०५३ दीर्घायुः

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Whitney subject

53 (55). For some one’s health and long life.

VH anukramaṇī

दीर्घायुः।
१-७ ब्रह्मा। आयुः, बृहस्पतिः अश्विनौ च। १-२ त्रिष्टुप्, ३ भुरिक्, ४ उष्णिग्गर्भार्षी पङ्क्तिः, ५-७ अनुष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Brahman.—saptarcam. āyuṣyam uta bārhaspatyam; āśvinam. trāiṣṭubham: 3. bhurij; 4. uṣṇiggarbhā ”rṣī pan̄kti; 5-7. anuṣṭubh.]

Whitney

Comment

Verses 1-4 and 7 are found also in Pāipp.: 1 in xx.; 2-4 also in xx., but not with 1; 7 in v. In Kāuś. (besides the separate use of vs. 7, which see), addressed* with i. 9, 30; iii. 8, etc. by the teacher to the pupil in the ceremony of initiation (55. 17). And the comm. quotes it from Nakṣ. K. should be śānti⌋ (18) with hymn 51 (which see). *⌊According to the comm., p. 40212, only vss. 1-6.⌋

Translations

Translated: Muir, v. 443; Grill, 15, 182; Henry, 20, 80; Griffith, i. 351; Bloomfield, 52, 551.

Griffith

A charm to recover a sick man at the point of death

०१ अमुत्रभूयादधि यद्यमस्य

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अ॑मुत्र॒भूया॒दधि॒ यद्य॒मस्य॒ बृह॑स्पतेर॒भिश॑स्ते॒रमु॑ञ्चः।
प्रत्यौ॑हताम॒श्विना॑ मृ॒त्युम॒स्मद्दे॒वाना॑मग्ने भि॒षजा॒ शची॑भिः ॥

०१ अमुत्रभूयादधि यद्यमस्य ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. When thou, O Brihaspati, didst release [us] from Yama’s otherworld
    existence, from malediction, the Aśvins bore back death from us, O Agni,
    physicians of the gods, mightily.
Notes

‘Other-world existence,’ lit. ’the being yonder.’ The verse is VS.
xxvii. 9, and is found also in TS. iv. 1. 7⁴, TA. x. 48 (Appendix), and
MS. ii. 12. 5, the four texts nearly agreeing: they read ádha for
ádhi in a (Ppp. appears to do the same); for b, bṛ́haspate
abhíśaster ámuñcaḥ;
in c, asmā́t for asmát (and MS. ūhatām).
SPP. reads, for b, bṛ́haspater abhíśaster amuñcaḥ; the mss. are
greatly at variance; half SPP’s authorities read bṛ́haspate, which he
ought accordingly to have adopted, since bṛ́haspates is ungrammatical,
being neither one thing nor another; the comm., to be sure, has no
scruple about taking it as a vocative: he bṛhaspateḥ! Our Bp. reads
bṛ́haspáteḥ; P. has -pate ‘bhi-, which we followed in our text, but
wrongly, as it is found in no other authority. For ámuñcas SPP. finds
no authority; but it is given by our P.R.T., and, considering the
necessity of the case, and the support of the other texts, that is
enough. The pāda, then, should be made to agree with that of the
parallel texts (changing our ‘bhí- to abhí-). Ppp. has a different
text, bṛhaspatir abhiśastyā ’muñcat; its c, also, is peculiar:
prati mṛtyum ahatām aśvinā te. ⌊W. usually renders abhíśasti by
‘imprecation.’⌋

Griffith

As thou, Brihaspati, from the curse hast saved us, from dwel- ling yonder in the realm of Yama, The Asvins, leeches of the Gods, O Agni, have chased Death far from us with mighty powers.

