०४९ अग्निस्तवः ...{Loading}...
Whitney subject
- To Agni etc.
VH anukramaṇī
अग्निस्तवः।
१-३ गार्ग्यः। अग्निः। १ अनुष्टुप्, २ जगती, ३ विराड्जगती।
Whitney anukramaṇī
[Gārgya.—āgneyam. 1. anuṣṭubh; 2-3. jagatī (3. virāj).]
Whitney
Comment
Found also in Pāipp. xix. Further, in K. (xxxv. 14-15), and the first two verses in ĀpśS. xiv. 29. 3, the first in TA. (vi. 10. 1) and JB. (ii. 218), the last in RV. (x. 94. 5); they seem to be three unconnected verses. Their very obscure and questionable content is explained by the comm. as accompanying and referring to the fire that consumes a deceased teacher; the hymn is to be spoken by a pupil: this the Kāuśika prescribes (46. 14). In ĀpśS., the two verses are two out of six with which a consecrated person is to accompany six oblations offered in case he spills his seed. Parts of the hymn relate to the action of the pressing stones in crushing the stalks of the soma-plant.
Translations
Translated: Ludwig, p. 432; Florenz, 310 or 62; Griffith, i. 272.
Griffith
In praise of Agni
०१ नहि ते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
न॒हि ते॑ अग्ने त॒न्वः॑᳡ क्रू॒रमा॒नंश॒ मर्त्यः॑।
क॒पिर्ब॑भस्ति॒ तेज॑नं॒ स्वं ज॒रायु॒ गौरि॑व ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न॒हि ते॑ अग्ने त॒न्वः॑᳡ क्रू॒रमा॒नंश॒ मर्त्यः॑।
क॒पिर्ब॑भस्ति॒ तेज॑नं॒ स्वं ज॒रायु॒ गौरि॑व ॥
०१ नहि ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Surely no mortal, O Agni, hath attained the cruelty of thy self
(tanū́). The ape gnaws (bhas) the shaft (téjana), as a cow her own
after-birth.
Notes
That is, perhaps (a) hath succeeded in inflicting a wound on thee.
Ppp. differs only in reading martyam at end of a. For tanvas in
a, TA.Āp. have the equivalent tanúvāi; for ānáṅśa in b, TA.
cakā́ra, Āp. ānāśa; for svám in c, TA. púnar. The comm. has
bibhasti in c (also 2 d ⌊which see⌋).
Griffith
O Agni, in thy body man hath never found a wounded part. The Ape devours the arrow’s shaft as a cow eats her after- birth.
पदपाठः
न॒हि। ते॒। अ॒ग्ने॒। त॒न्वः᳡। क्रू॒रम्। आ॒नंश॑। मर्त्यः॑। क॒पिः। ब॒भ॒स्ति॒। तेज॑नम्। स्वम्। ज॒रायु॑। गौःऽइ॑व। ४९.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- गार्ग्य
- अनुष्टुप्
- अग्निस्तवन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
प्रलय और सृष्टिविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (मर्त्यः) मनुष्य ने (ते) तेरे (तन्वः) स्वरूप की (क्रूरम्) क्रूरता को (नहि) नहीं (आनंश) पाया है। (कपिः) कँपानेवाले आप (तेजनम्) प्रकाशमान सूर्यमण्डल को (बभस्ति) खा जाते हैं (इव) जैसे (गौः) गौ (स्वम्) अपनी (जरायु) जरायु को [खा लेती है] ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर की अनन्त शक्ति को नहीं जान सकता है। परमेश्वर ही इस संसार को बना कर फिर अपने में प्रविष्ट कर लेता है, जैसे गौ बच्चा उत्पन्न होने के पीछे अपने पेट से निकली झिल्ली को आप निगल जाती है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(नहि) नैव (ते) तव (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् (तन्वः) विस्तृतस्य स्वरूपस्य (क्रूरम्) अ० ५।१९।५। क्रूरभावम्। (आनंश) अश्नोतेर्लिट्। परस्मैपदं छान्दसम्। प्राप (मर्त्यः) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति मृङ् प्राणत्यागे−यक्, तुडागमः। मनुष्यः−निघ० २।३। (कपिः) कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च। उ० ४।१४४। इति कपि चलने−इ। कम्पकः (बभस्ति) भस भर्त्सनदीप्त्योः, अदने च। बभस्तिरत्तिकर्मा−निरु० ५।१२। भक्षयति (तेजनम्) अ० १।२।४। प्रकाशमयं सूर्यमण्डलम् (स्वम्) स्वकीयम् (जरायु) अ० १।११।४। गर्भवेष्टनम् (गौः) प्रसूता धेनुः ॥
०२ मेष इव
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मे॒ष इ॑व॒ वै सं च॒ वि चो॒र्व᳡च्यसे॒ यदु॑त्तर॒द्रावुप॑रश्च॒ खाद॑तः।
शी॒र्ष्णा शिरोऽप्स॒साप्सो॑ अ॒र्दय॑न्नं॒शून्ब॑भस्ति॒ हरि॑तेभिरा॒सभिः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मे॒ष इ॑व॒ वै सं च॒ वि चो॒र्व᳡च्यसे॒ यदु॑त्तर॒द्रावुप॑रश्च॒ खाद॑तः।
शी॒र्ष्णा शिरोऽप्स॒साप्सो॑ अ॒र्दय॑न्नं॒शून्ब॑भस्ति॒ हरि॑तेभिरा॒सभिः॑ ॥
०२ मेष इव ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Like a ram, thou art bent both together and wide apart, when in the
upper wood [the upper] and the lower stone devour; exciting (ard)
head with head, breast (ápsas) with breast, he gnaws the soma-stalks
(aṅśu) with green mouths.
