०३० पापशमनम्

०३० पापशमनम् ...{Loading}...

Whitney subject
  1. To the śamī́ plant: for benefit to the hair.
VH anukramaṇī

पापशमनम्।
१-३ उपरिबभ्रवः। शमी। जगती, २ त्रिष्टुप्, ३ चतुष्पाच्छंकुमत्यनुष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Uparibabhrava.—śāmyam. jāgatam: 2. triṣṭubh; 3. 4-p. kakummaty anuṣṭubh.]

Whitney

Comment

Found also in Pāipp. xix. Verse 1 is wholly unconnected in meaning with the others, nor do these clearly belong together. Used by Kāuś. (66. 15) in the savayajñas, at a sava called pāunaḥśila (pāunasira, comm.); and vs. 2 (2 and 3, comm.) in a remedial rite (31. 1).

Translations

Translated: Ludwig, p. 512; Florenz, 288 or 40; Griffith, i. 261.—See also Bergaigne-Henry, Manuel, p. 151.

Griffith

A charm to promote the growth of hair

०१ देवा इमम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

दे॒वा इ॒मं मधु॑ना॒ संयु॑तं॒ यवं॒ सर॑स्वत्या॒मधि॑ म॒णाव॑चर्कृषुः।
इन्द्र॑ आसी॒त्सीर॑पतिः श॒तक्र॑तुः की॒नाशा॑ आसन्म॒रुतः॑ सु॒दान॑वः ॥

०१ देवा इमम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. This barley, combined with honey, the gods plowed much on the
    Sarasvatī, in behalf of Manu (?); Indra, of a hundred abilities, was
    furrow-master; the liberal (? sudā́nu) Maruts were the plowmen.
Notes

Ppp. has this verse only by citation of its pratīka, as if it had
occurred earlier; but it has not been found elsewhere in the text. It
occurs also in TB. (ii. 4. 87; exactly repeated in ĀpśS. vi. 30. 20;
PGS. iii. 1. 6), MB. ii. 1. 16, and K. (xiii. 15). The TB. version
begins with etám u tyám mádh- (so MB. also), and it gives in b
sárasvatyās and manā́v: cf. manā́v ádhi, RV. viii. 61. 2; ix. 63. 8;
65. 16; and the translation follows this reading; MB. has vanāva
carkṛdhi
. The comm., too, though he reads maṇāú, explains it by
manuṣyajātāu. In a, he has saṁjitam (for saṁyutam). He
explains acarkṛṣus by kṛtavantas, as if it came from root kṛ!
⌊SPP. reads maṇāú, without note of variant.⌋

Griffith

Over a magic stone, beside Sarasvati, the Gods Ploughed in this barley that was blent with mead. Lord of the plough was Indra, strong with hundred powers: the ploughers were the Maruts they who give rich gifts.

पदपाठः

दे॒वाः। इ॒मम्। मधु॑ना। सऽयु॑तम्। यव॑म्। सर॑स्वत्याम्। अधि॑। म॒णौ। अ॒च॒र्कृ॒षुः॒। इन्द्रः॑। आ॒सी॒त्। सीर॑ऽपतिः। श॒ऽक्र॑तुः। की॒नाशाः॑। आ॒स॒न्। म॒रुतः॑। सु॒ऽदान॑वः। ३०.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • शमी
  • उपरिबभ्रव
  • जगती
  • पापशमन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्या के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) विद्वान् लोगों ने (मधुना) मधुर रस वा ज्ञान से (संयुतम्) मिले हुए (इमम्) इस (यवम्) यव अन्न को (सरस्वत्याम् अधि) विज्ञान से युक्त वेदविद्या को अधिष्ठात्री मानकर (मणौ) उसके श्रेष्ठपन में (अचर्कृषुः) बार-बार जीता। (शतक्रतुः) सैकड़ों कर्म वा बुद्धिवाला (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् आचार्य (सीरपतिः) हल का स्वामी (आसीत्) था और (सुदानवः) बड़े दानी (मरुतः) विद्वान् पुरुष (कीनाशाः) परिश्रमी किसान (आसन्) थे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ब्रह्मवादी लोग आचार्य के उपदेश से वेदविद्या को प्रधान मान कर उसकी उत्तमता को खोज कर ऐसा आनन्द पाते हैं, जैसे किसान लोग अपने स्वामी की आज्ञा से विधिपूर्वक खेत में बीज बोकर अन्न प्राप्त करके प्रसन्न होते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(देवाः) विद्वांसः (इमम्) प्रत्यक्षम् (मधुना) मधुररसेन ज्ञानेन वा (संयुतम्) सम्मिलितम् (यवम्) यु मिश्रणामिश्रणयोः−अप्। यवान्नवद् मोक्षसुखम् (सरस्वत्याम् अधि) अधिरीश्वरे। पा० १।४।९७। इति अधेः कर्मप्रवचनीयत्वम्। यस्मादधिकं यस्य०। पा० ३।२।९। इति सप्तमी। विज्ञानवतीं वेदविद्यां सर्वाधिष्ठात्रीं मत्वा (मणौ) स्तुत्ये श्रेष्ठगुणे (अचर्कृषुः) कृष विलेखने यङ्लुकि लुङि। भृशं कृष्टवन्तः कर्षणेन प्राप्तवन्तः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् आचार्यः (आसीत्) (सीरपतिः) हलस्य स्वामी। प्रधानकर्षकः (शतक्रतुः) क्रतुः कर्मनाम−निघ० २।१। प्रज्ञानाम्−निघ० ३।९। बहुकर्मदक्षः। बहुप्रज्ञः (कीनाशाः) अ० ३।१७।५। परिश्रमिणः कर्षकाः (आसन्) (मरुतः) अ० १।२०।१। विद्वांसः शूराः। ऋत्विजः−निघ० ३।१८। (सुदानवः) बहुदातारः ॥