पदपाठः

अ॒मु॒त्र॒ऽभूया॑त्। अधि॑। यत्। य॒मस्य॑। बृह॑स्पतेः। अ॒भिऽश॑स्तेः। अमु॑ञ्चः। प्रति॑। औ॒ह॒ता॒म्। अ॒श्विना॑। मृ॒त्युम्। अ॒स्मत्। दे॒वाना॑म्। अ॒ग्ने॒। भि॒षजा॑। शची॑भिः। ५५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर ! (यत्) जिस कारण से (अमुत्रभूयात्) परलोक में होनेवाले भय से और (बृहस्पतेः) बड़ों के रक्षक (यमस्य) नियमकर्त्ता राजा के [सम्बन्धी] (अभिशस्तेः) अपराध से (अधि) अधिकारपूर्वक (अमुञ्चः) तूने छुड़ाया है। (देवानाम्) विद्वानों में (भिषजा) वैद्यरूप (अश्विना) माता-पिता [वा अध्यापक, उपदेशक] ने (मृत्युम्) मृत्यु [मरण के कारण दुःख] को (अस्मत्) हम से (शचीभिः) कर्मों द्वारा (प्रति) प्रतिकूल (औहताम्) हटाया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने वेद द्वारा बताया है कि मनुष्य गुप्त मानसिक कुविचार छोड़कर परलोक में नरकपतन से, और प्रकट शारीरिक पाप छोड़ कर राजा के दण्ड से बचकर आनन्दित रहें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२७।९ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(अमुत्रभूयात्) भुवो भावे। पा० ३।१।१०७। अमुत्र+भू-क्यप्। परजन्मनि भाविनो भयात्। परलोकगमनान्मरणाद् वा (अधि) अधिकृत्य (यत्) यस्मात्कारणात् (यमस्य) नियन्तू राज्ञः (बृहस्पतेः) महतां पालकस्य (अभिशस्तेः) अपराधात् (अमुञ्चः) लङि रूपम्। मोचितवानसि (प्रति) प्रतिकूलम् (औहताम्) उहिर् अर्दने-लङ्। नाशितवन्तौ (अश्विना) मातापितरौ। अध्यापकोपदेशकौ (मृत्युम्) मरणकारणम् (अस्मत्) अस्मत्तः (देवानाम्) विदुषां मध्ये (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (भिषजा) अ० २।९।३। भिषजौ वैद्यरूपौ (शचीभिः) कर्मभिः-निघ० २।१ ॥

०२ सं क्रामतम्

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सं क्रा॑मतं॒ मा ज॑हीतं॒ शरी॑रं प्राणापा॒नौ ते॑ स॒युजा॑वि॒ह स्ता॑म्।
श॒तं जी॑व श॒रदो॒ वर्ध॑मानो॒ऽग्निष्टे॑ गो॒पा अ॑धि॒पा वसि॑ष्ठः ॥

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Whitney
Translation
  1. Walk (kram) ye (two) together; leave not the body; let thy breath
    and expiration be here allies; live thou increasing a hundred autumns;
    [be] Agni thy best over-ruling shepherd.
Notes

Ppp. makes the second halves of this verse and of 4 exchange places, and
in place of c, d reads saṁrabhya jīva śaradas suvarcā ’gniṣ etc.
The change from 2d pers. in a to third in b is sudden beyond the
usual liberal measure. ⌊In the Berlin ed., an accent-sign is missing
under the śa of śatám.⌋

Griffith

Move both together; do not leave the body. Let both the breathings stay for thee united. Waxing in strength live thou a hundred autumns. Thy noblest guardian and thy lord is Agni.

