०८३ भैषज्यम् ...{Loading}...
Whitney subject
- To remove apacíts.
VH anukramaṇī
भैषज्यम्।
१-४ भगः। २ सूर्यः, चन्द्रमाः, २ रोहिणी, ३ रामायणी। अनुष्टुप्, ४ एकावसाना द्विपदा निचृदार्च्यनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[An̄giras.—caturṛcam. mantroktadevatyam. ānuṣṭubham: 4. 1-av. 2-p. nicṛd ārcy anuṣṭubh.]
Whitney
Comment
⌊Part (vs. 4) prose.⌋ Found also in Pāipp. i. (but without the added vs. 4). Kāuś. (31. 16) employs it in a healing rite, with vii. 76 (against gaṇḍamālā, schol., comm.); vss. 3 c, d and 4 are specified in the sequel of the rite (31. 20, 21); the comm. treats vs. 4 as beginning of hymn 84; it is applied by Kāuś. in the treatment of a sore of unknown origin (ajñātārus: catuṣpād gaṇḍa, comm.).
Griffith
A charm against sores and pustules (apachitas)
०१ अपचितः प्र
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अप॑चितः॒ प्र प॑तत सुप॒र्णो व॑स॒तेरि॑व।
सूर्यः॑ कृ॒णोतु॑ भेष॒जं च॒न्द्रमा॒ वोऽपो॑च्छतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अप॑चितः॒ प्र प॑तत सुप॒र्णो व॑स॒तेरि॑व।
सूर्यः॑ कृ॒णोतु॑ भेष॒जं च॒न्द्रमा॒ वोऽपो॑च्छतु ॥
०१ अपचितः प्र ...{Loading}...
Whitney
Translation
- O apacíts, fly forth, like a bird (suparṇá) from its nest; let
the sun make remedy; let the moon shine you away.
Notes
It was Bloomfield (in the article referred to above) who first
maintained that the apacít is a pustule or sore. The comm. directly
identifies the apacits with the gaṇḍamālās, “scrofulous swellings of
the glands of the neck” (BR.), and explains all the processes implied in
the hymn as referring to such. His etymology of the word under this
verse is ‘gathered offward by reason of defect’ (doṣavaśād apāk
cīyamānāḥ), and he describes them as ‘beginning from the throat [and]
proceeding downward’ (galād ārabhya adhastāt prasṛtāḥ). The accent of
kṛṇótu in c is the usual antithetical one; SPP. makes a wholly
unnecessary and very venturesome suggestion to explain it.
Griffith
Hence, Sores and Pustules, fly away even as the eagle from his home. Let Surya bring a remedy, the Moon shine forth and banish you.
पदपाठः
अप॑ऽचितः। प्र। प॒त॒त॒। सु॒ऽप॒र्णः। व॒स॒तेःऽइ॑व। सूर्यः॑। कृ॒णोतु॑। भे॒ष॒जम्। च॒न्द्रमाः॑। वः॒। अप॑। उ॒च्छ॒तु॒। ८३.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः, चन्द्रः
- अङ्गिरा
- अनुष्टुप्
- भैषज्य सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अपचितः) हे सुख नाश करनेवाली गण्डमाला आदि पीड़ाओ ! (प्र पतत) चली जाओ, (सुपर्णः इव) जैसे शीघ्रगामी पक्षी [श्येन] (वसतेः) अपनी वसती से। (सूर्यः) प्रेरणा करनेवाला [वैद्य वा सूर्य लोक] (भेषजम्) औषध (कृणोतु) करे, और (चन्द्रमाः) आनन्द देनेवाला [वैद्य वा चन्द्र लोक] (वः) तुम को (अप उच्छतु) निकाल देवे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे सद्वैद्य गण्डमाला आदि रोगों को सूर्य वा चन्द्रमा की किरणों द्वारा वा अन्य औषधों से अच्छा करता है, वैसे ही मनुष्य विद्या की प्राप्ति से अविद्या का नाश करके सुखी होवें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(अपचितः) अप पूर्वात् चिनोतेः−क्विप्। हे सुखनाशिका गण्डमालादिपीडाः (प्र पतत) प्रकर्षेण निर्गच्छत (सुपर्णः) अ० १।२४।१। शोभनपतनः शीघ्रगामी पक्षी (वसतेः) वहिवस्यर्त्तिभ्यश्चित्। उ० ४।६०। इति वस निवासे−अति। गृहात् नीडात् (इव) यथा (सूर्यः) प्रेरको वैद्यः सूर्यलोको वा स्वकिरणद्वारा (कृणोतु) करोतु (भेषजम्) चिकित्सनम् (चन्द्रमाः) अ० ५।२४।१०। आह्लादकरो वैद्यश्चन्द्रलोको वा स्वकिरणद्वारा (वः) युष्मान् (अपोच्छतु) उच्छी विवासे, अपवासयतु। अपवर्जयतु ॥
०२ एन्येका श्येन्येका
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एन्येका॒ श्येन्येका॑ कृ॒ष्णैका॒ रोहि॑णी॒ द्वे।
सर्वा॑सा॒मग्र॑भं॒ नामावी॑रघ्नी॒रपे॑तन ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
एन्येका॒ श्येन्येका॑ कृ॒ष्णैका॒ रोहि॑णी॒ द्वे।
सर्वा॑सा॒मग्र॑भं॒ नामावी॑रघ्नी॒रपे॑तन ॥
०२ एन्येका श्येन्येका ...{Loading}...
