०२६ विष्णुः

०२६ विष्णुः ...{Loading}...

Whitney subject

26 (27). Praise and prayer to Vishṇu.

VH anukramaṇī

विष्णुः।
१-८ मेधातिथिः। विष्णुः। १,८ त्रिष्टुप्, २ त्रिपदा विराड्-गायत्री, ३ त्र्यवसाना षट्-पदा विराट् शक्वरी, ४-७ गायत्री।

Whitney anukramaṇī

[Medhātithi.—aṣṭarcam. vāiṣṇavam. trāiṣṭubham: 2. 3-p. virāḍgāyatrī; 3. 3-av. 6-p. virāṭśakvarī; 4-7. gāyatrī; 8. triṣṭubh.]

Whitney

Comment

Only vss. 1-3, and those not complete, are found in Ppp. (xx.). Most of the material of the hymn is found in RV. ⌊i. 154 and 22⌋ and elsewhere: see under the different verses. The hymn is found in Kāuś. (59. 19) only in connection with hymn 17 etc. (see 17). But in Vāit. the different verses appear many times. Verse 1 is used (13. 14) in the entertainment of Vishṇu, in the agniṣṭoma (next after hymn 5, above), and later in the same ceremony (15. 12), with setting up the support of the havirdhānas. Verse 3, in parvan ceremonies, accompanies (4. 20) the sacrificer’s approach to the āhavanīya fire; and again, in the agniṣṭoma (13. 5), his exit from the sacrificial hut; while its second part (c-f) goes with the offering of an oblation to Vishṇu at the beginning of the paśubandha (10. 1). Verses 4 and 5 accompany (15. 10) offerings to the two wheel-tracks of the havirdhāna-carts in the agniṣṭoma. With verse 6, in the agnicayana (29. 2), mortar and pestle are set down; and with 6 and 7, in the paśubandha (10. 10), the sacrificial post is set upright; and the comm. regards vs. 4 as intended by the “verse to Vishṇu” in 2. 3 and 23. 14. The comm., moreover, quotes the hymn as used by the Nakṣatra Kalpa (18) in a mahāśānti ceremony named vāiṣṇavī; and vs. 3 c-f by the same (14) with an offering to Vishṇu in the adbhutaśānti; and vs. 4 by the same (19), in the rite called tvāṣṭrī, with tying on of a triple amulet.

Translations

Translated: Muir, iv2. 68, 63 (nearly all); Henry, 10, 63; Griffith, i. 339.

Griffith

Praise of Vishnu

०१ विष्णोर्नु कम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

विष्णो॒र्नु कं॒ प्रा वो॑चं वी॒र्या᳡णि॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे रजां॑सि।
यो अस्क॑भाय॒दुत्त॑रं स॒धस्थं॑ विचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः ॥

०१ विष्णोर्नु कम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Of Vishnu now I would speak forth the heroisms, who traversed
    (vi-mā) the spaces of the earth, who established the upper station,
    striding out triply, he the wide-going one.
Notes

The verse is RV. i. 154. 1 (also VS. v. 18; TS. i. 2. 13³; MS. i. 2. 9,
all precisely like RV.), which reads at end of a, in different
order, vīryā̀ṇi prá vocam. Prá in our text is a misprint for prá,
which all our saṁhitā-mss. give. ⌊The vs. seems to be suggested by RV.
i. 32. 1.⌋

Griffith

I will declare the mighty deeds of Vishnu, of him who measured out the earthly regions, Who propped the highest place of congregation, thrice setting down his footstep, widely striding.

