०३१ गौः

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Whitney subject
  1. At rising of the sun (or moon).
VH anukramaṇī

गौः।
१-३ उपरिबभ्रवः। गौः। गायत्री।

Whitney anukramaṇī

[Uparibabhrava.—gavyam. gāyatram.]

Whitney

Comment

Found also in Pāipp. xix., as in RV. (x. 189. 1-3), SV. (ii. 726-8),* VS. (iii. 6-8), TS. (i. 5. 31). K. (vii. 13), MS. (i. 6. 1). Used by Kāuś. (66. 14) in the savayajñas, with a spotted cow as sava. And by Vāit. in the agnyādheya ceremony (6. 3), as the sacrificer approaches the āhavaniya fire; and again in the sattra (33. 28), spoken by the Brahman-priest to the hotar, after the mānasastotra. *⌊Also in i. 631-3 = Nāigeya-śākhā v. 46-8.⌋

Translations

Translated: as RV. hymn, by Max Müller, ZDMG. ix. (1855), p. XI; Geldner, Siebenzig Lieder des RV., 1875, p. 57; Ludwig, number 160; Grassmann, ii. 433; and as AV. hymn, by Florenz, 289 or 41; Griffith, i. 262.

Griffith

To Surya the Sun-God

०१ आयं गौः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः।
पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॑ ॥

०१ आयं गौः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Hither hath stridden this spotted steer, hath sat upon his mother in
    the east, and going forward to his father, the heaven (svàr).
Notes

All the texts agree in this verse, except that TS. has ásanat and
púnaḥ in b, while Ppp. has prayat in c. It seems to be a
description of the rising of a heavenly body,—the comm. and the
translators say, the sun; but the epithet “spotted,” and the number
thirty in the third verse point rather to the moon. The “mother” is of
course the earth, upon which it seems to rest a moment.

Griffith

This spotted Bull hath come and sat before his mother in the east. Advancing to his father Heaven.

पदपाठः

आ। अ॒यम्। गौः। पृश्निः॑। अ॒क्र॒मी॒त्। अस॑दत्। मा॒तर॑म्। पु॒रः। पि॒तर॑म्। च॒। प्र॒ऽयन्। स्वः᳡। ३१.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः
  • उपरिबभ्रव
  • गायत्री
  • गौ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह (गौ) चलने वा चलानेवाला, (पृश्निः) रसों वा प्रकाश का छूनेवाला सूर्य (आ अक्रमीत्) घूमता हुआ है, (च) और (पितरम्) पालन करनेवाले (स्वः) आकाश में (प्रयन्) चलता हुआ (पुरः) सन्मुख हो कर (मातरम्) सब की बनानेवाली पृथिवी माता को (असदत्) व्यापा है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यह सूर्य अन्तरिक्ष में घूम कर आकर्षण, वृष्टि आदि व्यापारों से पृथ्वी आदि लोकों का उपकार करता है ॥१॥ इस सूक्त के तीनों मन्त्र कुछ भेद से अन्य तीनों वेदों में इस प्रकार हैं ॥ वेद पता ऋषि देवता ऋग्वेद १०।१८९।१-३ सार्पराज्ञी सार्पराज्ञी वा सूर्य्य यजुर्वेद ३।६-८ सार्पराज्ञी कद्रु अग्नि सामवेद पृ० ।१४।४-६ सार्पराज्ञी सूर्य्य हमनेसार्पराज्ञी चलनेवाले और चमकनेवाले सूर्य से सम्बन्धवाली पृथ्वी औरसूर्य को देवता मान कर सूक्त का अर्थ किया है। प्रत्येक मन्त्र के साथ महर्षि दयानन्दकृत भाष्य के अनुसार सक्षिप्त अर्थ दिखाया गया है, सविस्तार उनके भाष्य में देख लेवें ॥ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका−पृष्ठ १३६, पृथिव्यादिभ्रमण−“(अयम्) यह (गौः) पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, अथवा अन्य लोक (पृश्निः=पृश्निम्) अन्तरिक्ष में (आ अक्रमीत्) घूमता चलता है, इनमें पृथिवी (मातरम्) अपने उत्पत्तिकारण जल को तथा (पितरम्) (स्वः) पिता और अग्निमय सूर्य को (असदत्) प्राप्त होती है (च) और (पुरः) पूर्व-पूर्व (प्रयन्) सूर्य के चारों ओर घूमती है। ऐसे ही सूर्य वायु पिता और आकाश माता के, तथा चन्द्रमा, अग्नि पिता और जल माता के प्रति घूमता है ॥ यजुर्वेद−अ० ३ म० ६ ॥ (अयम्) यह (गौः) गोलरूपी पृथिवी (पितरम्) पालन करनेवाले (स्वः) सूर्य के और (मातरम्) अपनी योनिरूप जल के (पुरः) आगे-आगे (प्रयन्) चलती हुई (पृश्निः) अन्तरिक्ष अर्थात् आकाश में (आ अक्रमीत्) चारों ओर चलती है (च) और (असदत्) अपनी कक्षा में घूमती है ॥ यह पृथ्वी अपने योनिरूप जलसहित आकर्षण करनेवाले सूर्य के चारों ओर घूमती है, उसी से दिनरात्रि, शुक्ल कृष्णपक्ष और ऋतु और अयन आदि काल विभाग उत्पन्न होते हैं ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(अयम्) प्रत्यक्षः (गौः) अ० १।२।३। गौरादित्यो भवति। गमयति रसान्, गच्छत्यन्तरिक्षे−निरु० २।१४। (पृश्निः) अ० २।१।१। स्पृश−नि। पृश्निरादित्यो भवति…. संस्प्रष्टा रसान् संस्प्रष्टा भासं ज्योतिषां संस्पृष्टो भासेति वा−निरु० २।१४। (आ अक्रमीत्) समन्तात् क्रान्तवान् (असदत्) असीदत्। प्राप्तवान् (मातरम्) निर्मात्रीं भूमिम् (पुरः) पुरस्तात्। अग्रे (पितरम्) पालकम् (च) समुच्चये (प्रयन्) इण्−शतृ। सञ्चरन् (स्वः) अ० २।५।२। अन्तरिक्षलोकम् ॥

