०२७ अरिष्टक्षयणम्

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Whitney subject
  1. Against birds of ill omen.
VH anukramaṇī

अरिष्टक्षयणम्।
१-३ भृगुः। यमः, निर्ऋतिः। जगती, २ त्रिष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Bhṛgu.—yāmyam uta nāirṛtam. jāgatam: 2. triṣṭubh.]

Whitney

Comment

RV. has precisely the same text in this verse. Ppp. begins with devaṣ k-. Some of the mss. (including our P.M.W.T.) read níḥkṛtiṁ in c. The verse lacks two syllables of being a full jagatī.

Griffith

A charm to avert misfortune foreshown by the coming of a dove

०१ देवाः कपोत

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

देवाः॑ क॒पोत॑ इषि॒तो यदि॒छन्दू॒तो निरृ॑त्या इ॒दमा॑ज॒गाम॑।
तस्मा॑ अर्चाम कृ॒णवा॑म॒ निष्कृ॑तिं॒ शं नो॑ अस्तु द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥

०१ देवाः कपोत ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Seeking what, O gods, the sent dove, messenger of perdition, hath
    come hither, to it will we sing praises, make removal; weal be [it] to
    our bipeds, weal to our quadrupeds.
Notes

RV. has precisely the same text in this verse. Ppp. begins with devaṣ
k-
. Some of the mss. (including our P.M.W.T.) read níḥkṛtiṁ in c.
The verse lacks two syllables of being a full jagatī.

Griffith

Gods! whatsoe’er the Dove came hither seeking, sent to us as the envoy of Destruction, For that let us sing hymns and make atonement, Well be it with our quadrupeds and bipeds!

पदपाठः

देवाः॑। क॒पोतः॑। इ॒षि॒तः। यत्। इ॒च्छन्। दू॒तः। निःऽऋ॑त्याः। इ॒दम्। आ॒ऽज॒गाम॑। तस्मै॑। अ॒र्चा॒म॒। कृ॒णवा॑म। निःऽकृ॑तिम्। शम्। नः॒। अ॒स्तु॒। द्वि॒ऽपदे॑। शम्। चतुः॑ऽपदे। २७.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यमः, निर्ऋतिः
  • भृगु
  • जगती
  • अरिष्टक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विद्वानो ! (इषितः) प्राप्तियोग्य, (निर्ऋत्याः) अलक्ष्मी का (दूतः) नाश करनेवाला, (कपोतः) वरणीय वा स्तुति योग्य [अथवा, कबूतर पक्षी के समान दूरदर्शी और तीक्ष्णबुद्धि] पुरुष (यत्) पूजनीय ब्रह्म को (इच्छन्) खोजता हुआ, (इदम्) इस स्थान में (आजगाम) आया है। (तस्मै) उस विद्वान् के लिये (अर्चाम) हम पूजा करें और (निष्कृतिम्) अपनी निर्मुक्ति (कृणवाम) हम करें, [जिससे] (नः) हमारे (द्विपदे) दो पाये समूह को (शम्) शान्ति और (चतुष्पदे) चौपाये समूह को (शम्) शान्ति (अस्तु) होवे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे कबूतर दूर देशों में सन्देश लेजाकर उत्तर लाते हैं, उसी प्रकार दूरदर्शी और बुद्धिमान् ब्रह्मज्ञानी विद्वानों से मनुष्य आदरपूर्वक विद्या प्राप्त करके और दुःखों से मुक्ति पाकर आनन्द भोगे ॥१॥ यह सूक्त ऋग्वेद में कुछ भेद से है−म० १०। सू० १६५। म० १-३। अजमेर वैदिक यन्त्रालय की ऋक्संहिता में [कपोतो नैर्ऋतः] कपोत निर्ऋति का पुत्र ऋषि और [कपोतोपहतौ प्रायश्चित्तं वैश्वदेवम्] कपोत के हनन में, विश्वेदेवा, सब विद्वानों का प्रायश्चित्त देवता है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(देवाः) हे विद्वांसः (कपोतः) कबेरोतच् पश्च। उ० १।६२। इति कबृ वर्णे स्तुतौ च−ओतच्। बस्य पः। वरणीयः। स्तुत्यः। अथवा कपोतपक्षिवद् दूरदर्शी तीक्ष्णबुद्धिश्च विद्वान् (इषितः) पिशेः किच्च। उ० ३।९५। इति इष गतौ−इतन्, स च कित्। प्राप्तव्यः (यत्) त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। इति यज्−अदि, स च डित्। यजनीय पूजनीय ब्रह्म (इच्छन्) अन्विच्छन् (दूतः) अ० १।७।६। टुदु उपतापे−क्त, दीर्घश्च, सन्तापको नाशकः (निर्ऋत्याः) अ० २।१०।१। अलक्ष्म्या (इदम्) समीपस्थानम् (आजगाम) आगतवान् (तस्मै) कपोताय। विदुषे (अर्चाम) पूजां करवाम (कृणवाम) करवाम (निष्कृतिम्) बहिर्गमनम्। दुःखाद् निर्मुक्तिम् (शम्) शान्तिः (नः) अस्माकम् (अस्तु) (द्विपदे) पादद्वयोपेताय मनुष्यादये (शम्) (चतुष्पदे) पादचतुष्टयोपेताय गवाश्वादये ॥

