०८२ अग्निः

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Whitney subject

82 (87). Praise and prayer to Agni.

VH anukramaṇī

अग्निः।
१-६ शौनकः (संपत्कामः)। अग्निः। त्रिष्टुप्, २ ककुम्मती बृहती, ३ जगती।

Whitney anukramaṇī

[śāunaka (sampatkāmaḥ).—ṣaḍṛcam. āgneyam. trāiṣṭubham: 2. kakummatī bṛhatī; 3. jagatī.]

Whitney

Comment

Of this hymn, verses 2 and 6 are found in Pāipp. xx., and verse 3 in iii. It is used in Kāuś. (59. 15), with ii. 6, in a rite for success; and also (59. 19), with hymn 17 etc.: see under 17; further, vss. 2-6, in the upanayana ceremony (57. 21), accompany the laying of five pieces of fuel in renewing a lost fire*; and the comm. quotes it from the Nakṣatra Kalpa (17-19) in various mahāśānti ceremonies. Vāit. (29. 19) employs it (or vs. 1?) in the agnicayana, after laying on fuel with vii. 15; further (5. 16) vs. 2, in the agnyādheya ceremony, while blowing the fire with one’s breath; and yet again (2. 7) vs. 6, in the parvan sacrifice, while ladling out the sacrificial butter. *⌊Keś., p. 35925; comm., p. 484 end.⌋

Translations

Translated: Ludwig, p. 428; Henry, 34, 102; Griffith, i. 369.

Griffith

In praise of Agni

०१ अभ्यर्चत सुष्टुतिम्

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अ॒भ्य᳡र्चत सुष्टु॒तिं गव्य॑मा॒जिम॒स्मासु॑ भ॒द्रा द्रवि॑णानि धत्त।
इ॒मं य॒ज्ञं न॑यत दे॒वता॑ नो घृ॒तस्य॒ धारा॒ मधु॑मत्पवन्ताम् ॥

०१ अभ्यर्चत सुष्टुतिम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Sing (arc) ye good praise unto the contest for kine; put ye in us
    excellent possessions; lead ye this sacrifice of ours unto the gods; let
    streams of ghee purify themselves sweetly.
Notes

The verse is found also as RV. iv. 58. 10 and VS. xvii. 98. Both read in
a arṣata (which is better), and at the the pavante. The comm.
understands devatās in c. He regards the waters or the kine as
addressed, and explains a in several different ways.

Griffith

Sing with fair laud the combat for the cattle. Bestow upon us excellent possessions. Lead to the Gods the sacrifice we offer: let streams of oil flow pure and full of sweetness.

पदपाठः

अ॒भि। अ॒र्च॒त॒। सु॒ऽस्तु॒तिम्। गव्य॑म्। आ॒जिम्। अ॒स्मासु॑। भ॒द्रा। द्रवि॑णानि। ध॒त्त॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। न॒य॒त॒। दे॒वता॑। नः॒। घृ॒तस्य॑। धाराः॑। मधु॑ऽमत्। प॒व॒न्ता॒म्। ८७.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • शौनकः
  • त्रिष्टुप्
  • अग्नि सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेद के विज्ञान का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (सुष्टुतिम्) बड़ी स्तुतिवाले, (गव्यम्) पृथिवी वा स्वर्ग के लिये हितकारक, (आजिम्) प्राप्तियोग्य परमेश्वर को (अभि) भले प्रकार (अर्चत) पूजो, और (अस्मासु) हम लोगों में (भद्रा) सुखों और (द्रविणानि) बलों और धनों को (धत्त) धारण करो। (देवता) प्रकाशमान तुम सब (इमम्) इस (यज्ञम्) पूजनीय परमात्मा को (नः) हम में (नयत) पहुँचाओ, (घृतस्य) प्रकाशित ज्ञान की (धाराः) धारायें [धारण शक्तियाँ वा प्रवाह] (मधुमत्) श्रेष्ठ विज्ञानयुक्त कर्म को (पवन्ताम्) शुद्ध करें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग परमेश्वरीय ज्ञान का उपदेश करके मनुष्यों का उपकार करें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० ४।५८।१० ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(अभि) सर्वतः (अर्चत) पूजयत (सुष्टुतिम्) अतिस्तुतियुक्तम् (गव्यम्) तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। गो-यत्। गवे पृथिव्यै स्वर्गाय वा हितम् (आजिम्) अज्यतिभ्यां च। उ० ४।१३१। अज गतिक्षेपणयोः-इण। प्रापणीयं परमात्मानम् (अस्मासु) (भद्रा) सुखानि (द्रविणानि) बलानि धनानि च (धत्त) धारयत (इमम्) प्रसिद्धम् (यज्ञम्) पूजनीयं परमेश्वरम् (नयत) प्रापयत (देवता) स्वार्थे तल्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेर्लुक्। देवताः। यूयं प्रकाशमानाः (घृतस्य) प्रकाशितस्य बोधस्य (धाराः) धारणशक्तयः प्रवाहा वा (मधुमत्) प्रशस्तविज्ञानयुक्तं कर्म (पवन्ताम्) शोधयन्तु ॥

