०३२ यातुधानक्षयणम् ...{Loading}...
Whitney subject
- Against demons.
VH anukramaṇī
यातुधानक्षयणम्।
(१-३) १-२ चातनः, ३ अथर्वा। १ अग्निः, २ रुद्रः, ३ मित्रावरुणौ। त्रिष्टुप्, २ प्रस्तारपङ्क्तिः।
Whitney anukramaṇī
[1, 2. Cātana; 3. Atharvan.—agnidāivatam. trāiṣṭubham: 2. prastārapan̄kti.]
Whitney
Comment
The first two verses found also in Pāipp. xix.* Kāuś. has the hymn (or vss. 1, 2) in a remedial rite against demons (31. 3); the fire is circumambulated three times, and a cake is offered; and it is reckoned (note to 8. 25) to the cātana gaṇa. Verse 3 is by itself reckoned (note to 16. 8) to the abhaya gaṇa, and also (note to 25. 36) to the svastyayana gaṇa. *⌊Ppp. then has a third verse, whose a = vi. 40. 1 a, and whose b is corrupt. Roth’s note seems incomplete.⌋
Translations
Translated: Florenz, 291 or 43; Griffith, i. 262; Bloomfield, 36, 475.
Griffith
A charm against fiends and goblins
०१ अन्तर्दावे जुहुता
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॑न्तर्दा॒वे जु॑हु॒ता स्वे॒३॒॑तद्या॑तुधान॒क्षय॑णं घृ॒तेन॑।
आ॒राद्रक्षां॑सि॒ प्रति॑ दह॒ त्वम॑ग्ने॒ न नो॑ गृ॒हाणा॒मुप॑ तीतपासि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑न्तर्दा॒वे जु॑हु॒ता स्वे॒३॒॑तद्या॑तुधान॒क्षय॑णं घृ॒तेन॑।
आ॒राद्रक्षां॑सि॒ प्रति॑ दह॒ त्वम॑ग्ने॒ न नो॑ गृ॒हाणा॒मुप॑ तीतपासि ॥
०१ अन्तर्दावे जुहुता ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Within the flame, pray, make ye this sorcerer-destroying libation
with ghee; from afar, O Agni, do thou burn against the demons; mayest
thou not be hot toward our houses.
Notes
Our mss. (so far as noted) and nearly all SPP’s, accent juhutā́ in
a; but his text, as well as ours, emends to juhutā. The comm.
understands at the beginning antar dāve as two separate words; and
that is a preferable, and probably the true, reading. The gen. in d
is peculiar; we should expect with it tītapāti, in impers. sense: ‘may
there be no sickness befalling our houses.’ Ppp. reads ghṛhaṁ naḥ at
end of b; and, for d, mā ’smākaṁ vasū ’pa tītipanthā. The
verse (10 + 10: 12 + 11 = 43) is ill-defined as a mere triṣṭubh.
Griffith
With butter, in his hall v4here fire is burning, perform that sacri- fice which quells the goblins. Burn from afar against the demons Agni! Afflict not in thy fury us who praise thee.
पदपाठः
अ॒न्तः॒ऽदा॒वे। जु॒हु॒त॒। सु। ए॒तत्। या॒तु॒धा॒न॒ऽक्षय॑णम्। घृ॒तेन॑। आ॒रात्। रक्षां॑सि। प्रति॑। द॒ह॒। त्वम्। अ॒ग्ने॒। न। नः॒। गृ॒हाणा॑म्। उप॑। ती॒त॒पा॒सि॒ ॒। ३२.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातन
- त्रिष्टुप्
- यातुधानक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राक्षसों के नाश का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो] (एतत्) इस (यातुधानक्षयणम्) पीड़ा देनेवालों के नाश करनेवाले कर्म को (घृतेन) प्रकाश के साथ (अन्तर्दावे) भीतरी सन्ताप में (सु) अच्छे प्रकार (जुहुत) छोड़ो। (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (त्वम्) तू (रक्षांसि) राक्षसों को (आरात्) दूर करके (प्रति दह) भस्म करदे और (नः) हमारे (गृहाणाम्) घरों का (उप) कुछ भी (न तीतपासि) मत तापकारी हो ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य अन्धकारनाशक परमेश्वर के ज्ञान से विद्या का प्रकाश करके आत्मिक और शारीरिक रोगों का जड़ से नाश करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(अन्तर्दावे) दुन्योरनुपसर्गे। पा० ३।