०२ शिवः कपोत

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

शि॒वः क॒पोत॑ इषि॒तो नो॑ अस्त्वना॒गा दे॒वाः श॑कु॒नो गृ॒हं नः॑।
अ॒ग्निर्हि विप्रो॑ जु॒षतां॑ ह॒विर्नः॒ परि॑ हे॒तिः प॒क्षिणी॑ नो वृणक्तु ॥

०२ शिवः कपोत ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Propitious to us be the sent dove, harmless, O gods, the hawk
    (śakuná) [sent] to our house; for let the inspired (vípra) Agni
    enjoy our oblation, let the winged missile avoid us.
Notes

Ppp. agrees with RV. in the better reading gṛhéṣu (for gṛháṁ naḥ) at
end of b. ⌊One suspects that “hawk” may be too specific.⌋

Griffith

Auspicious be the Dove that hath been sent us, a harmless bird, O Gods, that seeks our dwelling! May Agni, Sage, be pleased with our oblation, and may the missile borne on wings avoid us.

पदपाठः

शि॒वः। क॒पोतः॑। इ॒षि॒तः। नः॒। अ॒स्तु॒। अ॒ना॒गाः। दे॒वाः॒। श॒कु॒नः। गृ॒हम्। नः॒। अ॒ग्निः। हि। विप्रः॑। जु॒षता॑म्। ह॒विः। नः॒। परि॑। हे॒तिः। प॒क्षिणी॑। नः॒। वृ॒ण॒क्तु॒। २७.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यमः, निर्ऋतिः
  • भृगु
  • त्रिष्टुप्
  • अरिष्टक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विद्वानो ! (इषितः) प्राप्ति योग्य (अनागाः) निर्दोष, (शकुनः) समर्थ (कपोतः) स्तुतियोग्य विद्वान् (नः) हमारे लिये और (नः) हमारे (गृहम्=गृहाय) घर के लिये (शिवः) मङ्गलकारी (अस्तु) होवे। (अग्निः) वह विद्वान् (विप्रः) बुद्धिमान् पुरुष (नः) हमारे (हविः) देने लेने योग्य कर्म को (हि) अवश्य (जुषताम्) स्वीकार करे। (पक्षिणी) पक्षपातवाली (हेतिः) चोट (नः) हमें (परि) सब ओर से (वृणक्तु) छोड़े ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य पूर्ण विद्वानों के सत्सङ्ग से सुशिक्षित होकर अन्याय से पक्षपात न करे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(शिवः) सुखकरः (कपोतः) म० १। स्तुत्यो दूरदर्शी पुरुषः (इषितः) म० १। प्राप्तव्यः (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (अनागाः) निर्दोषः (देवाः) हे विद्वांसः (शकुनः) शकेरुनोन्तोन्त्युनयः। उ० ३।४९। इति शक्लृ−शक्तौ−उन। शक्तः समर्थः (गृहम्) चतुर्थ्याः प्रथमा। गृहाय (नः) अस्माकम् (अग्निः) विद्वान् (हि) निश्चयेन (विप्रः) मेधावी−निघ० ३।१५। (जुषताम्) सेवताम्। स्वीकरोतु (हविः) दातव्यं ग्राह्यं कर्म (नः) अस्माकम् (परि) सर्वतः (हेतिः) अ० १।१३।३। हननसाधनम् वज्रः (पक्षिणी) पक्ष परिग्रहे−अच्, इनि, ङीप्। पक्षपातयुक्ता। अन्यायेन साहाय्यकारिणी (नः) अस्मान् (वृणक्तु) वर्जयतु ॥

