चतुष्पदाम्) पदचतुष्टययुक्तानां गवाश्वादीनाम् (तस्मात्) प्रसिद्धात् (त्वाम्) मनुष्यम् (मृत्योः) मरणात् (गोपतेः) भूमिशासकात् (उत् भरामि) उद्धारयामि (सः) स त्वम् (मा बिभेः) भयं मा कुरु ॥

२४ सोरिष्ट न

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सो᳡रि॑ष्ट॒ न म॑रिष्यसि॒ न म॑रिष्यसि॒ मा बि॑भेः।
न वै तत्र॑ म्रियन्ते॒ नो य॑न्ति अध॒मं तमः॑ ॥

२४ सोरिष्ट न ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Thou, unharmed one, shalt not die; thou shalt not die, be not
    afraid; [men] die not there, nor go to lowest darkness.
Notes

Ppp. gives in c pra mīyante—a better reading, as rectifying the
meter. ⌊Pāda b occurs as vs. 1 a of a khila to RV. i. 191,
with the two clauses inverted.⌋

Griffith

Thou, still uninjured, shalt not die: be not afraid; thou shalt not die. Here where I am men do not die or go to lowest depths of gloom.

पदपाठः

सः। अ॒रि॒ष्ट॒। न। म॒रि॒ष्य॒सि॒। न। म॒रि॒ष्य॒सि॒। मा। ब‍ि॒भेः॒। न। वै। तत्र॑। म्रि॒य॒न्ते॒। नो इति॑। य॒न्ति॒। अ॒ध॒मम्। तमः॑। २.२४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अरिष्ट) हे निर्हानि ! (सः) सो तू (न) नहीं (मरिष्यसि) मरेगा, तू (न) नहीं (मरिष्यसि) मरेगा, (मा बिभेः) मत भय कर। (तत्र) वहाँ पर [कोई] (वै) भी (न) नहीं (म्रियन्ते) मरते हैं, (नो) और नहीं (अधमम्) नीचे (तमः) अन्धकार में (यन्ति) जाते हैं ॥२४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जहाँ पर मनुष्य ब्रह्म का विचार करते रहते हैं [देखो मन्त्र २५], वहाँ मृत्यु का भय नहीं होता ॥२४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २४−(सः) स त्वम् (अरिष्ट) हे निर्हाने (न) निषेधे (मरिष्यसि) प्राणान् त्यक्ष्यसि (न) (मरिष्यसि) (मा बिभेः) भीतिं मा कुरु (न) (वै) अवश्यम् (तत्र) ब्रह्मणि-मन्त्र २५ (म्रियन्ते) प्राणान् त्यजन्ति (नो) नैव (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (अधमम्) नीचीनम् (तमः) अन्धकारम् ॥

२५ सर्वो वै

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सर्वो॒ वै तत्र॑ जीवति॒ गौरश्वः॒ पुरु॑षः प॒शुः।
यत्रे॒दं ब्रह्म॑ क्रि॒यते॑ परि॒धिर्जीव॑नाय॒ कम् ॥

२५ सर्वो वै ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Every one, verily, lives there—ox, horse, man, beast—where this
    charm (bráhman) is performed, a defense (paridhí) unto living.
Notes

The verse has a correspondent in TA. (vi. 11. 12), but with a different
first pāda: TA. makes it nā vāí tátra prá mīyate (nearly as our 24
c in Ppp.).

Griffith

Here verily all creatures live, the cow, the horse, the man, the beast, Here where this holy prayer is used, a rampart that protecteth life. Let it preserve thee from thy peers, from incantation, from thy friends.

पदपाठः

सर्वः॑। वै। तत्र॑। जी॒व॒ति॒। गौः। अश्वः॑। पुरु॑षः। प॒शुः॒। यत्र॑। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्रि॒यते॑। प॒रि॒ऽधिः। जीव॑नाय। कम्। २.२५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सर्वः) सब (वै) ही (तत्र) वहाँ (जीवति) जीता रहता है, (गौः) गौ, (अश्वः) घोड़ा, (पुरुषः) पुरुष, और (पशुः) पशु [हाथी ऊँट आदि]। (यत्र) जहाँ पर (इदम्) यह [प्रसिद्ध] (ब्रह्म) ब्रह्म [परमेश्वर] (जीवनाय) जीवन के लिये (कम्) सुख से (परिधिः) कोट [समान रक्षासाधन] (क्रियते) बनाया जाता है ॥२५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य ब्रह्म के आश्रित रहते हैं, वे जीवन्मुक्त होकर सब सुख भोगते हैं ॥२५॥ इस मन्त्र का सम्बन्ध मन्त्र २३, २४ से है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २५−(सर्वः) निःशेषः (वै) एव (तत्र) ब्रह्माश्रये (जीवति) प्राणान् धारयति (गौः) धेनुः (अश्वः) घोटकः (पुरुषः) मनुष्यः (पशुः) गजोष्ट्रादिः (तत्र) (इदम्) प्रसिद्धम् (ब्रह्म) परिवृढः परमात्मा (परिधिः) प्राकारो यथा रक्षासाधनम् (जीवनाय) प्राणधारणाय (कम्) सुखेन ॥

