०३१ शत्रुनाशनम्

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Whitney subject

31 (32). To Indra: for aid.

VH anukramaṇī

शत्रुनाशनम्।
१ भृग्वङ्गिराः। इन्द्रः। भुरिक् त्रिष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Bhṛgvan̄giras.—āindram. bkuriktriṣṭubh.]

Whitney

Comment

Like the preceding, not found in Pāipp. Used by Kāuś. (48. 37), with hymns 34 and 108, and with vii. 59 ⌊or vi. 37. 3 (but see note to vii. 59)⌋, in a witchcraft ceremony against enemies, while laying on the fire fuel from a tree struck by lightning.

Translations

Translated: Henry, 12, 66; Griffith, i. 342.

Griffith

A prayer for the overthrow of enemies

०१ इन्द्रोतिभिर्बहुलाभिर्नो अद्य

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इन्द्रो॒तिभि॑र्बहु॒लाभि॑र्नो अ॒द्य या॑वच्छ्रे॒ष्ठाभि॑र्मघवन्छूर जिन्व।
यो नो॒ द्वेष्ट्यध॑रः॒ सस्प॑दीष्ट॒ यमु॑ द्वि॒ष्मस्तमु॑ प्रा॒णो ज॑हातु ॥

०१ इन्द्रोतिभिर्बहुलाभिर्नो अद्य ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. O Indra, with abundant best possible aids, O generous hero, quicken
    us today; whoever hates us, may he fall downward; and whom we hate, him
    let breath quit.
Notes

The verse is RV. iii. 53. 21, which has for sole variant
yācchreṣṭhā́bhis ⌊which the meter alone would suggest as an emendation⌋
(p. yāt॰śre-) in b. The combination sás padīṣṭa is prescribed by
Prāt. ii. 58. The comm. treats yāvat and śreṣṭhābhis as independent
words.

Griffith

Rouse us to-day O Indra, Maghavan, hero, with thy best pos- sible and varied succours, May he who hateth us fall low beneath us, and him whom we detest let life abandon.

पदपाठः

इन्द्र॑। ऊ॒तिऽभिः॑। ब॒हुलाभिः॑। नः॒। अ॒द्य। या॒व॒त्ऽश्रे॒ष्ठाभिः॑। म॒घ॒ऽव॒न्। शू॒र॒। जि॒न्व॒। यः। नः॒। द्वेष्टि॑। अध॑रः। सः। प॒दी॒ष्ट॒। यम्। ऊं॒ इति॑। द्वि॒ष्मः। तम्। ऊं॒ इति॑। प्रा॒णः। ज॒हा॒तु॒। ३२.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • भृग्वङ्गिराः
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजा के कर्त्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मघवन्) हे बड़े धनी ! (शूर) हे शूर ! (इन्द्र) हे सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाले राजन् ! (नः) हमें (अद्य) आज (बहुलाभिः) अनेक (यावच्छ्रेष्ठाभिः) यथासम्भव श्रेष्ठ (ऊतिभिः) रक्षाक्रियाओं से (जिन्व) प्रसन्न कर। (यः) जो (नः) हमसे (द्वेष्टि) वैर करता है, (सः) वह (अधरः) नीचा हो कर (पदीष्ट) चला जावे, (उ) और (यम्) जिससे (द्विष्मः) हम वैर करते हैं, (तम्) उसको (उ) भी (प्राणः) उसका प्राण (जहातु) छोड़ देवे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा अपने शूर वीरों सहित यथाशक्ति सब प्रकार के उपायों से शिष्टों का पालन और दुष्टों का निवारण करे ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−३।५३।२१ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (ऊतिभिः) रक्षाक्रियाभिः (बहुलाभिः) अ० ३।१४।६। बहुप्रकाराभिः (नः) अस्मान् (अद्य) अस्मिन् दिने (यावच्छ्रेष्ठाभिः) यथासम्भवं प्रशस्यतमाभिः (मघवन्) महाधनिन् (शूर) (जिन्व) जिवि प्रीणने। प्रसादय (यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (द्वेष्टि) वैरयति (सः) शत्रुः। विसर्गसकारौ सांहितिकौ (पदीष्ट) पद गतौ आशीर्लिङि। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।२१७। इति सार्वधातुकत्वात्सलोपः, सुट्तिथोः। पा० ३।४।१०७। इति सुडागमः पत्सीष्ट। गम्यात् (यम्) (उ) चार्थे (द्विष्मः) वैरयामः (तम्) (उ) अपि (प्राणः) जीवनहेतुः (जहातु) ओहाक् त्यागे। त्यजतु ॥