१०१ वाजीकरणम् ...{Loading}...
Whitney subject
- For virile power.
VH anukramaṇī
वाजीकरणम्।
१-३ अथर्वाङ्गिराः। ब्रह्मणसपतिः। अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Atharvān̄giras (śepaḥprathanakāmaḥ).—brāhmaṇaspatyam. ānuṣṭubham.]
Whitney
Comment
Not found in Pāipp. Used by Kāuś. (40. 18) in a rite for sexual vigor, after vi. 72.
Translations
Translated: Griffith, i. 474.—Cf. iv. 4; vi. 72.
०१ आ वृषायस्व
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ वृ॑षायस्व श्वसिहि॒ वर्ध॑स्व प्र॒थय॑स्व च।
य॑था॒ङ्गं व॑र्धतां॒ शेप॒स्तेन॑ यो॒षित॒मिज्ज॑हि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ वृ॑षायस्व श्वसिहि॒ वर्ध॑स्व प्र॒थय॑स्व च।
य॑था॒ङ्गं व॑र्धतां॒ शेप॒स्तेन॑ यो॒षित॒मिज्ज॑हि ॥
०१ आ वृषायस्व ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Play thou the bull, blow, increase and spread; let thy member
increase limb by limb; with it smite the woman.
Notes
The comm. takes yathā and an̄gam in c as two separate words, and
many of SPP’s saṁhitā mss. accent yáthā ’n̄gám According to the
comm., the amulet of arka-wood is the remedy here used. ⌊Cf. also the
Bower Manuscript, ed. Hoernle, Part I., p. 5, śloka 60, and p. 17, where
pomegranate rind and mustard oil take the place of arka.⌋
Griffith
Taurum age, palpita, incresce et teipsum extende: per totum membrum increscat penis: hoc tu caede feminam.
पदपाठः
आ। वृ॒ष॒ऽय॒स्व॒। श्व॒सि॒हि। वर्ध॑स्व। प्र॒थय॑स्व। च॒। य॒था॒ऽअ॒ङ्गम्। व॒र्ध॒ता॒म्। शेपः॑। तेन॑। यो॒षित॑म्। इत्। ज॒हि॒। १०१.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ब्रह्मणस्पतिः
- च॒क॒र्थ॒ । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥१००.३॥
- अनुष्टुप्
- बलवर्धक सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (आ) भले प्रकार (वृषायस्व) इन्द्र, बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष के समान आचरण कर, (श्वसिहि) जीता रह, (वर्धस्व) बढ़ती कर (च) और [हमें] (प्रथयस्य) फैला। (यथाङ्गम्) प्रत्येक अङ्ग में [तेरा] (शेपः) सामर्थ्य (वर्धताम्) बढ़े, (तेन) इसलिये (योषितम्) सेवनीय नीति को (इत्) ही (जहि) तू प्राप्त हो ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा पुरुषार्थपूर्वक अपनी और प्रजा की उन्नति में सदा तत्पर रहे ॥१॥ राज्य की बढ़ती के चार अङ्ग वा उपाय यह हैं [सामदाने भेददण्डावित्युपायचतुष्टम्−अमर १८।२०] १−साम, प्रियवचन, २−दान, धन देना, ३−भेद, शत्रुओं में फूट कर देना, ४−दण्ड ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(आ) समन्तात् (वृषायस्य) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। इति वृषन्−क्यङ्। वृषा इन्द्र इवाचर (श्वसिहि) श्वस प्राणने। प्राणिहि। बलवान् भव (वर्धस्व) बुद्धिं कुरु (प्रथयस्य) विस्तारय प्रजागणान् (च) (यथाङ्गम्) अङ्गान्यनतिक्रम्य। सर्वाङ्गम् (वर्धताम्) वृद्धिं प्राप्नोतु (शेपः) अ० ४।३७।७। शेते वर्तते शरीरे तत् सामर्थ्यम् (तेन) कारणेन (योषितम्) अ० १।१७।१। युष सेवने−इति। सेव्यां नीतिम् (इत्) एव (जहि) हन गतौ। गच्छ ॥
०२ येन कृषम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
येन॑ कृ॒षं वा॒जय॑न्ति॒ येन॑ हि॒न्वन्त्यातु॑रम्।
तेना॒स्य ब्र॑ह्मणस्पते॒ धनु॑रि॒वा ता॑नया॒ पसः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
येन॑ कृ॒षं वा॒जय॑न्ति॒ येन॑ हि॒न्वन्त्यातु॑रम्।
तेना॒स्य ब्र॑ह्मणस्पते॒ धनु॑रि॒वा ता॑नया॒ पसः॑ ॥
०२ येन कृषम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Wherewith they invigorate one who is lean, wherewith they incite
(hi) one who is ill—with that, O Brahmaṇaspati, make thou his member
taut like a bow.
