०९५ कुष्ठौषधिः ...{Loading}...
Whitney subject
- For relief from disease: with kúṣṭha.
VH anukramaṇī
कुष्ठौषधिः।
१-३ भृग्वङ्गिराः। वनस्पतिः। अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Bhṛgvan̄giras.—vānaspatyam; mantroktadevatyam. ānuṣṭubham.]
Whitney
Comment
The hymn is not found in Pāipp. As in the case of the preceding hymn, the first two verses have already occurred in the AV. text: namely, as v. 4. 3, 4. The comm. regards this hymn as included in the kuṣṭhalin̄gās of Kāuś. 28. 13; and vs. 3 (instead of v. 25. 7) as intended in Vāit. 28. 20, in the agnicayana.
Translations
Translated: Griffith, i. 297.
०१ अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॑श्व॒त्थो दे॑व॒सद॑नस्तृ॒तीय॑स्यामि॒तो दि॒वि।
तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑श्व॒त्थो दे॑व॒सद॑नस्तृ॒तीय॑स्यामि॒तो दि॒वि।
तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥
०१ अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The aśvatthá, seat of the gods, in the third heaven from here;
there the gods won the kúṣṭha, the sight of immortality.
Notes
Griffith
In the third heaven above us stands the Asvattha tree, the seat of Gods. There the Gods gained the Kushtha plant, embodiment of end- less life.
पदपाठः
अ॒श्व॒त्थः। दे॒व॒ऽसद॑नः। तृ॒तीय॑स्याम्। इ॒तः। दि॒वि। तत्र॑। अ॒मृत॑स्य। चक्ष॑णम्। दे॒वाः। कुष्ठ॑म्। अ॒व॒न्व॒त॒। ९५.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वनस्पतिः
- भृग्वङ्गिरा
- अनुष्टुप्
- कुष्ठौषधि सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (देवसदनः) विद्वानों के बैठने योग्य (अश्वत्थः) वीरों के ठहरने का देश [अधिकार] (तृतीयस्याम्) तीसरी [निकृष्ट और मध्यम अवस्था से परे, श्रेष्ठ] (दिवि) गति में (इतः) प्राप्त होता है। (तत्र) उसमें (अमृतस्य) अमृत [पूर्ण सुख] के (चक्षणम्) दर्शन (कुष्ठम्) गुणपरीक्षक पुरुष को (देवाः) महात्माओं ने (अवन्वत) मांगा है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग इस ईश्वरनियम को निश्चय करके मानते हैं कि अति विद्वान् पुरुषार्थी मनुष्य उच्च अधिकार के योग्य होता है ॥१॥ (अश्वत्थः) पीपल के वृक्ष को भी कहते हैं, इसका गुण−अ० ३।६।१। में वर्णन हो चुका है। (कुष्ठ) कूट ओषधि विशेष भी है, देखो−अ० ५।४।१ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(अश्वत्थः) अ० ३।६।१। अश्व+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−क, पृषोदरादिरूपम्। अश्वानां कर्मसु व्यापनशीलानां वीराणां स्थितिदेशः। (तृतीयस्याम्) निकृष्टमध्यमाभ्यां परायां श्रेष्ठायाम् (दिवि) गतौ (कुष्ठम्) अ० ५।४।१। कुष निष्कर्षे−क्थन्। गुणपरीक्षकम् (अवन्वत) याचितवन्तः। अन्यद् गतम्−अ० ५।४।३ ॥
०२ हिरण्ययी नौरचरद्धिरण्यबन्धना
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
हि॑र॒ण्ययी॒ नौर॑चर॒द्धिर॑ण्यबन्धना दि॒वि।
तत्रा॒मृत॑स्य॒ पुष्पं॑ दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
हि॑र॒ण्ययी॒ नौर॑चर॒द्धिर॑ण्यबन्धना दि॒वि।
तत्रा॒मृत॑स्य॒ पुष्पं॑ दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥
०२ हिरण्ययी नौरचरद्धिरण्यबन्धना ...{Loading}...
Whitney
Translation
- A golden ship, of golden tackle, moved about in the sky; there the
gods won the kúṣṭha, the flower of immortality.
Notes
SPP. reads in c púṣpam, with, as he claims, all his authorities
save one; as the verse is repeated from a book to which the comm. has
not been found, we do not know how he read. ⌊See W’s note to v. 4. 4.
But a note in his copy of the printed text here seems to prefer
púṣpam.⌋
Griffith
There moved through heaven a golden ship, a ship with cordage wrought of gold. There Gods obtained the Kushtha plant, the flower of immor- tality.
