०५६ सर्पेभ्यो रक्षणम्

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Whitney subject
  1. For protection from serpents.
VH anukramaṇī

सर्पेभ्यो रक्षणम्।
१-३ शन्तातिः। १ विश्वे देवाः, २-३ रुद्रः। १ उष्णिग्गर्भा पथ्यापङ्क्तिः, २ अनुष्टुप्, ३ निचृत्।

Whitney anukramaṇī

[śaṁtāti.—1. vāiśvadevī, uṣṇiggarbhā pathyāpan̄kti; 2, 3. rāudryāu: 2. anuṣṭubh; 3. nicṛt.]

Whitney

Comment

Found also in Pāipp. xix. (in the verse-order 1, 3, 2). Used by Kāuś. (50. 17), in a rite for welfare, with iii. 26, 27 and xii. 1. 46, against serpents, scorpions, etc.; and again (139. 8), with various other verses and hymns, in the ceremony for commencing Vedic study. In Vāit. (29. 10), in the agnicayana, it and other passages accompany oblations to Rudra.

Translations

Translated: Aufrecht, ZDMG. xxv. 235 (1871); Ludwig, p. 502; Grill, 5, 162; Griffith, i. 276; Bloomfield, 151, 487.—See also the introduction to iii. 26.

Griffith

A charm against snakes

०१ मा नो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

मा नो॑ देवा॒ अहि॑र्वधी॒त्सतो॑कान्त्स॒हपू॑रुषान्।
संय॑तं॒ न वि ष्प॑र॒द्व्यात्तं॒ न सं य॑म॒न्नमो॑ देवज॒नेभ्यः॑।

०१ मा नो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let not the snake, O gods, slay us with our offspring, with our men
    (púruṣa); what is shut together may it not unclose; what is open may
    it not shut together: homage to the god-people.
Notes

Pādas c and d are found again below as x. 4. 8 a, b. ⌊Read
sáṁyataṁ yán ná ví ṣparad, viā́ttam yán ná etc.?⌋ Ppp. reads in b
sahapāuruṣān, and omits the concluding pāda. The comm. has vi
sphurat
in c; he understands the ‘open’ and ‘shut’ of the snake’s
mouth, doubtless correctly. MB. (ii. 1. 5) has a parallel phrase:
saṁhatam mā vivadhir vihatam mā ’bhisaṁvadhīḥ.

Griffith

Let not the serpent slay us, O Gods, with our children and our folk. Let it not close the opened mouth nor open that which now is closed.

पदपाठः

मा। नः॒। दे॒वाः॒। अहिः॑। व॒धी॒त्। सऽतो॑कान्। स॒हऽपु॑रुषान्। सम्ऽय॑तम्। न। वि। स्प॒र॒त्। वि॒ऽआत्त॑म्। न। सम्। य॒त॒म्। नमः॑। दे॒व॒ऽज॒नेभ्यः॑। ५६.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विश्वे देवाः
  • शन्ताति
  • उष्णिग्गर्भा पथ्यापङ्क्तिः
  • सर्परक्षण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

दोष के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विद्वानो ! (सतोकान्) सन्तानों सहित और (सहपूरुषान्) पुरुषों सहित (नः) हमको (अहिः) चोट देनेवाला सर्प [सर्प तुल्य अपना दोष] (मा वधीत्) न काटे। वह (संयतम्) मुँदे हुए मुख को (न) न (वि स्परत्) खोले और (व्यात्तम्) खुले मुख को (न) न (सम् यमत्) मूँदे। (देवजनेभ्यः) विद्वान् जनों को (नमः) नमस्कार है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वान् महात्माओं से शिक्षा पाकर अपने और अपने सन्तानों और बान्धव भृत्य आदि पुरुषों के दोषों को इस प्रकार निर्बल करदें जैसे दुष्ट सर्प को मार-मार कर निर्बल कर देते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(मा वधीत्) हन्तेर्लुङि। मा हिंसीत् (नः) अस्मान् (देवाः) हे विद्वांसः (अहिः) आङि श्रिहनिभ्यां हस्वश्च। उ० ४।१३८। इति आङ्+हन हिंसागत्योः−इञ्, स च डित्, आङो ह्रस्वश्च। आहननशीलः सर्पः। सर्पतुल्य आत्मदोषः (सतोकान्) अपत्यैः सहितान् (सहपूरुषान्) बान्धवभृत्यादिसहितान् (संयतम्) संकुचितम् (न) निषेधे (वि) विवृत्य (स्परत्) स्पृ प्रीतिचलनयोः−लेट्। चालयेत् (व्यात्तम्) अच उपसर्गात् तः। पा० ७।४।४७। इति व्याङ् पूर्वाद् दाञो निष्ठायां तकारः। विवृतं मुखम् (न) (संयमत्) संश्लिष्येत् (नमः) सत्कारः (देवजनेभ्यः) विद्वत्पुरुषेभ्यः ॥

०२ नमोऽस्त्वसिताय नमस्तिरश्चिराजये

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नमो॑ऽस्त्वसि॒ताय॒ नम॒स्तिर॑श्चिराजये।
स्व॒जाय॑ ब॒भ्रवे॒ नमो॒ नमो॑ देवज॒नेभ्यः॑ ॥

०२ नमोऽस्त्वसिताय नमस्तिरश्चिराजये ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Homage be to the black [snake], homage to the cross-lined, homage
    to the brown constrictor; homage to the god-people.
Notes

Ppp. reads haye for astu in a. The comm. explains svaja
‘constrictor’ as “self-born” ⌊and Aufrecht as the “natural” color, that
is, “green “⌋.

