१०२ अभिसांमनस्यम् ...{Loading}...
Whitney subject
- To win a woman.
VH anukramaṇī
अभिसांमनस्यम्।
१-३ जमदग्निः। अश्विनौ। अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Jamadagni (abhisammanaskāmaḥ) .—āśvinam. ānuṣṭubham.]
Whitney
Comment
Found also in Pāipp. xix. Used by Kāuś. (35. 21) in a rite concerning women, with vi. 8, 9, etc., for reducing to one’s will. Verse 3 is also reckoned (19. 1, note) to the puṣṭika mantras.
Translations
Translated: Weber, Ind. Stud. 243; Grill, 54, 169; Griffith, i. 301; Bloomfield, 101, 512.
०१ यथायं वाहो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यथा॒यं वा॒हो अ॑श्विना स॒मैति॒ सं च॒ वर्त॑ते।
ए॒वा माम॒भि ते॒ मनः॑ स॒मैतु॒ सं च॑ वर्तताम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यथा॒यं वा॒हो अ॑श्विना स॒मैति॒ सं च॒ वर्त॑ते।
ए॒वा माम॒भि ते॒ मनः॑ स॒मैतु॒ सं च॑ वर्तताम् ॥
०१ यथायं वाहो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- As this draft-horse (vāhá), O Aśvins, comes together and moves
together [with his mate], so unto me let thy mind come together and
move together.
Notes
The comm. paraphrases vāhas with suśikṣito ’śvaḥ, ‘a well-trained
horse,’ but regards the driver (vāhaka) as the unexpressed object ⌊?
or adjunct⌋ of the verbs—which is also possible.
Griffith
Even as this ox, O Asvins, steps and turns together with his mate, So let thy fancy turn itself, come nearer, and unite with me.
पदपाठः
यथा॑। अ॒यम्। वा॒हः। अ॒श्वि॒ना॒। स॒म्ऽऐति॑। सम्। च॒। वर्त॑ते। ए॒व। माम्। अ॒भि। ते॒। मनः॑। स॒म्ऽऐतु॑। सम्। च॒। व॒र्त॒ता॒म्। १०२.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- जमदग्नि
- अनुष्टुप्
- अभिसांमनस्य सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जितेन्द्रिय होने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे सूर्य और चन्द्रमा [के समान नियमवाले पुरुष !] (यथा) जैसे (अयम्) यह (वाहः) लट्टू पशु [घोड़ा बैल आदि] (समैति) मिलकर आता है (च) और (सम्) ठीक-ठीक (वर्तते) वर्तता है। (एव) वैसे ही [हे जीव !] (माम् अभि) मेरी ओर (ते मनः) तेरा मन (समैतु) मिल कर आवे (च) और (सम् वर्तताम्) ठीक-ठीक वर्ताव करे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे मनुष्य पशु आदि को शिक्षा देकर सुमार्ग पर चलाता है, वैसे ही जितेन्द्रिय पुरुष मन को वश में करके शुभ मार्ग में अपने को चलावे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(यथा) येन प्रकारेण (अयम्) पुरोवर्तमानः (वाहः) भारवाहकः पशुः (अश्विना) अ० २।२९।६। अश्विनौ सूर्य्याचन्द्रमसावित्येके−निरु० १२।१। हे सूर्यचन्द्रतुल्यनियमवन् पुरुष (समैति) संगत्यागच्छति (सम्) सम्यक् (च) (वर्तते) भवति (एव) एवम् (माम्) जितेन्द्रिय (अभि) प्रति (ते) तव (मनः) मननसाधनं चित्तम् (समैतु) संगत्यागच्छतु (सम् च वर्तताम्) ॥
०२ आहं खिदामि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आहं खि॑दामि ते॒ मनो॑ राजा॒श्वः पृ॒ष्ट्यामि॑व।
रे॒ष्मच्छि॑न्नं॒ यथा॒ तृणं॒ मयि॑ ते वेष्टतां॒ मनः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आहं खि॑दामि ते॒ मनो॑ राजा॒श्वः पृ॒ष्ट्यामि॑व।
रे॒ष्मच्छि॑न्नं॒ यथा॒ तृणं॒ मयि॑ ते वेष्टतां॒ मनः॑ ॥
०२ आहं खिदामि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I drag along (ā-khid) thy mind, as a king-horse a side-mare (?);
like grass cut by a whirlwind, let thy mind twine itself to me.