०२ यस्ते मदोऽवकेशो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यस्ते॒ मदो॑ऽवके॒शो वि॑के॒शो येना॑भि॒हस्यं॒ पुरु॑षं कृ॒णोषि॑।
आ॒रात्त्वद॒न्या वना॑नि वृक्षि॒ त्वं श॑मि श॒तव॑ल्शा॒ वि रो॑ह ॥

०२ यस्ते मदोऽवकेशो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The intoxication that is thine, with loosened hair, with disheveled
    hair, wherewith thou makest a man to be laughed at—far from thee do I
    wrench [out] other woods; do thou, O śamī́, grow up with a hundred
    twigs.
Notes

Even the lines of this verse seem unrelated. Ppp. has, in a, mado
vikeśo vikeśyo;
and its c, d are entirely different: bhrūṇaghno
varivāṇā janitvaṁ tasya te prajayas suvāmi keśam
. SPP. reads
śatávalśā in d, with a part of the mss. (including our P.M.K.Kp.).
The comm. explains vṛkṣi by vṛścāmi; but its connection and form, in
the obscurity of the verse, are doubtful. ⌊W. Foy discusses root vṛj,
KZ. xxxiv. 241 ff., and this vs. at p. 244.⌋ R. writes: “The fruit of
the śamī, the pod or kernels, is regarded (Caraka, p. 182, 1. 6) as
injurious to the hair; and from the designation keśamathanī in Rājan.
8. 33 is to be inferred that it makes the hair fall out. But nothing is
said of an intoxicating effect. To the two trees usually identified with
śamī, Prosopis spicigera and Mimosa suma, belongs neither the one
nor the other effect. Nor is either ‘of great leaves.’” ⌊The
Dhanvantarīya Nighaṇṭu, p. 188 of the Poona ed., also speaks of śamī
as keśahantrī and of its fruit as keśanāśana.⌋

Griffith

Thy joy in hair that falleth or is scattered, wherewith thou sub- jectest a man to laughter To other trees, far from thee will I drive it. Grow up, thou Sami, with a hundred branches.