Griffith

Be worship paid unto the black, worship to that with stripes across! To the brown viper reverence, reverence to the demon brood!

पदपाठः

नमः॑। अ॒स्तु॒। अ॒सि॒ताय॑। नमः॑। तिर॑श्चिऽराजये। स्व॒जाय॑। ब॒भ्रवे॑। नमः॑। नमः॑। दे॒व॒ऽज॒नेभ्यः॑। ५६.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • रुद्रः
  • शन्ताति
  • अनुष्टुप्
  • सर्परक्षण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

दोष के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (असिताय) काले साँप के लिये (नमः) वज्र (अस्तु) होवे, (तिरश्चिराजये) तिरछी धारीवाले साँप के लिये (नमः) वज्र और (स्वजाय) लिपटनेवाले (बभ्रवे) भूरे साँप के लिये (नमः) वज्र होवे। (देवजनेभ्यः) विद्वान् जनों के लिये (नमः) सत्कार है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वानों की संगति से अपने पापों का नाश करे, जैसे सर्प को वज्रादि से मार डालते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(नमः) नमयति शत्रून्। वज्रनाम−निघ० २।२०। (अस्तु) भवतु (असिताय) अ० ३।२७।१। कृष्णसर्पाय (नमः) वज्रः (तिरश्चिराजये) अ० ३।२७।२। तिरश्च्यः, तिर्यगवस्थिता राजयः पङ्क्तयो यस्य तथाविधाय सर्पाय (स्वजाय) अ–० ३।२७।४। कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम्। वा० पा० ३।२।५। इति ष्वञ्ज आलिङ्गने−क। अनिदितां हल उपधाया०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। आलिङ्गनशीलाय सर्पाय (बभ्रवे) पिङ्गलवर्णाय। अन्यद् गतम् ॥

०३ सं ते

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

सं ते॑ हन्मि द॒ता द॒तः समु॑ ते॒ हन्वा॒ हनू॑।
सं ते॑ जि॒ह्वया॑ जि॒ह्वां सम्वा॒स्नाह॑ आ॒स्य᳡म् ॥

०३ सं ते ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I smite thy teeth together with tooth, thy (two) jaws together with
    jaw, thy tongue together with tongue, thy mouth, O snake, together with
    mouth.
Notes

Ppp. reads at the beginning saṁ te dadāmi dadbhir datas, omits u in
b, and ends with āsnāhasyam. The comm. understands “thy lower
teeth with thine upper tooth,” and so in the other cases: but this is
very unacceptable; and more probably the tooth, jaw, etc. are said of
some object or instrument used in the incantation.

Griffith

I close together fangs with fang, I close together jaws with jaw. I close together tongue with tongue, I close together mouth with mouth.

पदपाठः

सम्। ते॒। ह॒न्मि॒। द॒ता। द॒तः। सम्। ऊं॒ इति॑। ते॒। हन्वा॑। हनू॒ इति॑। सम्। ते॒। जि॒ह्वया॑। जि॒ह्वाम्। सम्। ऊं॒ इति॑। आ॒स्ना। अ॒हे॒। आ॒स्य᳡म्। ५६.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • रुद्रः
  • शन्ताति
  • निचृदनुष्टुप्
  • सर्परक्षण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

दोष के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अहे) हे सर्प ! (ते) तेरे (दता) दाँत से (दतः) दाँतों को (सम् हन्मि) मिला कर तोड़ता हूँ, (उ) और (ते) तेरे (हन्वा) जावड़े से (हनू) दोनों जाबड़ों को (सम्) म।सल कर, (ते) तेरी (जिह्वया) जीभ से (जिह्वाम्) जीभ को (सम्) मसलकर (उ) और (आस्ना) मुख से (आस्यम्) मुख को (सम्) मिला कर [तोड़ता हूँ] ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे मनुष्य विषैले साँप को कुचल कर मार डालते हैं, उसी प्रकार से विद्वान् पुरुष अपने पापों का सर्वथा नाश करे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(सम्) संयोज्य (ते) तव (हन्मि) नाशयामि (दता) पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। इति दन्तस्य दत्। दन्तेन (दतः) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति दमु शमने−तन्। दन्तान् (सम्) (उ) समुच्चये (हन्वा) मुखावयवविशेषेण (हनू) हनुद्वयम् (सम्) (ते) (जिह्वया) रसनया (जिह्वाम्) रसनाम् (सम्) (उ) (आस्ना) पद्दन्नो०। इति आस्यस्य आसन्। आस्येन (अहे) म० १। हे आहननशील सर्प (आस्यम्) मुखम् ॥