१२१ सुकृतलोकप्राप्तिः ...{Loading}...
Whitney subject
- For release from evil.
VH anukramaṇī
सुकृतलोकप्राप्तिः
-४ कौशिकः। अग्निः, ३ तारके। १-२ त्रिष्टुप्, ३-४ अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Kāuśika.—[caturṛcam.] mantroktadevatyam. 1, 2. triṣṭubh; 3, 4. anuṣṭubh.]
Whitney
Comment
Found also in Pāipp. xvi. ⌊For vss. 3, 4, cf. v. Schroeder, Zwei Hss., p. 15, Tübinger Kaṭka-hss., p. 75.⌋ Used by Kāuś. (52. 3) with vi. 63 and 84, in a rite for release from various bonds; ⌊and with the whole anuvāka—see under h. 114⌋.
Translations
Translated: Ludwig, p. 442; Zimmer, p. 182 (3 vss.); Griffith, i. 311.
०१ विषाणा पाशान्वि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि॒षाणा॒ पाशा॒न्वि ष्याध्य॒स्मद्य उ॑त्त॒मा अ॑ध॒मा वा॑रु॒णा ये।
दु॒ष्वप्न्यं॑ दुरि॒तं निःष्वा॒स्मदथ॑ गच्छेम सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वि॒षाणा॒ पाशा॒न्वि ष्याध्य॒स्मद्य उ॑त्त॒मा अ॑ध॒मा वा॑रु॒णा ये।
दु॒ष्वप्न्यं॑ दुरि॒तं निःष्वा॒स्मदथ॑ गच्छेम सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥
०१ विषाणा पाशान्वि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- An untier, do thou untie off us the fetters that are highest, lowest,
that are Varuṇa’s; remove (nis-sū) from us evil-dreaming [and]
difficulty; then may we go to the world of the well-done.
Notes
Viṣā́ṇā (p. vi॰sā́nā) is doubtless ‘antler’ here, as at iii. 7. 1, 2
⌊which see⌋ (though neither Kāuś. nor the schol. nor our comm. make
mention of such an article as used here); but it was necessary to render
it etymologically, to bring out the word-play between it and ví ṣya;
the comm. treats it as a participle (= vimuñcatī), disregarding, as
usual, the accent (really vi-sā́ + ana ⌊Skt. Gram. §1150 e⌋). The
second pāda is the same with vii. 83. 4 b. The proper readings in
c are (see note to Prāt. ii. 86) duṣṣvāpnyam and níṣṣva, which
the mss. almost without exception* abbreviate to duṣvap- and níṣva,
just as they abbreviate dattvā to datvā, or, in vs. 2 a,
rájjvām to rájvām (see my Skt. Gr. §232). SPP. here gives in his
saṁhitā-text ní ṣva, with all his authorities; our text has níh
ṣva, with only one of ours (O.): doubtless the true metrical form is
níṣ ṣuvā ’smát. ⌊Cf. Roth, ZDMG. xlviii. 119, note.⌋ Ppp. lacks our
second half-verse, having instead 2 a, b. *⌊That is, if we take the
occurrences of the words as a whole in AV.⌋
Griffith
Spreading them out, untie the snares that hold us, Varuna’s bonds, the upper and the lower. Drive from us evil dream, drive off misfortune; then let us go in- to the world of virtue.
