०१२ राष्ट्रसभा

०१२ राष्ट्रसभा ...{Loading}...

Whitney subject

12 (13). For success in the assembly.

VH anukramaṇī

राष्ट्रसभा।
१-४ शौनकः। सभा, १-२ सभा, पितरः, ३ इन्द्रः, ४ मनः। अनुष्टुप्, १ भुरिक् त्रिष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[śāunaka.—caturṛcam. sabhyam: 1. ⌊dvidevatyā⌋ uta pitryā*; 3. āindrī; 4. mantroktadevatyā. anuṣṭubham: 1. bhurik triṣṭubh.]

Whitney

Comment

The first two verses are found in Pāipp. xx. Kāuś. (38. 27) uses it, with v. 3 and other hymns, in a ceremony for gaining the victory in debate, or in the deliberations of an assembly (the comm. describes it repeatedly as “of five verses,” apparently including in its uses 13. 1). *⌊The London ms. reads dvidevatyāuta pitryā; the Berlin ms., -tyāutatpitryā.⌋

Translations

Translated: Muir, v. 439; vss. 1, 3, 4, Ludwig, p. 253; vss. 2-4, Zimmer, p. 173; Grill, 70, 178; Henry, 5, 55; Griffith, i. 333; Bloomlield, 138, 543.—Cf. Hillebrandt, Veda-chrestomathie, p. 44.

Griffith

A prayer for influence at deliberative and religious meetings

०१ सभा च

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

स॒भा च॑ मा॒ समि॑तिश्चावतां प्र॒जाप॑तेर्दुहि॒तरौ॑ संविदा॒ने।
येना॑ सं॒गच्छा॒ उप॑ मा॒ स शि॑क्षा॒च्चारु॑ वदानि पितरः॒ संग॑तेषु ॥

०१ सभा च ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let both assembly (sabhā́) and gathering (sámiti), the two
    daughters of Prajāpati, accordant, favor me; with whom I shall come
    together, may he desire to aid (? upa-śikṣ) me; may I speak what is
    pleasant among those who have come together, O Fathers.
Notes

Ppp’s version of c, d is very different: yena vadāṁ upa mā sa
tiṣṭhā ’ntar vadāmi hṛdaye janānām
. The verse is also found in PGS.
(iii. 13. 3), with much variation: ubhe for avatām in a,
sacetasāu for samvidāne in b; and, for c, d, yo mā na
vidyād
upa mā sa tiṣṭhet sacetano bhavatu śaṅsathe janaḥ. The comm.
explains upa śikṣāt as either upetya śikṣayatu: samīcīnaṁ vādayatu
or māṁ vaktuṁ śaktaṁ samartham icchatu. He reads vadāmi in d.
Henry renders upa-śikṣ by “pay homage,” and emends pitaras to
nṛṣu. The meter is irregular.

Griffith

In concord may Prajapati’s two daughters, Gathering and As- sembly, both protect me. May every man I meet respect and aid me. Fair be my words, O Fathers, at the meetings.

