०१४ सविता

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Whitney subject

14 (15). Prayer and praise to Savitar.

VH anukramaṇī

सविता
१-४ अथर्वा। सविता। अनुष्टुप्, ३ त्रिष्टुप्, ४ जगती।

Whitney anukramaṇī

[Atharvan.—caturṛcam. sāvitram. ānuṣṭubham: 3. triṣṭubh; 4. jagatī.]

Whitney

Comment

The third and fourth verses are found in Pāipp. xx. The first and second form together one long verse in SV. (i. 464), VS. (iv. 25), MS. (i. 2. 5), and AśS. (iv. 6. 3), and two, as in our text, in śśS. (v. 9. 11). In Kāuś. (24. 3) the hymn appears only in a general rite for prosperity; in accordance with which, it is included (note to 19. 1) among the puṣṭika mantras. Vāit. (13. 7) uses it in a more specific office, to accompany the winnowing of the soma, in the agniṣṭoma ceremony.

Translations

Translated: Henry, 6, 56; Griffith, i. 334.

Griffith

A prayer to Savitar for prosperity

०१ अभि त्यम्

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अ॒भि त्यं दे॒वं स॑वि॒तार॑मो॒ण्योः᳡ क॒विक्र॑तुम्।
अर्चा॑मि स॒त्यस॑वं रत्न॒धाम॒भि प्रि॒यं म॒तिम् ॥

०१ अभि त्यम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Unto this god Savitar, of poets’ skill (-krátu), of true impulse,
    treasure-bestowing, unto the dear one, I, in the two oṇí’s, sing
    (arc) [my] prayer.
Notes

VS.śśS.ACS. add at the end kavím, and MS. has satyásavasam (for
-savam). Two or three of the mss. (including our O.) read
satyásavām, as if agreeing with matím. The comm. explains oṇyòs as
‘heaven and earth, the two favorers (avitṛ) of everything,’ and makes
matí at the end masc, = sarvāir mantavyam. The construction of the
verse is intricate and doubtful. The metrical definition by the Anukr.
of the first two verses as anuṣṭubh is bad; they are really four
jagatī pādas, to each of which are added four syllables that encumber
the sense. ⌊From a critical point of view, these additions seem to me
comparable with those in ii. 5; see introduction to ii. 5.⌋

Griffith

I praise this God, parent of heaven and earth, exceeding wiser possessed of real energy, giver of treasure, thinker dear to all,.

पदपाठः

अ॒भि। त्यम्। दे॒वम्। स॒वि॒तार॑म्। ओ॒ण्योः᳡। क॒विऽक्र॑तुम्। अर्चा॑मि। स॒त्यऽस॑वम्। र॒त्न॒ऽधाम्। अ॒भि। प्रि॒यम्। म॒तिम्। १५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सविता
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • सविता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) उस (देवम्) सुखदाता (ओण्योः) सूर्य और पृथिवी के (सवितारम्) उत्पन्न करनेवाले, (कविक्रतुम्) सर्वज्ञ बुद्धि वा कर्मवाले, (सत्यसवम्) सच्चे ऐश्वर्यवाले, (रत्नधाम्) रमणीय विज्ञानों वा हीरा आदिकों वा लोकों के धारण करनेवाले, (प्रियम्) प्रीति करनेवाले, (मतिम्) मनन करनेवाले, परमेश्वर को (अभि अभि) बहुत भले प्रकार (अर्चामि) मैं पूजता हूँ ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा, प्रजा और सब विद्वान् लोग उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करके सदा धर्म के अनुकूल वरतें और आनन्द भोगें ॥१॥ मन्त्र १, २ कुछ भेद से सामवेद में हैं−पू० ५।८।८। और यजु० ४।२५ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(अभि अभि) सर्वतः सर्वतः (त्यम्) प्रसिद्धम् (देवम्) सुखदातारम् (सवितारम्) उत्पादकम् (ओण्योः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। ओणृ अपनयने-इन्। कृदिकारादक्तिनः। वा० पा० ४।१।४५। इति ङीप्। द्यावापृथिव्योः-निघ० ३।३०। (कविक्रतुम्) कविः सर्वज्ञा क्रतुः प्रज्ञा कर्म वा यस्य तम्। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा-निरु० १२।१३। (अर्चामि) पूजयामि (सत्यसवम्) सत्यैश्वर्ययुक्तम् (रत्नधाम्) रत्नानि रमणीयानि विज्ञानानि हीरकादीनि भवनानि वा दधातीति तम् (प्रियम्) प्रीतिकरम्। (मतिम्) मनु अवबोधने-क्तिच्। मन्तारम्। मतयो मेधाविनः-निघ० ३।१५ ॥

