००१ आत्मा ...{Loading}...
Whitney subject
- Mystic.
VH anukramaṇī
आत्मा।
१-२ अथर्वा (ब्रह्मवर्चसकामः) । आत्मा। त्रिष्टुप्, २ विराड् जगती।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan (brahmavarcasahāmaḥ).—dvyṛcam. ātmadevatyam. trāiṣṭubham: 2. virāḍjagatī.]
Whitney
Comment
Found also in Pāipp. xx. Used by Kāuś. (41. 8), with iii. 20 and v. 7, in a rite for success in gaining wealth; and again (59. 17), with v. 2, in one of the ceremonies for obtaining various objects of desire (kāmyāni), with worship of Indra and Agni.
Translations
Translated: Henry, i, 47; Griffith, i. 327.
Griffith
Glorification of the power of prayer and to Agni
०१ धीती वा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
धी॒ती वा॒ ये अन॑यन्वा॒चो अग्रं॒ मन॑सा वा॒ येऽव॑दन्नृ॒तानि॑।
तृ॒तीये॑न॒ ब्रह्म॑णा वावृधा॒नास्तु॒रीये॑णामन्वत॒ नाम॑ धे॒नोः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
धी॒ती वा॒ ये अन॑यन्वा॒चो अग्रं॒ मन॑सा वा॒ येऽव॑दन्नृ॒तानि॑।
तृ॒तीये॑न॒ ब्रह्म॑णा वावृधा॒नास्तु॒रीये॑णामन्वत॒ नाम॑ धे॒नोः ॥
०१ धीती वा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- They either who by meditation led the beginning (ágra) of speech,
or who by mind spoke righteous things (ṛtá)—they, increasing with the
third incantation (bráhman), perceived (man) with the fourth the
name of the milch cow.
Notes
The book, like some of those preceding, begins with mystic, obscure, and
un-Atharvanic material. The comm. has no idea what it means, and sets
forth his ignorance at immense length, giving about five quarto pages of
exposition to this first hymn, with wholly discordant alternative
explanations. The verse occurs also in śśS. (xv. 3. 7), with
saṁvidānās for vāvṛdhānās in c, and manvata in d. For
’vadann in b Ppp. has vadeyann, and turyeṇa at beginning of
d. For pāda a cf. RV. x. 71. 1; for d, RV. iv. 1. 16 and v.
40. 6. The commentary to Prāt. i. 74 quotes dhītī́ as an ī-form with
non-pragṛhya final, because not locative; and the pada-text does not
treat it as pragṛhya.
Griffith
They who by thought have guided all that Speech hath best, or they who with their heart have uttered words of truth, Made stronger by the strength which the third prayer bestows, have by the fourth prayer learned the nature of the Cow.
पदपाठः
धी॒ती। वा॒। ये। अन॑यन्। वा॒चः। अग्र॑म्। मन॑सा। वा॒। ये। अव॑दन्। ऋ॒तानि॑। तृ॒तीये॑न। ब्रह्म॑णा। व॒वृ॒धा॒नाः। तु॒रीये॑ण। अ॒म॒न्व॒त॒। नाम॑। धे॒नोः। .१.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आत्मा
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जिन लोगों ने [एक] (धीती) अपने कर्म से (वाचः) वेदवाणी के (अग्रम्) श्रेष्ठपन को (वा) निश्चय करके (अनयन्) पाया है, (वा) और (ये) जिन्होंने [दूसरे] (मनसा) विज्ञान से (ऋतानि) सत्य वचन (अवदन्) बोले हैं और जो (तृतीयेन) तीसरे [हमारे कर्म और विज्ञान से परे] (ब्रह्मणा) प्रवृद्ध ब्रह्म [परमात्मा] के साथ (वावृधानाः) वृद्धि करते रहे हैं, उन लोगों ने (तुरीयेण) चौथे [कर्म विज्ञान और ब्रह्म से अथवा धर्म, अर्थ और काम से प्राप्त मोक्ष पद] के साथ (धेनोः) तृप्त करनेवाली शक्ति, परमात्मा के (नाम) नाम अर्थात् तत्त्व को (अमन्वत) जाना है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो योगी जन वेद के तत्त्व को जानकर कर्म करते, और विज्ञानपूर्वक सत्य का उपदेश करके परमेश्वर की अपार महिमा को खोजते आगे बढ़ते जाते हैं, वे ही मोक्ष पद पाकर परमात्मा की आज्ञा में विचरते हुए स्वतन्त्रता से आनन्द भोगते हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(धीती) धीङ् आधारे-क्तिन्, यद्वा दधातेः-क्तिन्। घुमास्थागा०। पा० ६।४।६६। इति ईत्वम्। सुपां सुलुक्०। इति तृतीयायाः पूर्वसवर्णदीर्घः। धीत्या कर्मणा। धीतिभिः=कर्मभिः-निरु० ११।१६। (वा) अवधारणे (ये) जिज्ञासवः (अनयन्) प्राप्नुवन् (वाचः) वेदवाण्याः (अग्रम्) प्रधानत्वम् (मनसा) विज्ञानेन (वा) समुच्चये (ये) सूक्ष्मदर्शिनः (अवदन्) उपदिष्टवन्तः (ऋतानि) सत्यवचनानि (तृतीयेन) त्रित्वपूरकेण। धीतिमनोभ्यां परेण (ब्रह्मणा) प्रवृद्धेन परमात्मना (वावृधानाः) अ० १।८।४। वृद्धिं कुर्वाणाः, आसन् इति शेषः (तुरीयेण) अ० १।३१।३। चतुर्-छ। चतुर्थेन धीतिमनोब्रह्मभ्यः प्राप्तेन, यद्वा धर्मार्थकामानां पूरकेण मोक्षेण (अमन्वत) मनु अवबोधने। ज्ञातवन्तः (नाम) अ० १।२४।३। म्ना अभ्यासे-मनिन्। प्रसिद्धं परमात्मतत्त्वम् (धेनोः) अ० ३।१०।१। धेनुर्धयतेर्वा धिनोतेर्वा-निरु० ११।४२। धि धारणे तर्पणे च-नु। धारयित्र्यास्तर्पयित्र्या वा शक्तेः परमात्मनः ॥
०२ स वेद
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स वे॑द पु॒त्रः पि॒तरं॒ स मा॒तरं॒ स सू॒नुर्भु॑व॒त्स भु॑व॒त्पुन॑र्मघः।
स द्यामौ॑र्णोद॒न्तरि॑क्षं॒ स्वः१॒॑ स इ॒दं विश्व॑मभव॒त्स आभ॑वत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स वे॑द पु॒त्रः पि॒तरं॒ स मा॒तरं॒ स सू॒नुर्भु॑व॒त्स भु॑व॒त्पुन॑र्मघः।
स द्यामौ॑र्णोद॒न्तरि॑क्षं॒ स्वः१॒॑ स इ॒दं विश्व॑मभव॒त्स आभ॑वत् ॥
०२ स वेद ...{Loading}...
