१२५ वीरस्य रथः ...{Loading}...
Whitney subject
- To the war-chariot: for its success.
VH anukramaṇī
वीरस्य रथः।
१-३ अथर्वा। वनस्पतिः। त्रिष्टुप्, २ जगती।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan.—vānaspatyam. trāiṣṭubham: 2. jagatī.]
Whitney
Comment
Found also in Pāipp. xv. (in the verse-order 2, 3, 1). This hymn and the next are six successive verses of RV. (vi. 47. 26-31), and also of VS. (xxix. 52-57), TS. (iv. 6. 65-7), and MS. (iii. 16. 3). In Kāuś. (15. 11) it ⌊and not xii. 3. 33⌋ is used in a battle-rite, with vii. 3, 110, and other passages, as the king mounts a new chariot (at Kāuś. 10. 24 and 13. 6 it is ix. 1. 1 that is intended ⌊so SPP’s ed. of the comm. to iii. 16⌋, not vs. 2 of this hymn). In Vāit. (6. 8), vss. 3 and 1 are quoted in the agnyādheya, accompanying the sacrificial gift of a chariot; and the hymn (or vs. i), in the sattra (34. 15), as the king mounts a chariot.
Translations
Translated: by the RV. translators; and, as AV. hymn, by Ludwig again, p. 459; Griffith, i. 314.—See also Bergaigne-Henry, Manuel, p. 155.
०१ वनस्पते वीड्वङ्गो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वन॑स्पते वी॒ड्व᳡ङ्गो॒ हि भू॒या अ॒स्मत्स॑खा प्र॒तर॑णः सु॒वीरः॑।
गोभिः॒ संन॑द्धो असि वी॒डय॑स्वास्था॒ता ते॑ जयतु॒ जेत्वा॑नि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वन॑स्पते वी॒ड्व᳡ङ्गो॒ हि भू॒या अ॒स्मत्स॑खा प्र॒तर॑णः सु॒वीरः॑।
गोभिः॒ संन॑द्धो असि वी॒डय॑स्वास्था॒ता ते॑ जयतु॒ जेत्वा॑नि ॥
०१ वनस्पते वीड्वङ्गो ...{Loading}...
Whitney
वन॑स्पते वी॒ड्वऽङ्गो॒ हि भू॒या अ॒स्मत्स॑खा प्र॒तर॑णः सु॒वीरः॑ ।
गोभिः॒ संन॑द्धो असि वी॒डय॑स्वास्था॒ता ते॑ जयतु॒ जेत्वा॑नि ॥१॥
Griffith
Mayst thou, O Tree, be firm indeed in body, our friend that furthers us, a goodly hero. Put forth thy strength, compact with thongs of leather, and let thy rider win all spoils of battle.
पदपाठः
वन॑स्पते। वी॒डुऽअ॑ङ्गः। हि। भू॒याः। अ॒स्मत्ऽस॑खा। प्र॒ऽतर॑णः। सु॒ऽवीरः॑। गोभिः॑। सम्ऽन॑ध्दः। अ॒सि॒। वी॒डय॑स्व। आ॒ऽस्था॒ता। ते॒। ज॒य॒तु॒। जेत्वा॑नि। १२५.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वनस्पतिः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- वीर रथ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेना और सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वनस्पते) हे किरणों के पालन करनेवाले सूर्य के समान राजन् ! वीड्वङ्गः) बलिष्ठ अङ्गोंवाला तू (हि) ही (प्रतरणः) बढ़ानेवाला (सुवीरः) अच्छे-अच्छे वीरों से युक्त (अस्मत्सखा) हमारा मित्र (भूयाः) हो। तू (गोभिः) बाणों और वज्रों से (संनद्धः) अच्छे प्रकार सजा हुआ (असि) है, [हमें] (वीडयस्व) दृढ बना, (ते) तेरा (आस्थाता) श्रद्धावान् सेनापति (जेत्वानि) जीतने योग्य शत्रुओं की सेनाओं को (जयन्तु) जीते ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परस्पर नित्य सम्बन्धवाले सूर्य और किरणों के समान राजा, सेना और प्रजा का परस्पर नित्य संबन्ध होवे, और जितेन्द्रिय बलवान् राजा के समान सेना और प्रजा भी जितेन्द्रिय और बलवान् होवें ॥१॥ मन्त्र १-३ कुछ भेद से ऋ० ६।४७।२६−२८ और यजुर्वेद २९।५२-५४ में है। इन का भाष्य महर्षि दयानन्द सरस्वती के आधार पर किया गया है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(वनस्पते) अ० १।३५।३। वनानां किरणानां पालकः सूर्य इव राजन् (वीड्वङ्गः) वीडु बलम् निघ० २।