०७७ प्रतिष्ठापनम्

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Whitney subject
  1. For recovery and retention of what is lost.
VH anukramaṇī

प्रतिष्ठापनम्।
१-३ कबन्धः। जातवेदाः। अनुष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Kabandha.—jātavedasam. ānuṣṭubham.]

Whitney

Comment

Found also in Pāipp. xix. The comm. regards this hymn, and not vi. 44 (which has the same pratīka), as intended in Kāuś. 36. 5, in a rite concerning women (the prevention of a woman’s escape, etc., comm.).

Translations

Translated: Ludwig, p. 468; Griffith, i.286; Bloomfield, 106, 496.

Griffith

A charm to bring the cattle home

०१ अस्थाद् द्यौरस्थात्पृथिव्यस्थाद्विश्वमिदम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अस्था॒द् द्यौरस्था॑त्पृथि॒व्यस्था॒द्विश्व॑मि॒दं जग॑त्।
आ॒स्थाने॒ पर्व॑ता अस्थु॒ स्थाम्न्यश्वाँ॑ अतिष्ठिपम् ॥

०१ अस्थाद् द्यौरस्थात्पृथिव्यस्थाद्विश्वमिदम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The heaven hath stood; the earth hath stood; all this living world
    hath stood; on their base (āsthána) the mountains have stood; I have
    made the horses stand in their station.
Notes

The first half-verse is 44. 1 a, b, above; the second is nearly vii.
96. 1 c, d, below. But Ppp. is different in c, d, and partly
illegible; tiṣṭha…ime sthāmann aśvā ’raṅsata can be read. The comm.
inserts ’thee, O woman’ in d, and regards aśvān as an incomplete
comparison: ‘as they bind vicious horses with ropes’! Prāt. iv. 96
prescribes the unchanged pada-reading atiṣṭhipam. ⌊Most of SPP’s
authorities have asthuḥ in saṁhitā.⌋

Griffith

Firm stands the heaven, firm stands the earth, firm stands this universal world, Firm stand the rooted mountains. I have put the horses in the stall.

पदपाठः

अस्था॑त्। द्यौः। अस्था॑त्। पृ॒थि॒वी। अस्था॑त्। विश्व॑म्। इ॒दम्। जग॑त्। आ॒ऽस्थाने॑। पर्व॑ताः। अ॒स्थुः॒। स्थाम्नि॑। अश्वा॑न्। अ॒ति॒ष्ठि॒प॒म्। ७७.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • जातवेदा अग्निः
  • कबन्ध
  • अनुष्टुप्
  • प्रतिष्ठापन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

संपदा पाने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (द्यौः) सूर्य लोक (अस्थात्) ठहरा हुआ है, (पृथिवी) पृथिवी (अस्थात्) ठहरी हुई है, (इदम्) यह (विश्वम्) सब (जगत्) जगत् (अस्थात्) ठहरा हुआ है। (पर्वताः) सब पर्वत (आस्थाने) विश्रामस्थान में (अस्थु) ठहरे हुए हैं। (अश्वान्) घोड़ों को (स्थाम्नि) स्थान पर (अतिष्ठिपम्) मैंने खड़ा कर दिया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे मनुष्य घोड़े आदि पशुओं को रसरी से बाँधता है, वैसे ही सूर्य आदि लोक परमेश्वरनियम से परस्पर आकर्षण द्वारा स्थित हैं, वैसे ही मनुष्यों को धार्मिक कर्मों के लिये सदा कटिबद्ध रहना चाहिये ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(अस्थात्) तिष्ठति स्म (द्यौः) सूर्यलोकः (अस्थात्) (पृथिवी) (अस्थात्) (विश्वम्) सर्वम् (इदम्) दृश्यमानम् (जगत्) (आस्थाने) विश्रामस्थाने (पर्वताः) शैलाः (अस्थुः) स्थिता अभवन् (स्थाम्नि) आतो मनिन्क्वनिब्०। पा० ३।२।७४। इति ष्ठा−मनिन्। स्थितिस्थाने (अश्वान्) तुरङ्गान् (अतिष्ठिपम्) तिष्ठतेर्ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। स्थापितवानस्मि ॥

०२ य उदानट्

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य उ॒दान॑ट् प॒राय॑णं॒ य उ॒दान॒ण्न्याय॑नम्।
आ॒वर्त॑नं नि॒वर्त॑नं॒ यो गो॒पा अपि॒ तं हु॑वे ॥

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Whitney
Translation
  1. He who hath attained the going away, he who hath attained the coming
    in, the turning hither, the turning in—he who is herdsman, on him I
    call.
Notes

The first half-verse is nearly RV. x. 19. 5 a, b, and the second
exactly ib. 4 c, d. RV. reads vyáyanam for parā́yaṇam in a,
and parā́yaṇam for nyā́yanam in b. The comm. appears to read
nyayanam.

Griffith

I call the Herdsman, him who knows the way to drive the cattle forth, Who knows the way to drive them home, to drive them back and drive them in.