०२ मय्यग्रे अग्निम्

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मय्यग्रे॑ अ॒ग्निं गृ॑ह्णामि स॒ह क्ष॒त्रेण॒ वर्च॑सा॒ बले॑न।
मयि॑ प्र॒जां मय्यायु॑र्दधामि॒ स्वाहा॒ मय्य॒ग्निम् ॥

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Whitney
Translation
  1. I seize in me Agni at first, together with dominion, splendor,
    strength; in me I put progeny, in me lifetime,—hail!—in me Agni.
Notes

The first and third pādas are read in TS. v. 7. 9¹, and the first three
in MS. i. 6. 1, with sundry variants: both put gṛhṇāmi in a before
ágre, and MS. rectifies the meter by inserting ahám between the two;
for b, MS. has sahá prajáyā várcasā dhánena (TS. entirely
different, rāyás póṣāya etc.); in c, MS. puts kṣatrám in place
of prajā́m, and, for ā́yus, MS. gives rā́yas and TS. várcas (d
is different in each text). Ppp. reads at the end agniḥ. The meter (8

  • 11: 11 + 6 = 36) is imperfectly described by the Anukr.
Griffith

Agni I first appropriate with power, with splendour, and with might. I give myself children and lengthened life, with Hail! take Agni to myself.

पदपाठः

मयि॑। अग्रे॑। अ॒ग्निम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। स॒ह। क्ष॒त्रेण॑। वर्च॑सा। बले॑न। मयि॑। प्र॒ऽजाम्। मयि॑। आयुः॑। द॒धा॒मि॒। स्वाहा॑। मयि॑। अ॒ग्निम्। ८७.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • शौनकः
  • त्रिष्टुप्
  • अग्नि सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेद के विज्ञान का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (अग्रे) सब से पहिले वर्तमान (अग्निम्) सर्वज्ञ परमेश्वर को (मयि) अपने में (क्षत्रेण) [दुःख से बचानेवाले] राज्य, (वर्चसा) प्रताप और (बलेन सह) बल के साथ (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ। मैं (मयि) अपने में (प्रजाम्) प्रजा [सन्तान भृत्य आदि] को, (मयि) अपने में (आयुः) जीवन को, (मयि) अपने में (अग्निम्) अग्नि [शारीरिक और आत्मिक बल] को (स्वाहा) सुन्दर वाणी [वेदवाणी] के द्वारा (दधामि) धारण करता हूँ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य अनादि, अनन्त, परमात्मा का भरोसा रखकर शारीरिक, आत्मिक बल बढ़ा कर राज्य आदि की वृद्धि करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(मयि) आत्मनि (अग्रे) सर्वप्रथमं वर्तमानम् (अग्निम्) सर्वज्ञं परमात्मानाम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (सह) सहितः (क्षत्रेण) क्षणु हिंसायाम्-क्विप्+त्रैङ् पालने-क। क्षतः क्षतात् त्रायकेण राज्येन (वर्चसा) प्रतापेन (बलेन) (मयि) (प्रजाम्) सन्ततिभृत्यादिरूपाम् (मयि) (आयुः) जीवनम् (दधामि) धारयामि (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाण्या। वेदवाचा (मयि) (अग्निम्) विद्युतं शारीरिकात्मिकबलहेतुम् ॥