पदपाठः

विष्णोः॑। नु। क॒म्। प्र। वो॒च॒म्। वी॒र्या᳡णि। यः। पार्थि॑वानि। वि॒ऽम॒मे। रजां॑सि। यः। अस्क॑भायत्। उत्ऽत॑रम्। स॒धऽस्थ॑म्। वि॒ऽच॒क्र॒मा॒णः। त्रे॒धा। उ॒रु॒ऽगा॒यः। २७.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विष्णुः
  • मेधातिथिः
  • त्रिष्टुप्
  • विष्णु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णोः) विष्णु व्यापक परमेश्वर के (वीर्याणि) पराक्रमों को (नु) शीघ्र (कम्) सुख से (प्र) अच्छे प्रकार (वोचम्) मैं कहूँ, (यः) जिसने (पार्थिवानि) भूमिस्थ और अन्तरिक्षस्थ (रजांसि) लोकों को (विममे) अनेक प्रकार रचा है, (यः) जिस (उरुगायः) बड़े उपदेशक प्रभु ने (उत्तरम्) सब अवयवों के अन्त (सधस्थम्) साथ में रहनेवाले कारण को (विचक्रमाणः) चलाते हुए (त्रेधा) तीन प्रकार से [उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय रूप से] [उन लोकों को] (अस्कभायत्) थाँभा है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो परमेश्वर परमाणुओं में संयोग-वियोग शक्ति देकर अनेक लोकों को बनाकर उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूप से धारण करता है, उसकी भक्ति सब मनुष्य सदा किया करें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१।१५४।१। और यजुर्वेद में ५।१८ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(विष्णोः) अ० ३।२०।४। सर्वव्यापकस्य परमेश्वरस्य (नु) शीघ्रम् (कम्) सुखेन (वोचम्) अ० २।५।५। उच्यासम् (वीर्याणि) पराक्रमान् (यः) विष्णुः (पार्थिवानि) पृथिवी, पृथिवीनाम-निघ० १।१। अन्तरिक्षम्-१।३। तत्र विदित इति च। पा० ५।१।४३। इति पृथिवी-अञ्। भूमिस्थानि अन्तरिक्षस्थानि च (विममे) विविधं निर्मितवान् (रजांसि) लोकान् (यः) विष्णुः (अस्कभायत्) अ० ४।१।४। अस्कभ्नात्। स्तम्भितवान् (उत्तरम्) उद्गततरम्। सर्वान्तावयवम् (सधस्थम्) यत् सह तिष्ठति तत्कारणम् (विचक्रमाणः) विपूर्वस्य क्रमतेः कानच्। अन्तर्गतण्यर्थः। विशेषेण चालयन् (त्रेधा) त्रिप्रकारेण, उत्पत्तिस्थितिप्रलयरूपेण (उरुगायः) अ० २।१२।१। बहूनर्थान् वेदद्वारा गायत्युपदिशति यः सः। बहूपदेशकः ॥

०२ प्र तद्विष्णु

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प्र तद्विष्णु॑ स्तवते वी॒र्या᳡णि मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः।
प॑रा॒वत॒ आ ज॑गम्या॒त्पर॑स्याः ॥

०२ प्र तद्विष्णु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. So Vishnu praises forth his heroisms, like a fearful wild beast,
    wandering, mountain-staying,—
Notes

From distant distance may he come hither.—

The first two pādas of this verse, with the first two of our vs. 3, form
one verse in the other texts: RV. i. 154. 2; TB. ii. 4. 3⁴; MS. i. 2. 9;
Āp. xi. 9. 1; and also in Ppp., which has it alone, besides our vs. 1.
RV.MS. read vīryèṇa, which is better, in a; TB.Āp. vīryàya
instead. Our second pāda forms, together with our (intruded) third pāda,
a first half-verse in several other texts: RV. x. 180. 2; SV. ii. 1223;
VS. xviii. 71; TS. i. 6. 12⁴; MS. iv. 12. 3; instead of jagamyāt is
read jaganthā by all except TS., which has jagāmā; the whole (RV.
etc.) verse is our vii. 84. 3 below. The comm. unites to this verse the
first two pādas of the one following, which certainly belong much more
properly with it; but the mss. and the Anukr. require the division as
made in our text; and SPP. also follows them.

Griffith

Loud boast doth Vishnu make of this achievement, like some wild beast, dread, prowling, mountain-roaming. May he approach us from the farthest distance.

