०६१ विश्वस्रष्टा

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Whitney subject
  1. Prayer and boasts.
VH anukramaṇī

विश्वस्रष्टा।
१-३ अथर्वा। रुद्रः। १ त्रिष्टुप्, २-३ भुरिक्।

Whitney anukramaṇī

[Atharvan (?).—rāudram. trāiṣṭubham: 2, 3. bhurij.]

Whitney

Comment

Found also in Pāipp. xix., and in K. xl. 9. Reckoned by Kāuś. (9. 2) to the bṛhachānti gaṇa, and used (41. 14), with vi. 19, 23, 24, etc., in a rite for good fortune; in the kāmya ceremonies (59. 10), for splendor*; also, in the chapter of portents (133. 2), on occasion of one’s house burning down; it is further (note to 50. 13) included in the rāudra gaṇa. In Vāit. (2. 17) vs. 3 accompanies, in the parvan sacrifice, two offerings of butter to Agni and Soma. *⌊Varcas: so the comm.; but Bloomfield reads vyacas, which accords better with 1 d of the text.⌋

Translations

Translated: Griffith, i. 278.

Griffith

A prayer for prosperity and greatness

०१ मह्यमापो मधुमदेरयन्ताम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

मह्य॒मापो॒ मधु॑म॒देर॑यन्तां॒ मह्यं॒ सूरो॑ अभर॒ज्ज्योति॑षे॒ कम्।
मह्यं॑ दे॒वा उ॒त विश्वे॑ तपो॒जा मह्यं॑ दे॒वः स॑वि॒ता व्यचो॑ धात् ॥

०१ मह्यमापो मधुमदेरयन्ताम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. To me let the waters send what has sweetness; to me the sun brought
    [it] in order to light; to me the gods, and all those born of
    penance—to me let god Savitar assign expansion ⌊vyácas⌋.
Notes

Ppp. has, for b, mahyaṁ sūryo bharaj jyotiṣā gam, and, in c,
samotā for tapojā. K. has, in c, mām for mahyam, and anu
for uta, and ends with bhāt (?). Abharat in b cannot well be
correct; we might conjecture instead bhavatu. The Anukr. disregards
the deficiency of a syllable in d.

Griffith

The Waters send me what is sweet and pleasant, Sura bring all I need for light and vision! The deities, and all of pious nature, and Savitar the God afford me freedom!

पदपाठः

मह्य॑म्। आपः॑। मधु॑ऽमत्। आ। ई॒र॒य॒न्ता॒म्। मह्य॑म्। सुरः॑। अ॒भ॒र॒त्। ज्योति॑षे। कम्। मह्य॑म्। दे॒वाः। उ॒त। विश्वे॑। त॒पः॒ऽजाः। मह्य॑म्। दे॒वः। स॒वि॒ता। व्यचः॑। धा॒त्। ६१.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • रुद्रः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • विश्वस्रष्टा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर की महिमा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मह्यम्) मेरे लिये (आपः) व्यापनशील जल (मधुमत्) मधुरपन से (आ ईरयन्ताम्) आकर बहें, (मह्यम्) मेरे लिये (सूरः) लोकों को चलानेवाले सूर्य ने (ज्योतिषे) ज्योति करने को (कम्) सुख (अभरत्) धारण किया है। (उत) और (मह्यम्) मेरे लिये (तपोजाः) तप से उत्पन्न होनेवाले (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम गुण हैं, (मह्यम्) मेरे लिये (देवः) व्यवहार में चतुर (सविता) ऐश्वर्यवान् मनुष्य ने (व्यचः) विस्तार (धात्=अधात्) धारण किया है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर कहता है कि संसार के सब पदार्थ मेरी आज्ञा में रहकर संसार का उपकार करते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(मह्यम्) मदर्थम्। ममाज्ञापालनायेत्यर्थः (आपः) व्याप्तिशीला जलधाराः (मधुमत्) यथा तथा माधुर्य्येण (आ) समन्तात् (ईरयन्ताम्) गच्छन्तु (मह्यम्) (सूरः) अ० ४।२।४। लोकप्रेरकः सूर्यः (अभरत्) अधरत् (ज्योतिषे) अ० १।९।१। प्रकाशदानाय (कम्) सुखम्−निघ० ३।६। (मह्यम्) (देवाः) उत्तमगुणाः (उत) अपि च (विश्वे) सब (तपोजाः) तपसः सामर्थ्याज् जाताः (मह्यम्) (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) ऐश्वर्यवान् मनुष्यः (व्यचः) अ० ४।१९।६। व्याप्तिम् (धात्) लुङि रूपम्। अधात्। धृतवान् ॥

