०४५ ईर्ष्यानिवारणम् ...{Loading}...
Whitney subject
45 (46, 47). To cure jealousy.
VH anukramaṇī
ईर्ष्यानिवारणम्।
१-२ प्रस्कण्वः, २ अथर्वा। ईर्ष्यापनयनं, भेषजम्। अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[1. Praskaṇva.—bhāiṣajyam. ānuṣṭubham.—2. Atharvan.—mantroktadevatyam; irṣyāpanayanam. ānuṣṭubham.]
Whitney
Comment
Very probably (b) rather ‘from the Indus’ (síndhu). Ppp. reads -janīnaṁ viśam arukṣatīnām (= urukṣit-?); its second half-verse is corrupt. The comm. explains janāt by janapadāt and its epithet by viśvajanahitāt.
Griffith
A charm against jealousy
०१ जनाद्विश्वजनीनात्सिन्धुतस्पर्याभृतम् दूरात्त्वा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
जना॑द्विश्वज॒नीना॑त्सिन्धु॒तस्पर्याभृ॑तम्।
दू॒रात्त्वा॑ मन्य॒ उद्भृ॑तमी॒र्ष्याया॒ नाम॑ भेष॒जम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
जना॑द्विश्वज॒नीना॑त्सिन्धु॒तस्पर्याभृ॑तम्।
दू॒रात्त्वा॑ मन्य॒ उद्भृ॑तमी॒र्ष्याया॒ नाम॑ भेष॒जम् ॥
०१ जनाद्विश्वजनीनात्सिन्धुतस्पर्याभृतम् दूरात्त्वा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- From a people belonging to all peoples, away from the river
(síndhu) brought hither, from afar I think thee brought up, a remedy,
namely, of jealousy.
Notes
Very probably (b) rather ‘from the Indus’ (síndhu). Ppp. reads
-janīnaṁ viśam arukṣatīnām (= urukṣit-?); its second half-verse is
corrupt. The comm. explains janāt by janapadāt and its epithet by
viśvajanahitāt.
2 (47. 1). Of him as of a burning fire, of a conflagration burning
separately, this jealousy of this man do thou appease, as fire with
water.
Asya in a is here regarded as anticipatory of the etásya of
c; it cannot be taken as adjective unless by emendation we give it
an accent. Again (cf. 18. 1 above) all the mss. read, in d, unnā́,
untā́, utnā́, or uttā́ instead of the correct udnā́, which the comm.
has, and which is given, by emendation, in both printed texts. Ppp. has
a very different text: tat saṁvegasya bheṣajaṁ tad asunāmaṁ
gṛbhāhitam: and then, as second half-verse, our a, b, with yathā
instead of pṛthak; in an added verse occurs the phrase udhnā ’gnim
iva vāraye. ⌊“Do I appease,” śamaye, would be more natural; cf. Ppp’s
vāraye.⌋
Griffith
Brought hitherward from Sindhu, from a folk of every mingled race, Fetched from afar, thou art I deem, a balm that cureth. jealousy.