पदपाठः

प्र। तत्। विष्णुः॑। स्त॒व॒ते॒। वी॒र्या᳡ण‍ि। मृ॒गः। न। भी॒मः। कु॒च॒रः। गि॒रि॒ऽस्थाः। प॒रा॒ऽवतः॑। आ। ज॒ग॒म्या॒त्। पर॑स्याः। २७.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विष्णुः
  • मेधातिथिः
  • त्रिपदा विराड्गायत्री
  • विष्णु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (भीमः) डरावने, (कुचरः) टेढ़े-टेढ़े चलनेवाले [ऊँचे-नीचे दाये-बायें जानेवाले] (गिरिष्ठाः) पहाड़ों पर रहनेवाले (मृगः न) आखेट ढूँढ़नेवाले सिंह आदि के समान, (तत्) वह (विष्णुः) सर्वव्यापी विष्णु (वीर्याणि) अपने पराक्रमों को (प्र) अच्छे प्रकार (स्तवते) स्तुतियोग्य बनाता है। वह (परावतः) समीप दिशा से और दूर दिशा से (आ जगम्यात्) आता रहे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे सिंह का पराक्रम जंगलीय पशुओं में विदित होता है, वैसे ही सर्वव्यापी, पापियों के दण्ड देनेवाले परमात्मा का सामर्थ्य निकट और दूर सब लोकों में प्रसिद्ध है ॥२॥ इस मन्त्र का पूर्वभाग ऋग्वेद में है-म० १।१५४।२। और यजु० अ० ५।२०। (मृगो न…. गिरिष्ठाः) यह पाद निरुक्त १।२०। में व्याख्यात है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(प्र) प्रकर्षेण (तत्) सः (विष्णुः) व्यापकेश्वरः (स्तवते) छान्दसः शप्। स्तुते। स्तुत्यं करोति (वीर्याणि) पराक्रमान् (मृगः) यो मार्ष्ट्यन्विच्छति वधाय जीवान्। सिंहादिः (न) इव (भीमः) भयानकः (कुचरः) कुत्सितं चरन् (गिरिष्ठाः) पर्वतस्थायी (परावतः) अ० ३।४।५। परा आभिमुख्ये। अभिमुखगताया दिशायाः (आ जगम्यात्) शपः श्लुः, विधिलिङ्। आगच्छेत् (परस्याः) दूरदिशायाः ॥

०३ यस्योरुषु त्रिषु

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑णेष्वधिक्षि॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
उ॒रु वि॑ष्णो॒ वि क्र॑मस्वो॒रु क्षया॑य नस्कृधि।
घृ॒तं घृ॑तयोने पिब॒ प्रप्र॑ य॒ज्ञप॑तिं तिर ॥

०३ यस्योरुषु त्रिषु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Upon whose three wide out-stridings dwell all beings.
Notes

Widely, O Vishnu, stride out; widely make us to dwell; drink the ghee, O
thou ghee-wombed one; prolong the master of the sacrifice on and on.

Made up of the second half of a RV. etc. triṣṭubh verse (see above: no
text shows in this half any various readings) and a whole anuṣṭubh
verse, which also is found in a number of other texts (VS. v. 38; TS. 1.
3. 4¹; MS. 1. 2. 13; ĀśS. v. 19. 3; śśS. viii. 4. 3), and almost without
variants (only TS. combines naḥ kṛdhi in b, and MS. reads
ghṛtavane in c). ⌊Ppp. ends with b (víśvā)⌋

Griffith

Thou within whose three wide-extended paces all worlds and creatures have their habitation, Drink oil, thou homed in oil! promote the sacrificer more and more.