२६ परि त्वा

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परि॑ त्वा पातु समा॒नेभ्यो॑ऽभिचा॒रात्सब॑न्धुभ्यः।
अम॑म्रिर्भवा॒मृतो॑ऽतिजी॒वो मा ते॑ हासिषु॒रस॑वः॒ शरी॑रम् ॥

२६ परि त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let it protect thee from thy fellows, from witchcraft, from thy
    kinsmen; be thou undying, immortal, surviving; let not thy life-breaths
    (ásu) leave thy body.
Notes

Ppp. reads sugantubhyas at end of b.

Griffith

Live very long, be healthy, be immortal: let not the vital breath forsake thy body.

पदपाठः

परि॑। त्वा॒। पा॒तु॒। स॒मा॒नेभ्यः॑। अ॒भि॒ ऽचा॒रात्। सब॑न्धुऽभ्यः। अम॑म्रिः॒। भ॒व॒। अ॒मृतः॑। अ॒ति॒ऽजी॒वः। मा। ते॒। हा॒सि॒षुः॒। अस॑वः। शरी॑रम्। २.२६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • आस्तारपङ्क्तिः
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - वह [ब्रह्म-म० २५] (त्वा) तुझको (अभिचारात्) दुष्कर्म से (सबन्धुभ्यः) बन्धुओं सहित (समानेभ्यः) साथियों के [हित के] लिये (परि) सब प्रकार (पातु) बचावे। (अमम्रिः) विना मृत्युवाला, (अमृतः) अमर, (अतिजीवः) उत्तरजीवी (भव) हो, (ते) तेरे (असवः) प्राण [तेरे] (शरीरम्) शरीर को (मा हासिषुः) न छोड़ें ॥२६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य परमेश्वर का सहारा लेकर परोपकार करते हैं, वे ब्रह्मचारी अधिक जीकर अधिक उपकारी होते हैं ॥२६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २६−(परि) सर्वतः (त्वा) त्वाम् (पातु) रक्षतु (समानेभ्यः) समानानां सदृशगुणस्वभावानां हिताय (अभिचारात्) विरुद्धाचरणात्। उपद्रवात् (सबन्धुभ्यः) बन्धुसहितेभ्यः (अमम्रिः) आदृगमहनजनः किकिनौ। लिट् च। पा० ३।२।१७१। मृङ् प्राणत्यागे−कि, नञ्समासः। अमरणशीलः (भव) (अमृतः) अमरः। पुरुषार्थी (अतिजीवः) उत्तरजीवी (ते) तव (मा हासिषुः) ओहाक् त्यागे-लुङ्। मा त्यजन्तु (असवः) प्राणाः (शरीरम्) देहम् ॥

२७ ये मृत्यव

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ये मृ॒त्यव॒ एक॑शतं॒ या ना॒ष्ट्रा अ॑तिता॒र्याः᳡।
मु॒ञ्चन्तु॒ तस्मा॒त्त्वां दे॒वा अ॒ग्नेर्वै॑श्वान॒रादधि॑ ॥

२७ ये मृत्यव ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The deaths that are a hundred and one, the perditions (nāṣṭrā́)
    that are to be over-passed—from that let the gods free thee, from Agni
    Vāiśvānara.
Notes

Ppp. reads in b nāṣṭrātta (-tu?) jīvyāḥ. ⌊See note to iii. 11.
5 for “101 deaths."⌋

Griffith

One and a hundred modes of death, dangers that may be over- come, May Gods deliver thee from this when Agni, dear to all men, bids.