पदपाठः

यः। ते॒। मदः॑। अ॒व॒ऽके॒शः। वि॒ऽके॒शः। येन॑। अ॒भि॒ऽहस्य॑म्। पुरु॑षम्। कृ॒णोषि॑। आ॒रात्। त्वत्। अ॒न्या। वना॑नि। वृ॒क्षि॒। त्वम्। श॒मि॒। श॒तऽव॑ल्शा। वि। रो॒ह॒। ३०.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • शमी
  • उपरिबभ्रव
  • त्रिष्टुप्
  • पापशमन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्या के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शमि) हे शान्ति करनेवाली [सरस्वती !] (यः) जो (ते) तेरा (मदः) आनन्द (अवकेशः) शुद्ध प्रकाशवाला और (विकेशः) विविध प्रकाशवाला है, (येन) जिससे (पुरुषम्) पुरुष को (अभिहस्यम्) बड़ा खिलने योग्य (कृणोषि) तू करती है। (त्वत्) तुझ से (अन्या) भिन्न [अविद्यारूप] (वनानि) माँगने के कर्मों को (आरात्) दूर (वृक्षि) मैंने छोड़ दिया है। (त्वम्) तू (शतवल्शा) सैकड़ों अङ्कुर वा शाखावाली होकर (वि) विविध प्रकार से (रोह) प्रकट हो ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - योगी जन विद्या की प्राप्ति से अज्ञान को मिटा करऋतम्भरा बुद्धि द्वारा अनेक सुख पाते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(यः) (ते) तव (मदः) हर्ष (अवकेशः) केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद् वा प्रकाशनाद्वा−निरु० १२।२५। शुद्धप्रकाशः (विकेशः) विविधप्रकाशः (येन) मदेन (अभिहस्यम्) हस विकशने−यत्। अभितो हसनीयं विकाशनीयम् (पुरुषम्) (कृणोषि) करोषि (आरात्) दूरे (त्वत्) त्वत्तः (अन्या) अन्यानि। विरुद्धानि। अविद्यारूपाणि (वनानि) वनु याचने−ल्युट्। याचनानि (वृक्षि) वृजी वर्जने−लुङ् अडभावः। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।११७। इति सार्वधातुकत्वात् इटो निषेधः। अवर्जिषि। अहं वर्जितवान् अस्मि (त्वम्) (शमि) अ० ६।११। हे शान्तिकरि सरस्वति (शतवल्शा) वल संवरणे−शक्। बह्वङ्कुरा बहुशाखा सती (वि) विविधम् (रोह) प्रादुर्भव ॥

०३ बृहत्पलाशे सुभगे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

बृह॑त्पलाशे॒ सुभ॑गे॒ वर्ष॑वृद्ध॒ ऋता॑वरि।
मा॒तेव॑ पु॒त्रेभ्यो॑ मृड॒ केशे॑भ्यः शमि ॥

०३ बृहत्पलाशे सुभगे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. O thou of great leaves, blessed one, rain-increased, righteous! as a
    mother to her sons, be thou gracious to the hair, O śamī́.
Notes

It is possible to read sixteen syllables out of the second half-verse
(accenting then mṛḍá), but the description of the Anukr. implies 8 +
8: 8 + 6 = 30 syllables ⌊as does also the position of the
avasāna-mark, which is put after mṛḍa⌋. Ppp. eases the situation by
inserting nas before śami in d; it also reads ūrdhvasvapne
(for varṣavṛddhe) in b.

Griffith

Auspicious, bearing mighty leaves, holy one, nurtured by the rain, Even as a mother to her sons, be gracious, Sami to our hair.

पदपाठः

बृह॑त्ऽपलाशे। सुऽभ॑गे। वर्ष॑ऽवृध्दे। ऋत॑ऽवरि। मा॒ताऽइ॑व। पु॒त्रेभ्यः॑। मृ॒ड॒। केशे॑भ्यः। श॒मि॒। ३०.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • शमी
  • उपरिबभ्रव
  • चतुष्पदा शङ्कुमत्यनुष्टुप्
  • पापशमन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्या के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहत्पलाशे) हे बहुत पालन शक्ति से व्याप्त ! (सुभगे) हे बड़े ऐश्वर्यवाली ! (वर्षबुद्धे) हे वरणीय गुणों से बढ़ी हुई ! (ऋतावरि) हे सत्यशीला ! (शमि) हे शान्तिकारिणी सरस्वती ! (केशेभ्यः) प्रकाशों के लिये (मृड) सुखी हो, (माता इव) जैसे माता (पुत्रेभ्यः) पुत्रों के लिये ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सत्कारपूर्वक विद्या को प्राप्त करते हैं, उन्हें वह ऐसे सुख देती है जैसे माता पुत्रों को ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(बृहत्पलाशे) पल रक्षणे−अप्+अशूङ् व्याप्तौ संघाते च−अण्। बहूनि पलानि पालनानि अश्नुते व्याप्नोति सा। तत्सम्बुद्धौ, (सुभगे) हे बह्वैश्वर्यवति (वर्षवृद्धे) वृतॄवदि०। उ० ३।६२। इति वृञ् वरणे−स प्रत्ययः। वर्षैर्वरणीयगुणैः प्रवृद्धे (ऋतावरि) अ० ५।१५।१। हे सत्यशीले (माता इव) जननी यथा (पुत्रेभ्यः) सन्तानेभ्यः (मृड) सुखयुक्ता भव (केशेभ्यः) म० २ प्रकाशेभ्यः (शमि) हे शान्तिकारिणि सरस्वति ॥