पदपाठः

यस्य॑। उ॒रुषु॑। त्रि॒षु। वि॒ऽक्रम॑णेषु। अ॒धि॒ऽक्षि॒यन्त‍ि। भुव॑नान‍ि। विश्वा॑। उ॒रु। वि॒ष्णो॒ इति॑। वि। क्र॒म॒स्व॒। उ॒रु। क्षया॑य। नः॒। कृ॒धि॒। घृ॒तम्। घृ॒त॒ऽयो॒ने॒। पि॒ब॒। प्रऽप्र॑। य॒ज्ञऽप॑तिम्। ति॒र॒। २७.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विष्णुः
  • मेधातिथिः
  • त्र्यवसाना षट्पदा विराट्शक्वरी
  • विष्णु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) जिसके (उरुषु) विस्तीर्ण [उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय रूप] (त्रिषु) तीन (विक्रमणेषु) विविध क्रमों [नियमों] में (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (अधिक्षियन्ति) भले प्रकार रहते हैं। [वही] (विष्णो) हे सर्वव्यापक विष्णु ! तू (उरु) विस्तार से (वि क्रमस्व) विक्रमी हो, और (नः) हमें (क्षयाय) ज्ञान वा ऐश्वर्य के लिये (उरु) विस्तार के साथ (कृधि) कर। (घृतयोने) हे प्रकाश के घर ! (घृतम्) घृत के समान तत्त्वरस (पिब=पायय) [हमें] पान करा और (यज्ञपतिम्) पूजनीय कर्म के रक्षक मनुष्य को (प्र प्र) अच्छे प्रकार (तिर) पार लगा ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो सर्वव्यापक परमेश्वर सब लोक-लोकान्तरों का स्वामी है, सब मनुष्य उसकी उपासना से ऐश्वर्य प्राप्त करें ॥३॥ (यस्य उरुषु….) यह पाद ऋग्वेद में है-१।१५४।२। और यजु० ५।२०। (उरु विष्णो….) यह मन्त्र यजुर्वेद में है−५।३८,४१ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(यस्य) विष्णोः (उरुषु) विस्तृतेषु (त्रिषु) उत्पत्तिस्थितिप्रलयरूपेषु (विक्रमणेषु) विविधेषु क्रमेषु नियतविधानेषु (अधिक्षियन्ति) अधिकं निवसन्ति (भुवनानि) जगति (विश्वा) सर्वाणि (उरु) यथा तथा। विस्तारेण (विक्रमस्व) विक्रमी पराक्रमी भव (क्षयाय) क्षि निवासगतिहिंसैश्वर्येषु-अच्। विज्ञानस्य ऐश्वर्यस्य वोन्नतये (नः) अस्मान् (कृधि) कुरु (घृतम्) घृतवत्तत्त्वरसम् (घृतयोने) योनिर्गृहम्-निघ० ३।४। हे घृतस्य प्रकाशस्य योने गृह (पिब) अन्तर्गतणिच्। अस्मान् पायय (प्र प्र) अधिकं प्रकर्षेण (यज्ञपतिम्) पूजनीयकर्मणां पातारं पुरुषम् (तिर) तारय। पारय ॥

०४ इदं विष्णुर्वि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इ॒दं विष्णु॒र्वि च॑क्रमे त्रे॒धा नि द॑धे प॒दा।
समू॑ढमस्य पांसु॒रे ॥

०४ इदं विष्णुर्वि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Here Vishṇu strode out; thrice he set down his steps; [it is]
    collected in his dust.
Notes

This and the three following verses form one connected passage also in
RV. (i. 22. 17-20) and SV. (ii. 1019-22), but not in the other texts in
which they are, in part or all, found. In this verse, RV.SV. read
padám at end of b,* and SV. has pāṅsule at end of c. Of the
other texts, VS. (v. 15) and TS. (i. 2. 13¹) agree with RV.; MS. (i. 2.
9 et al.) has padā́, like our text. The meaning of c is obscure and
disputed: the comm. here explains thus: viṣṇoḥ…pāṅsumati pāde
lokatrayam…samavasthāpitaṁ samākṛṣṭaṁ vā
. Henry renders “for him it
is reduced to a dust-heap.” *⌊SV. also at i. 222.⌋

Griffith

Through all this world strode Vishnu: thrice his foot he planted, and the whole Was gathered in his footstep’s dust.