०३ हेतिः पक्षिणी

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

हे॒तिः प॒क्षिणी॒ न द॑भात्य॒स्माना॒ष्ट्री प॒दं कृ॑णुते अग्नि॒धाने॑।
शि॒वो गोभ्य॑ उ॒त पुरु॑षेभ्यो नो अस्तु॒ मा नो॑ देवा इ॒ह हिं॑सीत्क॒पोतः॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. May the winged missile not harm us; it maketh its track on the
    hearth, in the fire-holder; propitious be it unto our kine and men; let
    not the dove, O gods, injure us here.
Notes

The form āṣṭrī́ (p. āṣṭrī́ íti) is quoted under Prāt. i. 74 as an
example of a locative in ī (pragṛhya); RV. has the less primitive
form āṣṭryā́m; the comm. explains it by vyāptāyām araṇyānyām. For
c, d, RV. has a slightly different text: śáṁ no góbhyaś ca
púruṣebhyaś ca ’stu mā́ no hiṅsīd ihá devāḥ kapótah
. The AV. version
spoils the meter of c, but the Anukr. does not heed this.

Griffith

Let not the arrow that hath wings distract us. Beside the fire- place, on the hearth it settles. May it bring welfare to our men and cattle: here let the Dove, ye Gods, forbear to harm us.

पदपाठः

हे॒तिः। प॒क्षिणी॑। न। द॒भा॒ति॒। अ॒स्मान्। आ॒ष्ट्री इति॑। प॒दम्। कृ॒णु॒ते॒। अ॒ग्नि॒ऽधाने॑। शि॒वः। गोभ्यः॑। उ॒त। पुरु॑षेभ्यः। नः॒। अ॒स्तु॒। मा। नः॒। दे॒वाः॒। इ॒ह। हिं॒सी॒त्। क॒पोतः॑। २७.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यमः, निर्ऋतिः
  • भृगु
  • जगती
  • अरिष्टक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विद्वानों के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पक्षिणी) पक्षपातवाली (हेतिः) चोट (अस्मान्) हमें (न) न (दभाति) दबावे। (आष्ट्री) व्याप्त सभा के बीच (अग्निधाने) विद्वानों के स्थान पर [वह विद्वान्] (पदम्) अपना अधिकार (कृणुते) करता है। (देवाः) हे विद्वानो ! (कपोतः) स्तुतियोग्य पुरुष (नः) हमारी (गोभ्यः) गउओं के लिये (उत) और (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये (शिवः) मङ्गलकारी (अस्तु) होवे। और (नः) हमें (इह) यहाँ पर (मा हिंसीत्) न दुःख देवे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस सभा में सभापति वेदानुगामी न्यायकारी होता है, वहाँ के सभासद अन्यायी पक्षपाती नहीं होते और न दुःख उठाते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(हेतिः) हवनशक्ति (पक्षिणी) पक्षपातयुक्ता (नः) निषेधे (दभाति) लेटि रूपम्। हिनस्तु (अस्मान्) सदस्यान् (आष्ट्री) भ्रस्जिगमिनमि०। उ० ४।१६०। इति अशू व्याप्तौ−ष्ट्रन् वृद्धिश्च, ङीप्। सुपां सुलुक्० पा० ७।१।३९। इति सप्तम्याः पूर्वसवर्णः, प्रगृह्य च। आष्ट्र्यां व्याप्तायां सभायाम् (पदम्) अधिकारम् (कृणुते) करोति (अग्निधाने) अग्नीनां विदुषां स्थाने (शिवः) सुखकरः (गोभ्यः) गवादिपशुभ्यः (उत) अपि च (पुरुषेभ्यः) मनुष्यादिप्राणिभ्यः (नः) अस्माकम् (अस्तु) (नः) अस्मान् (इह) अस्यां सभायाम् (मा हिंसीत्) न हन्तु (कपोतः) म० १। स्तुत्यो विद्वान् ॥