Notes
Our Bp. reads vājayánti in a. The second half-verse is nearly a
repetition of iv. 4. 6 c, d. The comm. reads vaśam for kṛśam in
a.
Griffith
Quo debilem stimulant, quo aegrum excitant (homines), hoc, O Brahmanaspatis, hujus penem in arcus modum extende.
पदपाठः
येन॑। कृ॒शम्। वा॒जय॑न्ति। येन॑। हि॒न्वन्ति॑। आतु॑रम्। तेन॑। अ॒स्य। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। धनुः॑ऽइव। आ। ता॒न॒य॒। पसः॑। १०१.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ब्रह्मणस्पतिः
- अथर्वाङ्नगिरा
- अनुष्टुप्
- बलवर्धक सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (येन) जिस कर्म से (कृशम्) दुर्बल को (वाजयन्ति) बली करते हैं और (येन) जिस से (आतुरम्) अशान्त पुरुष को (हिन्वन्ति) प्रसन्न करते हैं। (तेन) उसी कर्म से (ब्रह्मणस्पते) हे अन्न, वा धन, वा वेद वा ब्राह्मण के रक्षक परमेश्वर ! (अस्य) इसके (पसः) राज्य को (धनुः इव) धनुष के समान (आ) भले प्रकार (तानय) फैला ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा निर्बल और रोगियों को यथावत् सुख देकर अपने राज्य को सदा बढ़ावे ॥२॥ इस मन्त्र का उत्तरार्ध कुछ भेद से आ चुका है−अ० ४।४।६ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(येन) कर्मणा (कृशम्) दुर्बलम् (वाजयन्ति) वाजयति=अर्चति−निघ० ३।१४। वाजो बलम्−निघ० २।९। अर्शआद्यच्। वाजं बलिनं कुर्वन्ति वाजयन्ति (हिन्वन्ति) हिवि प्राणने। प्राणयन्ति (आतुरम्) मद्गुरादयश्च। उ० १।४१। अत सातत्यगमने उरच्, धातोः दीर्घः। अशान्तम्। रोगार्तम् (तेन) कर्मणा। अन्यद्गतम्−अ० ४।४।६। (पसः) पस बन्धने बाधे च−असुन्। राष्ट्रम्−दयानन्दभाष्ये यजु० २३।२२ ॥
०३ आहं तनोमि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आहं त॑नोमि ते॒ पसो॒ अधि॒ ज्यामि॑व॒ धन्व॑नि।
क्रम॑स्वर्श॑ इव रो॒हित॒मन॑वग्लायता॒ सदा॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आहं त॑नोमि ते॒ पसो॒ अधि॒ ज्यामि॑व॒ धन्व॑नि।
क्रम॑स्वर्श॑ इव रो॒हित॒मन॑वग्लायता॒ सदा॑ ॥
०३ आहं तनोमि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I make thy member taut, like a bowstring on a bow; mount, as it were
a stag a doe, unrelaxingly always.
Notes
This verse is a repetition of iv. 4. 7. The Anukr. passes unnoticed the
abbreviated iva both here and in vs. 2.
Griffith
Velut nervum in arcu ego tuum fascinum extendo. Aggredere (mulierem) semper indefessus velut cervus damam.
पदपाठः
आ। अ॒हम्। त॒नो॒मि॒। ते॒। पसः॑। अधि॑। ज्याम्ऽइ॑व। धन्व॑नि। क्रम॑स्व। ऋशः॑ऽइव। रो॒हित॑म्। अन॑वऽग्लायता। सदा॑। १०१.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ब्रह्मणस्पतिः
- अथर्वाङ्नगिरा
- अनुष्टुप्
- बलवर्धक सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) मैं [हे मनुष्य !] (ते) तेरे (पसः) राज्य को (आ) यथावत् (तनोमि) फैलाता हूँ (ज्याम् इव) जैसे डोरी को (धन्वनि अधि) धनुष में। (अनवग्लायता) बिना ग्लानि वा थकावट के (सदा) सदा [शत्रुओं पर] (क्रमस्व) धावा कर, (ऋशः इव) जैसे हिंसक जन्तु सिंह आदि (रोहितम्) हरिण पर ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर के दिये सामर्थ्यों से निरालसी होकर शत्रुओं को वश में करके सदा प्रजापालन करे ॥३॥ यह मन्त्र आ चुका है−अ० ४।४।७ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−अयं मन्त्रो व्याख्येयो यथा−अ० ४।४।४७ ॥