पदपाठः

स॒भा। च॒। मा॒। सम्ऽइ॑तिः। च॒। अ॒व॒ता॒म्। प्र॒जाऽप॑तेः। दु॒हि॒तरौ॑। सं॒वि॒दा॒ने इति॑ स॒म्ऽवि॒दा॒ने। येन॑। स॒म्ऽगच्छै॑। उप॑। मा॒। सः। शि॒क्षा॒त्। चारु॑। व॒दा॒नि॒। पि॒त॒रः॒। सम्ऽग॑तेषु। १३.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सभा, समितिः, पितरगणः
  • शौनकः
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के कर्तव्यों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रजापतेः) प्रजापति अर्थात् प्रजारक्षक पुरुषार्थ की (दुहितरौ) पूरण करनेवाली [वा दो पुत्रियों के समान हितकारी] (संविदाने) यथावत् मेलवाली (सभा) सभा, विद्वानों की संगति (च च) और (समितिः) एकता (मा) मुझे (अवताम्) तृप्त करें। (येन) जिस पुरुष के साथ (संगच्छै) मैं मिलूँ, (सः) वह (मा) मुझे (उप) आदर से (शिक्षात्) समर्थ करे, (पितरः) हे पितरो, पालन करनेवाले विद्वानो ! (संगतेषु) सम्मेलनों के बीच मैं (चारु) ठीक-ठीक (वदानि) बोलूँ ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सभापति ऐसा सुशिक्षित और सुयोग्य पुरुष हो कि संगठन की सफलता के लिये सब सभासद् एकमत हो जावें, और उसके धर्मयुक्त वचन को मानकर उसके सहायक रहें ॥१॥ इस सूक्त का मिलान अ० का० ६। सू० ६४। से करो ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(सभा) अ० ४।२१।६। विद्वद्भिः प्रकाशमानः समाजः (च) (मा) मां सभापतिम् (समितिः) अ० ६।६४।२। एकता। एकात्मता (प्रजापतेः) प्रजारक्षकस्य पुरुषार्थस्य (दुहितरौ) अ० ३।१०।१३। दुह प्रपूरणे-तृच्। प्रपूरयित्र्यौ। पुत्रीवत् हितकारिण्यौ (संविदाने) अ० २।२८।२। संगच्छमाने (येन) पुरुषेण सह (संगच्छै) संगतो भवानि (उप) आदरे (मा) माम् (सः) पुरुषः (शिक्षात्) शकेः सन्नन्तात् लेट्। शक्तं समर्थं कुर्य्यात् (चारु) अ० २।५।१। मनोहरम् (वदानि) कथयानि (पितरः) हे पालका विद्वांसः (संगतेषु) सम्मेलनेषु ॥

०२ विद्म ते

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वि॒द्म ते॑ सभे॒ नाम॑ न॒रिष्टा॒ नाम॒ वा अ॑सि।
ये ते॒ के च॑ सभा॒सद॑स्ते मे सन्तु॒ सवा॑चसः ॥

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Whitney
Translation
  1. We know thy name, O assembly; verily sport (naríṣṭā) by name art
    thou; whoever are thine assembly-sitters, let them be of like speech
    with me.
Notes

Ppp. reads very differently: veda vāi sabhe te nāma subhadrā ’si
sarasvati: atho ye te sabhāsadaḥ suvācasaḥ
. Our Bp. also reads
súvācasas. The comm. takes nariṣṭā as na-riṣṭā ’not injured.’ The
Anukr. ignores the deficiency of a, as the redundancy of 3 a.

Griffith

We know thy name, O Conference: thy name is interchange of talk. Let all the company who join the Conference agree with me.

पदपाठः

वि॒द्म। ते॒। स॒भे॒। नाम॑। न॒रिष्टा॑। नाम॑। वै। अ॒सि॒। ये। ते॒। के। च॒। स॒भा॒ऽसदः॑। ते। मे॒। स॒न्तु॒। सऽवा॑चसः। १३.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सभा
  • शौनकः
  • अनुष्टुप्
  • शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के कर्तव्यों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सभे) हे सभा ! (ते) तेरा (नाम) नाम (विद्म) हम जानते हैं, तू (नरिष्टा) नरों की इष्ट देवी (वै) ही (नाम) नामवाली (असि) है। (न) और (ये के) जो कोई (ते) तेरे (सभासदः) सभासद् हैं, (ते) वे सब (मे) मेरे लिये (सवाचसः) एकवचन (सन्तु) होवें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - उसी सभा से मनुष्यों का इष्ट सिद्ध होता है, जहाँ पर सभापति और सभासद् एक मन होकर धर्म का प्रचार करते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(विद्म) अ० १।२।१। वयं जानीमः (ते) तव (सभे) (नाम) नामधेयम् (नरिष्टा) नर+इष्टा। शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्। वा० पा० ६।१।९४। इति पररूपम्। नराणामिष्टा हिता (नाम) नाम्ना (वै) खलु (असि) वर्तसे (ये के) ये केचित् (ते) तव (सभासदः) सभ्याः (ते) सामाजिकाः (मे) मह्यम् (सन्तु) (सवाचसः) समानवाक्याः। एकवचनाः ॥

०३ एषामहं समासीनानाम्

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ए॒षाम॒हं स॒मासी॑नानां॒ वर्चो॑ वि॒ज्ञान॒मा द॑दे।
अ॒स्याः सर्व॑स्याः सं॒सदो॒ मामि॑न्द्र भ॒गिनं॑ कृणु ॥

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Whitney
Translation
  1. Of these that sit together I take to myself the splendor, the
    discernment (vijñā́na); of this whole gathering (saṁsád) make me, O
    Indra, possessor of the fortune (bhagín).
Notes
Griffith

Of these men seated here I make the splendour and the lore mine own. Indra, make me conspicuous in all this gathered company.