९। बलिष्ठाङ्गः (हि) (भूयाः) भवेः (अस्मत्सखा) अस्माकं मित्रम् (प्रतरणः) प्रतारकः। प्रवर्धकः (सुवीरः) कल्याणवीरः−निरु० ९।१२। सुष्ठु वीरयुक्तः (गोभिः) इषुभिः। वज्रैः। स्वर्गेषुपशु- वज्रदिङ्नेत्रघृणिभूजले−इत्यमरः, २३।२५। (सन्नद्धः) सम्यक् सज्जः (असि) (वीडयस्व) वीडयतिः संस्तम्भकर्मा−निरु० ५।१६। यद्वा, वीर विक्रान्तौ, रस्य डः। दृढान् कुरु (आस्थाता) आस्थया श्रद्धया युक्तः (ते) तव (जयतु) (जेत्वानि) कृत्यार्थे तवैकेन्०। पा० ३।४।१४। जि जये−त्वन्। जेतव्यानि शत्रुसैन्यानि ॥
०२ दिवस्पृथिव्याः पर्योज
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्योज॒ उद्भृ॑तं॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ पर्याभृ॑तं॒ सहः॑।
अ॒पामो॒ज्मानं॒ परि॒ गोभि॒रावृ॑तमिन्द्रस्य॒ वज्रं॑ हविषा॒ रथं॑ यज ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्योज॒ उद्भृ॑तं॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ पर्याभृ॑तं॒ सहः॑।
अ॒पामो॒ज्मानं॒ परि॒ गोभि॒रावृ॑तमिन्द्रस्य॒ वज्रं॑ हविषा॒ रथं॑ यज ॥
०२ दिवस्पृथिव्याः पर्योज ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Forth from heaven, from earth [is its] force brought up; forth
from forest-trees [is its] power brought hither; to the force of the
waters, brought forth hither by the kine, to Indra’s thunderbolt, the
chariot, do thou sacrifice with oblation.
Notes
Or all the nouns (“force” and “power” in a, b as well) are to be
taken as accusatives with yaja ‘sacrifice to.’ Ppp. reads ābhṛtaṁ at
end of a, and parisambhṛtaṁ in b. All the other versions have
the better reading ā́vṛtam at end of c; and so has the comm.,
followed by three of SPP’s mss.; and it is accordingly adopted in SPP’s
text. MS. reads ā́vṛtam also in b, and antárikṣāt instead of ója
údbhṛtam in a. TS.VS. have diváḥ p- at the beginning. The comm.
refers to TS. vi. i. 3⁴ as authority for identifying the chariot with
Indra’s thunderbolt.
Griffith
Its mighty strength was borrowed from the heaven and earth: its conquering force was brought from sovrans of the wood. Honour with sacrifice the Car like Indra’s bolt, the Car girt round with straps, the vigour of the floods.
पदपाठः
दि॒वः। पृ॒थि॒व्याः। परि॑। ओजः॑। उत्ऽभृ॑तम्। वन॒स्पति॑ऽभ्यः। परि॑। आऽभृ॑तम्। सहः॑। अ॒पाम्। ओ॒ज्मान॑म्। परि॑। गोभिः॑। आऽवृ॑तम्। इन्द्र॑स्य। वज्र॑म्। ह॒विषा॑। रथ॑म्। य॒ज॒। १२५.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वनस्पतिः
- अथर्वा
- जगती
- वीर रथ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेना और सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (दिवः) बिजुली वा सूर्य से और (पृथिव्याः) भूमि वा अन्तरिक्ष से (उद्भृतम्) उत्तम रीति से धारण किये गये (ओजः) बल को (परि) प्राप्त करके, (वनस्पतिभ्यः) वट आदि वनस्पतियों से (आभृतम्) अच्छे प्रकार पुष्ट किये गये (सहः) बल को (परि) प्राप्त करके (गोभिः) किरणों से (आवृतम्) ढाँपे हुए (अपाम्) जलों के (ओज्मानम्) बल को (परि) प्राप्त करके (वज्रम्) शस्त्रसमूह और (रथम्) रथ को (इन्द्रस्य) बिजुली के (हविषा) ग्राह्य गुण के साथ (यज) संयुक्त कर ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य पृथ्वी आदि भूतों और उनसे उत्पन्न पदार्थों के सम्बन्ध से बल और पराक्रम बढ़ा कर विमान आदि यानों को बना कर आनन्दित होवें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(दिवः) विद्युतः सूर्याद् वा (पृथिव्याः) भूमेरन्तरिक्षाद् वा (परि) लक्षणेत्थंभूताख्यान०। पा० १।