०२३ दुःस्वप्ननाशनम् ...{Loading}...
Whitney subject
23 (24). Against ill conditions and beings.
VH anukramaṇī
दुःस्वप्ननाशनम्।
१ यमः। दुःस्वप्ननाशनम्। अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Yama.—mantroktaduṣvpnanāśanadtvatyam: ānuṣtubham.]
Whitney
Comment
The hymn is merely a repetition of iv. 17. 5 above, and is not found in Pāipp. otherwise than as part of the latter hymn. It is used neither by Kāuś. nor by Vāit. ⌊As to its insertion in the second anuvāka, see p. 389, near top.⌋
Translations
Translated: Henry, 9, 62; Griffith, i. 338.
Griffith
A charm to banish fiends and troubles
०१ दौष्वप्न्यं दौर्जीवित्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दौष्व॑प्न्यं॒ दौर्जी॑वित्यं॒ रक्षो॑ अ॒भ्व॑मरा॒य्यः॑।
दु॒र्णाम्नीः॒ सर्वा॑ दु॒र्वाच॒स्ता अ॒स्मन्ना॑शयामसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दौष्व॑प्न्यं॒ दौर्जी॑वित्यं॒ रक्षो॑ अ॒भ्व॑मरा॒य्यः॑।
दु॒र्णाम्नीः॒ सर्वा॑ दु॒र्वाच॒स्ता अ॒स्मन्ना॑शयामसि ॥
०१ दौष्वप्न्यं दौर्जीवित्यम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Evil-dreaming, evil-living, demon, monster, hags, all the ill-named
(f.), ill-voiced—them we make disappear from us.
Notes
Griffith
The fearful dream, and indigence, the monster, the malignant hags. All female fiends of evil name and wicked tongue we drive afar.
पदपाठः
दौःऽस्व॑प्न्यम्। दौःऽजी॑वित्यम्। रक्षः॑। अ॒भ्व᳡म्। अ॒रा॒य्यः᳡। दुः॒ऽनाम्नीः॑। सर्वाः॑। दुः॒ऽवाचः॑। ताः। अ॒स्मत्। ना॒श॒या॒म॒सि॒। २४.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- दुःष्वप्ननाशनम्
- यमः
- अनुष्टुप्
- दुष्वप्नाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (दौष्वप्न्यम्) नींद में बेचैनी, (दौर्जीवित्यम्) जीवन का कष्ट, (अभ्वम्) बड़े (रक्षः) राक्षस, (अराय्यः) अनेक अलक्ष्मियों और (दुर्णाम्नीः) दुष्ट नामवाली (दुर्वाचः) कुवाणियों, (ताः सर्वाः) इन सबको (अस्मत्) अपने से (नाशयामसि) हम नाश करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा की सुनीति से प्रजा गण बाहिर-भीतर से निश्चिन्त होकर सुख की नींद सोवें, उद्यमी होकर आनन्द भोगें, चोर डाकू आदिकों से निर्भय रहें, धन की वृद्धि करें और विद्या बल से कलह छोड़कर परस्पर उन्नति करने में लगे रहें ॥१॥ यह मन्त्र आ चुका है-अ० ४।१७।५।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ४।१७।५ ॥