पदपाठः

सम्। क्रा॒म॒त॒म्। मा। ज॒ही॒त॒म्। शरी॑रम्। प्रा॒णा॒पा॒नौ। ते॒। स॒ऽयुजौ॑। इ॒ह। स्ता॒म्। श॒तम्। जी॒व॒। श॒रदः॑। वर्ध॑मानः। अ॒ग्निः। ते॒। गो॒पाः। अ॒धि॒ऽपाः। वसि॑ष्ठः। ५५.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्राणापानौ) हे प्राण और अपान ! तुम दोनों (संक्रामतम्) मिलकर चलो, (शरीरम्) इसके शरीर को (मा जहीतम्) मत छोड़ो। [हे मनुष्य !] वे दोनों (ते) तेरे लिये (सयुजौ) मिले हुए (इह) यहाँ पर (स्ताम्) रहें, (शतम् शरदः) सौ बरस तक (वर्धमान) बढ़ता हुआ (जीव) तू जीता रहे, (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर [वा जाठराग्नि] (ते) तेरा (गोपाः) रक्षक, (अधिपाः) अधिक पालन करनेवाला और (वसिष्ठः) अत्यन्त श्रेष्ठ है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर का आश्रय लेकर प्राण, अपान और जाठराग्नि को सम रख सब प्रकार बलवान् होकर पूर्ण आयु भोगें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(संक्रामतम्) संगतौ भवतम् (मा जहीतम्) ओहाक् त्यागे-लोट्। मा त्यजतम् (शरीरम्) देहम् (प्राणापानौ) प्राणितीति प्राणो नासिका विवराद् बहिर्निर्गच्छन् वायुः, अपानितीति अपानो हृदयस्य अधोभागे संचरन् वायुः, तौ (ते) तुभ्यम् (सयुजौ) संयुक्तौ (इह) अस्मिन् देहे (स्ताम्) भवताम् (शतम्) (जीव) प्राणान् धारय (शरदः) सम्वत्सरान् (वर्धमानः) वृद्धिं कुर्वाणः (अग्निः) परमेश्वरो जाठराग्निर्वा (गोपाः) अ० ५।३।२। गोपायिता। रक्षकः (अधिपाः) अधिकपालकः (वसिष्ठः) अ० ४।२९।३। अतिश्रेष्ठः ॥

०३ आयुर्यत्ते अतिहितम्

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आयु॒र्यत्ते॒ अति॑हितं परा॒चैर॑पा॒नः प्रा॒णः पुन॒रा तावि॑ताम्।
अ॒ग्निष्टदाहा॒र्निरृ॑तेरु॒पस्था॒त्तदा॒त्मनि॒ पुन॒रा वे॑शयामि ते ॥

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Whitney
Translation
  1. Thy life-time that is set over at a distance—[thy] expiration,
    breath, let them come again—Agni hath taken that from the lap of
    perdition; that I cause to enter again in thy self.
Notes

With a, b compare the similar half-verse xviii. 2. 26 a, b. The
comm. explains átihitam as from either of the roots hi or dhā.
Ppp. begins differently: yat tā ”yur; in b it reads prāṇo yūva te
paretaḥ;
and it leaves off te at the end. Prāt. ii. 46 notes ā ’hār
in c ⌊render it rather ‘brought hither or back’?⌋.

Griffith

Return, thy life now vanished into distance! Return, the breath thou drawest and exhalest! Agni hath snatched it from Destruction’s bosom: into thyself again I introduce it.

पदपाठः

आयुः॑। यत्। ते॒। अत‍ि॑ऽहितम्। प॒रा॒चैः। अ॒पा॒नः। प्रा॒णः। पुनः॑। आ। तौ। इ॒ता॒म्। अ॒ग्निः। तत्। आ। अ॒हाः॒। निःऽऋ॑ते ः। उ॒पऽस्था॑त्। तत्। आ॒त्मनि॑। पुनः॑। आ। वे॒श॒या॒मि॒। ते॒। ५५.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
  • ब्रह्मा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (यत्) जो (ते) तेरा (आयुः) जीवनसामर्थ्य (पराचैः) पराङ्मुख होकर (अतिहितम्) घट गया है, (तौ) वे दोनों (प्राणः) प्राण और (अपानः) अपान (पुनः) फिर (आ इताम्) आवें। (अग्निः) वैद्य वा शरीराग्नि (तत्) उस [आयु] को (निर्ऋतेः) महा विपत्ति के (उपस्थात्) पास से (आ अहाः) लाया है, (तत्) उसको (ते) तेरे (आत्मनि) शरीर में (पुनः) फिर (आ वेशयामि) प्रविष्ट करता हूँ ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो रोग आदि के कारण शरीरबल में हानि हो जावे, मनुष्य वैद्यों की सम्मति से जाठराग्नि की समता से स्वस्थ रहें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(आयुः) जीवनबलम् (यत्) (ते) तव (अतिहितम्) धा-क्त। हानिं गतम् (पराचैः) पराङ्मुखम् (अपानः)-म० २ (प्राणः) (पुनः) (तौ) (आ इताम्) इण् गतौ-लोट्। आगच्छताम् (अग्निः) वैद्यः शरीराग्निर्वा (तत्) आयुः (आ अहाः) अ० ६।१०३।२। हरतेर्लुङ्। अहार्षीत्। आनीतवान् (निर्ऋतेः) अ० २।१०।१। अलक्ष्म्याः। कृच्छ्रापत्तेः (उपस्थात्) समीपात् (तत्) आयुः (आत्मनि) शरीरे (पुनः) (आवेशयामि) प्रवेशयामि (ते) तव ॥