०२ अन्तश्चरति रोचना

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अ॒न्तश्च॑रति रोच॒ना अ॒स्य प्रा॒णाद॑पान॒तः।
व्य᳡ख्यन्महि॒षः स्वः᳡ ॥

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Whitney
Translation
  1. He moves between the shining spaces, from the breath of this
    outbreathing [universe]; the bull (mahiṣá) hath looked forth unto
    the heaven (svàr).
Notes

RV. (with which, through the whole hymn, SV. and VS. entirely agree)
reads (as does TS.) apānatī́ (p. apa॰anatī́) at end of b; in
c, it reads dívam for svàḥ. TS. inverts the order of a and
b, and has the same c as our text; on the other hand, MS. has
our b, but arṇavé (for rocanā́) in a, and a wholly peculiar
c: práti vām sū́ro áhabhiḥ. Ppp. has (nearly as TS.), for a, b,
yasya prāṇād apānaty antaś carati rocanaḥ; and divam (with RV.) at
the end. The sense of the verse is very obscure, made so by the
unintelligible second pāda; Roth suggests apānati ⌊as 3d singular⌋,
with rocanā “stars” as subject: “They die at his breath”: but this
teems with difficulties. ⌊In Geldner’s note, anati was taken as 3d
plural.⌋ Our P.M.I.R.T.K., and all SPP’s authorities, separate rocanā́
asyá
in saṁhitá (the pada-text reading -nā́), and SPP. has
accordingly, properly enough, adopted it in his text: see the note to
Prāt. iii. 34. ⌊Ppp. also has vyākhyan.⌋

Griffith

As expiration from his breath his radiance penetrates within. The Bull shines out through all the sky.