पदपाठः
वि॒ऽसाना॑। पाशा॑न्। वि। स्य॒। अधि॑। अ॒स्मत्। ये। उ॒त्ऽत॒माः। अ॒ध॒माः। वा॒रु॒णाः। ये। दुः॒ऽस्वप्न्य॑म्। दुः॒ऽइ॒तम्। निः। स्व॒। अ॒स्मत्। अथ॑। ग॒च्छे॒म॒। सु॒ऽकृ॒तस्य॑। लो॒कम्। १२१.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- कौशिक
- त्रिष्टुप्
- सुकृतलोकप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मोक्ष पाने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे शूर !] (विषाणा=०−णेन) विविध भक्ति के साथ (पाशान्) फन्दों को (अस्मत्) हमसे (अधि) अधिकारपूर्वक (वि ष्य) खोल दे, (ये) जो (उत्तमाः) ऊँचे और (ये) जो (अधमाः) नीचे फन्दे (वारुणः) जो दोषनिवारक वरुण परमात्मा से आये हैं। (दुःष्वप्न्यम्) नींद में उठे कुविचार और (दुरितम्) विघ्न को (अस्मत्) हम से (निः) निकाल दे, (अथ) फिर (सुकृतस्य) धर्म के (लोकम्) समाज में (गच्छेम) हम जावें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य भक्ति की शक्ति को बढ़ाकर अपने बुरे कर्म के फल दुःखों को पुरुषार्थ से हटाकर सोते-जागते उत्तम विचार करते हैं, वे ही पुण्यात्मा कीर्ति पाते हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(विषाणा) अ० ३।७।१। षण सम्भक्तौ−घञ्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति आत्। विविधसेवनेन (पाशान्) बन्धान् (वि ष्य) षो अन्तकर्मणि। विमुञ्च (अधि) अधिकृत्य (अस्मत्) अस्मत्तः (ये) पाशाः (उत्तमाः) ऊर्ध्वकायाश्रिताः (अधमाः) अधःकायाश्रिताः (वारुणाः) तत आगतः। पा० ४।३।७४। इत्यण्। वरुणात् कष्टनिवारकात् परमेश्वरात् प्राप्ताः (ये) (दुःष्वप्न्यम्) अ० ६।४६।३। कुनिद्राभयं विचारम् (दुरितम्) कष्टम् (निः स्व) तन्वादीनां छन्दसि बहुलम्। वा० पा० ६।४।८६। षू प्रेरणे यण्। निः सुव। निर्गमय (अथ) अनन्तरम् (गच्छेम) प्राप्नुयाम (सुकृतस्य) पुण्यस्य (लोकम्) समाजम् ॥
०२ यद्दारुणि बध्यसे
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यद्दारु॑णि ब॒ध्यसे॒ यच्च॒ रज्ज्वां॒ यद्भूम्यां॑ ब॒ध्यसे॒ यच्च॑ वा॒चा।
अ॒यं तस्मा॒द्गार्ह॑पत्यो नो अ॒ग्निरुदिन्न॑याति सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यद्दारु॑णि ब॒ध्यसे॒ यच्च॒ रज्ज्वां॒ यद्भूम्यां॑ ब॒ध्यसे॒ यच्च॑ वा॒चा।
अ॒यं तस्मा॒द्गार्ह॑पत्यो नो अ॒ग्निरुदिन्न॑याति सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥
०२ यद्दारुणि बध्यसे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- If (yát) thou art bound in wood, and if in a rope; if thou art
bound in the earth, and if by a spell (vā́c)—may this
householder’s-fire lead us up from that to the world of the well-done.
Notes
The second half-verse here is the same with 120. 1 c, d, and seems
unconnected with the first half. Ppp. reads, in a, dāruṇā and
rajvā, and omits the second half-verse, thus reducing the hymn to
three verses, the norm of the book.
Griffith
If thou art bound with cord or tied to timber, fixt in the earth, or by a word imprisoned, Our Agni Garhapatya here shall free thee, and lead thee up into the world of virtue.