Whitney
Translation
- One [is] spotted, one whitish (śyénī), one black, two red; of all
have I taken the name; go ye away, not slaying [our] men.
Notes
The comm. explains enī as īṣadraktamiśraśveta.
Griffith
One bright with variegated tints, one white, one black, a couple red:– The’names of all have I declared. Begone, and injure not our men.
पदपाठः
एनी॑। एका॑। श्येनी॑। एका॑। कृ॒ष्णा। एका॑। रोहि॑णी॒ इति॑। द्वे इति॑। सर्वा॑साम्। अ॒ग्र॒भ॒म्। नाम॑। अवी॑रऽघ्नीः। अप॑। इ॒त॒न॒। ८३.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः, चन्द्रः
- अङ्गिरा
- अनुष्टुप्
- भैषज्य सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (एका) एक [गण्डमाला आदि] (एनी) चितकबरी, (एका) एक (श्येनी) श्वेतवर्ण, (एका) एक (कृष्णा) काली और (द्वे) दो (रोहिणी) लाल रंग हैं। (सर्वासाम्) सब [गण्डमाला आदि पीड़ाओं] का (नाम) नाम (अग्रभम्) मैंने ग्रहण किया है, (अवीरघ्नीः) अवीरों कातरों को नाश करती हुई (अप इतन) तुम चली जाओ ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार चिकित्सक रोग का वात पित्त श्लेष्म आदि निदान समझ कर गण्डमाला आदि रोगों की निवृत्ति करता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् मनुष्य अपनी कुवासनाओं का कारण समझ कर उनका नाश करे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(एनी) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति इण् गतौ−तन्। वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः। पा० ४।१।३९। इति ङीप्, तस्य च नः। चित्रवर्णा (एका) गण्डमालादिपीडा (श्येनी) हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। इति श्यैङ् गतौ−इतन्। पूर्ववद्ङीप्, तस्य च नः। श्वेतवर्णा (एका) (कृष्णा) कृष्णवर्णा (एका) (रोहिणी) रोहितशब्दस्य पूर्ववद्ङीप्नकारौ। रोहिण्यौ। लोहितवर्णे वातपित्तश्लेष्मवशाद् वर्णनानात्वाद् एतासां नानात्वम् (सर्वासाम्) अपचिताम् (अग्रभम्) अहमग्रहीषम् (नाम) प्रसिद्धौ (अवीरघ्नीः) बहुलं छन्दसि। पा० ३।२।८९। इति वीर+हन वधे−क्विप्। ऋन्नेभ्यो ङीप्। पा० ४।१।५। इति ङीप्। अल्लोपोऽनः। पा० ६।४।१३४। अकारलोपः। वा च्छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। अवीरान् कातरान् सत्यः (अपेतन) तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१४५। इति एतेर्लोटि तस्य तनादेशः। अपगच्छत ॥
०३ असूतिका रामायण्यपचित्प्र
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अ॒सूति॑का रामाय॒ण्य᳡प॒चित्प्र प॑तिष्यति।
ग्लौरि॒तः प्र प॑तिष्यति॒ स ग॑लु॒न्तो न॑शिष्यति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒सूति॑का रामाय॒ण्य᳡प॒चित्प्र प॑तिष्यति।
ग्लौरि॒तः प्र प॑तिष्यति॒ स ग॑लु॒न्तो न॑शिष्यति ॥
०३ असूतिका रामायण्यपचित्प्र ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Barren shall the apacít, daughter of the black one, fly forth; the
boil (glāú) shall fly forth from here; it shall disappear from the
neck (? galuntás).
Notes
The translation here given of ‘galuntás is the purest conjecture, as
if the word were a corruption of some form of gala (our W.O.D. read
galantás), with ablative-suffix tas. It might contain gaḍu
’excrescence on the throat’; indeed, the comm. etymologizes it as gaḍūn
- √tas! He uderstands na śiṣyati as two independent words. Ppp. has
sakalaṁ tena śudhyati (or śuṣyati), perhaps ’thereby it dries wholly
up.’ For rāmāyaṇī, compare vii. 74. 1.
Griffith
Hence, childless, shall the Pustule flee, grand-daughter of the dusky one. The Boil shall fly away from us, the morbid growth shall vanish hence. Taste, happy in thy mind, thine own oblation, as I with Svaha with my heart present it.
