१३९ सौभाग्यवर्धनम्

१३९ सौभाग्यवर्धनम् ...{Loading}...

Whitney subject
  1. To compel a woman’s love.
VH anukramaṇī

सौभाग्यवर्धनम्।
१-५ अथर्वा। वनस्पतिः। अनुष्टुप्, १ त्र्यवसाना षट् पदा विराड् जगती।

Whitney anukramaṇī

[Atharvan.—pañcarcam. vānaspatyam. ānuṣṭubham: 1. 3-av. 6-p. virāḍjagatī.]

Whitney

Comment

The hymn is wanting in Pāipp. Kāuś. (36. 12) uses it in a women’s rite, with vi. 129 and vii. 38: see under the former.

०१ न्यस्तिका रुरोहिथ

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

न्य॑स्ति॒का रु॑रोहिथ सुभगं॒कर॑णी॒ मम॑।
श॒तं तव॑ प्रता॒नास्त्रय॑स्त्रिंशन्निता॒नाः।
तया॑ सहस्रप॒र्ण्या हृद॑यं शोषयामि ते ॥

०१ न्यस्तिका रुरोहिथ ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Nyastikā́ hast thou grown up, my good-fortune maker; a hundred
    [are] thy forth-stretchers, three and thirty thy down-stretchers. With
    this thousand-leafed [herb] I make dry thy heart.
Notes

The great majority of mss. (including of ours all but Bp.D.R.Kp.) read
subhāgaṁk- in b, and this appears to be probably the true
saṁhitā-reading, with -bhag- for pada-reading, although neither
the Prāt. nor its commentary notes the case; SPP’s edition, like ours,
reads -bhag-. The comm. explains nyastikā as nitarām asyantī
‘casting downward’ (namely, any omen of ill-fortune). OB. takes it as a
fem. of nyasta-ka ‘stuck in’; perhaps rather diminutive of nyasta,
as if ‘something thrown down, cast away, insignificant.’ The comm.
understands the plant intended to be the śan̄khapuṣpikā (Andropogon
aciculatus:
“creeping; grows on barren moist pasture-ground. Of very
coarse nature. I never found it touched by cattle.” Roxburgh). The comm.
ends vs. 1 with the fourth pāda, adding the other two to vs. 2.

Griffith

Thou hast grown up, a source of joy to bless me with pros- perity. A hundred are thy tendrils, three-and-thirty thy descending shoots. With this that bears a thousand leaves I dry thy heart and wither it.

पदपाठः

नि॒ऽअ॒स्ति॒का। रु॒रो॒हि॒थ॒। सु॒भ॒ग॒म्ऽकर॑णी। मम॑। श॒तम्। तव॑। प्र॒ऽता॒नाः। त्रयः॑ऽत्रिंशत्। नि॒ऽता॒नाः। तया॑। स॒ह॒स्र॒ऽप॒र्ण्या। हृद॑यम्। शो॒ष॒या॒मि॒। ते॒। १३९.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • त्र्यवसाना षट्पदा विराड्जगती
  • सौभाग्यवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्या !] (न्यस्तिका) नित्य प्रकाशमान और (मम) मेरी (सुभगंकरणी) सुन्दर ऐश्वर्य करनेवाली तू (रुरोहिथ) प्रकट हुई है। (ते) तेरे (प्रतानाः) उत्तम फैलाव (शतम्) सौ [अनेक], और (नितानाः) नियमित विस्तार (त्रयस्त्रिंशत्) तैंतीस [तैंतीस देवताओं के जतानेवाले] हैं। [हे ब्रह्मचारिणि !] (तया) उस (सहस्रपर्ण्या) सहस्रों पालन शक्तिवाली विद्या से (ते) तेरे (हृदयम्) हृदय को (शोषयामि) मैं सुखाता हूँ [प्रेममग्न करता हूँ] ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ब्रह्मचारी समावर्तन के पश्चात् यथार्थ विद्या से संसार के सब पदार्थ और तैंतीस देवताओं का ज्ञान प्राप्त करके अपने सदृश विदुषी स्त्री से विवाह की कामना करे। तैंतीस देवता यह हैं−८ वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौः वा प्रकाश, चन्द्रमा और नक्षत्र, ११ रुद्र अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, और धनञ्जय, यह दश प्राण और ग्यारहवाँ जीवात्मा, १२ आदित्य अर्थात् महीने १ इन्द्र अर्थात् बिजुली, १ प्रजापति अर्थात् यज्ञ−ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषय, पृष्ठ ६६-६८ ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(न्यस्तिका) वृतेस्तिकन्। उ० ३।१४६। नि+अस दीप्तौ−तिकन्। नितरां दीप्यमाना विद्या (रुरोहिथ) प्रादुर्बभूविथ (सुभगंकरणी) आढ्यसुभग०। पा–० ३।२।५६। इति करोतेः ख्युन्। खित्यनव्ययस्य। पा० ६।३।६६। इति पूर्वपदस्य मुम्। टिड्ढाणञ्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। सौभाग्यं कुर्वती (मम) (शतम्) बहु (तव) (प्रतानाः) प्रकृष्टविस्ताराः (त्रयस्त्रिंशत्) एतत्संख्यानां देवानामुपकारकत्वात् तत्संख्या (नितानाः) नियमितविस्ताराः (तया) (सहस्रपर्ण्या) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति पॄ पालनपूरणयोः−न। बहुपालनशक्त्या विद्यया (हृदयम्) (शोषयामि) परितप्तं प्रेममग्नं करोमि (ते) तव ॥