०२ अहं विवेच

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒हं वि॑वेच पृथि॒वीमु॒त द्याम॒हमृ॒तूंर॑जनयं स॒प्त सा॒कम्।
अ॒हं स॒त्यमनृ॑तं॒ यद्वदा॑म्य॒हं दैवीं॒ परि॒ वाचं॒ विश॑श्च ॥

०२ अहं विवेच ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I expanded (?) earth and heaven, I generated the seasons, seven
    together; I speak true what is untrue; I encompass (pári) divine
    speech and people (víśas).
Notes

For the doubtful viveca in a, Ppp. has dadhāra, and K.
astabhnām. Some of the mss. read ajanayan in b (also in 3
b); K. has ajanam (if the reading is correct); Ppp. substitutes
sindhūn sasṛje (for ṛtūṅr aj-). The second half-verse in K. is quite
different: ahaṁ vācam pari sarvām babhūva ya indrāgni asanaṁ sakhāyāu
(the last pāda is parallel with our 3 d). The sense of c is
obscure, and the rendering given only tentative; it implies vadāmi
instead of vádāmi: perhaps, ‘I declare what [is] true [and what]
untrue.’ The comm. reads viśam for viśas at the end. He understands
viveca in a as ‘winnow, separate’ (parasparavivikte asaṁkīrṇarūpe
kṛtavān asmi
).

Griffith

I set the heaven and the earth asunder, I brought all seven sea- sons into being. My word is truth, what I deny is falsehood, above celestial Vak, above the nations.

पदपाठः

अ॒हम्। वि॒वे॒च॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। अ॒हम्। ऋ॒तन्। अ॒ज॒न॒य॒म्। स॒प्त। सा॒कम्। अ॒हम्। स॒त्यम्। अनृ॑तम्। यत्। वदा॑मि। अ॒हम्। दैवी॑म्। परि॑। वाच॑म्। विशः॑। च॒। ६१.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • रुद्रः
  • अथर्वा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • विश्वस्रष्टा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर की महिमा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) मैंने (पृथिवीम्) पृथिवी (उत) और (द्याम्) सूर्य को (विवेच) पृथक्-पृथक् किया, (अहम्) मैंने (सप्त) सात (ऋतून्) व्यापनशील [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] को (साकम्) आपस में मिला हुआ (अजनयम्) उत्पन्न किया है। (अहम्) मैं (यत्) जो कुछ (सत्यम्) सत्य और (अनृतम्) झूठ है [उसे] (च) और (अहम्) मैं (देवीम्) विद्वानों में होनेवाली (वाचम्) वाणी को (विशः परि) सब मनुष्यों में भरपूर (वदामि) बताता हूँ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने पृथिवी सूर्य आदि पदार्थों को रचकर सत्य का विधान और असत्य का निषेध वेद द्वारा सब प्राणियों को बताया है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(अहम्) परमेश्वरः (विवेच) विचिर् पृथग्भावे−लिट्। पृथक् पृथक् कृतवान् (पृथिवीम्) भूमिम् (उत) अपि च (द्याम्) सूर्यलोकम् (अहम्) (ऋतून्) अर्तेश्च−तुः। उ० १।७२। इति ऋ गतौ−तु, स च कित्। ऋतुरर्तेर्गतिकर्मणः−निरु० २।२५। ऋषयः षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी−निरु० १२।३७। सप्त ऋषीन्। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धिरूपान् (अजनयम्) उत्पादितवानस्मि (साकम्) सह परस्परं संहतान् (अहम्) (सत्यम्) यथार्थम् (अनृतम्) (यत्) यत् किञ्चित् तदपि (वदामि) कथयामि विधिनिषेधरूपेण (अहम्) (दैवीम्) देव−अञ्। विद्वत्सु भवाम् (परि) परीत्य व्याप्य (वाचाम्) वेदवाणीम् (विशः) मनुष्यान् निघ० २।३। (च) समुच्चये ॥

