१३१ स्मरः ...{Loading}...
Whitney subject
- To win a man’s love.
VH anukramaṇī
स्मरः।
१-३ अथर्वाङ्गिराः। स्मरः। अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Atharvān̄giras.—smaradevatākam. ānuṣṭubham.]
Whitney
Comment
Not found in Pāipp. (like the preceding and the following hymn). Used by Kāug. only with the preceding and the following hymn (see under the former).
Translations
Translated: Weber, Ind. Stud. v. 244; Grill, 58, 175; Griffith, i. 318; Bloomfield, 104, 535.
०१ नि शीर्षतो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
नि शी॑र्ष॒तो नि प॑त्त॒त आ॒ध्यो॒३॒॑ नि ति॑रामि ते।
देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
नि शी॑र्ष॒तो नि प॑त्त॒त आ॒ध्यो॒३॒॑ नि ति॑रामि ते।
देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
०१ नि शीर्षतो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Down from the head, down from the feet, thy longings (ādhī́) I draw
down. Ye gods, send forth love; let yon [man] burn for me.
Notes
Again the comm. stupidly (see vs. 3) understands a woman to be
addressed.
Griffith
Down upon thee, from head to foot, I draw the pangs of long- ing love. Send forth the charm, ye Deities! Let him consume with love of me.
पदपाठः
नि। शी॒र्ष॒तः। नि। प॒त्त॒तः। आ॒ऽध्यः᳡। नि। ति॒रा॒मि॒। ते॒। देवाः॑। प्र। हि॒णु॒त॒। स्म॒रम्। अ॒सौ। माम्। अनु॑। शो॒च॒तु॒। १३१.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- स्मरः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- स्मर सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परस्पर पालन का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (ते) तेरे लिये (शीर्षतः) अपने मस्तक [सामर्थ्य] से (नि) निश्चय करके, (पत्ततः) अपने पद [के सामर्थ्य] से (नि) नियम करके (आध्यः) यथावत् ध्यान धर्मों को (नि) लगातार (तिरामि) मैं पार करूँ। (देवाः) हे विद्वानों ! (स्मरम्) स्मरण सामर्थ्य को (प्र) अच्छे प्रकार (हिणुत) बढ़ाओ, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम् अनु) मुझ में व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग द्वारा पूर्ण पुरुषार्थ से स्मरण शक्ति बढ़ाकर सुखी होवे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(नि) निश्चयेन (शीर्षतः) शिरःसामर्थ्यात् (नि) नियमेन (पत्ततः) एकस्तकारश्छान्दसः। पत्तः। पादसामर्थ्यात् (आध्यः) आध्यायते आधीः। ध्यायतेः क्विप् सम्प्रसारणं च। वा० पा० ३।२।१७८। आङ्+ध्यै चिन्तायाम्−क्विप्, शसि रूपम्। सम्यग्ध्यानधर्मान् (नि) निरन्तरम् (तिरामि) मुदादित्वादिकारः। पारं गमयामि। समापयामि। अन्यत् पूर्ववत्−सू० १३० म० १ ॥
०२ अनुमतेऽन्विदं मन्यस्वाकूते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अनु॑मतेऽन्वि॒दं म॑न्य॒स्वाकू॑ते॒ समि॒दं नमः॑।
देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अनु॑मतेऽन्वि॒दं म॑न्य॒स्वाकू॑ते॒ समि॒दं नमः॑।
देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
०२ अनुमतेऽन्विदं मन्यस्वाकूते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- O Anumati, assent to (anu-man) this; O design (‘ā́kūti*), mayest
thou constrain (sam-nam) this. Ye gods, send etc. etc.*
Notes
‘Design’ (ā́kūti) is evidently here a personification
(saṁkalpābhimāninī devatā, comm.), as is often ánumati ‘assent.’ No
ms. reads namas, without accent, and SPP. accordingly prints námas
in his text; ours emends to namas; the comm. takes the word as a noun;
idam in a he explains by madabhilaṣitam. The Anukr. heeds not
that the first pāda is triṣṭubh.
Griffith
Assent to this, O Heavenly Grace! Celestial Purpose, guide it well! Send forth the charm, ye Deities! Let him consume with love of me.