०३ इहैवाग्ने अधि

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इ॒हैवाग्ने॒ अधि॑ धारया र॒यिं मा त्वा॒ नि क्र॒न्पूर्व॑चित्ता निका॒रिणः॑।
क्ष॒त्रेणा॑ग्ने सु॒यम॑मस्तु॒ तुभ्य॑मुपस॒त्ता व॑र्धतां ते॒ अनि॑ष्टृतः ॥

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Whitney
Translation
  1. Just here, O Agni, do thou maintain wealth; let not the downputters,
    with previous intents, put thee down; by dominion, O Agni, be it of easy
    control for thee; let thine attendant increase, not laid low.
Notes

The verse occurs also in VS. (xxvii. 4), TS. (iv. 1. 7²), MS. (ii. 12.
5); all have the better reading kṣatrám at beginning of c; and,
for the difficult and probably erroneous pū́rvacittās of b, VS.TS.
read pūrvacítas, and MS. pūrvácittāu (the editor noting that K. and
Kap. S. read with VS.). The word, in whatever form, probably refers to
other worshipers who get the start of us and outdo our Agni by their
own; the comm. says: asmattaḥ pūrvaṁ tvadviṣayamanaskāḥ or
tvadviṣayayāgakaraṇamanasaḥ. All the pada-mss. read at the end
ániḥ-stṛtaḥ, and this is required by Prāt. ii. 86; but SPP. alters to
áni-stṛtaḥ—which, to be sure, better suits the sense. The RV.
pada-text also has (viii. 33. 9) ániḥ-stṛtaḥ; TS. (and by inference
MS., as the editor reports nothing), ániṣṭṛtaḥ, unchanged. The verse
in Ppp. stands in the middle of our hymn ii. 6 (between vss. 3 and 4);
⌊and it is important to remember that its position in the Yajus texts,
VS.TS.MS., is similar: see note to ii. 6. 3⌋. Ppp. reads dabhan for
ni kran in b, and kṣatram ⌊and sūyamam⌋ in c. This
jagatī has one triṣṭubh pāda.

Griffith

Even here do thou, O Agni, stablish wealth: let not oppressors injure thee by thinking of thee first. Light be thy task of ruling, Agni, with, thy power: may he who worships thee wax strong, invincible.

