०१८ ब्रह्मरावी

०१८ ब्रह्मरावी ...{Loading}...

Whitney subject
  1. The Brahman’s cow.
VH anukramaṇī

ब्रह्मरावी
१-१५ मयोभूः। ब्रह्मगवी। अनुष्टुप्, ४ भुरिक् त्रिष्टुप्, ५,८-९,१३ त्रिष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Mayobhū.—pañcadaśakam. brahmagavīdevatyam. ānuṣṭubham: 4, 5, 8, 9, 13. triṣṭubh (4. bhurij).]

Whitney

Comment

Found also in Pāipp. ix. (except vs. 7; in the order 1, 2, 4, 13, 5, 6, 14, 3, 15, 9, 8, 10-12). Not noticed in Vāit., but quoted in Kāuś. 48. 13 with the next hymn (as the “two Brahman-cow” hymns), just after hymn 17, in a witchcraft rite.

Translations

Translated: Muir, i2 284; Ludwig, p. 447; Zimraer, p. 199; Grill, 41, 148; Griffith, i. 215; Bloomfield, 169, 430; Weber, xviii. 229.

Griffith

The wickedness of oppressing and robbing Brahmans

०१ नैतां ते

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नैतां ते॑ दे॒वा अ॑ददु॒स्तुभ्यं॑ नृपते॒ अत्त॑वे।
मा ब्रा॑ह्म॒णस्य॑ राजन्य॒ गां जि॑घत्सो अना॒द्याम् ॥

०१ नैतां ते ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Her the gods did not give thee for thee to eat, O lord of men
    (nṛpáti); do not thou, O noble, desire to devour (ghas) the cow of
    the Brahman, that is not to be eaten.
Notes

An accent-mark under the nya of rājanya in c has been lost.

Griffith

The Gods, O Prince, have not bestowed this cow on thee to eat thereof. Seek not, Rajanya, to devour the Brahman’s cow which none may eat.

पदपाठः

न। ए॒ताम्। ते॒। दे॒वाः। अ॒द॒दुः॒। तुभ्य॑म्। नृ॒ऽप॒ते॒। अत्त॑वे। मा। ब्रा॒ह्म॒णस्य॑। रा॒ज॒न्य॒। गाम्। जि॒घ॒त्सः॒। अ॒ना॒द्याम्। १८.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • अनुष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (नृपते) हे नरपति राजन् ! (ते) तेरे (देवाः) दिव्य गुणवाले पुरुषों ने (तुभ्यम्) तुझे (एताम्) इस [वाणी] को (अत्तवे) नाश करने को (न) नहीं (अददुः) दिया है। (राजन्य) हे राजन् ! (ब्राह्मणस्य) वेदवेत्ता पुरुष की (गाम्) वाणी को, (अनाद्याम्) जो नष्ट नहीं हो सकती है, (मा जिघत्सः) मत नाशकर ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा आप्त सत्यवादी वेदज्ञ पुरुष की वाणी में रह कर आनन्द करे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(न) निषेधे (एताम्) गाम् (ते) तव। अनुदात्तोऽयम् (देवाः) दिव्यगुणाः पुरुषाः (अददुः) दत्तवन्तः (तुभ्यम्) (नृपते) हे मनुष्यरक्षक राजन् (अत्तवे) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० ३।४।९। इति अद भक्षणे नाशने च−तवेन्। नाशयितुम् (मा) निषेधे (ब्राह्मणस्य) वेदज्ञस्य। आप्तपुरुषस्य (राजन्य) अ० ५।१७।९। हे ऐश्वर्यवन् (गाम्) गमेर्डोः। उ० २।६७। इति गम्लृ गतौ, यद्वा, गै गाने−डो। गच्छति जानाति यया गीयते वा सा गौः। गौः, वाङ्नाम−निघ० १।११। वाणीम् (जिघत्सः) अद−सन्, घस्लृ इत्यादेशे लेटि रूपम्। नाशय (अनाद्याम्) अद-ण्यत्। केनापि नाशयितुमशक्याम् आप्तवचनत्वात् ॥

०२ अक्षद्रुग्धो राजन्यः

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अ॒क्षद्रु॑ग्धो राज॒न्यः॑ पा॒प आ॑त्मपराजि॒तः।
स ब्रा॑ह्म॒णस्य॒ गाम॑द्याद॒द्य जी॒वानि॒ मा श्वः ॥

०२ अक्षद्रुग्धो राजन्यः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. A noble hated of the dice, evil, self-ruined (-párājita)—he may eat
    the cow of the Brahman: “let me live today, not tomorrow.”
Notes

I.e., if such is his wish. Ppp. reads, for b, pāpātmam aparājitaḥ.
⌊Cf. Isaiah xxii. 13; I Cor. xv. 32.⌋

Griffith

A base Rajanya, spoiled at dice, and ruined by himself, may eat. The Brahman’s cow and think, To-day and not tomorrow, let me live!