पदपाठः

अ॒न्तः। च॒र॒ति॒। रो॒च॒ना। अ॒स्य। प्रा॒णात्। अ॒पा॒न॒तः। वि। अ॒ख्य॒त्। म॒हि॒षः। स्वः᳡। ३१.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः
  • उपरिबभ्रव
  • गायत्री
  • गौ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्राणात्) भीतर की श्वास के पीछे (अपानतः) बाहर को श्वास निकालते हुए (अस्य) इस [सूर्य] की (रोचना) रोचक ज्योति (अन्तः) [जगत् के] भीतर (चरति) चलती है, और वह (महिषः) बड़ा सूर्य्य (स्वः) आकाश को (वि) विविध प्रकार (अन्यत्) प्रकाशित करता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे सब प्राणी श्वास-प्रश्वास से जीवित रह कर चेष्टा करते हैं, वैसे ही सूर्य प्रकाश का ग्रहण और त्याग करके लोकों को प्रकाशित करता है ॥२॥ महर्षि दयानन्दकृत भाष्य, यजुर्वेद ३।७। (प्राणात्) ब्रह्माण्ड और शरीर के बीच में ऊपर जानेवाले वायु से (अपानतः) नीचे को जानेवाले वायु को उत्पन्न करते हुए (अस्य) इस अग्नि की (रोचना) दीप्ति अर्थात् बिजुली (अन्तः) ब्रह्माण्ड और शरीर के मध्य (चरति) चलती है, वह (महिषः) अपने गुणों से बड़ा अग्नि (स्वः) सूर्य लोक को (व्यख्यत्) प्रकट करता है ॥२॥ सब प्राणियों के भीतर रहनेवाली अग्नि की कान्ति बिजुली प्राण और अपान के साथ मिलकर सब चेष्टाओं को सिद्ध करती है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(अन्तः) लोकमध्ये (चरति) गच्छति (रोचना) कान्तिः (अस्य) पृश्नेः−म० १। सूर्यस्य (प्राणात्) श्वासव्यापारादनन्तरम् (अपानतः) प्रश्वासं कुर्वतः (वि) विविधम् (अख्यत्) ख्या प्रकथने−लडर्थे लुङ्, अन्तर्गतण्यर्थः। ख्यापयति प्रकाशयति (महिषः) अ० २।३५।४। महान् सूर्यः (स्वः) आकाशम् ॥

०३ त्रिंशद्धामा वि

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त्रिं॒शद्धामा॒ वि रा॑जति॒ वाक्प॑त॒ङ्गो अ॑शि॒श्रिय॑त्।
प्रति॒ वस्तो॒रह॒र्द्युभिः॑ ॥

०३ त्रिंशद्धामा वि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Thirty domains (dhā́man) he rules over; voice, the bird, hath set
    up, to meet the day with the lights of morning.
Notes

This translation is one of despair, and of no value, like the others
that are given of the verse. Taken by itself, the first pāda is well
enough, and seems most naturally (as noted above) to refer to the thirty
days of the moon’s synodical revolution, or spaces of the sky traversed
by it in them; to understand it of the thirty divisions of the day
(muhūrta) looks like an anachronism; and thirty gods (Ludwig) is
wholly senseless. ⌊Roth observes: Ushas, in returning to her point of
departure, traverses thirty yojanas (RV. i. 123. 8): the path of the
light around the world thus appears to be divided into thirty stages.⌋
The variety of reading of the texts indicates, as in many other like
cases, the perplexity of the text-makers. RV. (with SV.VS.) has, for
b, vā́k pataṁgā́ya dhīyate; TS. and MS. have. pataṁgā́ya, but TS.
follows it with śiśriye, and MS. with

{{smaller block|hūyate. Ppp. reads -gāya su śriyat. In c, RV.
(etc.) reads áha, particle, for áhas, and the comm. does the same;
TS. gives, for the whole pāda, práty asya vaha dyúbhiḥ; while MS.
substitutes our 2 c, in its RV. version, having given its wholly
independent version of this as 2 c (see above); Ppp. has at end
divi. In a, MS. reads triṅśáddhāmā, as compound; the other texts
(and three of SPP’s authorities) have triṅśád dhā́ma (the
pada-reading is dhā́ma). Both TS. and MS., it may be added, put vs. 3
before 2.

With this hymn ends the third anuvāka, of 11 hymns and 33 verses; the
extracted item of Anukr. is simply tṛtīya (see end of the next
anuvāka).

Griffith

He rules supreme through thirty realms–One winged with song hath made him mount Throughout the days at break of morn.