पदपाठः

ये। मृ॒त्यवः॑। एक॑ऽशतम्। याः। ना॒ष्ट्राः। अ॒ति॒ऽता॒र्याः᳡। मु॒ञ्चन्तु॑। तस्मा॑त्। त्वाम्। दे॒वाः। अ॒ग्नेः। वै॒श्वा॒न॒रात्। अधि॑। २.२७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ये) जो (एकशतम्) एक सौ एक (मृत्यवः) मृत्युएँ और (याः) जो (नाष्ट्राः) नाश करनेवाली [पीड़ायें] (अतितार्याः) पार करने योग्य हैं। (तस्मात्) उस [क्लेश] से (त्वाम्) तुझको (देवाः) [तेरे] उत्तम गुण (वैश्वानरात्) सब नरों के हितकारक (अग्नेः) अग्नि [सर्वव्यापक परमेश्वर] का आश्रय लेकर (अधि) अधिकारपूर्वक (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥२७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ब्रह्मवादी योगीजन सर्वगुरु परमेश्वर के आश्रय से उत्तम कर्म करके शारीरिक और आत्मिक पीड़ाएँ छोड़कर आनन्द पाते हैं ॥२७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २७−(ये) (मृत्यवः) मृत्युहेतवो रोगादयः (एकशतम्) एकाधिकं शतम्। बहुसंख्याका इत्यर्थः (याः) (नाष्ट्राः) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६। नाशयतेः-त्रन्। नाशयित्र्यः पीडाः (अतितार्याः) अतितरीतव्याः। लङ्घनीयाः (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (तस्मात्) क्लेशात् (त्वाम्) मनुष्यम् (देवाः) उत्तमगुणाः (अग्नेः) पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० २।३।२८। अग्निं सर्वव्यापकं परमेश्वरमाश्रित्य (वैश्वानरात्) सर्वनरहितमित्यर्थः (अधि) अधिकृत्य ॥

२८ अग्नेः शरीरमसि

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अ॒ग्नेः शरी॑रमसि पारयि॒ष्णु र॑क्षो॒हासि॑ सपत्न॒हा।
अथो॑ अमीव॒चात॑नः पू॒तुद्रु॒र्नाम॑ भेष॒जम् ॥

२८ अग्नेः शरीरमसि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Agni’s body art thou, successful (pārayiṣṇú); demon-slayer art
    thou, rival-slayer, likewise expeller of disease, a remedy pūtúdru by
    name.
Notes

Pūtúdru is (OB.) Acacia catechu or Pittus deodora; the comm. reads
pūtadru and does not attempt ⌊on p. 587⌋ to identify it.* The mss.
vary between -ṇú and -ṇús at end of a; our edition reads -ṇús
(with our P.M.E.s.m.); SPP. adopts -ṇú, with the great majority of his
authorities; the comm. has -ṇus; Ppp., as noticed above, lacks this
verse. There is little to choose in point of acceptability between the
two readings. *⌊As noted in the introd., the use of the hymn is
followed in Kāuś. 58. 15 by the binding on of pūtu-dāru (so Bl’s text,
with the variant pūta-; in citing the text, at p. 568, comm. has
pūti-). This is explained by Daś. Kar. as an “amulet of deodar,”
devadārumaṇi; and so Dār. and Keś. to 8. 15, and comm. p. 567 end.⌋
⌊The first anuvāka, 2 hymns and 49 verses, ends here. The quoted
Anukr. (cf. end of h. 1) says ādyasahitam.⌋

Griffith

Body of Agni prompt to save, slayer of fiends and foes art thou, Yea, banisher of malady, the healing balm called Putudru.

पदपाठः

अ॒ग्नेः। शरी॑रम्। अ॒सि॒। पा॒र॒यि॒ष्णु। र॒क्षः॒ऽहा। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒ऽहा। अथो॒ इति॑। अ॒मी॒व॒ऽचात॑नः। पू॒तुद्रुः॑। नाम॑। भे॒ष॒जम्। २.२८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • ब्रह्मा
  • पुरस्ताद्बृहती
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमेश्वर !] तू (अग्नेः) अग्नि [तेज] का (शरीरम्) शरीर, (पारयिष्णु) पार लगानेवाला (असि) है, और (रक्षोहा) राक्षसों का नाश करनेवाला, और (सपत्नहा) प्रतियोगियों को मार डालनेवाला (असि) है। (अथो) और भी (अमीवचातनः) पीड़ा मिटानेवाला (पूतुद्रुः) शुद्धि पहुँचानेवाला (नाम) नाम का (भेषजम्) औषध है ॥२८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यह मन्त्र इस सूक्त का उपसंहार है। मनुष्य तेजःस्वरूप परमात्मा की उपासना से अपने क्लेशों का नाश करें ॥२८॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २८−(अग्नेः) तेजसः (शरीरम्) स्वरूपम् (असि) (पारयिष्णु) अ० ५।२८।१४। पारप्रापकं ब्रह्म (रक्षोहा) रक्षसां हन्ता परमेश्वरः (सपत्नहा) प्रतियोगिनां नाशकः (अथो) अपि च (अमीवचातनः) अ० १।२८।१। रोगनाशकः (पूतुद्रुः) अर्तेश्च तुः। उ० १।७२। पूङ् शोधने-तु, स च कित्। हरिमितयोर्द्रुवः। उ० १।३४। पूतु+द्रु गतौ-कु, स च डित्। शुद्धिप्रापकः परमेश्वरः (नाम) प्रसिद्धौ (भेषजम्) औषधम् ॥