पदपाठः

अ॒क्षऽद्रु॑ग्धः। रा॒ज॒न्यः᳡। पा॒पः। आ॒त्म॒ऽप॒रा॒जि॒तः। सः। ब्रा॒ह्म॒णस्‍य॑। गाम्। अ॒द्या॒त्। अ॒द्य। जी॒वा॒नि॒। श्वः। १८.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • अनुष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अक्षद्रुग्धः) इन्द्रियों से नष्ट किया हुआ, (पापः) पापी, (आत्मपराजितः) आत्मा से हारा हुआ (सः) वह (राजन्यः) क्षत्रिय (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण, वेदवेत्ता की (गाम्) वाणी को (अद्यात्) नाश करे, (अद्य) आज (जीवानि=जीवतु) वह जीवे, (श्वः) कल (मा) नहीं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वेदविद्या पर न चलने से दुष्कर्मों के कारण अजितेन्द्रिय राजा का जीवन घट जाता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(अक्षद्रुग्धः) अक्षैरिन्द्रियैर्नाशितः। अजितेन्द्रियः (राजन्यः) राजा (पापः) पाप−अर्शआद्यच्। दुष्टः (आत्मपराजितः) आत्मना पराभूतः (सः) (ब्राह्मणस्य) वेदवेत्तुः विप्रस्य (गाम्) वाणीम् (अद्यात्) भक्षयेत् (अद्य) अस्मिन् दिने (मा) निषेधे (श्वः) आगामिनि दिवसे ॥

०३ आविष्टिताघविषा पृदाकूरिव

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आवि॑ष्टिता॒घवि॑षा पृदा॒कूरि॑व॒ चर्म॑णा।
सा ब्रा॑ह्म॒णस्य॑ राजन्य तृ॒ष्टैषा गौर॑ना॒द्या ॥

०३ आविष्टिताघविषा पृदाकूरिव ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Like an ill-poisonous adder enveloped with [cow-] hide, this cow of
    the Brahman, O noble, is harsh, not to be eaten.
Notes

That is (a, b) a poisonous serpent in disguise. At beginning of
c, mā́ in our text is an error for sā́.

Griffith

The Brahman’s cow is like a snake, charged with due poison, clothed with skin. Rajanya! bitter to the taste is she, and none may eat of her.

पदपाठः

आऽवि॑ष्टिता। अ॒घऽवि॑षा। पृ॒दा॒कूःऽइ॑व। चर्म॑णा। सा। ब्रा॒ह्म॒णस्य॑। रा॒ज॒न्य॒। तु॒ष्टा। ए॒षा। गौः। अ॒ना॒द्या। १८.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • अनुष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (चर्मणा) काँचुली से (आविष्टिता) वियोग रखनेवाली, (अघविषा) घोर विषैली (पृदाकूः इव) फुँसकारती साँपिनी के समान (सा एषा) वह यह (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण की (गौः) वाणी, (राजन्य) हे राजन् ! (तृष्टा) प्यास से व्याकुल के समान है (अनाद्या) जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे काँचुली से निकल कर साँपिनी दुष्ट विषैली होती है, वैसे ही अविद्या के फैलने से नष्ट वेदविद्या सब ओर विपत्ति फैलाती है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(आविष्टिता) आङ्+विष विप्रयोगे−क्त। तदस्य संजातं तारकादिभ्य इतच्। पा० ५।२।३६। इति आविष्ट−इतच्। आविष्टेन वियोगेन युक्ता (अघविषा) घोरविषवती (पृदाकूः) अ० १।२७।१। कुत्सितशब्दकारिणी सर्पिणी (इव) यथा (चर्मणा) त्वगावरणेन (सा) (ब्राह्मणस्य) विप्रस्य (राजन्य) हे राजन् (तृष्टा) ञितृषा पिपासायाम्−क्त। पिपासितेव व्याकुला (गौः) वाणी (अनाद्या) म० १। केनापि न नाशनीया ॥