Notes
Some of SPP’s authorities give pṛṣṭhyā́m in b; but in general the
mss. cannot be relied on to distinguish ṣṭy and ṣṭhy. The Pet. Lex.
understands the word with ṭh, but the minor Pet. Lex. with ṭ, in the
sense here given, which Grill (following Roth) accepts. ⌊Cf. W’s note to
xviii. 4. 10.⌋ The comm. explains the word as śan̄kubaddhām ‘[a mare]
tied to a stake (to the pole of the chariot?)’, rājāśva as
aśvaśreṣṭha, and ā khidāmi as madabhimukham utkhanāmy unmūlayāmy
āvarjayāmi. The reading tṛ́ṇma in c, which our edition wrongly
accepts, is that of only two of our mss. (Bp.Bp.²). ⌊Read therefore
tṛ́ṇam.⌋ The comm. explains reṣman as reṣako vātyātmako vāyuḥ. Ppp.
ends b with pṛṣṭyāmayaḥ.
Griffith
I, as the shaft-horse draws the mare beside him, draw thee to myself. Like grass that storm and wind have rent, so be thy mind at- tached to me!
पदपाठः
आ। अ॒हम्। खि॒दा॒मि॒। ते॒। मनः॑। रा॒ज॒ऽअ॒श्वः। पृ॒ष्ट्याम्ऽइ॑व। रे॒ष्मऽछि॑न्नम्। यथा॑। तृण॑म्। मयि॑। ते॒। वे॒ष्ट॒ता॒म्। मनः॑। १०२.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- जमदग्नि
- अनुष्टुप्
- अभिसांमनस्य सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जितेन्द्रिय होने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्राणी !] (अहम्) मैं (ते मनः) तेरे मन को (आखिदामि) ऐसे खीचता हूँ (इव) जैसे (राजाश्वः) बड़ा अश्ववार (पृष्ट्याम्) बागडोर को। (मयि) मुझ में (ते मनः) तेरा मन (वेष्टताम्) लिपटा रहे (यथा) जैसे (रेष्मच्छिन्नम्) व्याकुल करनेवाली आँधी से तोड़ा गया (तृणम्) घास ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य अपने मन को कुविषयों से खींच कर तत्त्व विचार में ऐसा लगावे, जैसा सुसारथी चञ्चल घोड़े को बागडोरी से वश में करता है, अथवा जैसे घास आँधी से टूट कर आँधी के वश में हो जाती है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(अहम्) जितेन्द्रियः (आखिदामि) आकर्षामि (ते) तव (मनः) अन्तःकरणम् (राजाश्वः) अश्वमारोहतीति अश्वारूढः, स एव अश्वः। विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा लोपो वक्तव्यः। वा० पा० ५।३।८३। इत्यारूढपदलोपः राजाश्वारूढः=राजाश्वः, कुशलोऽश्वारूढः (पृष्ट्याम्) पृषु सेचनहिंसासंक्लेशनेषु−क्तिन्, ततो यत्। पृष्टौ क्लेशसाधनाया रज्ज्वां भवरश्मिप्रग्रहम् (इव) यथा (रेष्मच्छिन्नम्) रिष हिंसायाम्−मनिन्। रेषकेण तीव्रवायुना भग्नम् (यथा) येन प्रकारेण (मयि) मम वशे (ते) तव (वेष्टताम्) आच्छाद्यताम् (मनः) ॥
०३ आञ्जनस्य मदुघस्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आञ्ज॑नस्य म॒दुघ॑स्य॒ कुष्ठ॑स्य॒ नल॑दस्य च।
तु॒रो भग॑स्य॒ हस्ता॑भ्यामनु॒रोध॑न॒मुद्भ॑रे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आञ्ज॑नस्य म॒दुघ॑स्य॒ कुष्ठ॑स्य॒ नल॑दस्य च।
तु॒रो भग॑स्य॒ हस्ता॑भ्यामनु॒रोध॑न॒मुद्भ॑रे ॥
०३ आञ्जनस्य मदुघस्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Of ointment, of madúgha, of kúṣṭha, and of nard, by the hands of
Bhaga, I bring up quick a means of subjection.