पदपाठः

इ॒ह। ए॒व। अ॒ग्ने॒। अधि॑। धा॒र॒य॒। र॒यिम्। मा। त्वा॒। नि। क्र॒न्। पूर्व॑ऽचित्ताः। नि॒ऽका॒रिणः॑। क्ष॒त्रेण॑। अ॒ग्ने॒। सु॒ऽयम॑म्। अ॒स्तु॒। तुभ्य॑म्। उ॒प॒ऽस॒त्ता। व॒र्ध॒ता॒म्। ते॒। अनि॑ऽस्तृतः। ८७.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • शौनकः
  • त्रिष्टुप्
  • अग्नि सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेद के विज्ञान का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वज्ञ परमात्मन् ! (इह एव) यहाँ पर ही (रयिम्) धन को (अधि) अधिकारपूर्वक (धारय) पुष्ट कर, (पूर्वचित्ताः) पहिले से सोचनेवाले [घाती], (निकारिणः) अपकारी [दुष्ट] लोग (त्वा) तुझ को (मा नि क्रन्) नीचा न करें। (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (तुभ्यम्) तेरे (क्षत्रेण) [विघ्न से बचानेवाले] राज्य के साथ [हमारा] (सुयमम्) सुन्दर नियमवाला कर्म (अस्तु) होवे, (ते) तेरा (उपसत्ता) उपासक [अश्रित जन] (अनिष्टृतः) अजेय होकर (वर्धताम्) बढ़ता रहे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य दूरदर्शी नीतिज्ञ होकर घात लगानेवाले शत्रुओं से बचकर धर्म के साथ अपनी और प्रजा की उन्नति करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(इह) अस्माकं मध्ये (एव) (अग्ने) हे सर्वज्ञ (अधि) अधिकृत्य (धारय) पोषय (रयिम्) धनम् (त्वा) परमेश्वरम् (मा नि क्रन्) मन्त्रे घसह्वर०। पा० २।४।८०। करोतेर्लुङि च्लेर्लुक्। नीचैर्मा कार्षुः (पूर्वचित्ताः) प्राग्विचारवन्तः, घातिन इत्यर्थः (निकारिणः) अपकारिणः (क्षत्रेण)-म० २। विघ्नाद् रक्षकेण राज्येन (अग्ने) सर्वव्यापक (सुयमम्) ईषद्दुःसुषु०। पा० ३।३।१२६। सु+यम नियमने-खल्। यथावद् नियमयुक्तं कर्म (अस्तु) (तुभ्यम्) षष्ठ्यर्थे चतुर्थीति वक्तव्या। वा० पा० २।३।६२। तव (उपसत्ता) षद्लृ विषरणगत्यवसादनेषु-तृच्। उपासकः। आश्रितः (वर्धताम्) (ते) तव (अनिष्टृतः) स्तॄञ् आच्छादने-क्त। स्तृणातिवर्धकर्मा-निघ० २।१९। अहिंसितः। अजेयः ॥

०४ अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो

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अन्व॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒दन्वहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः।
अनु॒ सूर्य॑ उ॒षसो॒ अनु॑ र॒श्मीननु॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ वि॑वेश ॥

०४ अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Agni hath looked after the apex of the dawns, after the days, [he]
    first, Jātavedas, a sun, after the dawns, after the rays, after
    heaven-and-earth he entered.
Notes

Anu ‘after’ seems here to have a distributive force: Agni is ever
present to meet the first dawn etc. with his brightness; or it is the
opposite of prati in vs. 5: anu ‘from behind,’ as prati ‘from in
front.’ The verse is found as VS. xi. 17, and in TS. iv. i. 2², TB. 1.
2. 1²³, and MS. i. 8. 9. All these have in c ánu sū́ryasya purutrā́
ca raśmī́n
(an easier and better reading), and, at the end, VS. MS. give
ā́ tatantha, and TS.TB. ā́ tatāna. This verse and the next are
repeated as xviii. i. 27, 28.

Griffith

Agni hath looked upon the spring of Morning, looked on the days, the earliest Jatavedas. So, following the gleams of Morning, Surya hath entered heaven and earth as his possession.