०४ मेमं प्राणो

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मेमं प्रा॒णो हा॑सी॒न्मो अ॑पा॒नो᳡व॒हाय॒ परा॑ गात्।
स॑प्त॒र्षिभ्य॑ एनं॒ परि॑ ददामि॒ ते ए॑नं स्व॒स्ति ज॒रसे॑ वहन्तु ॥

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Whitney
Translation
  1. Let not breath leave this man; let not expiration, leaving him low,
    go away; I commit him to the seven sages (ṛ́ṣi); let them carry him
    happily (svastí) unto old age.
Notes

Ppp. fills out the meter of a by reading mā tvā prāṇo hāsīd yas te
praviṣṭo
, and begins its b thus: mā tvā ’pāno ‘v-; in c and
d (its 2 c, d) it has dadhvahe and nayantu. Part of the mss.
accent apānó ‘va- in b. SPP. reads, with the small majority of his
mss., saptarṣíbhya in c (against our saptaṛṣ-); our mss. vary,
as usual. With a, b compare the nearly equivalent xvi. 4. 3 a,
b
. The Anukr. apparently scans the first line as 7 + 11, but the
pada-mss. mark the division after apānas (as 11 + 7). Henry fills
the meter conjecturally by adding mó vyānó.

Griffith

Let not the vital breath he draws forsake him, let not his expiration part and leave him. I give him over to the Seven Rishis: let them conduct him to old age in safety.

पदपाठः

मा। इ॒मम्। प्रा॒णः। हा॒सी॒त्। मो इति॑। अ॒पा॒नः। अ॒व॒ऽहाय॑। परा॑। गा॒त्। स॒प्त॒र्षिऽभ्यः॑। ए॒न॒म्। परि॑। द॒दा॒मि॒। ते। ए॒न॒म्। स्व॒स्ति। ज॒रसे॑। व॒ह॒न्तु॒। ५५.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
  • ब्रह्मा
  • उष्णिग्गर्भार्षी पङ्क्तिः
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्राणः) प्राण (इमम्) इस [प्राणी] को (मा हासीत्) न छोड़े, (मो) और न (अपानः) अपान वायु (अवहाय) छोड़ कर (परा गात्) चला जावे। (एनम्) इस पुरुष को (सप्तर्षिभ्यः) सात व्यापनशीलों वा दर्शनशीलों [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] को (परि ददामि) मैं समर्पण करता हूँ, (ते) वे (एनम्) इसको (स्वस्ति) आनन्द के साथ (जरसे) स्तुति के लिये (वहन्तु) ले चलें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य शारीरिक इन्द्रियों को प्राणायाम, व्यायाम आदि से स्वस्थ रख कर धर्म में प्रवृत्त रहें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(इमम्) प्राणिनम् (प्राणः) श्वासः (मा हासीत्) ओहाक् त्यागे-लुङ्। मा त्यजतु (मो) नैव (अपानः) प्रश्वासः (अवहाय) ओहाक् त्यागे। प्रत्यज्य (परा गात्) दूरे गच्छेत् (सप्तर्षिभ्यः) अ० ४।११।९। सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे-यजु० ३४।५५। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धिभ्यः (एनम्) जीवम् (परि ददामि) समर्पयामि (ते) सप्तर्षयः (एनम्) (स्वस्ति) क्षेमेण (जरसे) अ० १।३०।२। जॄ स्तुतौ-असुन्। जरा स्तुतिर्जरतेः। स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। स्तुतये (वहन्तु) नयन्तु ॥

०५ प्र विषतम्

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प्र वि॑षतं प्राणापानावन॒ड्वाहा॑विव व्र॒जम्।
अ॒यं ज॑रि॒म्णः शे॑व॒धिररि॑ष्ट इ॒ह व॑र्धताम् ॥

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Whitney
Translation
  1. Enter ye in, O breath and expiration, as (two) draft-oxen a stall;
    let this treasure of old age increase here unharmed.
Notes

The first half-verse is also iii. 11. 5 a, b. In c, perhaps
rather ’let this man, a treasury of old age’ (so Henry).