०२ उर्ध्वा यस्यामतिर्भा

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उ॒र्ध्वा यस्या॒मति॒र्भा अदि॑द्युत॒त्सवी॑मनि।
हिर॑ण्यपाणिरमिमीत सु॒क्रतुः॑ कृ॒पात्स्वः᳡ ॥

०२ उर्ध्वा यस्यामतिर्भा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. He whose lofty light (amáti), gleam, shone brightly in his
    impelling—he, gold-handed, of good insight, fashioned the heaven with
    beauty.
Notes

The translation assumes at the end the emended reading kṛpā́, which is
that of all the other texts and of the comm., and is also given by one
or two of the AV. mss. (including our O.*); SPP. adopts kṛpā́t.
śśS.AśS. curiously read at the end kṛpā svas tṛpā svar iti vā, taking
as it were a variant into the text. All the pada-mss. have ūrdhvā́ḥ
at the beginning, instead of -vā́, as the sense demands; SPP. emends to
-vā́ in his pada-text. The comm. paraphrases amatis by amanaśīlā
vyāpanaśīlā
. *⌊Mistake for P.M.?—Note to Prāt. i. 65 may be compared.⌋

Griffith

Whose splendour is sublime, whose light shone brilliant in crea- tion, who, wise, and golden-handed, in his beauty made the sky.

पदपाठः

ऊ॒र्ध्वाः। यस्य॑। अ॒मतिः॑। भाः। अदि॑द्युतत्। सवी॑मनि। हिर॑ण्यऽपाणिः। अ॒मि॒मी॒त॒। सु॒ऽक्रतुः॑। कृ॒पात्। स्वः᳡। १५.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सविता
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • सविता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) जिसकी (ऊर्ध्वा) ऊँची, (अमतिः) व्यापनेवाली (माः) चमक (सवीमनि) सृष्टि के बीच (अदिद्युतत्) चमकी हुई है। (हिरण्यपाणिः) अन्धकार वा दरिद्रता हरनेवाले सूर्य आदि सुवर्ण आदि तेजों के व्यवहारवाले, (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धि वा कर्मवाले उस ईश्वर ने (कृपात्) अपने सामर्थ्य से (स्वः) स्वर्ग अर्थात् मोक्ष सुख (अमिमीत) रचा है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - उस जगदीश्वर की अनन्तशक्ति का विचार करके मनुष्य मोक्ष आनन्द के लिये सदा प्रयत्न करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(ऊर्ध्वा) उत्कृष्टा (यस्य) सवितुः। परमेश्वरस्य (अमतिः) अमेरतिः। उ० ४।५९। अम गतौ-अति। व्यापनशीला (भाः) दीप्तिः (अदिद्युतत्) द्युत दीप्तौ स्वार्थे णिजन्ताच् चङि, रूपम् अद्युतत्। अदीपि (सवीमनि) जनिमृङ्भ्यामिमनिन्। उ० ४।१४९। इति षूङ् प्राणिप्रसवे-इमनिन्, वा दीर्घः। सवीमनि प्रसवे-निरु०, ६।७। सृष्टौ (हिरण्यपाणिः) हिरण्यानि अन्धकारस्य दारिद्र्यस्य वा हरणशीलानि सूर्यादीनि सुवर्णादीनि वा पाणौ व्यवहारे यस्य सः (अमिमीत) अ० ५।१२।११। निर्मितवान् (सुक्रतुः) शोभना क्रतुः प्रज्ञाः, कर्म वा यस्य सः (कृपात्) कृपू सामर्थ्ये-क। स्वसामर्थ्यात् (स्वः) स्वर्गं मोक्षसुखम् ॥