०३ अहं जजान

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अ॒हं ज॑जान पृथि॒वीमु॒त द्याम॒हमृ॒तूंर॑जनयं स॒प्त सिन्धू॑न्।
अ॒हं स॒त्यमनृ॑तं॒ यद्वदा॑मि॒ यो अ॑ग्नीषो॒मावजु॑षे॒ सखा॑या ॥

०३ अहं जजान ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I generated earth and heaven; I generated the seasons, the seven
    rivers; I speak true what is untrue (?): [I] who enjoyed Agni-and-Soma
    as companions.
Notes

Ppp. reads, from b on,* as follows: ahaṁ vācaspatis sarvā ’bhi
ṣiñca: ahaṁ vinejtni pṛthivīm uta dyām aham ṛtūn sṛje sapta sākam: ahaṁ
vācam pari sarvām babhūva yo ‘gniṣomā viduṣe sakhāyuḥ
. K. has, for
jajāna…ajanayam (a, b), dyāvāpṛthivī ā babhūva ahaṁ viśvā
oṣadhis;
and, for c, d, mahyaṁ viśas sam anamanta dāivir aham
ugras smatahavyo babhūva
. *⌊Perhaps this is an error of Roth for 2
d. If so, 3 a would begin with ahaṁ vinejmi.

⌊☞See p. 1045.⌋

Griffith

I gave existence to the earth and heaven, I made the seasons and the seven rivers. My word is truth; what I deny is falsehood, I who rejoice in Agni’s, Soma’s friendship.

पदपाठः

अ॒हम्। ज॒जा॒न॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। अ॒हम्। ऋ॒तून्। अ॒ज॒न॒य॒म्। स॒प्त। सिन्धू॑न्। अ॒हम्। स॒त्यम्। अनृ॑तम्। यत्। वदा॑मि। यः। अ॒ग्नी॒षो॒मौ। अजु॑षे। सखा॑या। ६१.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • रुद्रः
  • अथर्वा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • विश्वस्रष्टा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर की महिमा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) मैंने (पृथिवीम्) पृथिवी (उत) और (द्याम्) सूर्य को (जजान) उत्पन्न किया, (अहम्) मैंने (सप्त) सात (ऋतून्) [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] को और (सिन्धून्) उनकी व्यापक शक्तियों को (अजनयम्) उत्पन्न किया है। (अहम्) मैं (सत्यम्) सत्य और (अनृतम्) झूठ (यत्) जो कुछ है [उसे] (वदामि) बताता हूँ, (यः) जिसमें (सखाया) आपस में मित्र (अग्नीषोमौ) अग्नि और जल को (अजुषे) तृप्त किया है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने सब पृथिवी आदि पदार्थ और इन्द्रियों और इन्द्रियों की शक्तियों को रचकर धर्म और अधर्म का लक्षण बताया है और अग्नि और जल वायु आदि को संसार की स्थिति का कारण रक्खा है, उसी की उपासना सब मनुष्य करें ॥३॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(जजान) उत्पादितवानस्मि (ऋतून्) म० २। पतनशीलान् ऋषीन् त्वक्चक्षुरादीन् (सप्त) सप्तसंख्यकान् (सिन्धून्) अ० ४।६।२। स्पन्दनशीला व्यापिकाः शक्तीः, त्वक्चक्षुरादीनाम् (यः) अहं परमेश्वरः (अग्नीषोमौ) अग्निं च जलं च (अजुषे) जुषी प्रीतिसेवनयोः। तर्पितवानस्मि (सखाया) सखायौ, सहायभूतौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