००५ वर्चः प्राप्तिः ...{Loading}...
Whitney subject
- For some one’s exaltation.
VH anukramaṇī
वर्चः प्राप्तिः
१-३ अथर्वा। १ अग्निः, २ इन्द्रः, ३ अग्निः, सोमः, ब्रह्मणस्पतिः। अनुष्टुप्, २ भुरिक्।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan.—āindrāgnam. ānuṣṭubham: 2. bhurij.]
Whitney
Comment
Found also in Pāipp. xix., and in VS. (xvii. 50-52) TS. (iv. 6. 31), MS. (ii. 10. 4). Used in Kāuś. (4. 9) in the parvan sacrifice, with an oblation to Agni; and again (59. 7), with vi. 6 and vii. 91, by one desiring a village; and for success in traffic, see under vi. 1. In Vāit. (29. 15) the hymn accompanies the laying on of fuel in the agnicayana, and vs. 2, in the parvan sacrifice (2. 14; 3. 3), two offerings to Indra; for the use in Vāit. 16. 9, see under vi. 3. The comm. further points out vs. 2 as addressed to Indra in the Nakṣ. K. 14.
Translations
Translated: Ludwig, p. 431; Florenz, 254 or 6; Griffith, i. 247.
Griffith
A prayer to Agni and Indra for the well being of a princely patron
०१ उदेनमुत्तरं नयाग्ने
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उदे॑नमुत्त॒रं न॒याग्ने॑ घृ॒तेना॑हुत।
समे॑नं॒ वर्च॑सा सृज प्र॒जया॑ च ब॒हुं कृ॑धि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उदे॑नमुत्त॒रं न॒याग्ने॑ घृ॒तेना॑हुत।
समे॑नं॒ वर्च॑सा सृज प्र॒जया॑ च ब॒हुं कृ॑धि ॥
०१ उदेनमुत्तरं नयाग्ने ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Lead him up higher, O Agni, [thou] to whom oblations of ghee are
made; unite him with splendor, and make him abundant with progeny.
Notes
VS.TS. have in a the later form uttarā́m. In b, ghṛténa
presents the rare case of an instrumental dependent on a vocative, and
ought, like a genitive in the like construction, to be unaccented; it is
so in all the three Yajus texts. Ppp. reads ghṛtebhir āhutaḥ. VS.TS.
exchange 1 c and 2 c; and TS. has dhánena ca for bahúṁ kṛdhi
at the end. Ppp. has, for d, devānāṁ bhāgadhā asat (cf. TS. 2
d). This first verse occurs also in Āp. vi. 24. 8, which has, for
a, ud asmāṅ uttarān naya, agrees with VS. and TS. in c, and
reads bahūn in d.
Griffith
Agni, adored with sacred oil, lift up this man to high estate. Endow him with full store of strength and make him rich in progeny.
पदपाठः
उत्। ए॒न॒म्। उ॒त्ऽत॒रम्। न॒य॒। अग्ने॑। घृ॒तेन॑। आ॒ऽहु॒त॒। सम्। ए॒न॒म्। वर्च॑सा। सृ॒ज॒। प्र॒ऽजया॑। च॒। ब॒हुम्। कृ॒धि॒। ५.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- वर्चः प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
धन और जीवन की वृद्धि का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (घृतेन) घृत से (आहुत) आहुति पाये हुए (अग्ने) हे अग्नि के समान तेजस्वी परमेश्वर ! (एनम्) इस पुरुष को (उत्तरम्) अधिक ऊँचा (उत् नय) उठा। (एनम्) इस को (वर्चसा) तेज से (सम् सृज) संयुक्त कर, (च) और (प्रजया) प्रजा से (बहुम्) प्रवृद्ध (कृधि) कर ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर की भक्ति से तेजस्वी होकर अपना सामर्थ्य और प्रजा बढ़ावे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(उत् नय) उर्ध्वं प्रापय (एनम्) उपासकम् (उत्तरम्) उन्नतं पदम् (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् परमात्मन् (घृतेन) आज्येन (आहुत) प्राप्ताहुते (सम् सृज) संयोजय (एनम्) (वर्चसा) तेजसा (प्रजया) सन्तानभृत्यादिना (च) (बहुम्) लङ्घिबंह्योर्नलोपश्च। उ० १।२९। इति बहि वृद्धौ−कु। प्रवृद्धम् (कृधि) कुरु ॥
०२ इन्द्रेमं प्रतरम्
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इन्द्रे॒मं प्र॑त॒रं कृ॑धि सजा॒ताना॑मसद्व॒शी।
रा॒यस्पोषे॑ण॒ सं सृ॑ज जी॒वात॑वे ज॒रसे॑ नय ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रे॒मं प्र॑त॒रं कृ॑धि सजा॒ताना॑मसद्व॒शी।
रा॒यस्पोषे॑ण॒ सं सृ॑ज जी॒वात॑वे ज॒रसे॑ नय ॥
०२ इन्द्रेमं प्रतरम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- O Indra, put this man far forward; may he be controler of his
fellows; unite him with abundance of wealth; conduct him unto life
(jīvā́tu), unto old age.