पदपाठः

इ॒दम्। विष्णुः॑। वि। च॒क्र॒मे॒। त्रे॒धा। नि। द॒धे॒। प॒दा। सम्ऽऊ॑ढम्। अ॒स्य॒। पां॒सु॒रे। २७.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विष्णुः
  • मेधातिथिः
  • गायत्री
  • विष्णु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णुः) विष्णु सर्वव्यापी भगवान् ने (समूढम्) आपस में एकत्र किये हुए वा यथावत् विचारने योग्य (इदम्) इस जगत् को (वि चक्रमे) पराक्रमयुक्त [शरीरवाला] किया है, उसने (अस्य) इस जगत् के (पदा) स्थिति और गति के कर्मों को (त्रेधा) तीन प्रकार (पांसुरे) परमाणुओंवाले अन्तरिक्ष में (नि दधे) स्थिर किया है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने इस जगत् को परमाणुओं से रचकर उत्पत्ति, स्थिति प्रलय द्वारा पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यु लोक, अर्थात् नीचे, मध्यम और ऊँचे स्थानों में धारण किया है ॥४॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।२२।१७; यजु० ५।१५, और साम० पू० ३।३।९। और उ० ८।२।८। भगवान् यास्क ने निरु० १२।१८, १९ में भी इस मन्त्र की व्याख्या की है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(इदम्) परिदृश्यमानं जगत् (विष्णुः) व्यापकः परमेश्वरः (वि चक्रमे) विक्रान्तं पराक्रमयुक्तं सशरीरं कृतवान् (त्रेधा) त्रिप्रकारम् (निदधे) नियमेन स्थापयामास (पदा) पद स्थैर्ये गतौ च-अच्। स्थितिगतिकर्माणि (समूढम्) सम्+वह प्रापणे, ऊह वितर्के वा-क्त राशीकृतम्। सम्यग् वितर्कणीयमनुमीयं जगत् (अस्य) जगतः (पांसुरे) नगपांसुपाण्डुभ्यश्चेति वक्तव्यम्। वा० पा० ५।२।१०७। इति पांसु-रो मत्वर्थे। पांसुभी रजोभिः परमाणुभिर्युक्तोऽन्तरिक्षे ॥

०५ त्रीणि पदा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः।
इ॒तो धर्मा॑णि धा॒रय॑न् ॥

०५ त्रीणि पदा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Three steps Vishnu strode out, the unharmable shepherd, ordaining
    (dhṛ) here (itás) [his] ordinances.
Notes

RV.SV. read átas at beginning of c, and VS. (xxxiv. 43) agrees
with them; TB. (ii. 4. 6¹) has instead tátas. It seems hardly possible
to give itás its distinctive meaning ‘from here’; but Henry combines
it with ví cakrame: “from here.” The comm. has atas.

Griffith

Vishnu the guardian, he whom none deceiveth, made three steps, thenceforth. Establishing these high decrees.

पदपाठः

त्रीणि॑। प॒दा। वि। च॒क्र॒मे॒। विष्णुः॑। गो॒पाः। अदा॑भ्यः। इ॒तः। धर्मा॑णि। धा॒रय॑न्। २७.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विष्णुः
  • मेधातिथिः
  • गायत्री
  • विष्णु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (गोपाः) सर्वरक्षक (अदाभ्यः) न दबने योग्य (विष्णुः) विष्णु अन्तर्यामी भगवान् ने (त्रीणि) तीनों (पदा) जानने योग्य वा पाने योग्य पदार्थों [कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत् अथवा भूमि, अन्तरिक्ष और द्यु लोक] को (वि चक्रमे) समर्थ [शरीरधारी] किया है। (इतः) इसी से वह (धर्माणि) धर्मों वा धारण करनेवाले [पृथिवी आदि] को (धारयन्) धारण करता हुआ है ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो परमेश्वर नानाविध जगत् को रचकर धारण कर रहा है, उसी की उपासना सब मनुष्य नित्य किया करें ॥५॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।२२।१८; यजु० ३४।४३; और साम० उ० ८।२।५।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(त्रीणि) (पदा) पदानि ज्ञातव्यानि प्राप्तव्यानि वा कारणस्थूलसूक्ष्मरूपाणि, अथवा भूम्यन्तरिक्षद्युलोकरूपाणि पदार्थजातानि (वि चक्रमे) विक्रान्तवान्। समर्थानि सावयवानि कृतवान् (विष्णुः) अन्तर्यामीश्वरः (गोपाः) अ० ५।९।८। गोपायिता। रक्षकः (अदाभ्यः) अ० ३।२१।४। अहिंस्यः। अजेयः (इतः) अस्मात्कारणात् (धर्म्माणि) धर्मान् धारकाणि पृथिव्यादीनि या (धारयन्) पोषयन्। वर्धयन् वर्तत इति शेषः ॥

०६ विष्णोः कर्माणि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

विष्णोः॒ कर्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे।
इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑ ॥

०६ विष्णोः कर्माणि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Behold ye the deeds of Vishṇu, from where he beholds [your] courses
    (vratá), [he] Indra’s suitable companion.
Notes

Or yátas in b may mean simply ‘as.’ Not only RV.SV., but also the
other texts containing this verse (VS. vi. 4 et al.; TS. 1. 3. 6²; MS.
i. 2. 14), have the same readings with ours. The comm. explains
paspaśe as spṛśati badhnāti vā!