०२ शुष्यतु मयि

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शुष्य॑तु॒ मयि॑ ते॒ हृद॑य॒मथो॑ शुष्यत्वा॒स्य᳡म्।
अथो॒ नि शु॑ष्य॒ मां कामे॒नाथो॒ शुष्का॑स्या चर ॥

०२ शुष्यतु मयि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let thy heart dry up on me, then let [thy] mouth dry up; then dry
    thou up by loving me; then go thou about dry-mouthed.
Notes

Read perhaps rather māṁ-kāména. Two pādas count an extra syllable
each.

Griffith

Let thy heart wither for my love and let thy month be dry for me. Parch and dry up with longing, go with lips that love of me hath dried.

पदपाठः

शुष्य॑तु। मयि॑। ते॒। हृद॑यम्। अथो॒ इति॑। शु॒ष्य॒तु॒। आ॒स्य᳡म्। अथो॒ इति॑। नि। शु॒ष्य॒। माम्। कामे॑न। अथो॒ इति॑। शुष्क॑ऽआस्या। च॒र॒। १३९.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • सौभाग्यवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे ब्रह्मचारिणि !] (मयि) मेरे विषय में (ते हृदयम्) तेरा हृदय (शुष्यतु) सूख जावे, (अथो) और (आस्यम्) मुख (शुष्यतु) सूख जावे। (अथो) और भी (माम्) मुझ को (कामेन) अपने प्रेम से (नि) नित्य (शुष्य) सुखा, (अथो) और तू भी (शुष्कास्या) सूखे मुखवाली होकर (चर) विचर ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् वर और कन्या परस्पर गुणों का परिचय करके वाचिक और मानसिक प्रेम से गृह आश्रम में प्रवेश करने की चेष्टा करें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(शुष्यतु) परितप्तं प्रेममग्नं भवतु (मयि) मद्विषये (ते) तव (हृदयम्) (अथो) अपि च (शुष्यतु) (आस्यम्) मुखम् (अथो) (नि) नित्यम् (शुष्य) शोषय (माम्) वरम् (कामेन) प्रेम्णा (अथो) (शुष्कास्या) परितप्तवदना (चर) गच्छ ॥

०३ संवननी समुष्पला

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सं॒वन॑नी समुष्प॒ला बभ्रु॒ कल्या॑णि॒ सं नु॑द।
अ॒मूं च॒ मां च॒ सं नु॑द समा॒नं हृद॑यं कृधि ॥

०३ संवननी समुष्पला ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. A conciliator, a love-awakener (?), do thou, O brown, beauteous one,
    push together; push together both yon woman and me; make [our] heart
    the same.
Notes

The mss. hardly distinguish ṣy and ṣp, but ours, in general, seem,
as distinctly as the case admits, to read samuṣyalā́ in a; yet SPP.
has -uṣpa- (noting one ms. as reading -uṣya-), and, as he has living
scholars among his authorities, the probability is that he is right.
Save here and at xiv. 1. 60 (úṣyalāni or úṣpa-), the word appears to
be unknown. The comm. gives a worthless mechanical etymology, samyak
uptaphalā satī
. ⌊is samubjalā́ (root ubj) intended, as a marginal
note of Mr. Whitney’s suggests?⌋ Our P.M.I. read amúm at beginning of
c.

Griffith

Drive us together, tawny! fair! a go-between who wakens love. Drive us together, him and me, and give us both one heart and mind.

पदपाठः

स॒म्ऽवन॑नी। स॒म्ऽउ॒ष्प॒ला। बभ्रु॑। कल्या॑णि। सम्। नु॒द॒। अ॒मूम्। च॒। माम्। च॒। सम्। नु॒द॒। स॒मा॒नम्। हृद॑यम्। कृ॒धि॒। १३९.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • सौभाग्यवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बभ्रु) हे पालनशील ! (कल्याणि) हे मङ्गलकारिणी विद्या ! (संवननी) यथावत् सेवनीय और (समुष्पला) यथाविधि निवास की रक्षा करनेहारी तू [हम दोनों को] (सम्) मिला कर (नुद) आगे बढ़ा। (अमूम्) उस [विदुषी] को (च च) और (माम्) मुझ को (सम्) मिला कर (नुद) आगे बढ़ा, [हम दोनों के] (हृदयम्) हृदय को (समानम्) एक (कृधि) कर दे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो स्त्री-पुरुष पूर्ण विद्वान् होकर गृहस्थ बनते हैं, वे ही परस्पर उपकार करके सदा सुखी रहते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(संवननी) सम्यक् सेवनीया (समुष्पला) वस निवासे−क्विप्। वचिस्वपियजादीनां किति। पा० ६।१।१५। इति सम्प्रसारणम्। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति षत्वम्। पल गतौ रक्षणे−अच्, टाप्। सम्यग् उषो गृहस्य पला पालयित्री विद्या (बभ्रु) अ० ४।२९।२। डुभृञ् कु, ऊङ्। अम्बार्थनद्योर्ह्रस्वः। पा० ७।३।१०७। इति ह्रस्वः। हे पालनशीले (कल्याणि) हे मङ्गलकारिणि विद्ये (सम्) संयोज्य (नुद) प्रवर्तय (अमूम्) विदुषीम् (च) (माम्) विद्वांसम् (समानम्) एकम् (हृदयम्) (कृधि) ॥