पदपाठः
हि॒र॒ण्ययी॑। नौः। अ॒च॒र॒त्। हिर॑ण्यऽबन्धना। दि॒वि। तत्र॑। अ॒मृत॑स्य। पुष्प॑म्। दे॒वाः। कुष्ठ॑म्। अ॒व॒न्व॒त॒। ९५.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वनस्पतिः
- भृग्वङ्गिरा
- अनुष्टुप्
- कुष्ठौषधि सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (हिरण्ययी) तेजवाली [अग्नि वा बिजुली वा सूर्य से चलनेवाली] (हिरण्यबन्धना) तेजोमय बन्धनवाली (नौः) नाव (दिवि) चलने के व्यवहार में (अचरत्) चलती थी। (तत्र) वहाँ पर (अमृतस्य) अमृत के (पुष्पम्) विकाश, (कुष्ठम्) गुणपरीक्षक पुरुष को (देवाः) विद्वान् लोगों ने (अवन्वत) माँगा है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग तीक्ष्णबुद्धि मनुष्य द्वारा, अग्नि, बिजुली और सूर्य विद्या से, अग्निपोत, पुष्पक विमान आदि यान बना कर आनन्द पाते हैं ॥२॥ यह मन्त्र आ चुका है−अ० ५।४।४ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(हिरण्ययी) तेजोमयी अग्निना विद्युता सूर्येण वा गन्त्री (दिवि) गमने ॥ अन्यद्यथा−अ० ५।४।४ ॥
०३ गर्भो अस्योषधीनाम्
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गर्भो॑ अ॒स्योष॑धीनां॒ गर्भो॑ हि॒मव॑तामु॒त।
गर्भो॒ विश्व॑स्य भू॒तस्ये॒मं मे॑ अग॒दं कृ॑धि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
गर्भो॑ अ॒स्योष॑धीनां॒ गर्भो॑ हि॒मव॑तामु॒त।
गर्भो॒ विश्व॑स्य भू॒तस्ये॒मं मे॑ अग॒दं कृ॑धि ॥
०३ गर्भो अस्योषधीनाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Thou art the young (gárbha) of herbs; the young also of the snowy
[mountains], the young of all existence; make thou this man free from
disease for me.
Notes
The comm. understands the third verse as addressed to Agni; but much
more probably the kuṣṭha is intended. From garbho in c the
superfluous accent-mark above the line is to be deleted. ⌊Our a, b,
c are nearly v. 25. 7 a, b, c; and d is nearly v. 4. 6 c.⌋
Griffith
Thou art the infant of the plants, the infant of the Snowy Hills: The germ of every thing that is: free this my friend from his disease.
पदपाठः
गर्भः॑। अ॒सि॒। ओष॑धीनाम्। गर्भः॑। हि॒मऽव॑ताम्। उ॒त। गर्भः॑। विश्व॑स्य। भू॒तस्य॑। इ॒मम्। मे॒। अ॒ग॒दम्। कृ॒धि॒। ९५.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वनस्पतिः
- भृग्वङ्गिरा
- अनुष्टुप्
- कुष्ठौषधि सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्वानों के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमेश्वर !] तू (ओषधीनाम्) ताप रखनेवाले [सूर्य आदि] लोकों का (गर्भः) स्तुतियोग्य आधार (उत) और (हिमवताम्) शीतस्पर्शवाली [जल मेघ आदि] का (गर्भः) ग्रहण करनेवाला और (विश्वस्य) सब (भूतस्य) प्राणिसमूह का (गर्भः) आधार (असि) है। (मे) मेरे लिये (इमम्) इस [संसार] को (अगदम्) नीरोग (कृधि) तू कर ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य परमेश्वर के उत्पन्न पदार्थों का गुण जान कर प्रयोग करते हैं, वे संसार में सुख भोगते हैं ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है−अ० २५।५।७ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(गर्भः) अ० ३।१०।१२। गरणीयः। स्तुत्यः। ग्रहीता। आधारः। (ओषधीनाम्) अ० १।२३।१। ओष+डुधाञ् धारणपोषणायोः−कि। ओषस्य तापस्य धारकाणां सूर्यादिलोकानाम् (हिमवताम्) शीतस्पर्शवतां जलमेघादीनाम् (उत) अपि च (भूतस्य) प्राणिजातस्य (इमम्) दृश्यमानं संसारम् (अगदम्) अ० ४।१७।८। नीरोगम् (कृधि) कुरु। अन्यद् गतम्−अ० ५।२५।७ ॥