पदपाठः

अनु॑। अ॒ग्निः। उ॒षसा॑म्। अग्र॑म्। अ॒ख्य॒त्। अनु॑। अहा॑नि। प्र॒थ॒मः। जा॒तऽवे॑दाः। अनु॑। सूर्यः॑। उ॒षसः॑। अनु॑। र॒श्मीन्। अनु॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। आ। वि॒वे॒श॒। ८७.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • शौनकः
  • त्रिष्टुप्
  • अग्नि सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेद के विज्ञान का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर ने (उषसाम्) उषाओं के (अग्रम्) विकास को (अनु) निरन्तर, [उसी] (प्रथमः) सब से पहिले वर्तमान (जातवेदाः) उत्पन्न वस्तुओं के ज्ञान करानेवाले परमेश्वर ने (अहानि) दिनों को (अनु) निरन्तर (अख्यत्) प्रसिद्ध किया है। (सूर्यः) [उसी] सूर्य [सब में व्यापक वा सबको चलानेवाले परमेश्वर] ने (उषसः) उषाओं में (अनु) लगातार, (रश्मीन्) व्यापक किरणों में (अनु) लगातार, (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी में (अनु) लगातार (आ विवेश) प्रवेश किया है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस परमेश्वर ने सूक्ष्म और स्थूल पदार्थों को रच कर सबको अपने वश में कर रक्खा है, वही सब मनुष्य का उपास्य है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(अनु) निरन्तरम् (अग्निः) सर्वव्यापक ईश्वरः (उषसाम्) प्रभातवेलानाम् (अग्रम्) प्रादुर्भावम् (अख्यत्) ख्यातेर्लुङ्। अ० ७।७३।६। प्रख्यातवान् (अनु) (अहानि) दिनानि (प्रथमः) प्रथमानः (जातवेदाः) अ० १।७।२। जातानि वस्तूनि वेदयति ज्ञापयतीति सः (अनु) (सूर्यः) सर्वव्यापकः। सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (उषसः) प्रभातकालान् (रश्मीन्) अ० २।३२।१। व्यापकान् किरणान् (अनु) (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (आ विवेश) समन्तात् प्रविष्टवान् ॥

०५ प्रत्यग्निरुषसामग्रमख्यत्प्रति अहानि

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प्रत्य॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒त्प्रति॒ अहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः।
प्रति॒ सूर्य॑स्य पुरु॒धा च॑ र॒श्मीन्प्रति॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ त॑तान ॥

०५ प्रत्यग्निरुषसामग्रमख्यत्प्रति अहानि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Agni hath looked forth to meet the apex of the dawns, to meet the
    days, [he] first, Jātavedas, and to meet the rays of the sun in many
    places; to meet heaven-and-earth he stretched out.
Notes

A variation of the preceding verse, perhaps suggested by RV. iv. 13. 1
a, which is identical with its first pāda; its second half agrees
much more closely with the version of the other texts than does 4 c,
d
. The comm. is still more faithful to that version, by giving the
(preferable) reading purutrā in c.

Griffith

Agni hath looked upon the spring of Mornings, looked on the days, the earliest Jatavedas. So he in countless places hath extended, full against heaven and earth, the beams of Surya.

पदपाठः

प्रति॑। अ॒ग्निः। उ॒षसा॑म्। अग्र॑म्। अ॒ख्य॒त्। प्रति॑। अहा॑नि। प्र॒थ॒मः। जा॒तऽवे॑दाः। प्रति॑। सूर्य॑स्य। पु॒रु॒ऽधा। च॒। र॒श्मीन्। प्रति॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। आ। त॒ता॒न॒। ८७.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • शौनकः
  • त्रिष्टुप्
  • अग्नि सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेद के विज्ञान का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर ने (उषसाम्) उषाओं के (अग्रम्) विकास को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से, [उसी] (प्रथमः) सब से पहिले वर्त्तमान (जातवेदाः) उत्पन्न वस्तुओं के ज्ञान करानेवाले परमेश्वर ने (अहानि) दिनों को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (अख्यत्) प्रसिद्ध किया है। (च) और (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मीन्) व्यापक किरणों को (पुरुधा) अनेक प्रकार (प्रति) प्रत्यक्षरूप से, और (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी लोकों को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (आ) सब ओर (ततान) फैलाया है ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब जगत् के उत्पादक और सर्वनियन्ता ईश्वर की महिमा को विचारकर मनुष्य अपनी उन्नति करें ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(प्रति) प्रत्यक्षरूपेण (सूर्यस्य) आदित्यमण्डलस्य (पुरुधा) अनेकधा (च) (आ) समन्तात् (ततान) विस्तारयामास ॥अन्यत्पूर्ववत्-म० ४॥