१।१४२। इति टुदु उपतापे−ण। अन्तः शत्रूणां हृदयस्य तापे (जुहुत) प्रक्षिपत (सु) सुष्ठु (एतत्) (यातुधानक्षयणम्) पीडाप्रदानां नाशकर्म (घृतेन) विद्यादिप्रकाशेन (आरात्) दूरे कृत्वा (रक्षांसि) राक्षसान्। रोगान् (प्रति दह) सर्वथा भस्मसात् कुरु (त्वम्) (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् (न) निषेधे (नः) अस्माकम् (गृहाणाम्) निवासानाम् (उप) हीने (तीतपासि) यङ्लुकि छान्दसं रूपम्। भृशं तापकरो भव ॥
०२ रुद्रो वो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
रु॒द्रो वो॑ ग्री॒वा अश॑रैत्पिशाचाः पृ॑ष्टीर्वोऽपि॑ शृणातु यातुधानाः।
वी॒रुद्वो॑ वि॒श्वतो॑वीर्या य॒मेन॒ सम॑जीगमत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
रु॒द्रो वो॑ ग्री॒वा अश॑रैत्पिशाचाः पृ॑ष्टीर्वोऽपि॑ शृणातु यातुधानाः।
वी॒रुद्वो॑ वि॒श्वतो॑वीर्या य॒मेन॒ सम॑जीगमत् ॥
०२ रुद्रो वो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Rudra hath crushed (śṛ) your necks, O piśācás; let him crush in
(api-śṛ) your ribs, O sorcerers; the plant of universal power hath
made you go to Yama.
Notes
A few of SPP’s authorities (also the Anukr., in citing the verse) read
aśarīt in a. Some of our mss. accent piśācā́ḥ at end of a
(P.M.I.p.m.), and yātudhānā́ḥ (P.M.I.); all the pada-mss. absurdly
have viśvátaḥ॰vīryāḥ at end of c. Ppp. has, for a, b, śarvo
vo grīvāy aśarīṣ piśācā vo ’pa śṛṇāty agniḥ and in d it gives
mṛtyunā for yamena. ⌊The “verbal forms with suspicious āi” in the
AV. (śarāis etc., asaparyāit: cf . Gram. §§555 c, 904 b, 1068 a)
have been treated by Bloomfield, ZDMG. xlviii. 574 ff., and Böhtlingk,
ibidem, liv. 510 ff. Cf. also note to xviii. 3. 40.⌋
Griffith
Let Rudra break your necks, O ye Pisachas, and split your ribs asunder, Yatudhanas! Your herb of universal power with Yama hath allied itself.
पदपाठः
रु॒द्रः। वः॒। ग्री॒वाः। अश॑रैत्। पि॒शा॒चाः॒। पृ॒ष्टीः। वः॒। अपि॑। शृ॒णा॒तु॒। या॒तु॒ऽधा॒नाः॒। वी॒रुत्। वः॒। वि॒श्वतः॑ऽवीर्या। य॒मेन॑। सम्। अ॒जी॒ग॒म॒त्। ३२.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- रुद्रः
- चातन
- प्रस्तारपङ्क्तिः
- यातुधानक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राक्षसों के नाश का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पिशाचाः) हे मांसभक्षक ! [रोगो वा प्राणियो] (रुद्रः) दुःखनाशक सेनापति ने (वः) तुम्हारे (ग्रीवाः) गले को (अशरैत्) तोड़ डाला है, (यातुधानाः) हे पीड़ादायको ! (वः) तुम्हारी (पृष्टीः) पसलियाँ (अपि) भी (शृणातु) तोड़े। (विश्वतोवीर्या) सब ओर से सामर्थ्यवाली (वीरुत्) विविध प्रकार से प्रकाशित होनेवाली शक्ति [परमेश्वर] ने (वः) तुमको (यमेन) नियम के साथ (सम् अजीगमत्) संयुक्त किया है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रतापी राजा दुःखदायक शत्रु और रोगों का सदा प्रतीकार करे। उस परमात्मा ने सब के कर्मों को वेद द्वारा नियमबद्ध किया है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(रुद्रः) अ० २।२७।६। दुःखनाशकः सेनापति (वः) युष्माकम् (ग्रीवाः) गलावयवान् (अशरैत्) शॄ हिंसायां छान्दसं लुङि रूपम्। अशारीत्। शीर्णवान् (पिशाचाः) अ० १।१६।३। हे मांसभक्षका रोगाः प्राणिनो वा (पृष्टीः) अ० २।७।५। पार्श्वस्थीनि (अपि) एव (शृणातु) छिनत्तु (यातुधानाः) अ० १।७।१। हे पीडाप्रदाः (वीरुत्) अ० १।३२।१। वि+रुह प्रादुर्भावे−क्विप्। विविधं प्रादुर्भवित्री शक्तिः, परमेश्वरः (वः) युष्मान् (विश्वतोवीर्या) सर्वतः सामर्थ्या (यमेन) नियमेन (सम् अजीगमत्) इण् गम्लृ गतौ वा णिचि लुङ्। संगमितवान् ॥