पदपाठः

यः। उ॒त्ऽआन॑ट्। प॒रा॒ऽअय॑नम्। यः। उ॒त्ऽआन॑ट्। नि॒ऽअय॑नम्। आ॒ऽवर्त॑नम्। नि॒ऽवर्त॑नम्। यः। गो॒पाः। अपि॑। तम्। हु॒वे॒। ७७.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • जातवेदा अग्निः
  • कबन्ध
  • अनुष्टुप्
  • प्रतिष्ठापन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

संपदा पाने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जिस (गोपाः) भूमिपालक राजा ने (परायणम्) निकल जाने का सामर्थ्य (उदानट्) पाया है, (यः) जिस ने (न्यायनम्) भीतर जाने का सामर्थ्य, और (यः) जिसने (आवर्तनम्) घूमने और (निवर्तनम्) लौटने का सामर्थ्य (उदानट्) पाया है, (तम्) उसको (अपि) ही (हुवे) मैं बुलाता हूँ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य नीतिनिपुण और कलाकुशल होवे, उसका आदर सत्कार सब मनुष्य करें ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १० सू० १९ म० ५ ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(यः) बलवान् पुरुषः (उदानट्) उत्+अशू व्याप्तौ संघाते च लिटि एश्त्वे, एशो लुक्, व्रश्चादिना षत्वम्। झलां जशोऽन्ते। पा० ८।२।३९। इति डत्वम्। वावसाने। पा० ६।४।५६। इति टत्वम्। आनट्, व्याप्तिकर्मा−निघ० २।१८। उत्कर्षेण व्याप प्राप (परायणम्) बहिर्गमनसामर्थ्यम् (यः) (उदानट्) (न्यायनम्) सांहितिको दीर्घः। अन्तर्गमनम् (आवर्तनम्) चक्रवत् परिक्रमणम् (निवर्तनम्) निवृत्य गमनम् (यः) (गोपाः) गो+पा रक्षणे−विच्। भूमिपालकः। राजा (अपि) एव (तम्) तादृशम् (हुवे) आह्वयामि ॥

०३ जातवेदो नि

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जात॑वेदो॒ नि व॑र्तय श॒तं ते॑ सन्त्वा॒वृतः॑।
स॒हस्रं॑ त उपा॒वृत॒स्ताभि॑र्नः॒ पुन॒रा कृ॑धि ॥

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Whitney
Translation
  1. O Jātavedas, cause to turn in; be thy turners hither a hundred, thy
    turners this way a thousand; with them get for us again.
Notes

Ppp. has, for d, tābhir enaṁ ni vartaya, thus defining the object
of all this recovering action to be some male person or thing. The comm.
interprets it all through as a woman who has escaped or wants to escape.
RV. x. 19 is aimed at kine. Pādas b and c are found in VS. xii.
8, which also ends with púnar no naṣṭám ā́ kṛdhi púnar no rayím ā́
kṛdhi
. Santi would be a better reading in b.

Griffith

O Jatavedas turn them back: a hundred homeward ways be thine! Thou hast a thousand avenues: by these restore our kine to us.

पदपाठः

जात॑ऽवेदः। नि। व॒र्त॒य॒। श॒तम्। ते॒। स॒न्तु॒। आ॒ऽवृतः॑। स॒हस्र॑म्। ते॒। उ॒प॒ऽआ॒वृतः॑। ताभिः॑। नः॒। पुनः॑। आ। कृ॒धि॒। ७७.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • जातवेदा अग्निः
  • कबन्ध
  • अनुष्टुप्
  • प्रतिष्ठापन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

संपदा पाने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (जातवेदः) हे बहुत धनवाले पुरुष ! [हमारी ओर] (नि वर्तय) लौट आ। (ते) तेरे (आवृतः) आगमन के उपाय (शतम्) सौ, और (ते) तेरे (उपावृतः) समीप में भ्रमणमार्ग (सहस्रम्) सहस्र (सन्तु) होवें। (ताभिः) उन क्रियाओं से (नः) हमें (पुनः) अवश्य (आ कृधि) स्वीकार कर ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो पुरुष अपने विद्याबल से अनेक रक्षा के उपाय जानते हैं, मनुष्य उनकी सहायता प्राप्त करते रहें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(जातवेदः) जातानि वेदांसि धनानि यस्य तत्संबुद्धौ हे महाधनिन् पुरुष (नि वर्तय) निवृत्य आगच्छ (शतम्) बहुसंख्याकाः (ते) तव (सन्तु) (आवृतः) वृतु−क्विप्। आवर्तनानि। आगमनोपायाः (सहस्रम्) बहुप्रकाराः (ते) (उपावृतः) समीपदेशप्राप्त्युपायाः (ताभिः) आवृद्भिरुपावृद्भिश्च (नः) अस्मान् (पुनः) अवधारणे (आकृधि) स्वीकुरु ॥