पदपाठः
अ॒सूति॑का। रा॒मा॒य॒णी। अ॒प॒ऽचित्। प्र। प॒ति॒ष्य॒ति॒। ग्लौः। इ॒तः। प्र। प॒ति॒ष्य॒ति॒। सः। ग॒लु॒न्तः। ना॒शि॒ष्य॒ति॒। ८३.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः, चन्द्रः
- अङ्गिरा
- अनुष्टुप्
- भैषज्य सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रामायणी) प्राण वायु के रमणस्थान नाड़ियों में मार्गवाली (अपचित्) सुख नाश करनेवाली गण्डमाला आदि पीड़ा (असूतिका) बाँझ होकर (प्र पतिष्यति) चली जायगी। (ग्लौः) हर्षनाशक घाव (इतः) इस [रोगी] से (प्र पतिष्यति) चला जावेगा (सः) वह [घाव] (गलुन्तः) गलाव से कोमल होकर (नशिष्यति) नष्ट हो जावेगा ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार सद्वैद्य की ओषधि से रोग बढ़ने से रुककर नष्ट हो जाता है, वैसे ही मनुष्य विद्या की प्राप्ति से अविद्या को मिटा कर सुखी होता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(असूतिका) षूङ् प्राणिप्रसवे−क्त, स्वार्थे कन्। बन्ध्या। रोगानुत्पादिका सती (रामायणी) रमते आसु प्राणवायुरिति रामा नाड्यः, ता अयनं मार्गो यस्याः सा तथाभूता (अपचित्) म० १। हर्षनाशिका गण्डमालादिपीडा (प्रपतिष्यति) प्रकर्षेण गमिष्यति (ग्लौः) ग्लानुदिभ्यां डौः। उ० २।६४। इति ग्लै हर्षक्षये−डौ। हर्षनाशको व्रणः (इतः) एतस्माद् रोगिणः पुरुषात् (प्रपतिष्यति) (सः) ग्लौः (गलुन्तः) गल क्षरणे−क्विप्+उन्दी क्लेदने−क्त। नुदविदोन्द० पा० ८।२।५६। इति वैकल्पिकत्वाद् नत्वं न। गला गलनेन उन्तः उन्नः क्लिन्नः कोमलीकृतः (नशिष्यति) णश अदर्शने। अदृष्टो भविष्यति ॥
०४ वीहि स्वामाहुतिम्
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वी॒हि स्वामाहु॑तिं जुषा॒णो मन॑सा॒ स्वाहा॒ मन॑सा॒ यदि॒दं जु॒होमि॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वी॒हि स्वामाहु॑तिं जुषा॒णो मन॑सा॒ स्वाहा॒ मन॑सा॒ यदि॒दं जु॒होमि॑ ॥
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Whitney
Translation
- Partake (vī) of [thine] own oblation, enjoying with the mind;
hail! as now I make oblation with the mind.
Notes
This verse, which breaks the uniformity of the book, is evidently an
intrusion, and has no apparent connection with the rest of the hymn,
although it is acknowledged by both Anukr. and comm. The latter
curiously mixes it up with vs. 1 of the next hymn, reckoning it with 84.
1 a, b as one verse, and reckoning 84. 1 c, d and 2 as the
following verse, thus ⌊making 83 a tṛca and 84 a caturṛca.⌋ ⌊An
āṛcy amiṣṭubh would seem to be 24 syllables.⌋
Griffith
वी॒हि स्वामाहु॑तिं जुषा॒णो मन॑सा॒ स्वाहा॒ मन॑सा॒ यदि॒दं जु॒होमि॑ ॥४॥
पदपाठः
वी॒हि। स्वाम्। आऽहु॑तिम्। जु॒षा॒णः। मन॑सा। स्वाहा॑। मन॑सा। यत्। इ॒दम्। जु॒होमि॑। ८३.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः, चन्द्रः
- अङ्गिरा
- एकावसाना द्विपदा निचृदार्ची
- भैषज्य सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (मनसा) मन से (जुषाणः) प्रीति करता हुआ तू (स्वाम्) अपनी (आहुतिम्) धर्म से देने लेने योग्य क्रिया को (वीहि) प्राप्त हो, (यत्) क्योंकि (स्वाहा) सुन्दर वाणी से और (मनसा) उत्तम विचार से (इदम्) ऐश्वर्य का कारण ज्ञान (जुहोमि) मैं देता हूँ ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य ईश्वर और विद्वानों के उपदेश अनुसार विचारपूर्वक पुरुषार्थ के साथ अपना कर्तव्य पालन करके प्रसन्न होवे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(वीहि) प्राप्नुहि (स्वाम्) स्वकीयाम्। पौरुषेण प्राप्ताम् (आहुतिम्) हु दानादनयोः−क्तिन्। समन्ताद् दातव्यग्राह्यक्रियाम् (जुषाणः) प्रीयमाणः (मनसा) अन्तःकरणेन सुविचारेण (स्वाहा) सुवाण्या (मनसा) (यत्) यस्मात्कारणात् (इदम्) इन्देः कमिन् नलोश्च। उ० ४।१५७। इदि परमेश्वर्ये−कमिन्। ऐश्वर्यहेतु ज्ञानम् (जुहोमि) ददामि। उपदिशामि ॥