०३ अभयं मित्रावरुणाविहास्तु
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अभ॑यं मित्रावरुणावि॒हास्तु॑ नो॒ऽर्चिषा॒त्त्रिणो॑ नुदतं प्र॒तीचः॑।
मा ज्ञा॒तारं॒ मा प्र॑ति॒ष्ठां वि॑दन्त मि॒थो वि॑घ्ना॒ना उप॑ यन्तु मृ॒त्युम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अभ॑यं मित्रावरुणावि॒हास्तु॑ नो॒ऽर्चिषा॒त्त्रिणो॑ नुदतं प्र॒तीचः॑।
मा ज्ञा॒तारं॒ मा प्र॑ति॒ष्ठां वि॑दन्त मि॒थो वि॑घ्ना॒ना उप॑ यन्तु मृ॒त्युम् ॥
०३ अभयं मित्रावरुणाविहास्तु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Fearlessness, O Mitra-and-Varuṇa, be ours here; drive ye backward the
devourers with your gleam; let them not find a knower, nor a foundation
(pratiṣṭhā́); mutually destroying one another let them go unto death.
Notes
The verse occurs also in AGS. (iii. 10. 11), which has, in a, b,
-ṇā mahyam astv arciṣā śatrūn dahatam pratītya; in c, vindantu;
in d, bhindānās. The latter half-verse is found again as viii. 8.
21 c, d. Pāda a has a redundant syllable unheeded by the Anukr.
Griffith
Here, Mitra-Varuna! may we dwell safely: with splendour drive the greedy demons backward, Let them not find a surety or a refuge, but torn away go down to Death together.
पदपाठः
अभ॑यम्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒। इ॒ह। अ॒स्तु॒। नः॒। अ॒र्चिषा॑। अ॒त्त्रिणः॑। नु॒द॒त॒म्। प्र॒तीचः॑। मा। ज्ञा॒तार॑म्। मा। प्र॒ति॒ऽस्थाम्। वि॒द॒न्त॒। मि॒थः। वि॒ऽघ्ना॒नाः। उप॑। य॒न्तु॒। मृ॒त्युम्। ३२.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मित्रावरुणौ
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- यातुधानक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राक्षसों के नाश का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रावरुणौ) हे प्राण और अपान ! [अथवा हे दिन और रात्रि !] (नः) हमारे लिये (इह) यहाँ पर (अभयम्) अभय (अस्तु) होवे, [तुम दोनों अपने] (अर्चिषा) तेज से (अत्त्रिणः) खा डालनेवालों को (प्रतीचः) उलटा (नुदतम्) हटा दो। वे लोग (मा) न तो (ज्ञातारम्) सन्तोषक पुरुष को और (मा) न (प्रतिष्ठाम्) प्रतिष्ठा को (विदन्त) पावें, (मिथः) आपस में (विघ्नानाः) मारते हुए (मृत्युम्) मृत्यु को (उप यन्तु) प्राप्त हों ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य अपने शारीरिक और आत्मिक बल और समय का ऐसा सुन्दर प्रयोग करें जिससे शत्रु लोग कही शरण न पावें और आपस में कट मरें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(अभयम्) भयराहित्यम् (मित्रावरुणौ) अ० १।२०।२। हे प्राणापानौ। अहोरात्रे (इह) अत्र (अस्तु) (नः) अस्मभ्यम् (अर्चिषा) तेजसा (अत्त्रिणः) अ० १।७।३। भक्षकान् (नुदतम्) प्रेरयतम् (प्रतीचः) अ० ३।१।४। प्रत्यङ्मुखान् (मा) निषेधे (ज्ञातारम्) ज्ञा चुरा० तोषे−तृच्। ज्ञापयितारं सन्तोषकम् (मा) (प्रतिष्ठाम्) आश्रयम् (मा विदन्त) विद्लृ लाभे−लुङ्, तकारश्छान्दसः। अविदन्। मा लभन्ताम् (मिथः) परस्परम् (विघ्नानाः) युधिबुधिदृशः किच्च। उ० २।९०। इति हन वधे−आनच् कित्। विघानका (उपयन्तु) प्राप्नुवन्तु (मृत्युम्) मरणम् ॥