१३० स्मरः ...{Loading}...
Whitney subject
- To win a man’s love.
VH anukramaṇī
स्मरः।
१-४ अथर्वाङ्गिराः। स्मरः। अनुष्टुप्, १ विराट् पुरस्ताद्बृहती।
Whitney anukramaṇī
[Atharvān̄giras.—caturṛcam. smaradevatāham. ānuṣṭubham: 1. virāṭpurastādbṛhatī.]
Whitney
Comment
Hymns 130-132 are not found in Pāipp. Hymn 130 and the next two are used by Kāug. (36. 13-14) in a women’s rite (duṣṭastrīvaśīkaraṇakarmaṇi, comm. and Keś.), with strewing of beans (comm. and Keś. read māṣān, not māṣasmarān), burning of arrow-tips, and ⌊comm. and Keś.⌋ piercing of an effigy.
Translations
Translated: Weber, Ind. Stud. v. 244; Ludwig, p. 515; Grill, 58, 174; Griffith, i. 317; Bloomfield, 104, 534.
०१ रथजितां राथजितेयीनामप्सरसामयम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
र॑थ॒जितां॑ राथजिते॒यीना॑मप्स॒रसा॑म॒यं स्म॒रः।
देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
र॑थ॒जितां॑ राथजिते॒यीना॑मप्स॒रसा॑म॒यं स्म॒रः।
देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
०१ रथजितां राथजितेयीनामप्सरसामयम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Of the Apsarases, chariot-conquering, belonging to the
chariot-conquering, [is] this the love (smará): ye gods, send forth
love; let yon [man] burn for (anu-śuc) me.
Notes
Our pada-mss. (and three of SPP’s) make in a the absurd division
rātha॰jite: yī́nām, for which the comm. reads rathājite dhīnām (=
rathena jetavye māṣākhye oṣadhi; and dhyānajananīmām). The two terms
(of which one is an evident derivative of the other) have so little
applicability to the Apsarases that Grill resorts to the violent and
unacceptable measure of substituting arthajítām ārthajitī́nām. Perhaps
nothing more is meant than to mark strongly the all-conquering power
postulated for the Apsarases in this spell. Ludwig renders smara by
“love-charm.” The comm., in spite of priyas in 2 b and amuṣya in
3 b, thinks it a woman whose love is sought.
Griffith
This is the Apsarases’ love-spell, the conquering, resistless ones’. Send the spell forth, ye Deities! Let him consume with love of me.
पदपाठः
र॒थ॒ऽजिता॑म्। रा॒थ॒ऽजि॒ते॒यीना॑म्। अ॒प्स॒रसा॑म्। अ॒यम्। स्म॒रः। देवाः॑। प्र। हि॒णु॒त॒। स्म॒रम्। अ॒सौ। माम्। अनु॑। शो॒च॒तु॒। १३०.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- स्मरः
- अथर्वा
- विराट्पुरस्ताद्बृहती
- स्मर सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
स्मरण सामर्थ्य बढ़ाने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रथजिताम्) रमणीय पदार्थों की जितानेवाली, और (राथजितेयीनाम्) और स्मरणीय पदार्थों के विजयी पुरुषों के समीप रहनेवाली (अप्सरसाम्) आकाश, जल, प्राण और प्रजाओं में व्यापक शक्तियों का (अयम्) यह जो (स्मरः) स्मरण सामर्थ्य है, (देवाः) हे विद्वानो ! (स्मरम्) उस स्मरण सामर्थ्य को (प्र) अच्छे प्रकार (हिणुत) बढ़ाओ, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम् अनु) मुझ में व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से विज्ञानपूर्वक संसार की उपकारी विद्याओं को स्मरण रखकर उपयोगी बनावें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(रथजिताम्) जि−क्विप्, अन्तर्गतणिच्। रमणीयानां पदार्थानां जापयित्रीणाम् (राथजितेयीनाम्) शुभ्रादिभ्यश्च। पा० ४।१।१२३। रथजित्−ढक्। अदूरभवश्च। पा० ४।२।७०। इत्यर्थे। रथजितां रमणीयपदार्थजेतॄणां समीपभवानाम् (अप्सरसाम्) अप्सु आकाशे, जले, प्राणेषु प्रजासु च सरणशीलानां शक्तीनाम् (अयम्) (स्मरः) स्मृ आध्याने चिन्तायां च−अप्। ध्यानसामर्थ्यम् (देवाः) हे विद्वांसः (प्र) प्रकर्षेण (हिणुत) हि गतौ वृद्धौ च। वर्धयत (स्मरम्) चिन्तनम् (असौ) स्मरः (माम्) ब्रह्मचारिणम् (अनु) व्याप्य (शोचतु) ईशुचिर् शौचे, छान्दसः शप्। शुच्यतु शुध्यतु ॥
०२ असौ मे
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒सौ मे॑ स्मरता॒दिति॑ प्रि॒यो मे॑ स्मरता॒दिति॑।
देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒सौ मे॑ स्मरता॒दिति॑ प्रि॒यो मे॑ स्मरता॒दिति॑।
देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
०२ असौ मे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let yon [man] love (smṛ) me; being dear, let him love me: ye
gods, send etc. etc.
Notes
At the end of pādas a and b is added íti, not translated; it
appears to indicate an expression of the purpose for which the gods are
to despatch love. The comm. combines vss. 2 and 3 into one verse, thus
restoring the norm of the book; but the Anukr. calls the hymn one of
four verses, and that is plainly its value in the present state of the
text. ⌊Here the comm., alternatively, allows that it may be a man whose
love is sought.⌋
Griffith
I pray, may he remember me, think of me, loving and beloved. Send forth the spell, ye Deities! Let him consume with love of me.