४।९०। इति कर्मप्रवचनीयत्वम्। प्राप्य (ओजः) बलम् (उद्भृतम्) उत्तमतया धृतम् (वनस्पतिभ्यः) वटादिभ्यः (परि) प्राप्य (आभृतम्) समन्तात् पोषितम् (सहः) बलम् (अपाम्) जलानाम् (ओज्मानम्) अ० ४।१९।८। बलम् (परि) प्राप्य (गोभिः) किरणैः (आवृतम्) आच्छादितम् (इन्द्रस्य) विद्युतः (वज्रम्) शस्त्रसमूहम् (हविषा) ग्रहणेन (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् (यज) संयोजय ॥
०३ इन्द्रस्यौजो मरुतामनीकम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्र॒स्यौजो॑ म॒रुता॒मनी॑कं मि॒त्रस्य॒ गर्भो॒ वरु॑णस्य॒ नाभिः॑।
स इ॒मां नो॑ ह॒व्यदा॑तिं जुषा॒णो देव॑ रथ॒ प्रति॑ ह॒व्या गृ॑भाय ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्र॒स्यौजो॑ म॒रुता॒मनी॑कं मि॒त्रस्य॒ गर्भो॒ वरु॑णस्य॒ नाभिः॑।
स इ॒मां नो॑ ह॒व्यदा॑तिं जुषा॒णो देव॑ रथ॒ प्रति॑ ह॒व्या गृ॑भाय ॥
०३ इन्द्रस्यौजो मरुतामनीकम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Indra’s force, the Maruts’ front (ánīka), Mitra’s embryo, Varuṇa’s
navel—do thou, enjoying this oblation-giving of ours, O divine chariot,
accept the oblations.
Notes
All the other versions have vájras for ójas in ‘a, and Ppp.
agrees with them. All, too (not Ppp.), combine sé ’mā́m at beginning of
c, against the requirement of the meter. The GB. quotes (i. 2. 21)
the pratīka of this verse in its form as given by our text. ⌊Ppp. has
dharuṇasya for vár- in b.⌋
Griffith
Thou bolt of Indra, vanguard of the Maruts, close knit to Varuna and child of Mitra, As such, accepting gifts which here we offer, receive, O godlike Chariot, these oblations.
पदपाठः
इन्द्र॑स्य। ओजः॑। म॒रुता॑म्। अनी॑कम्। मि॒त्रस्य॑। गर्भः॑। वरु॑णस्य। नाभिः॑। सः। इ॒माम्। नः॒। ह॒व्यऽदा॑तिम्। जु॒षा॒णः। देव॑। र॒थ॒। प्रति॑। ह॒व्या। गृ॒भा॒य॒। १२५३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वनस्पतिः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- वीर रथ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
सेना और सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् ! यहाँ पर] (मरुताम्) शूरों का (अनीकम्) सेनादल, (इन्द्रस्य) बिजुली का (ओजः) बल, (मित्रस्य) प्राण [चढ़नेवाले वायु] का (गर्भः) गर्भ [अधिष्ठान] और (वरुणस्य) अपान [उतरनेवाले वायु] का (नाभिः) नाभि [मध्यस्थान] है। (सः) सो तू (देव) हे प्रकाशमान ! (रथ) रमणीयस्वरूप विद्वान् ! (नः) हमारे लिये (इमाम्) इस (हव्यदातिम्) देने योग्य पदार्थों की दान क्रिया को (जुषाणः) सेवता हुआ (हव्या) ग्राह्य वस्तुओं को (प्रति) प्रतीति के साथ (गृभाय) ग्रहण कर ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस सेना में शूर वीर सैनिक बिजुली की शक्ति और वायु के चढ़ाव-उतार क्रियाओं में कुशल होते है, वे सेनापति और सेनादल परस्पर सहाय करके विजयी होते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(इन्द्रस्य) विद्युतः (ओजः) बलम् (मरुताम्) अ० १।२०।१। शूराणाम्, (अनीकम्) सैन्यम् (मित्रस्य) प्राणस्य (गर्भः) आधारः (वरुणस्य) अपानस्य (नाभिः) बन्धनम्। मध्यस्थानम् (सः) स त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (हव्यदातिम्) दातव्यदानक्रियाम् (जुषाणः) सेवमानः (देव) हे दिव्यविद्य (रथ) रमणीयस्वरूप (प्रति) प्रतीत्या (हव्या) ग्राह्यवस्तूनि (गृभाय) गृहाण ॥