Notes
In a, VS.TS. have again pratarā́m; VS. MS. have naya for kṛdhi;
for c (as already noted), VS.TS. have our 1 c; for d, MS.
has devébhyo bhāgadā́ asat, VS. and TS. nearly the same, VS.
substituting devā́nām, and TS. -dhā́; Ppp. has, for d, our 1
d. The meter of d might be rectified by abbreviating jīvā́tave
to -tvāi (a form found in MS.śB. and Āp.), or by emending it to
jīvā́tum.
Griffith
Advance him, Indra! Let him be ruler of all akin to him. Grant him sufficiency of wealth: guide him to life and length of days.
पदपाठः
इन्द्र॑। इ॒मम्। प्र॒ऽत॒रम्। कृ॒धि॒। स॒ऽजा॒ताना॑म्। अ॒स॒त्। व॒शी। रायः। पोषे॑ण। सम्। सृ॒ज॒। जीवात॑वे। जरसे॑। नय। ५.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- अथर्वा
- भुरिगनुष्टुप्
- वर्चः प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
धन और जीवन की वृद्धि का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर ! (इमम्) इस पुरुष को (प्रतरम्) अधिक ऊँचा (कृधि) कर, यह (सजातानाम्) समान जन्मवाले बन्धुओं का (वशी) वश में रखनेवाला, अधिष्ठाता (असत्) होवे। (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से (सम् सृज) संयुक्त कर और (जीवातवे) बड़े जीवन के लिये और (जरसे) स्तुति के लिये (नय) आगे बढ़ा ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा पालन करके अपने बन्धुओं को उत्तम बर्ताव से वश में रख कर धन की वृद्धि करके पूर्ण यश प्राप्त करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् भगवन् (इमम्) धर्मात्मानम् (प्रतरम्) अधिकप्रवृद्धम् (कृधि) कुरु (सजातानाम्) समानजन्मनां बन्धूनाम् (असत्) भवेत् (वशी) वशयिता। अधिष्ठाता (रायः) धनस्य (पोषेण) वर्धनेन (सम् सृज) संयोजय (जीवातवे) जीवेरातुः। उ० १।७८। इति जीव प्राणधारणे−आतु। चिरजीवनाय (जरसे) अ० १।३०।२। स्तुतये (नय) प्रेरय ॥
०३ यस्य कृण्मो
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यस्य॑ कृ॒ण्मो ह॒विर्गृ॒हे तम॑ग्ने वर्धया॒ त्वम्।
तस्मै॒ सोमो॒ अधि॑ ब्रवद॒यं च॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यस्य॑ कृ॒ण्मो ह॒विर्गृ॒हे तम॑ग्ने वर्धया॒ त्वम्।
तस्मै॒ सोमो॒ अधि॑ ब्रवद॒यं च॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑ ॥
०३ यस्य कृण्मो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- In whose house we make oblation, him, O Agni, do thou increase; him
may Soma bless, and this Brahmaṇaspati.
Notes
The three Yajus texts have, in a, kurmás for kṛṇmás, and VS.MS.
(with Ppp.) put havís after gṛhé. In c, all three have devā́
ádhi bravan (but MS. bruvan). The last half-verse occurs below, as
87. 3 c, d (corresponding to RV. x. 173. 3 etc.).
Griffith
Prosper this man, O Agni, in whose house we offer sacrifice. May Soma bless him, and the God here present, Brahmanaspati.
पदपाठः
यस्य॑। कृ॒ण्मः। ह॒विः। गृ॒हे। तम्। अ॒ग्ने॒। व॒र्ध॒य॒। त्वम्। तस्मै॑। सोमः॑। अधि॑। ब्र॒व॒त्। अ॒यम्। च॒। ब्रह्म॑णः। पतिः॑। ५.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- वर्चः प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
धन और जीवन की वृद्धि का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) जिस पुरुष के (गृहे) घर में (हविः) देने और लेने योग्य व्यवहार (कृण्मः) हम करते हैं, (तम्) उस को (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर ! (त्वम्) तू (वर्धय) बढ़ा। (तस्मै) उसी पुरुष के लिये (अयम्) यह (सोमः) ऐश्वर्यवान् (च) और (ब्रह्मणः) वेदविद्या का (पतिः) रक्षक पुरुष (अधि) अधिक (ब्रवत्) कथन करे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सबका हितैषी होवे, वह परमेश्वर के अनुग्रह से वृद्धि करके ऐश्वर्यशाली विद्वानों में बड़ाई पावे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(यस्य) धार्मिकस्य (कृण्मः) कुर्मः (हविः) दातव्यं ग्राह्यं कर्म (गृहे) निवासे (तम्) (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमात्मन् (वर्धय) समर्धय (त्वम्) (तस्मै) पूर्वोक्ताय पुरुषाय (सोमः) ऐश्वर्यवान् पुरुषः (अधि) अधिकम् (ब्रवत्) कथयेत् (अयम्) प्रसिद्धः (च) (ब्रह्मणः) वेदस्य (पतिः) पालकः ॥