पदपाठः
अ॒सौ। मे॒। स्म॒र॒ता॒त्। इति॑। प्रि॒यः। मे॒। स्म॒र॒ता॒त्। इति॑। देवाः॑। प्र। हि॒णु॒त॒। स्म॒रम्। अ॒सौ। माम्। अनु॑। शो॒च॒तु॒। १३०.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- स्मरः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- स्मर सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
स्मरण सामर्थ्य बढ़ाने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (मे) मेरा (स्मरतात्) स्मरण रक्खे, (इति) बस यही, (प्रियः) वह प्यारा [सामर्थ्य] (मे) मेरा (स्मरतात्) चिन्तन करे, (इति) बस यही। (देवाः) हे विद्वानो ! (स्मरम्) उस स्मरण सामर्थ्य को… म० १ ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्याओं को स्मरण रख कर उपयोग करते हैं, वे ही संसार में प्रिय होते हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(असौ) स्मरः (मे) अधीगर्थदयेशां कर्मणि। पा० २।३।५२। इति षष्ठी। मम (स्मरतात्) स्मृ लोटि तातङ्। स्मरतु (इति) वाक्यसमाप्तौ (प्रियः) हितकरः। अन्यद्गतम् ॥
०३ यथा मम
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यथा॒ मम॒ स्मरा॑द॒सौ नामुष्या॒हं क॒दा च॒न।
देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यथा॒ मम॒ स्मरा॑द॒सौ नामुष्या॒हं क॒दा च॒न।
देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
०३ यथा मम ...{Loading}...
Whitney
Translation
- That yon [man] may love me, not I him at any time, ye gods, send
etc. etc.
Notes
SPP’s pada-ttxt, probably by an oversight, leaves amuṣya unaccented;
the comm. undauntedly explains it by amūṁ striyam.
Griffith
That he may think of me, that I may never, never think of him,. Send forth the spell, ye Deities! Let him consume with love of me.
पदपाठः
यथा॑। मम॑। स्मरा॑त्। अ॒सौ। न। अ॒मुष्य॑। अ॒हम्। क॒दा। च॒न। देवाः॑। प्र। हि॒णु॒त॒। स्म॒रम्। अ॒सौ। माम्। अनु॑। शो॒च॒तु॒। १३०.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- स्मरः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- स्मर सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
स्मरण सामर्थ्य बढ़ाने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जिससे (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (मे) मेरा (स्मरात्) स्मरण रक्खे, और (अहम्) मैं (कदा चन) कभी भी (अमुष्य) उसको (न) न [भूल करूँ]। (देवाः) हे विद्वानो ! (स्मरम्) उस स्मरण सामर्थ्य को (प्र) अच्छे प्रकार (हिणुत) बढ़ाओ, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम् अनु) मुझ में व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रयत्नपूर्वक समस्त विद्याओं को स्मरण रख कर उपयोगी बनावे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(यथा) येन प्रकारेण (मम) (स्मरात्) स्मरेत् (असौ) स्मरः (न) निषेधे (अमुष्य) स्मरस्य (अहम्) (कदा चन) कदापि [स्मरामि=स्मृणोमि] इत्यध्याहारः। स्मृ प्रीतिचलनयोः, स्वादिः। चलनं करोमि। अन्यत् पूर्ववत् ॥
०४ उन्मादयत मरुत
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उन्मा॑दयत मरुत॒ उद॑न्तरिक्ष मादय।
अग्न॒ उन्मा॑दया॒ त्वम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उन्मा॑दयत मरुत॒ उद॑न्तरिक्ष मादय।
अग्न॒ उन्मा॑दया॒ त्वम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
०४ उन्मादयत मरुत ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Craze (un-māday-) [him], O Maruts; O atmosphere, craze [him]; O
Agni, do thou craze [him]; let yon [man] burn for me.
Notes
Griffith
Madden him, Maruts, madden him. Madden him, madden him, O Air. Madden him, Agni, madden him. Let him consume with love of me.
पदपाठः
उत्। मा॒द॒य॒त॒। म॒रु॒तः॒। उत्। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒। मा॒द॒य॒। अग्ने॑। उत्। मा॒द॒य॒। त्वम्। अ॒सौ। माम्। अनु॑। शो॒च॒तु॒। १३०.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- स्मरः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- स्मर सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
स्मरण सामर्थ्य बढ़ाने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मरुतः) हे वायुगणो ! (उत्) उत्तम प्रकार से (मादयत) प्रसन्न करो, (अन्तरिक्ष) हे मध्यलोक ! (उत्) अच्छे प्रकार (मादय) हर्षित कर। (अग्ने) हे अग्नि ! (त्वम्) तू (उत्) उत्तम रीति से (मादय) आनन्दित कर, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम्) मुझको (अनु) व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रयत्नपूर्वक प्राण अपान गति, जाठर अग्नि और बाहिर-भीतर स्थान को ठीक-ठीक रख कर स्वस्थ रहकर अपनी स्मृति बढ़ाते रहें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(उत्) उत्तमतया (मादयत) हर्षयत (मरुतः) हे मरुद्गणाः। प्राणापानाः (उत्) (अन्तरिक्ष) मध्यलोक (मादय) आनन्दय (अग्ने) जाठराग्ने। अन्यद् गतम् ॥