पदपाठः

ए॒षाम्। अ॒हम्। स॒म्ऽआसी॑नानाम्। वर्चः॑। वि॒ऽज्ञान॑म्। आ। द॒दे॒। अ॒स्याः। सर्व॑स्याः। स॒म्ऽसदः॑। माम्। इ॒न्द्र॒। भ॒गिन॑म्। कृ॒णु॒। १३.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • शौनकः
  • अनुष्टुप्
  • शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के कर्तव्यों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) मैं [सभापति] (एषाम्) इन (सभासीनानाम्) यथावत् बैठे हुए पुरुषों का (वर्चः) तेज और (विज्ञानम्) विज्ञान (आ ददे) अङ्गीकार करता हूँ। (इन्द्र) हे परमेश्वर ! (माम्) मुझको (अस्याः) इस (सर्वस्याः संसदः) सब सभा का (भगिनम्) ऐश्वर्यवान् (कृणु) कर ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जहाँ सभापति और सब सभासद् एकमन होकर अपना पराक्रम और विज्ञान अर्थात् सूक्ष्म विचार बढ़ाते हैं, वहाँ पर सब ऐश्वर्यवान् होते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(एषाम्) पुरोवर्तिनाम् (अहम्) सभापतिः (समासीनानाम्) आस उपवेशने-शानच्। ईदासः। पा० ७।२।८३। आकारस्य ईकारः। यथावदुपविष्टानाम् (वर्चः) तेजः। पराक्रमम् (आ ददे) अङ्गीकरोमि (अस्याः) पुरः स्थितायाः (सर्वस्याः) (संसदः) सभायाः (माम्) (इन्द्र) हे परमेश्वर (भगिनम्) ऐश्वर्यवन्तम् (कृणु) कुरु ॥

०४ यद्वो मनः

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यद्वो॒ मनः॒ परा॑गतं॒ यद्ब॒द्धमि॒ह वे॒ह वा॑।
तद्व॒ आ व॑र्तयामसि॒ मयि॑ वो रमतां॒ मनः॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. Your mind that is gone away, that is bound either here or here—that
    of you we cause to turn hither; in me let your mind rest.
Notes

This verse does not appear to have anything to do with the rest of the
hymn.

Griffith

Whether your thoughts are turned away, or bound and fastened here or there, We draw them hitherward again: let your mind firmly rest on me.

पदपाठः

यत्। वः॒। मनः॑। परा॑ऽगतम्। यत्। ब॒ध्दम्। इ॒ह। वा॒। इ॒ह। वा॒। तत्। वः॒। आ। व॒र्त॒या॒म॒सि॒। मयि॑। वः॒। र॒म॒ता॒म्। मनः॑। १३.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मनः
  • शौनकः
  • अनुष्टुप्
  • शत्रुनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सभापति के कर्तव्यों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे सभासदो !] (यत्) जो (वः) तुम्हारा (मनः) मन (परागतम्) उचट गया है, (वा) अथवा (यत्) जो (इह वा इह) इधर-उधर [प्रतिकूल विषयों में] (बद्धम्) बँधा हुआ है। (वर्तयामसि) हम लौटाते हैं [जिससे] (वः मनः) तुम्हारा मन (मयि) मुझ में (रमताम्) ठहर जावे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सभापति अपनी विशेष विज्ञानता से सभासदों का ध्यान निर्धारित विषय पर खींच कर कार्यसिद्धि करे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(यत्) (वः) युष्माकम् (मनः) मननम् (परागतम्) धर्मविषयादन्यत्र गतम् (यत्) (बद्धम्) संसक्तम् (इह वा इह) इतस्ततः। अनिश्चितविषये (वा) अथवा (तत्) मनः (वः) युष्माकम् (आ) आकृष्य (वर्तयामसि) अभिमुखं कुर्मः (मयि) प्रधाने (वः) (रमताम्) रमु उपरमे। तिष्ठतु (मनः) ॥