पदपाठः

त्रिं॒शत्। धाम॑। व‍ि। रा॒ज॒ति॒। वाक्। प॒त॒ङ्गः। अ॒शि॒श्रि॒य॒त्। प्रति॑। वस्तोः॑। अहः॑। द्युऽभिः॑। ३१.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • गौः
  • उपरिबभ्रव
  • गायत्री
  • गौ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पतङ्गः) चलनेवाला वा ऐश्वर्यवाला सूर्य (त्रिंशत् धामा) तीस धामों पर [दिन रात्रि के तीस मुहूर्तों पर] (वस्तोः, अहः) दिन-दिन (द्युभिः) अपनी किरणों और गतियों के साथ (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (वि) विविध प्रकार (राजति) राज करता वा चमकता है, (वाक्) इस वचन ने [उस सूर्य में] (अशिश्रियत्) आश्रय लिया है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यह बात स्वयं सिद्ध है कि यह सूर्य सर्वदा सब ओर चमकता रह कर अपनी परिधि के लोकों को गमन, आकर्षण, विकर्षण, वृष्टि, शीत, ताप आदि द्वारा स्थिर रखता है ॥३॥ दिन रात्रि के तीस मुहूर्त भगवान् मनु ने भी माने हैं−अ० १ श्लोक ६४ ॥ निमेषा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कला। त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः ॥१॥ १८ पलक की १ काष्ठा, ३० काष्ठा की १ कला, ३० कला का १ मुहूर्त, और उतने ही, ३० मुहूर्त का दिन रात होता है ॥ महर्षि दयानन्दकृत भाष्य यजुर्वेद ३।८॥− (द्युभिः) प्रकाश आदि गुणों से (प्रति वस्तोः, अहः) प्रतिदिन (त्रिंशत्) अन्तरिक्ष, आदित्य और अग्नि को छोड़ के पृथिवी आदि तीस (धाम) स्थानों को (पतङ्गः) चलनेवाला अग्नि (वि राजति) प्रकाशित करता है−(वाक्) इस वचन ने [उस अग्नि में] (अशिश्रियत्) आश्रय लिया है ॥३॥ जो वाणी प्राणयुक्त शरीर में रहनेवाले बिजुली नाम अग्नि से प्रकाशित होती है विद्वान् लोग उसका गुण प्रकाश करने के लिये उसका नित्य उपदेश और श्रवण करें ॥३॥ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ६८ वेदविषय में तैंतीस देवता इस प्रकार लिखे हैं−८ वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ, चन्द्रमा और नक्षत्र, ११ ग्यारह रुद्र अर्थात् शरीरस्थ दश प्राण अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाम, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय और ग्यारहवाँ जीवात्मा, १२ आदित्य वा महीने, १ इन्द्र अर्थात् बिजुली, और १ प्रजापति अर्थात् यज्ञ। उक्त मन्त्र में उनमें से ऊपर लिखे तीन को छोड़ कर तीस देवताओं का ग्रहण है ॥ इति तृतीयोऽनुवाकः ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(त्रिंशत् धामा) अहोरात्रस्य त्रिशन्मुहूर्ताख्यानि धामानि स्थानानि (वि) विविधम् (राजति) अन्तर्गतण्यर्थः। राजयति शास्ति दीपयति वा (वाक्) वेदवाणी (पतङ्गः) पतेरङ्गच् पक्षिणि। उ० १।११९। इति पत गतौ ऐश्वर्ये च−अङ्गच्। गतिशीलः। ऐश्वर्यवान् (अशिश्रियत्) णिश्रिद्रुस्रुभ्यः०। पा० ३।१।४८। इति श्रिञ् सेवायाम्−लुङि च्लेश्चङ्। आश्रितवती (प्रति) प्रत्यक्षम् (वस्तोः) ईश्वरे तोसुन्कसुनौ। पा० ३।४।१३। इति वस आच्छादने−कर्त्तरि तोसुन्। दिनम्−निघ० १।९। (अहः) दिनम् (द्युभिः) दिवु क्रीडाविजिगीषादिषु−क्विप्। किरणैः। गतिभिः ॥