Notes
In a, ‘ram’ (meṣá) perhaps means something made of ram’s wool or
skin; or the action of the stones is compared to that of a ram, butting
and drawing back. K. (of which I happen to have the readings in this
verse) gives meṣa iva yad upa ca vi ca carvati, and Āp. the same,
except the blundering carvari for carvati. The comm. has ucyase
for acyase. Ppp’s a is tveṣāi ’va siñca itaror varṇyate. In
b, which is the most hopeless part of the verse, K. reads yad
apsaradrūr uparasya khādati, and Āp. doubtless intends the same, but is
corrupted in part to apsararūparasya. The comm. has aparas for
uparas. In c, K. has vakṣasā vakṣa ejayann, Āp. the same, and
also, blunderingly, girāu for śiro. Ppp. has apsarā ’pso. In
d, K. begins with aṅśum; Āp. has the same and also gabhasti; the
comm. again bibhasti. The comm. has two different conjectures, both
worthless, for uttaradrāu. ⌊Pischel discusses ápsas, Ved. Stud. i.
308 ff., and this vs. at p. 312. Aufrecht discusses the roots bhas,
KZ. xxxiv. 458. Hillebrandt discusses this vs., Ved. Mythol. i. 154.⌋
Griffith
Thou like a fleece contractest and expandest thee what time the upper stone and that below devour. Closely compressing head with head and breast with breast he crunches up the tendrils with his yellow jaws.
पदपाठः
मे॒षःऽइ॑व। वै। सम्। च॒। वि। च॒। उ॒रु। अ॒च्य॒से॒। यत्। उ॒त्त॒र॒ऽद्रौ। उप॑रः। च॒। खाद॑तः। शी॒र्ष्णाः। शिरः॑। अप्स॑सा। अप्सः॑। अ॒र्दय॑न्। अं॒शून्। ब॒भ॒स्ति॒। हरि॑तेभिः। आ॒सऽभिः॑। ४९.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- गार्ग्य
- जगती
- अग्निस्तवन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
प्रलय और सृष्टिविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे अग्ने परमात्मन्] (मेषः इव) मेढ़ा के समान तू (वै) निश्चय करके (सम् अच्यसे) सिमट जाता है (च च) और (उरु) बहुत (वि=वि अच्यसे) फैल जाता है, (यत्) जब कि (उत्तरद्रौ) ऊँची शाखा पर (खादतः=खादन्) खाता हुआ तू (च) निश्चय करके (उपरः) ठहरनेवाला होता है। (शीर्ष्णा) शिर से (शिरः) शिर को, और (अप्ससा) रूप से (अप्सः) रूप को (अर्दयन्) दबाते हुए आप (हरितेभिः) हरणशील (आसभिः) गिराने के सामर्थ्यों से (अंशून्) सूर्य आदि लोकों को (बभस्ति) खा जाते हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे भेड़ बकरी सिमट कर और फैल कर पेड़ों की पत्ती खा जाती हैं, वैसे ही परमात्मा सृष्टि और प्रलय करके सब से ऊपर विराजमान रहता है। वही सब पदार्थों को आपस में टकराकर परमाणुओं की अवस्था में करता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(मेष) मिष स्पर्धने सेचने च−अच्। पशुभेदः (इव) यथा (वै) निश्चयेन (सम्) संगत्य (च च) समुच्चये (वि) व्याप्य (उरु) बहुलम् (अच्यसे) गच्छसि (यत्) यदा (उत्तरद्रौ) द्रु गतौ−डु। उच्चशाखायाम् (उपरः) उप+रमु उपरमे−ड। उपरितः। स्थितो वर्तसे (च) (खादतः) प्रथमार्थे षष्ठी। खादन् भक्षयन् (शीर्ष्णा) शिरसा (शिरः) मस्तकम् (अप्ससा) रूपेण (अप्सः) आपः कर्माख्यायां ह्रस्वो नुट्च वा। उ० ४।२०८। इति आप्लृ व्याप्तौ−असुन्, अकारलोपः। अप्स इति रुपनामाप्सातेरप्सानीयं भवति आदर्शनीयं व्यापनीयं वा−निरु० ५।१३। रूपम्। आकारम् (अर्दयन्) पीडयन् (अंशून्) अंश विभाजने−कु। सूर्यादिलोकान् (बभस्ति) म० १। भक्षयति भवान् (हरितेभिः) हरितैः। हरणशीलैः (आसभिः) असु क्षेपणे−घञ्। आसैः। असनसामर्थ्येः ॥
०३ सुपर्णा वाचमक्रतोप
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सु॑प॒र्णा वाच॑मक्र॒तोप॒ द्यव्या॑ख॒रे कृष्णा॑ इषि॒रा अ॑नर्तिषुः।
नि यन्नि॒यन्ति॒ उप॑रस्य॒ निष्कृ॑तिं पु॒रू रेतो॑ दधिरे सूर्यश्रितः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सु॑प॒र्णा वाच॑मक्र॒तोप॒ द्यव्या॑ख॒रे कृष्णा॑ इषि॒रा अ॑नर्तिषुः।
नि यन्नि॒यन्ति॒ उप॑रस्य॒ निष्कृ॑तिं पु॒रू रेतो॑ दधिरे सूर्यश्रितः ॥
०३ सुपर्णा वाचमक्रतोप ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The eagles have uttered (kṛ) their voice close in the sky; in the
lair (ākhará) the black lively ones have danced; when they come down
to the removal of the lower [stone], they have assumed much seed, they
that resort to the sun.
