००८ शत्रुनाशनम्

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Whitney subject

8 (9). For some one’s success.

VH anukramaṇī

शत्रुनाशनम्।
१ उपरिबभ्रवः। बृहस्पतिः। त्रिष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Uparibabhrava.—bārhaspatyam. trāiṣṭubham.]

Whitney

Comment

Found also in Pāipp. xx. Kāuś. (42. 1) prescribes its use when setting out upon a business journey; and the comm. quotes it from Cānti Kalpa 15, as accompanying various ceremonies for Bṛhaspati.

Translations

Translated: Ludwig, p. 431; Henry, 4, 52; Griffith, i. 331.

Griffith

Godspeed to a departing traveller

०१ भद्रादधि श्रेयः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

भ॒द्रादधि॒ श्रेयः॒ प्रेहि॒ बृह॒स्पतिः॑ पुरए॒ता ते॑ अस्तु।
अथे॒मम॒स्या वर॒ आ पृ॑थि॒व्या आ॒रेश॑त्रुं कृणुहि॒ सर्व॑वीरम् ॥

०१ भद्रादधि श्रेयः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Go thou forth from what is excellent to what is better; be Brihaspati
    thy forerunner. Then do thou make this man, on the width of this earth,
    remote from foes, with all his heroes.
Notes

Literally (d) ‘having his foes at a distance, having his heroes
whole.’ The verse occurs also in TS. (i. 2. 3³), śśS. (v. 6. 2), and
AśS. (iv. 4. 2), with abhí for ádhi in a, and, as c, d,
áthe ’m áva sya vára ā́ pṛthivyā́ āré śátrūn kṛṇuhi sárvavīraḥ; and its
pratīka (with abhi) in KB. (vii. 10), and Āp. (x. 19. 8); and compare
MB. ii. 1. 13. The comm. takes āre and śatrum as two independent
words. Ppp. shows no variants. The first pāda lacks three syllables of
being triṣṭubh.

Griffith

Go forward on thy way from good to better: Brihaspati pre- cede thy steps and guide thee! Place this man here, within this earth’s enclosure, afar from foes with all his men about him.

पदपाठः

भ॒द्रात्। अधि॑। श्रेयः॑। प्र। इ॒हि॒। बृह॒स्पतिः॑। पु॒रः॒ऽए॒ता। ते॒। अ॒स्तु॒। अथ॑। इ॒मम्। अ॒स्याः। वरे॑। आ। पृ॒थि॒व्याः। आ॒रेऽश॑त्रुम्। कृ॒णु॒हि॒। सर्व॑ऽवीरम्। ९.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • उपरिबभ्रवः
  • त्रिष्टुप्
  • उपरिबभ्रव सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

आत्मा की उन्नति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (भद्रात्) एक मङ्गल कर्म से (श्रेयः) अधिक मङ्गलकारी कर्म को (अधि) अधिकारपूर्वक (प्र इहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हो, (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े लोकों का पालक परमेश्वर (ते) तेरा (पुरएता) अग्रगामी (अस्तु) होवे। (अथ) फिर तू (इमम्) इस [अपने आत्मा] को (अस्याः पृथिव्याः) इस पृथिवी के (वरे) श्रेष्ठ फल में (आरेशत्रुम्) शत्रुओं से दूर (सर्ववीरम्) सर्ववीर, सब में वीर (आ) सब ओर से (कृणुहि) बना ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य परमेश्वर के आश्रय से अधिक-अधिक उन्नति करते हुए आगे बढ़े जाते हैं, वे ही सर्ववीर निर्विघ्नता से अपना जीवन सुफल करते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(भद्रात्) मङ्गलात्कर्मणः (अधि) अधिकृत्य (श्रेयः) प्रशस्य-ईयसुन्। प्रशस्यतरं कर्म (प्र) प्रकर्षेण (इहि) प्राप्नुहि (बृहस्पतिः) बृहतां लोकानां पालकः परमेश्वरः (पुरएता) अग्रगामी (ते) तव (अथ) अनन्तरम् (अस्याः) दृश्यमानायाः (वरे) वरणीये फले (आ) समन्तात् (पृथिव्याः) भूलोकस्य (आरेशत्रुम्) आरे दूरे शत्रवो यस्य तम् (कृणुहि) कृवि हिंसाकरणयोः। कुरु। (सर्ववीरम्) सर्वेषु वीरम्। एकवीरम् ॥