०३ सावीर्हि देव

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सावी॒र्हि दे॑व प्रथ॒माय॑ पि॒त्रे व॒र्ष्माण॑मस्मै वरि॒माण॑मस्मै।
अथा॒स्मभ्यं॑ सवित॒र्वार्या॑णि दि॒वोदि॑व॒ आ सु॑वा॒ भूरि॑ प॒श्वः ॥

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Whitney
Translation
  1. For thou didst impel, O god, for the first father—height for him,
    width for him; then unto us, O Savitar (impeller), do thou day by day
    impel desirable things, abundance of cattle.
Notes

The verse is found also in TB. (ii. 7. 15¹), AśS. (iv. 10. 1), and śśS.
(v. 14. 8); all read, in c, d, savitaḥ sarvátātā divé-diva ā́; and
in a TB. has prasavā́ya instead of prathamā́ya. With d compare
also RV. iii. 56. 6 (quoted here by the comm.). Ppp. shows no variants.

Griffith

As thou, God! quickening, for our ancient father, sentest him height above and room about him, So unto us, O Savitar, send treasures, abundant, day by day, in shape of cattle.

पदपाठः

सावीः॑। हि। दे॒व॒। प्र॒थ॒माय॑। पि॒त्रे। व॒र्ष्माण॑म्। अ॒स्मै॒। व॒रि॒माण॑म्। अ॒स्मै॒। अथ॑। अ॒स्मभ्य॑म्। स॒वि॒तः॒। वार्या॑णि। दि॒वःऽदि॑वः। आ। सु॒व॒। भूरि॑। प॒श्वः। १५.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सविता
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • सविता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देव) हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर ! तूने (हि) ही (प्रथमाय) हम से पहिले वर्तमान (पित्रे) पालन करनेवाले (अस्मै) इस [पुरुष] को और (अस्मै) इस [दूसरे पुरुष] को (वर्ष्माणम्) उच्च स्थान और (वरिमाणम्) फैलाव वा उत्तमपन (सावीः) दिया है। (अथ) सो (सवितः) हे सर्वप्रेरक परमेश्वर ! (अस्मभ्यम्) हमें (दिवोदिवः) सब दिनों (वार्याणि) उत्तम विज्ञान और धन और (भूरि) बहुत (पश्वः) मनुष्य, गौ, घोड़ा, हाथी आदि (आ सुव) भेजता रहे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस प्रकार परमेश्वर ने हमसे पहिले उपकारी महात्माओं को उच्च पदवी दी है, वैसे ही परमेश्वर की आशा मान कर हम भी सुख के भागी होवें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(सावीः) षू प्रेरणे-लुङ्, अडभावः। प्रेरितवानसि (हि) निश्चयेन (देव) हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर (प्रथमाय) अस्मत्प्रथमभवाय (पित्रे) पालकाय। उपकारिणे पुरुषाय (वर्ष्माणम्) अ० ३।४।२। उन्नतस्थानम् (अस्मै) एकस्मै पुरुषाय (वरिमाणम्) अ० ४।६।२। उरु यद्वा वर-इमनिच्। उरुत्वं विस्तारम्। वरत्वं श्रेष्ठत्वम् (अस्मै) अन्यस्मै (अथ) तस्मात् (अस्मभ्यम्) (सवितः) हे सर्वप्रेरक (वार्याणि) वरणीयानि विज्ञानानि धनानि वा (दिवोदिवः) दिवसान् दिवसान् (आसुव) अभिमुखं प्रेरय (भूरि) बहूनि (पश्वः) छान्दसं रूपम्। अ० १।३०।३। पशून्। मनुष्यादिजीवान्। पशवो व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९ ॥

०४ दमूना देवः

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दमू॑ना दे॒वः स॑वि॒ता वरे॑ण्यो॒ दध॒द्रत्नं॑ पि॒तृभ्य॒ आयूं॑षि।
पिबा॒त्सोमं॑ म॒मद॑देनमि॒ष्टे परि॑ज्मा चित्क्रमते अस्य॒ धर्म॑णि ॥