पदपाठः
यत्। दारु॑णि। ब॒ध्यसे॑। यत्। च॒। रज्ज्वा॑म्। यत्। भूम्या॑म्। ब॒ध्यसे॑। यत्। च॒। वा॒चा। अ॒यम्। तस्मा॑त्। गार्ह॑ऽपत्यः। नः॒। अ॒ग्निः। उत्। इत्। न॒या॒ति॒। सु॒ऽकृ॒तस्य॑। लो॒कम्। १२१.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- कौशिक
- त्रिष्टुप्
- सुकृतलोकप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मोक्ष पाने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे जीव !] (यत्) यदि तू (दारुणि) काष्ठ में, (च) और (यत्) यदि तू (भूम्याम्) भूमि में (च) और (यत्) यदि (वाचा) वचन के साथ (बध्यसे) बँधा है। (अयम्) यह (गार्हपत्यः) घर के स्वामियों का सयोगी (अग्निः) अग्नि, सर्वज्ञ परमेश्वर (तस्मात्) उस [कष्ट] से पृथक् करके (नः) हमें (सुकृतस्य) धर्म के (लोकम्) समाज में (इत्) अवश्य (उन्नयाति) ऊँचा चढ़ावे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य बड़ी विपत्तियों में पड़ कर परमात्मा की शरण लेता और पुरुषार्थ करता है, वह कष्ट से छूट कर उन्नति पाता है ॥२॥ इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध ऊपर आ चुका है−अ० ६।१२०।१ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(यत्) यदि (दारुणि) दॄसनिजनि०। उ० १।३। दॄ विदारणे−ञुण्। काष्ठे (बध्यसे) बद्धो भवसि (रज्ज्वाम्) दाम्नि (भूम्याम्) भूमिगर्ते (वाचा) राजाज्ञाप्रकाशकेन वचनेन। अन्यद् गतम्−अ० ६।१२०।१ ॥
०३ उदगातां भगवती
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उद॑गातां॒ भग॑वती वि॒चृतौ॒ नाम॒ तार॑के।
प्रेहामृत॑स्य यच्छतां॒ प्रैतु॑ बद्धक॒मोच॑नम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उद॑गातां॒ भग॑वती वि॒चृतौ॒ नाम॒ तार॑के।
प्रेहामृत॑स्य यच्छतां॒ प्रैतु॑ बद्धक॒मोच॑नम् ॥
०३ उदगातां भगवती ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Arisen are the two blessed stars named the Unfasteners; let them
bestow here of immortality (amṛ́ta); let the releaser of the bound
advance.
Notes
The first half-verse is the same with ii. 8. 1 a, b; compare also
iii. 7. 4 a, b. The verse corresponds to TA. ii. 6. 1³, which has,
for a, amī́ ⌊AV. iii. 7. 4, amū́⌋yé subháge diví, and, in d,
etád for prāí ’tu.
Griffith
The two auspicious stars whose name is called Releasers have gone up. Send Amrit hither, let it come freeing the captive from his bonds!
पदपाठः
उत्। अ॒गा॒ता॒म्। भग॑वती॒ इति॒ भग॑ऽवती। वि॒ऽचृतौ॑। नाम॑। तार॑के॒ इति॑। प्र। इ॒ह। अ॒मृत॑स्य। य॒च्छ॒ता॒म्। प्र। ए॒तु॒। ब॒ध्द॒क॒ऽमोच॑नम्। १२१.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- तारके
- कौशिक
- अनुष्टुप्
- सुकृतलोकप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मोक्ष पाने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (भगवती=०−त्यौ) दो ऐश्वर्यवाले (विचृतौ) [अन्धकार से] छुड़ानेहारे (नाम) प्रसिद्ध (तारके) तारे [सूर्य और चन्द्रमा] (उदगाताम्) उदय हुए हैं। वे दोनों (इह) यहाँ पर (अमृतस्य) मरण से बचाव [पुरुषार्थ] का (प्रयच्छताम्) दान करें, [तब] (बद्धकमोचनम्) बँधुवे [आत्मा] की मुक्ति (प्र एतु) हो जावे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा नियम पर चलकर जगत् का उपकार करते हैं, इसी प्रकार पुरुषार्थी मनुष्य ईश्वर आज्ञा पालन करके आप दुःख से छूटते और औरों को छुड़ाते हैं ॥३॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध पहिले आ चुका है−अ० २।८।१ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(उदगाताम्) उदितेऽभूताम् (भगवती) भगवत्यौ। ऐश्वर्यवत्यौ (विचृतौ) अन्धकाराद् विमोचयित्र्यौ (नाम) प्रसिद्धे (तारके) ज्योतिषी। सूर्यचन्द्रौ (इह) अस्मिन् पुरुषे (अमृतस्य) मरणराहित्यस्य। पुरुषार्थस्य (प्रयच्छताम्)। उभे दानं कुरुताम् (प्र एतु) प्रकर्षेण गच्छतु (बद्धकमोचनम्) कुत्सायां कन्। कुत्सितबन्धं प्राप्तस्य मोक्षः। अन्यद् व्याख्यातम्−अ० २।८।१ ॥
०४ वि जिहीष्व
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वि जि॑हीष्व लो॒कं कृ॑णु ब॒न्धान्मु॑ञ्चासि॒ बद्ध॑कम्।
योन्या॑ इव॒ प्रच्यु॑तो॒ गर्भः॑ प॒थः सर्वाँ॒ अनु॑ क्षिय ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वि जि॑हीष्व लो॒कं कृ॑णु ब॒न्धान्मु॑ञ्चासि॒ बद्ध॑कम्।
योन्या॑ इव॒ प्रच्यु॑तो॒ गर्भः॑ प॒थः सर्वाँ॒ अनु॑ क्षिय ॥
०४ वि जिहीष्व ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Go thou apart; make room; mayest thou free the bound one from the
bond; like a young fallen out of the womb, do thou dwell along all
roads.
Notes
A corresponding verse is found in TA. (ii. 6. 1⁴), which has, for a,
ví jihīrṣva lokā́n kṛdhi,* and, at the end, ánu ṣva (also pathás
after sárvān). Ppp. reads at the end anu gacha, and this is what the
comm. gives as paraphrase of ánu kṣiya. The Anukr. seems to authorize
the contraction yonye ’va in c. *⌊In c, yónes for
yónyās.⌋
Griffith
Open thyself, make room: from bonds thou shalt release the prisoner. Freed, like an infant newly born, dwell in all pathways where thou wilt.
पदपाठः
वि। जि॒ही॒ष्व॒। लो॒कम्। कृ॒णु॒। ब॒न्धात्। मु॒ञ्चा॒सि॒। बध्द॑कम्। योन्याः॑ऽइव। प्रऽच्यु॑तः। गर्भः॑। प॒थः। सर्वा॑न्। अनु॑। क्षि॒य॒। १२१.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- कौशिक
- अनुष्टुप्
- सुकृतलोकप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
मोक्ष पाने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे पुरुष !] (वि जिहीष्व) विविध प्रकार से चल, (लोकम्) समाज को (कृणु) बना, (बद्धकम्) बड़े बँधुवे (आत्मा) को (बन्धात्) बन्ध से (मुञ्चासि) तू छुड़ा दे (योन्याः) गर्भाशय से (प्रच्युतः) बाहर निकले हुए (गर्भः इव) बालक के समान (सर्वान्) सब (पथः अनु) मार्गों की ओर (क्षिय) चल ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य जैसे-जैसे प्रयत्न करता है, वैसे-वैसे दुःखबन्धन से छूट कर आनन्द भोगता है, जैसे गौ आदि का बच्चा गर्भ से उत्पन्न होकर प्रसन्नता से विचरता है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(वि) विविधम् (जिहीष्व) ओहाङ् गतौ। गच्छ (लोकम्) स्थानम्। समाजम् (कृणु) कुरु (बन्धात्) दुःखबन्धनात् (मुञ्चासि) लेटि रूपम्। विमोचय (बद्धकम्) कुत्सितबन्धं गतम् (योन्याः) गर्भाशयात् (इव) यथा (प्रच्युतः) बहिर्निगतः (गर्भ) बालकः (पथः) मार्गान् (सर्वान्) समस्तान् (अनु) अनुलक्ष्य (क्षिय) क्षि निवासगत्योः। गच्छ ॥