पदपाठः
अनु॑ऽमते। अनु॑। इ॒दम्। म॒न्य॒स्व॒। आऽकू॑ते। सम्। इ॒दम्। नमः॑। देवाः॑। प्र। हि॒णु॒त॒। स्म॒रम्। अ॒सौ। माम्। अनु॑। शो॒च॒तु॒। १३१.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- स्मरः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- स्मर सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परस्पर पालन का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अनुमते) हे अनुकूल बुद्धि ! तू (इदम्) इसको (अनु मन्यस्व) प्रसन्नता से स्वीकार कर, (आकूते) हे उत्साह शक्ति ! (इदम्) यह (नमः) अन्न (सम्) ठीक रीति से [हमारे लिये हो]। (देवाः) हे विद्वानों ! (स्मरम्) स्मरण सामर्थ्य को (प्र) अच्छे प्रकार (हिणुत) बढ़ाओ, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम् अनु) मुझमें व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य बुद्धि और उत्साह के साथ अपने सब काम ठीक-ठीक सिद्ध करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(अनुमते) अ० १।१८।२। हे सहायिके बुद्धे (इदम्) क्रियमाणं कर्म (अनु मन्यस्व) स्वीकुरु (आकूते) हे उत्साहशक्ते−यथा दयानन्दभाष्ये, यजु० ४।७। (सम्) सम्यक् (इदम्) (नमः) अन्नम्−निघ० २।७। अन्यत् पूर्ववत् ॥
०३ यद्धावसि त्रियोजनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यद्धाव॑सि त्रियोज॒नं प॑ञ्चयोज॒नमाश्वि॑नम्।
तत॒स्त्वं पुन॒राय॑सि पु॒त्राणां॑ नो असः पि॒ता ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यद्धाव॑सि त्रियोज॒नं प॑ञ्चयोज॒नमाश्वि॑नम्।
तत॒स्त्वं पुन॒राय॑सि पु॒त्राणां॑ नो असः पि॒ता ॥
०३ यद्धावसि त्रियोजनम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- If (yát) thou runnest three leagues, five leagues, a horseman’s
day’s journey, thence shalt thou come back; thou shalt be father of our
sons.
Notes
The proper division of ā́yasi in c is doubtless ā́: ayasi, which
is, however, read only by one of SPP’s pada-mss.; the others give
ā॰áyasi (cf. ā॰áyati at vi. 60. 2) or ā́॰ayasi, and this last is
adopted by SPP.—quite unaccountably, since such accent and such division
do not properly go together in any pada-text.
Griffith
If thou shouldst run three leagues away, five leagues, a horse’s daily stage, Thence thou shalt come to me again and be the father of our sons.
पदपाठः
यत्। धाव॑सि। त्रि॒ऽयो॒ज॒नम्। प॒ञ्च॒ऽयो॒ज॒नम्। आश्वि॑नम्। ततः॑। त्वम्। पुनः॑। आऽअ॑यसि। पु॒त्राणा॑म्। नः॒। अ॒सः॒। पि॒ता। १३१.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- स्मरः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- स्मर सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परस्पर पालन का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वान् !] (यत्) जो तू (त्रियोजनम्) तीन योजन, (पञ्चयोजनम्) पाँच योजन, अथवा (आश्विनम्) अश्ववार से चलने योग्य देश को (धावसि) दौड़ कर जाता है। (तत) उससे (त्वत्) तू (पुनः) फिर (आयसि) आ। और (नः) हमारे (पुत्राणाम्) पुत्र आदिकों का (पिता) पिता [पालनेवाला] (असः) हो ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् मनुष्य दूर देशों से विद्या और धन प्राप्त करके कुटुम्ब आदि का पालन करे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(यत्) यदि (धावसि) शीघ्रं गच्छसि (त्रियोजनम्) योजनत्रयपरिमितं देशम् (पञ्चयोजनम्) पञ्चयोजनपरिमितं देशम् (आश्विनम्) अश्विन्−अण्। अश्विना अश्ववारेण गन्तव्यं देशम् (ततः) तस्माद्देशात् (पुनः) निवृत्य (आयसि) आगच्छ (पुत्राणाम्) पुत्रादीनाम् (नः) अस्माकम् (असः) भवेः (पिता) पालकः ॥