Notes
In c, RV. has nyàn̄ (p. nyàk) ní yanti, for which our reading
is evidently a corruption—as is probably also níṣkṛtim for RV.
niṣkṛtám, and sūryaśrítas for RV. -śvítas at the end. The comm.
has divi instead of dyavi in a. Ppp. has a very original d:
puro vāco dadhire sūryasya. There is no reason for reckoning this
jagatī as virāj.
Griffith
The Eagles have sent forth their voice aloud to heaven: in the sky’s vault the dark impetuous ones have danced. When they come downward to repair the lower stone, they, dwellers with the Sun, have gained abundant seed.
पदपाठः
सु॒ऽप॒र्णाः। वाच॑म्। अ॒क्र॒त॒। उप॑। द्यवि॑। आ॒ऽख॒रे। कृष्णाः॑। इ॒षि॒राः। अ॒न॒र्ति॒षुः॒। नि। यत्। नि॒ऽयन्ति॑। उप॑रस्य। निःऽकृ॑तिम्। पु॒रु। रेतः॑। द॒धि॒रे॒। सू॒र्य॒ऽश्रितः॑। ४९.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- गार्ग्य
- विराड्जगती
- अग्निस्तवन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
प्रलय और सृष्टिविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्यश्रितः) सूर्य में ठहरी हुई (सुपर्णाः) अच्छे प्रकार पालन करनेवाली वा बड़ी शीघ्रगामी किरणों ने (आखरे) खननयोग्य (द्यवि) अन्तरिक्ष में (उप=उपेत्य) मिलकर (वाचम्) शब्द (अक्रत) किया, और (कृष्णाः) रस खैंचनेवाली (इषिराः) चलनेवाली [उन किरणों] ने (अनर्त्तिषुः) नृत्य किया। (यत्) जब वे (उपरस्य) मेघ की (निष्कृतिम्) रचना की ओर (नि) नियम से (नियन्ति) झुकती हैं, [तब] उन्होंने (पुरु) बहुत (रेतः) वृष्टि जल (दधिरे) धारण किया है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर की महिमा से सूर्य की किरणें विशाल आकाश में शब्द करके पार्थिव रस को खींचकर इधर-उधर चेष्टा करती हैं। उससे मेघ, मेघ से वृष्टि होकर संसार का उपकार करती हैं। इसी प्रकार प्रलय के पीछे सृष्टि और सृष्टि के पीछे प्रलय होती है ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १०। सू० ९४ म० ५ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(सुपर्णाः) अ० १।२४।१। सुपालकाः। शोभनपतनाः किरणाः (वाचम्) शब्दम् (अक्रत) करोतेर्लुङि। मन्त्रे घसह्वरणश०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। अकृषत। कृतवन्तः (उप) उपेत्य (द्यवि) गमेर्डोसिः। उ० २।६९। इति द्युत दीप्तौ−डोसि। द्योतते द्यौः। अन्तरिक्षे (आखरे) डरो वक्तव्यः। वा० पा० ३।३।१२५। इति आङ्+खनु अवदारणे−डर। समन्तात् खननीये (कृष्णाः) अ० ५।२३।५। रसानामाकर्षकाः (इषिराः) अ० ५।१।९। गमनशीलाः (अनर्तिषुः) नृती गात्रविनामे−लुङ्। नृत्यन्ति स्म। चेष्टां कृतवन्तः (नि) नियमेन (यत्) यदा (नियन्ति) नीचैः प्राप्नुवन्ति (उपरस्य) म० २। उपर उपलो मेघो भवत्युपरमन्तेऽस्मिन्नभ्राण्युपरता आप इति वा−निरु० २।२१। मेघस्य (निष्कृतिम्) अ० ४।२७।६। निर्माणम् (उरु) बहुलम् (रेतः) अ० २।२८।५। जलम्−निघ० १।१२। (दधिरे) धृतवन्तः (सूर्यश्रितः) श्रिञ्−सेवायाम्−क्विप्। सूर्यं प्राप्ताः किरणाः ॥