Whitney
Translation
- He, [as a] son, knows his father, he his mother; he is (bhuvat) a
son (sūnú), he is one of generous returns (? púnarmagha); he
enveloped the sky, the atmosphere, he the heaven (svàr); he became
this all; he came to be here (ā-bhū).
Notes
This verse is found also in TS. (ii. 2. 12¹) and TB. (iii. 5. 7²), with
difference of reading only in the second half, where they have āúrṇod
antárikṣaṁ sá súvaḥ sá víśvā bhúvo abh-. Ppp. so far agrees with them
as to have, for d, viśvām bhuvo ‘bhavat svābhuvat. The comm., in
b, takes punarmaghas first as two separate words (magha =
dhana) and then as a compound, “with wealth repeatedly increased in
spite of giving of much wealth to his praisers.” The comment to TS. says
punaḥ-punar yajamānāya dātavyaṁ dhanaṁ yasya. The verse lacks two
syllables of being a full jagatī.
Griffith
Well knows this son his sire, he knows his mother well: he hath been son, and he hath been illiberal. He hath encompassed heaven, and air’s mid-realm, and sky; he hath become this All; he hath come nigh to us.
पदपाठः
सः। वे॒द॒। पु॒त्रः। पि॒तर॑म्। सः। मा॒तर॑म्। सः। सू॒नुः। भु॒व॒त्। सः। भु॒व॒त्। पुनः॑ऽमघः। सः। द्याम्। औ॒र्णो॒त्। अ॒न्तरि॑क्षम्। स्वः᳡। सः। इ॒दम्। विश्व॑म्। अ॒भ॒व॒त्। सः। आ। अ॒भ॒व॒त्। १.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आत्मा
- अथर्वा
- विराड्जगती
- आत्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह (पुत्रः) अनेक प्रकार रक्षा करनेवाला परमेश्वर (पितरम्) पालन के हेतु सूर्य को (सः) वह (मातरम्) निर्माण के कारण भूमि को (वेद) जानता है, (सः) वह (सूनुः) सर्वप्रेरक (भुवत्) है, (सः) वह (पुनर्मघः) वारंवार धनदाता (भुवत्) है। (सः) उसने (अन्तरिक्षम्) आकाश और (द्याम्) प्रकाशमान (स्वः) सूर्यलोक को (और्णोत्) घेर लिया है, (सः) वह (इदम्) इस (विश्वम्) जगत् में (अभवत्) व्याप रहा है, (सः) वही (आ) समीप होकर (अभवत्) वर्तमान हुआ है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा सूर्य, पृथिवी आदि ब्रह्माण्ड में व्याप कर सबका धारण कर रहा है, वही हम में भरपूर है, ऐसा समझनेवाले पुरुष आत्मबल पाकर पुरुषार्थी होते हैं ॥२॥ इस मन्त्र का मिलान-अ० २।२८।४। से भी करो ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(सः) प्रजापतिः (वेद) वेत्ति (पुत्रः) अ० १।११।५। पुत्रः पुरु त्रायते-निरु० २।११। बहुत्राता (पितरम्) अ० २।२८।४। पालनहेतुं सूर्यम् (मातरम्) अ० २।२८।४। निर्मात्रीं पृथिवीम् (सूनुः) अ० ६।१।२। सर्वस्य प्रेरकः (भुवत्) भवति (पुनर्मघः) अ० ५।११।१। वारंवारं धनदाता (द्याम्) अ० १।२।४। द्योतमानम् (और्णोत्) ऊर्णुञ् आच्छादने-लङ्। आच्छादितवान् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (स्वः) अ० २।५।२। स्वरादित्यो भवति सु अ रणः सु ईरणः निरु० २।१४। आदित्यम् (सः) (इदम्) दृश्यमानम् (विश्वम्) जगत् (अभवत्) भू व्याप्तौ। व्याप्नोत् (आ) समीपे (अभवत्) वर्तते स्म ॥