Griffith

Enter him, both ye breaths, like two draught-oxen entering their stall. Let him, the treasure of old age, still wax in strength, uninjured,. here.

पदपाठः

प्र। वि॒श॒त॒म्। प्रा॒णा॒पा॒नौ॒। अ॒न॒ड्वाहौ॑ऽइव। व्र॒जम्। अ॒यम्। ज॒रि॒म्णः। शे॒व॒ऽधिः। अरिष्टः॑। इ॒ह। व॒र्ध॒ता॒म्। ५५.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्राणापानौ) हे प्राण और अपान ! तुम दोनों (प्र विशतम्) प्रवेश करते रहो, (इव) जैसे (अनड्वाहौ) रथ ले चलनेवाले दो बैल (व्रजम्) गोशाला में (अयम्) यह जीव (जरिम्णः) स्तुति का (शेवधिः) निधि, (अरिष्टः) दुःखरहित होकर (इह) यहाँ पर (वर्धताम्) बढ़ती करे ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य शारीरिक और आत्मिक बल बढ़ाकर संसार में उन्नति करें ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(प्र विशतम्) प्रवेशं कुरुतम् (प्राणापानौ) श्वासप्रश्वासौ (अनड्वाहौ) अ० ४।११।१। अनस्+वह प्रापणे-क्विप्, अनसो डश्च। शकट−वहनशक्तौ बलीवर्दौ (इव) यथा (व्रजम्) गोष्ठम् (अयम्) जीवः (जरिम्णः) अ० २।२८।१। जरा स्तुतिर्जरतेः, स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। जरतेः-इमनिन्। स्तुत्यस्य कर्मणः (शेवधिः) अ० ५।२२।१४। निधिः-निरु० २।४। (अरिष्टः) अहिंसितः (इह) अस्मिल्ँलोके (वर्धताम्) समृद्धो भवतु ॥

०६ आ ते

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आ ते॑ प्रा॒णं सु॑वामसि॒ परा॒ यक्ष्मं॑ सुवामि ते।
आयु॑र्नो वि॒श्वतो॑ दधद॒यम॒ग्निर्वरे॑ण्यः ॥

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Whitney
Translation
  1. We impel hither thy breath; I impel away thy yákṣma; let Agni here,
    desirable one, assign us life-time from all sides.
Notes

A corresponding verse is found in TS. i. 3. 14⁴ and AśS. ii. 10. 4, but
with great difference of text: thus, ā́yuṣ ṭe viśváto dadhad ayám agnír
váreṇyaḥ: pünas te prāṇá ā́ ’yati (AśS. ā yātu*)* párā yākṣmaṁ suvāmi
te*.*

Griffith

I send thee back thy vital breath; I drive Consumption far from thee, May Agni here, most excellent, sustain our life on every side.

पदपाठः

आ। ते॒। प्रा॒णम्। सु॒वा॒म॒सि॒। परा॑। यक्ष्म॑म्। सु॒वा॒मि॒। ते॒। आयुः॑। नः॒। वि॒श्वतः॑। द॒ध॒त्। अ॒यम्। अ॒ग्निः। वरे॑ण्यः। ५५.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ते) तेरे (प्राणम्) प्राण को (आ सुवामसि) हम अच्छे प्रकार आगे बढ़ाते हैं, और (ते) तेरे (यक्ष्मम्) राजरोग को (परा सुवामि) मैं दूर निकालता हूँ। (अयम्) यह (वरेण्यः) स्वीकरणीय (अग्निः) जाठराग्नि (नः) हमारे (आयुः) आयु को (विश्वतः) सब प्रकार (दधत्) पुष्ट करे ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य पुरुषार्थपूर्वक निर्बलता आदि रोगों को नाश करके अपना जीवन सब प्रकार सुफल करें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(आ) समन्तात् (ते) तव (प्राणम्) जीवनसामर्थ्यम् (सुवामसि) षू प्रेरणे। वयं प्रेरयामः (परा) दूरे (यक्ष्मम्) राजरोगम् (सुवामि) प्रेरयामि (ते) तव (आयुः) जीवनम् (नः) अस्माकम् (विश्वतः) सर्वतः (दधत्) दधातेर्लेटि, अडागमः। पोषयेत् (अयम्) (अग्निः) जाठराग्निः (वरेण्यः) अ० ७।१४।४। स्वीकरणीयः। सम्भजनीयः ॥