०४ यथोदकमपपुषोऽपशुष्यत्यास्यम् एवा

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यथो॑द॒कमप॑पुषोऽप॒शुष्य॑त्या॒स्य᳡म्।
ए॒वा नि शु॑ष्य॒ मां कामे॒नाथो॒ शुष्का॑स्या चर ॥

०४ यथोदकमपपुषोऽपशुष्यत्यास्यम् एवा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. As the mouth of one who has not drunk water dries away, so dry thou
    up by loving me, then go thou about dry-mouthed.
Notes

The third pāda has a redundant syllable.

Griffith

Even as his mouth is parched who finds no water for his burn- ing thirst, So parch and burn with longing, go with lips that love of me hath dried.

पदपाठः

यथा॑। उ॒द॒कम्। अप॑पुषः। अ॒प॒ऽशुष्य॑ति। आ॒स्य᳡म्। ए॒व। नि। शु॒ष्य॒। माम्। कामे॑न। अथो॒ इति॑। शुष्क॑ऽआस्या। च॒र॒। १३९.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • सौभाग्यवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जैसे (उदकम्) जल को (अपपुषः) न पीनेवाले पुरुष का (आस्यम्) मुख (अपशुष्यति) सूख जाता है। (एव) वैसे ही (माम्) मुझ को (कामेन) अपने प्रेम से (नि) नित्य (शुष्य) सुखा (अथो) और तू भी (शुष्कास्या) सूखे मुखवाली होकर (चर) विचर ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे अति प्यासे मनुष्य को जल की बड़ी चिन्ता रहती है, वैसे ही पति-पत्नी पूर्ण प्रीति से एक दूसरे का ध्यान रक्खें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(यथा) येन प्रकारेण (उदकम्) जलम् (अपपुषः) पा पाने−लिटः क्वसुः। अपीतवतस्तृषितस्य पुरुषस्य (अपशुष्यति) शुष्कं भवति (आस्यम्) मुखम् (एव) एवम्। अन्यद्गतम्−म० २ ॥

०५ यथा नकुलो

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यथा॑ नकु॒लो वि॒च्छिद्य॑ सं॒दधा॒त्यहिं॒ पुनः॑।
ए॒वा काम॑स्य॒ विच्छि॑न्नं॒ सं धे॑हि वीर्यावति ॥

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Whitney
Translation
  1. As a mongoos, having cut apart, puts together again a snake, so, O
    powerful [herb], put together the divided of love.
Notes

This capacity of the mongoos is unknown to naturalists, nor have any
references to it been noted elsewhere.

Griffith

Even as the Mungoose bites and rends and then restores the wounded snake, So do thou, Mighty one, restore the fracture of our severed love.

पदपाठः

यथा॑। न॒कु॒लः। वि॒ऽछिद्य॑। स॒म्ऽदधा॑ति। अहि॑म्। पुनः॑। ए॒व। काम॑स्य। विऽछि॑न्नम्। सम्। धे॒हि॒। वी॒र्य॒ऽव॒ति॒। १३९.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • सौभाग्यवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जैसे (नकुलः) कुत्सित कर्म न ग्रहण करनेवाला, नेवला (अहिम्) साँप को (विच्छिद्य) टुकड़े-टुकड़े करके (पुनः) फिर (सन्दधाति) समाहितचित्त हो जाता है। (एव) वैसे ही (वीर्यवति) हे बलवती ! (कामस्य) कामना के (विच्छिन्नम्) घाव को (संधेहि) भर दे ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे नेवला जन्तु साँप को मार कर आप स्वस्थ और शान्त हो जाता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष विदुषी पत्नी को पाकर दुःख नाश करके आनन्द भोगता है ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(यथा) (नकुलः) न+कु+ला आदाने−क। नभ्राण्नपान्नवेदा०। पा० ६।३।७५। इति नञः प्रकृतिभावः। न कु कुत्सितं कर्म लाति गृह्णातीति यः स नकुलः। जन्तुविशेषः (विच्छिद्य) खण्डशः कृत्वा (संदधाति) समाहितः स्वस्थो भवति (अहिम्) आहन्तारं सर्पम् (पुनः) अनन्तरम् (एव) एवम् (कामस्य) प्रेम्णः (विच्छिन्नम्) अवखण्डितं क्षतम् (संधेहि) संयोजय (वीर्यवति) हे बलवति ॥