०७५ अघ्न्याः

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Whitney subject

75 (79). Praise and prayer to the kine.

VH anukramaṇī

अघ्न्याः।
१-२ उपरिबभ्रबः। अघ्न्याः। १ त्रिष्टुप्, २ त्र्यवसाना पञ्चपदा भुरिक् पथ्यापङ्क्तिः।

Whitney anukramaṇī

[Uparibabhrava.—dvyṛcam. āghnyam. trāiṣṭubham: 2. 3-av. bhurik pathyāpan̄kti.]

Whitney

Comment

Like the preceding hymn, not found in Pāipp. Not used in Kāuś. (if iv. 21. 7 is intended in 19. 14). But the comm. says here that the ritual application in the rite for prosperity of kine has already been stated, referring, probably, to his exposition under iv. 21. 7, where he spoke of two verses, although the hymn had none after 7; possibly the two verses of this hymn are what he had in mind.

Translations

Translated: Ludwig, p. 469; Henry, 30, 96; Griffith, i. 364.

Griffith

A blessing on cows

०१ प्रजावतीः सूयवसे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प्र॒जाव॑तीः सू॒यव॑से रु॒शन्तीः॑ शु॒द्धा अ॒पः सु॑प्रपा॒णे पिब॑न्तीः।
मा व॑ स्ते॒न ई॑शत॒ माघशं॑सः॒ परि॑ वो रु॒द्रस्य॑ हे॒तिर्वृ॑णक्तु ॥

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Whitney
Translation
  1. Rich in progeny, shining in good pasture, drinking clear waters at a
    good watering-place—let not the thief master you, nor the evil-plotter;
    let Rudra’s weapon avoid you.
Notes

Repeated here from iv. 21. 7; for the parallel passages with their
variants etc., see the note to that verse.

Griffith

Let not a thief or wicked man possess you: let not the dart of Rudra come anear you, Prolific, shining in the goodly pasture, drinking at pleasant pools the limpid water.

पदपाठः

प्र॒जाऽव॑तीः। सु॒ऽयव॑से। रु॒शन्तीः॑। शु॒ध्दाः। अ॒पः। सु॒ऽप्र॒पा॒ने। पिब॑न्तीः। मा। वः॒। स्ते॒नः। ई॒श॒त॒। मा। अ॒घऽशं॑सः। परि॑। वः॒। रु॒द्रस्य॑। हे॒तिः। वृ॒ण॒क्तु॒। ७९.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अघ्न्या
  • उपरिबभ्रवः
  • त्रिष्टुप्
  • अघ्न्या सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सामाजिक उन्नति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य प्रजाओ !] (प्रजावतीः) उत्तम सन्तानवाली, (सूयवसे) सुन्दर यव आदि अन्नवाले [घर] में [अन्न] (रुशन्तीः) खाती हुई, और (सुप्रपाणे) सुन्दर जलस्थान में (शुद्धाः) शुद्ध (अपः) जलों को (पिबन्तीः) पीती हुई (वः) तुमको (स्तेनः) चोर (मा ईशत) वश में न करे, और (मा) न (अघशंसः) बुरा चीतनेवाला, डाकू उचक्का आदि [वश में करे], (रुद्रस्य) पीड़ानाशक परमेश्वर की (हेतिः) हनन शक्ति (वः) तुमको (परि) सब ओर से (वृणक्तु) त्यागे रहे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्यायें उपार्जन करके अपनी सन्तानों को उत्तम शिक्षा देते हुए और अन्न जल आदि का सुप्रबन्ध करते हुए सदा हृष्ट पुष्ट बुद्धिमान् और धर्मिष्ठ रहें, जिससे उन्हें न चोर आदि सता सके और न परमेश्वर दण्ड देवे ॥१॥ यह मन्त्र आ चुका है-अ० ४।२१।७ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १-शब्दार्थो यथा, अ० ४।२१।७ ॥

०२ पदज्ञा स्थ

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प॑द॒ज्ञा स्थ॒ रम॑तयः॒ संहि॑ता वि॒श्वना॑म्नीः।
उप॑ मा देवीर्दे॒वेभि॒रेत॑।
इ॒मं गो॒ष्ठमि॒दं सदो॑ घृ॒तेना॒स्मान्त्समु॑क्षत ॥

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Whitney
Translation
  1. Track-knowing are ye, staying (rámati), united, all-named; come
    unto me, ye divine ones, with the gods; to this stall, this seat;
    sprinkle us over with ghee.
Notes

Ramati is called by the comm. a gonāman; to “united” he adds “with
their calves, or with other kine.” ⌊The Anukr. seems to scan 8 + 7: 10:
8 + 8.⌋

Griffith

Ye know the place and rest content, close-gathered, called by many a name. Come to me, Goddesses, with Gods Bedew with streams of fatness us, this cattle-pen, and all this place.

पदपाठः

प॒द॒ऽज्ञाः। स्थ॒। रम॑तयः। सम्ऽहि॑ताः। वि॒श्वऽना॑म्नीः। उप॑। मा॒। दे॒वीः॒। दे॒वेभिः॑। आ। इ॒त॒। इ॒मम्। गो॒ऽस्थम्। इ॒दम्। सदः॑। घृ॒तेन॑। अ॒स्मान्। सम्। उ॒क्ष॒त॒। ७९.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अघ्न्या
  • उपरिबभ्रवः
  • त्र्यवसाना भुरिक्पथ्यापङ्क्तिः
  • अघ्न्या सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सामाजिक उन्नति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्रजाओ ! तुम] (पदज्ञाः) पगदण्डी [वा अपने पद] को जाननेवाली, (रमतयः) क्रीड़ा करनेवाली, (संहिताः) यथावत् हित करनेवाली वा परस्पर मिली हुई और (विश्वनाम्नीः) व्याप्त नामवाली (स्थ) हो। (देवीः) हे दिव्य गुणवाली देवियो ! (देवेभिः) उत्तम गुणों के साथ (मा) मुझ को (उप) समीप से (आ इत्) प्राप्त होवो। (इमम्) इस (गोष्ठम्) वाचनालय को, (इदम्) इस (सदः) बैठक को और (अस्मान्) हमको (घृतेन) प्रकाश से (सम्) यथावत् (उक्षत) बढ़ाओ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर और विद्वानों के मार्ग और अपनी स्थिति को जान कर परस्पर हित करके सामाजिक उन्नति करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(पदज्ञाः) पदचिह्नस्य स्थानस्य वा ज्ञात्र्यः (स्थ) भवथ (रमतयः) अ० ६।७३।२। रमयित्र्यः (संहिताः) सम्+धा धारणी वा हि गतौ-क्त। सम्यक् हितं प्रतिपाद्यं यासां ताः परस्परसंगता वा (विश्वनाम्नीः) वा च्छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसः पूर्वसवर्णदीर्घः। व्याप्तनामधेयाः (उप) समीपे (मा) माम् (देवीः) देव्यः। दिव्यगुणाः (देवेभिः) उत्तमगुणैः (आ इत) आगच्छत (इमम्) (गोष्ठम्) वाचस्तिष्ठन्त्यत्र। वाचनालयम् (इदम्) (सदः) सदनम् (घृतेन) प्रकाशेन (अस्मान्) (सम्) सम्यक् (उक्षत) उक्षितः, महन्नाम-निघ० ३।३। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु० १२।९। वर्धयत ॥