पदपाठः
जना॑त्। वि॒श्व॒ऽज॒नीना॑त्। सि॒न्धु॒तः। परि॑। आऽभृ॑तम्। दू॒रात्। त्वा॒। म॒न्ये॒। उत्ऽभृ॑तम्। ई॒र्ष्यायाः॑। नाम॑। भे॒ष॒जम्। ४६.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भेषजम्
- प्रस्कण्वः
- अनुष्टुप्
- ईर्ष्यानिवारण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ईर्ष्या दोष के निवारण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे भयनिवारक ज्ञान !] (सिन्धुतः) समुद्र [के समान गम्भीर स्वभाववाले] (विश्वजनीनात्) सब जनों के हितकारी (जनात्) उनके पास से (दूरात्) दूर देश से (परि) सब प्रकार (आभृतम्) लाये हुए और (उद्भृतम्) उत्तमता से पुष्ट किये हुए (त्वा) तुझको (ईर्ष्यायाः) दाह का (नाम) प्रसिद्ध (भेषजम्) भयनिवारक औषध (मन्ये) मैं मानता हूँ ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे मनुष्य बहुमूल्य उत्तम औषध को दूर देश से लाते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग सर्वहितकारी विद्वानों से ज्ञान प्राप्त करके ईर्ष्या छोड़कर दूसरों की उन्नति में अपनी उन्नति समझें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(जनात्) लोकात् (विश्वजनीनात्) आत्मन्विश्वजनभोगोत्तरपदात् खः। पा० ५।१।९। इति ख। सर्वजनहितात् (सिन्धुतः) समुद्र इव गम्भीरस्वभावात् (परि) सर्वतः (आभृतम्) हस्य भः। आहृतम् (दूरात्) दूरदेशात् (त्वा) त्वां भेषजम् (मन्ये) जानामि (उद्भृतम्) उत्तमतया पोषितम् (ईर्ष्यायाः) अ० ६।१८।१। परोत्कर्षासहनतायाः (नाम) प्रसिद्धम् (भेषजम्) भयनिवारकमौषधं ज्ञानमित्यर्थः ॥
०२ अग्नेरिवास्य दहतो
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अ॒ग्नेरि॑वास्य॒ दह॑तो दा॒वस्य॒ दह॑तः॒ पृथ॑क्।
ए॒तामे॒तस्ये॒र्ष्यामु॒द्नाग्निमि॑व शमय ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒ग्नेरि॑वास्य॒ दह॑तो दा॒वस्य॒ दह॑तः॒ पृथ॑क्।
ए॒तामे॒तस्ये॒र्ष्यामु॒द्नाग्निमि॑व शमय ॥
०२ अग्नेरिवास्य दहतो ...{Loading}...
Whitney
अ॒ग्नेरि॑वास्य॒ दह॑तो दा॒वस्य॒ दह॑तः॒ पृथ॑क्।
ए॒तामे॒तस्ये॒र्ष्यामु॒द्राग्निमि॑व शमय ॥२॥
Griffith
As one with water quencheth fire, so calm this lover’s jealousy, Like heat of fire that burneth here, or flame that rageth through the wood.
पदपाठः
अ॒ग्नेःऽइ॑व। अ॒स्य॒। दह॑तः। दा॒वस्य॑। दह॑तः। पृथ॑क्। ए॒ताम्। ए॒तस्य॑। ई॒र्ष्याम्। उ॒द्ना। अ॒ग्निम्ऽइ॑व। श॒म॒य॒। ४७.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ईर्ष्यापनयनम्
- प्रस्कण्वः
- अनुष्टुप्
- ईर्ष्यानिवारण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ईर्ष्या दोष के निवारण का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस (दहतः) जलती हुई (अग्नेः इव) अग्नि के समान, (पृथक्) अथवा (दहतः) जलती हुई (दावस्य) वन अग्नि के [समान] (एतस्य) इस पुरुष की (एताम्) इस (ईर्ष्याम्) ईर्ष्या को (शमय) शान्त कर दे, (इव) जैसे (उद्ना) जल से (अग्निम्) आग को ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ईर्ष्यालु अर्थात् दूसरे के अभ्युदय को न सहनेवाला मनुष्य आग के समान भीतर ही भीतर जल कर राख के समान नाश हो जाता है, इससे वह ईर्ष्या दोष को ऐसा शान्त रक्खे, जैसे अग्नि को जल से ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(अग्नेः) पावकस्य (इव) यथा (अस्य) पुरोवर्तिनः (दहतः) ज्वलतः (दावस्य) टुदु उपतापे-घञ्। वनाग्नेः (दहतः) (पृथक्) भिन्ने। अथवा (एताम्) (एतस्य) ईर्ष्यालोः पुरुषस्य (ईर्ष्याम्) मत्सरबुद्धिम् (उद्ना) अ० ३।१२।४। उदकेन (अग्निम्) (इव) (शमय) शान्तां कुरु ॥