०७ उद्वयं तमसस्परि

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उद्व॒यं तम॑स॒स्परि॒ रोह॑न्तो॒ नाक॑मुत्त॒मम्।
दे॒वं दे॑व॒त्रा सूर्य॒मग॑न्म॒ ज्योति॑रुत्त॒मम् ॥

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Whitney
Translation
  1. Up out of darkness have we, ascending the highest firmament, gone to
    the sun, god among the gods, highest light.
Notes

This verse (with a different second pāda, jyótiṣ páśyanta üttaram,
which Ppp. also gives) is RV. i. 50. 10, and found also in a whole
series of other texts: VS. xx. 21 et al. (with svàḥ for jyótiṣ in
b), TS. iv. 1. 7⁴ (with páśyanto jyótir in b), TB. ii. 4. 4⁹*
(as TS.), TA. vi. 3. 2 (as TS.), MS. ii. 12. 5 et al. (with jyótiḥ p-
in b), LśS. ii. 12. 10 (with jyotiḥ p. u. svaḥ p. n. for b),
ChU. iii. 17. 7 (as MS., but jyotiṣ p-).† It is used by Kāuś. (24. 32)
in the āgrahāyaṇī ceremony, with the direction ity utkrāmati ‘with
this he steps upward’; and the schol. adds it (note to 55. 15) in the
ceremony of initiation of a Vedic scholar, as one looks at the sun and
asks his protection for the boy; and further (note to 58. 18), in the
nirṇayana, or infant’s first carrying out of doors. In Vāit. (24. 4)
it accompanies the coming out of the bath in the agniṣṭoma. *⌊And ii.
6. 6⁴: the d of ii. 4. 4⁹ has uttaram.⌋ †⌊Also K. xxxviii. 5.⌋

Griffith

From out the depth of darkness, we, ascending to the highest heaven, Have come to the sublimest light, to Surya, God among the. Gods.

पदपाठः

उत्। व॒यम्। तम॑सः। परि॑। रोह॑न्तः। नाक॑म्। उ॒त्ऽत॒मम्। दे॒वम्। दे॒व॒ऽत्रा। सूर्य॑म्। अग॑न्म। ज्योतिः॑। उ॒त्ऽत॒मम्। ५५.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (तमसः) अन्धकार से (परि) पृथक् होकर (उत्तमम्) उत्तम (नाकम्) सुख में (उद् रोहन्तः) ऊपर चढ़ते हुए (वयम्) हमने (देवत्रा) प्रकाशमानों में (देवम्) प्रकाशमान, (उत्तमम्) उत्तम (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूप, (सूर्यम्) सबके प्रेरक सूर्य जगदीश्वर को (अगन्म) पाया है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् योगीजन विद्या के प्रकाश से मुक्तिसुख को भोगते हुए ज्योतिःस्वरूप परमात्मा में निरन्तर विचरते हैं ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२०।२१, २७।१०, ३५।१४, ३८।२४ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(उत्) उत्कर्षेण (वयम्) योगिनः (तमसः) अन्धकारात् (परि) पृथग्भूय (रोहन्तः) आरूढाः सन्तः (नाकम्) दुःखरहितं मोक्षसुखम् (उत्तमम्) सर्वोत्कृष्टम् (देवम्) प्रकाशमानं (देवत्रा) देवमनुष्यपुरुषपुरु०। पा–० ५।४।५६। सप्तम्यर्थे-त्रा। प्रकाशमानेषु (सूर्यम्) अ० १।३।५। लोकप्रेरकं परमात्मानम् (अग्नम्) वयं प्राप्तवन्तः (ज्योतिः) ज्योतीरूपं द्योतमानम् (उत्तमम्) ॥