Notes
The construction of the genitives in the first half-verse is obscure.
The comm. makes them depend on anurodhanam, and so also Grill. They
are perhaps rather the means by which the anurodhana (= anulepana,
comm.) or gaining to one’s purposes of the desired person is to be
brought about, and so are coördinate with Bhagasya, the latter’s
‘hands’ taking the place of the ‘means’ or ‘aid’ which would have better
suited them. Turás in c is possibly genitive, ‘of quick’ (or
powerful) Bhaga (so the comm.: = tvaramāṇasya). Ppp. reads (as in
other places) madhugasya in a; the comm. madhughasya. Ppp. has
also ā for ud in d. Several of our mss. (P.M.I.O.T.) accent ánu
ródh-, ⌊and so do six of⌋ SPP’s authorities.
The tenth anuvāka, of 10 hymns and 30 verses, ends here; the quoted
Anukr. says simply daśama.
Here ends also the fourteenth prapāṭhaka.
Griffith
Swiftly from Bhaga’s hands I bear away a love-compelling charm Of ointment and of sugar-cane, of Spikenard and the Kushtha plant.
पदपाठः
आ॒ऽअञ्ज॑नस्य। म॒दुघ॑स्य। कुष्ठ॑स्य। नल॑दस्य। च॒। तु॒रः। भग॑स्य। हस्ता॑भ्याम्। अ॒नु॒ऽरोध॑नम्। उत्। भ॒रे॒। १०२.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अश्विनौ
- जमदग्नि
- अनुष्टुप्
- अभिसांमनस्य सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
जितेन्द्रिय होने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (आञ्जनस्य) संसार के प्रकट करनेवाले, (मदुघस्य) आनन्द के सींचनेवाले, (कुष्ठस्य) गुण जाँचनेवाले, (नलदस्य) बन्धन काटनेवाले, (तुरः) शीघ्रकारी, (च) और (भगस्य) बड़े ऐश्वर्यवाले ब्रह्म के (अनुरोधनम्) यथावत् पूजन को (हस्ताभ्याम्) अपने दोनों हाथों [में बल] के लिये (उत्) उत्तम रीति से (भरे) मैं धारण करता हूँ ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य उस जगदीश्वर के अनन्त शुभगुणों का विचार करके प्रयत्नपूर्वक सदा प्रसन्न रहें ॥३॥ इति दशमोऽनुवाकः ॥ इति चतुर्दशः प्रपाठकः ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(आञ्जनस्य) अ० ४।९।३। आङ्+अञ्जू व्यक्तौ−ल्युट्। यथावत्संसारस्य व्यक्तीकारकस्य ब्रह्मणः (मदुघस्य) भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति मद हर्षे−उ प्रत्ययः+घृ सेके भासे च−ड। हर्षसेचकस्य (कुष्ठस्य) अ० ५।४।१। कुष निष्कर्षे−क्थन्। गुणपरीक्षकस्य (नलदस्य) अ० ४।३७।३। णल बन्धने−अच्+दो अवखण्डने−क। बन्धनच्छेदकस्य (च) (तुरः) तुर त्वरणे−क्विप्। वरणशीलस्य (भगस्य) ऐश्वर्यवतो ब्रह्मणः (हस्ताभ्याम्) हस्तयोर्बलप्राप्तये (अनुरोधनम्) यथावत्पूजनम् (उत्) उत्कर्षेण (भरे) हृदये धरामि ॥