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Whitney
Translation
  1. May the household god, the desirable Savitar, assign to the Fathers
    treasure, dexterity, life-times; may he drink the soma; may [it]
    exhilarate him at the sacrifice; any wanderer walks (kram) in his
    ordinance.
Notes

Ppp. differs only by combining pitṛbhyā ’yūṅṣi in b; but AśS. (v.
18. 2) and śśS. (viii. 3. 4: AB. iii. 29. 4 quotes the pratīka only)
have important and in part preferable variants, especially in the
second line, where they read amadann enam iṣṭayaḥ, and ramate for
kramate. In b, both give dakṣa and āyuni, and AśS. ratnā.
⌊The verse has one triṣṭubh pāda (c); and b is a very poor
jagatī.

Griffith

Savitar, God, our household friend, most precious, hath sent our fathers life and power and riches. Let him drink Soma and rejoice when worshipped. Under his law even the Wanderer travels.

पदपाठः

दमू॑नाः। दे॒वः। स॒वि॒ता। वरे॑ण्यः। दध॑त्। रत्न॑म्। दक्ष॑म्। पि॒तृऽभ्यः॑। आयूं॑षि। पिबा॑त्। सोम॑म्। म॒मद॑त्। ए॒न॒म्। इ॒ष्टे। परि॑ऽज्मा। चि॒त्। क्र॒म॒ते॒। अ॒स्य॒। धर्म॑णि। १५.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सविता
  • अथर्वा
  • जगती
  • सविता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ईश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (दमूनाः) दमनशील शान्तस्वभाव, (देवः) व्यवहारकुशल, (वरेण्यः) स्वीकार योग्य (सविता) चलानेवाला पुरुष (पितृभ्यः) पालन करनेवाले विद्वानों के हित के लिये (रत्नम्) रमणीय धन, (दक्षम्) बल और (आयूंषि) जीवनसाधनों को (दधत्) धारण करता हुआ (सोमम्) अमृत का (पिबात्) पान करे, और (एनम्) इस [परमेश्वर] को (इष्टे) यज्ञ में (ममदत्) प्रसन्न करे, (परिज्मा) सब ओर चलनेवाला पुरुष (चित्) ही (अस्य) इस [परमेश्वर] के (धर्म्मणि) धर्म अर्थात् नियम में (क्रमते) चला जाता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वानों की सेवा करते हैं, और सर्वत्रगति होते हैं, वे ही आनन्दरस पीते हुए ईश्वर की आज्ञा का पालन करके आनन्द भोगते हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(दमूनाः) दमेरुनसि। उ० ४।२३५। दमु उपशमे-उनसि, वा दीर्घः। दमिता। शान्तस्वभावः। दमूना दममना वा दानमना वा दान्तमना वा। अथवा दम इति गृहनाम तन्मनाः स्यान्मनो मनोतेः-निरु० ४।४। (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) नायकः पुरुषः (वरेण्यः) वृञ एण्यः। उ० ३।९८। वृञ् वरणे-एण्य। स्वीकरणीयः (दधत्) धारयन् (रत्नम्) रमणीयं धनम् (दक्षम्) बलम् (पितृभ्यः) पालकानां विदुषां हिताय (पिबात्) लेटि रूपम्। पिबेत् (सोमम्) अमृतरसम् (ममदत्) लेडर्थे माद्यतेर्ण्यन्तात्, लुङि, चङि रूपम्। मदयेत्। तर्पयेत् (एनम्) अन्तर्यामिनं जगदीश्वरम् (इष्टे) यज्ञे (परिज्मा) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। अज गतिक्षेपणयोः कनिन्, मुडागमः, अकारलोपः। परितोगन्ता। सर्वत्रगतिः पुरुषः (चित्) एव (क्रमते) वृत्तिसर्गतायनेषु क्रमः पा० ३।१।३८। इत्यात्मनेपदम्। अप्रतिबद्धो गच्छति (अस्य) परमेश्वरस्य (धर्मणि) धारणीये नियमे ॥