The comm. strangely* closes the hymn here, and treats its last two
verses as ⌊belonging to the next: see p. 389⌋. *⌊Because he has got to
the end of his “spoiled decad”?⌋

Griffith

Look ye on Vishnu’s works, whereby the friend of Indra, close- allied, Hath let his holy ways be seen.

पदपाठः

विष्णोः॑। कर्मा॑णि। प॒श्य॒त॒। यतः॑। व्र॒तानि॑। प॒स्प॒शे। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑। २७.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विष्णुः
  • मेधातिथिः
  • गायत्री
  • विष्णु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णोः) सर्वव्यापक विष्णु के (कर्माणि) कर्मों [जगत् का बनाना, पालन, प्रलय आदि] को (पश्यत) देखो, (यतः) जिससे उसने (व्रतानि) व्रतों [सब के कर्त्तव्य कर्मों] को (पस्पशे) बाँधा है। (युज्यः) वह योग्य [अथवा सब से संयोग रखनेवाले दिशा, काल, आकाश आदि में रहनेवाला] परमेश्वर (इन्द्रस्य) जीव का (सखा) सखा है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस परमेश्वर ने संसार रचकर सबको नियम में बाँधा है, वही सब में रमकर सबका हितकारी है ॥६॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।२२।१८; यजु०-६।४, १३।३३; और साम–० उ०-८।२।५ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(विष्णोः) व्यापकस्य (कर्माणि) जगदुत्पत्तिस्थितिसंहारादीनि (पश्यत) संप्रेक्षध्वम् (यतः) येन (व्रतानि) कर्त्तव्यकर्माणि (पस्पशे) स्पश बन्धनस्पर्शनयोः-लिट्। बद्धवान्। नियमितवान् (इन्द्रस्य) जीवस्य (युज्यः) युज-क्यप्, योग्यः। यद्वा। युज-क्विप्, भवे यत्। युञ्जन्ति व्याप्त्या सर्वान् पदार्थान् ते युजो दिक्कालाकाशादयस्तत्र भवः (सखा) मित्रम् ॥

०७ तद्विष्णोः परमम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः॑।
दि॒वी᳡व॒ चक्षु॒रात॑तम् ॥

०७ तद्विष्णोः परमम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. That highest step of Vishṇu the patrons (sūrí) ever behold, like an
    eye stretched on the sky.
Notes

In all the texts, this verse is given in connection with the preceding
one. RV.SV., and also VS. (vi. 5), have precisely our text; TS. (i. 3.
6² et al.) differs only by accenting, according to its usage, divī́
’va*;
MS. (i. 2. 14) reads śácyā for sádā in b. *⌊Gram. §128;
Prāt. iii. 56.⌋

Griffith

The princes evermore behold that loftiest place where Vishnu is, Like an extended eye in heaven,

पदपाठः

तत्। विष्णोः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। सदा॑। प॒श्य॒न्ति॒। सू॒रयः॑। दि॒विऽइ॑व। चक्षुः॑। आऽत॑तम्। २७.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विष्णुः
  • मेधातिथिः
  • गायत्री
  • विष्णु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सूरयः) बुद्धिमान् पण्डित लोग (विष्णोः) सर्वव्यापक विष्णु के (तत्) उस (परमम्) अति उत्तम (पदम्) पाने योग्य स्वरूप को (सदा) सदा (पश्यन्ति) देखते हैं (इव) जैसे (दिवि) प्रकाश में (आततम्) फैला हुआ (चक्षुः) नेत्र [दृश्य पदार्थों को देखता है] ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे प्राणी सूर्य आदि के प्रकाश में शुद्ध नेत्रों से पदार्थों को देखते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग निर्मल विज्ञान से अपने आत्मा में जगदीश्वर के आनन्दस्वरूप मोक्ष पद को साक्षात् करके आनन्द पाते हैं ॥७॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।२२।२०; यजु०−६।५; साम० उ०−८।२।५ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(तत्) प्रसिद्धम् (विष्णोः) व्यापकस्य (परमम्) सर्वोत्कृष्टम् (पदम्) प्राप्तव्यं स्वरूपं मोक्षम् (सदा) सर्वदा (पश्यन्ति) संप्रेक्षन्ते। साक्षात्कुर्वन्ति (सूरयः) अ० २।११।४। मेधाविनः पण्डिताः (दिवि) सूर्यादिप्रकाशे (इव) यथा (चक्षुः) नेत्रम्। पश्यति दृश्यानि इति शेषः (आततम्) प्र सृतम् ॥