०६ घृतं ते

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घृ॒तं ते॑ अग्ने दि॒व्ये स॒धस्थे॑ घृ॒तेन॒ त्वां मनु॑र॒द्या समि॑न्धे।
घृ॒तं ते॑ दे॒वीर्न॒प्त्य१॒॑ आ व॑हन्तु घृ॒तं तुभ्यं॑ दुह्रतां॒ गावो॑ अग्ने ॥

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Whitney
Translation
  1. Ghee for thee, Agni, in the heavenly station; with ghee Manu kindleth
    thee today; let the goddesses thy kin (natpī́) bring thee ghee; ghee to
    thee let the kine milk, O Agni.
Notes

Ppp. reads duhrate in d. The comm. gives naptryas in c, and
declares it to mean the waters; it is more probably the daughters of the
sky in general.

Griffith

Butter to thee in heaven thy home, O Agni! Manu this day hath kindled thee with butter. Let the Celestial Daughters bring thee butter: Let cows pour butter forth for thee, O Agni.

पदपाठः

घृ॒तम्। ते॒। अ॒ग्ने॒। दि॒व्ये। स॒धऽस्थे॑। घृ॒तेन॑। त्वाम्। मनुः॑। अ॒द्य। सम्। इ॒न्धे॒। घृ॒तम्। ते॒। दे॒वीः। न॒प्त्यः᳡। आ। व॒ह॒न्तु॒। घृ॒तम्। तुभ्य॑म्। दु॒ह्र॒ता॒म्। गावः॑। अ॒ग्ने॒। ८७.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • शौनकः
  • त्रिष्टुप्
  • अग्नि सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेद के विज्ञान का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वज्ञ परमेश्वर ! (ते) तेरा (घृतम्) प्रकाश (दिव्ये) दिव्य [सूक्ष्म] कारण में और (सधस्थे) मिलकर ठहरनेवाले कार्यरूप जगत् में है, (घृतेन) प्रकाश के साथ वर्त्तमान (त्वा) तुझ को (मनुः) मननशील पुरुष (अद्य) अब (सम्) यथावत् (इन्धे) प्रकाशित करता है। (ते) तेरे (घृतम्) प्रकाश को (देवीः) उत्तम गुणवाली, (नप्त्यः) न गिरनेवाली प्रजायें [हमें] (आ वहन्तु) प्राप्त करावें, (अग्ने) हे सर्वव्यापक जगदीश्वर ! (गावः) वेदवाणियाँ (तुभ्यम्) तेरे (घृतम्) प्रकाश को (दुह्रताम्) परिपूर्ण करें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विचारवान् पुरुष परमेश्वर की सत्ता और शक्ति को कारण और कार्यरूप जगत् में साक्षात् करके संसार को पुरुषार्थी बनावें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(घृतम्) घृ सेके दीप्तौ च-क्त। दीप्तिः (ते) तव (अग्ने) सर्वज्ञ परमेश्वर (दिव्ये) विचित्रे कारणे (सधस्थे) सहस्थितिशीले कार्यरूपे संसारे (घृतेन) प्रकाशेन (त्वाम्) (मनुः) मननशीलः पुरुषः (अद्य) इदानीम् (सम्) सम्यक् (इन्धे) ञिइन्धी दीप्तौ, ण्यर्थः। दीपयति। विज्ञापयति (घृतम्) ज्ञानप्रकाशम् (ते) तव (देवीः) उत्तमगुणयुक्ताः (नप्त्यः) नप्तृनेष्टृत्वष्टृ०। उ० २।९५। नञ्+पत्लृ गतौ-तृच्, ङीप्, छान्दसं रूपम्। न पततीति नप्त्री। नप्त्र्यः। न पतनशीलाः प्रजाः (आ) अभिमुखम् (वहन्तु) प्रापयन्तु (घृतम्) (तुभ्यम्) म० ३। तव (दुह्रताम्) बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। रुडागमः। दुह्रताम्। प्रपूरयन्त (गावः) वेदवाचः−(अग्ने) हे सर्वव्यापक ॥