०८ दिवो विष्ण

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

दि॒वो वि॑ष्ण उ॒त वा॑ पृ॑थि॒व्या म॒हो वि॑ष्ण उ॒रोर॒न्तरि॑क्षात्।
हस्तौ॑ पृणस्व ब॒हुभि॑र्वस॒व्यैरा॒प्रय॑च्छ॒ दक्षि॑णा॒दोत स॒व्यात् ॥

०८ दिवो विष्ण ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. From the sky, O Vishṇu, or also from the earth; from the great wide
    atmosphere, O Vishṇu, fill thy hands abundantly with good things; reach
    forth hither from the right, hither also from the left.
Notes

The verse is found also in VS. (v. 19), TS. (i. 2. 13²), and MS. (i. 2.
9). VS.TS. insert after divás in a and mahás in b, and
TS. reads utá vā for urós in b, while MS. has, for b, urór
vā viṣṇo bṛható antárikṣāt;
TS. combines both times viṣṇav u-; VS.
has, for c, ubhā́ hí hástā vásunā pṛṇásva; TS.MS. accent
vasavyāìs, which is decidedly more regular (but SV. i. 298 has
vasávye); and all three accent ā́ prá y-, which is also more in
accordance with usage (our pada-text ā॰práyacha). The first two
pādas are of 10 syllables each; ⌊but the ’s of VS.TS. make them good
triṣṭubh⌋.

Griffith

From heaven, O Vishnu, or from earth, O Vishnu, or from the great far-spreading air’s mid-region, Fill both thy hands full of abundant treasures, and from the right and left bestow them freely.

पदपाठः

दि॒वः। वि॒ष्णो॒ इति॑। उ॒त। वा॒। पृ॒थि॒व्याः। म॒हः। वि॒ष्णो॒ इति॑। उ॒रोः। अ॒न्तरि॑क्षात्। हस्तौ॑। पृ॒ण॒स्व॒। ब॒हुऽभिः॑। व॒स॒व्यैः᳡। आ॒ऽप्रय॑च्छ। दक्षि॑णात्। आ। उ॒त। स॒व्यात्। २७.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विष्णुः
  • मेधातिथिः
  • गायत्री
  • विष्णु सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

व्यापक ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णो) हे सर्वव्यापक विष्णु ! (दिवः) सूर्य लोक से (उत) और (पृथिव्याः) पृथिवी लोक से, (वा) अथवा, (विष्णो) हे विष्णु ! (महः) बड़े (उरोः) चौड़े (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष लोक से (बहुभिः) बहुत से (वसव्यैः) धनसमूहों से (हस्तौ) दोनों हाथों को (पृणस्व) भर (उत) और (दक्षिणात्) दाहिने (उत) और (सव्यात्) बायें हाथ से (आप्रयच्छ) अच्छे प्रकार से दान कर ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वररचित सूर्य, पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि लोक-लोकान्तर और सब पदार्थों से विज्ञानपूर्वक उपकार लेकर धन आदि की प्राप्ति से आनन्द भोगें ॥८॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजु० में है−५।१९ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(दिवः) प्रकाशमानात् सूर्यात् (विष्णो) हे सर्वव्यापक ! (उत) अपि (वा) अथवा (पृथिव्याः) भूलोकात् (महः) मह-क्विप्। विशालात् (उरोः) उरुणः। विस्तीर्णात् (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (हस्तौ) करौ (पृणस्व) पूरय (बहुभिः) अधिकैः (वसव्यैः) वसोः समूहे च। पा० ४।४।१४०। वसु-यत्। वसूनां धनानां समूहैः (आप्रयच्छ) समन्ताद् देहि (दक्षिणात्) दक्षिणहस्तात् (आ) चार्थे (उत) अपि (सव्यात्) वामहस्तात् ॥