०४ निर्वै क्षत्रम्

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निर्वै क्ष॒त्रं नय॑ति हन्ति॒ वर्चो॒ऽग्निरि॒वार॑ब्धो॒ वि दु॑नोति॒ सर्व॑म्।
यो ब्रा॑ह्म॒णं मन्य॑ते॒ अन्न॑मे॒व स वि॒षस्य॑ पिबति तैमा॒तस्य॑ ॥

०४ निर्वै क्षत्रम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Verily it conducts away his authority, smites his splendor; like fire
    taken hold of it burns up all; he who thinks the Brahman to be food, he
    drinks of Timātan poison.
Notes

Or ‘she’ (the cow), or ‘he’ (the Brahman), instead of ‘it,’ in a, b.
Ppp. reads in b ālabdhaḥ pṛtannota rāṣṭaṁ, and has a wholly
different second half-verse, nearly agreeing with our 13 c, d: yo
brāhmaṇaṁ devabandhuṁ hinasti tasya pitṝṇām apy etu
lokam. The
Anukr. reckons the verse unnecessarily as bhurij, since iva in b
is to be shortened to ’va.

Griffith

She takes away his strength, she mars his splendour, she ruins everything like fire enkindled. That man drinks poison of the deadly serpent who counts the Brahman as mere food to feed him.

पदपाठः

निः। वै। क्ष॒त्रम्। नय॑ति। हन्ति॑। वर्चः॑। अ॒ग्निःऽइ॑व। आऽर॑ब्धः। वि। दु॒नो॒ति॒। सर्व॑म्। यः। ब्रा॒ह्म॒णम्। मन्य॑ते। अन्न॑म्। ए॒व। सः। वि॒षस्य॑। पि॒ब॒ति॒। तै॒मा॒तस्य॑। १८.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो मनुष्य (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञानी को (अन्नम्) अन्न (एव) ही (मन्यते) मानता है, (सः) वह (तैमातस्य) जल में भीगे (विषस्य) विष का (पिबति) पान करता है, (वै) निश्चय करके (क्षत्रम्) अपना धन वा बल (निर् नयति) बाहिर फेंकता है, (वर्चः) अपना तेज (हन्ति) खोता है, और (आरब्धः) चारों ओर से लगी हुई (अग्निः इव) अग्नि के समान (सर्वम्) अपना सब कुछ (वि दुनोति) जला देता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वेदज्ञानियों को सतानेवाला पुरुष अज्ञान के कारण अपने आप ही अपना नाश कर लेता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(निर्) बहिर्भावे (वै) निश्चयेन (क्षत्रम्) अ० २।१५।४। क्षतात् त्रायकं बलं धनं वा (नयति) प्रापयति (हन्ति) नाशयति (वर्चः) तेजः (अग्निः) पावकः (इव) यथा (आरब्धः) समन्तादुद्यतः। प्रज्वलितः (वि) विशेषेण (दुनोति) उपतापयति (सर्वम्) सम्पूर्णपदार्थजातम् (यः) दुष्टः (ब्राह्मणम्) अनूचानम् (मन्यते) जानाति (अन्नम्) अदनीयं वस्तु (एव) निश्चयेन (सः) दुराचारी (विषस्य) हलाहलस्य (पिबति) पानं करोति (तैमातस्य) अ० ५।१३।६। तिमात−अण्। तिमातेन क्लेदनसाधनेन जलेन युक्तस्य ॥

०५ य एनम्

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य ए॑नं॒ हन्ति॑ मृ॒दुं मन्य॑मानो देवपी॒युर्धन॑कामो॒ न चि॒त्तात्।
सं तस्येन्द्रो॒ हृद॑ये॒ऽग्निमि॑न्ध उ॒भे ए॑नं द्विष्टो॒ नभ॑सी॒ चर॑न्तम् ॥

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Whitney
Translation
  1. Whatever insulter of the gods, desirous of riches, not from
    knowledge, slays him, thinking him gentle, in his heart Indra kindles a
    fire; both the firmaments (nábhas) hate him as he goes about.
Notes

Ppp. has in a enām, which is better. The pada-text absurdly
reads instead of yáḥ at the beginning. The Anukr. seems to
combine ubhā́i ’nam in d, as the meter demands, although ubhé is
even a pragṛhya; part of the mss. (M.W.I.H.O.) read ubhá e-.

Griffith

Whoever smites him, deeming him a weakling-blasphemer, coveting his wealth through folly Indra sets fire alight within his bosom. He who acts thus is loathed by Earth and Heaven.

पदपाठः

यः। ए॒न॒म्। हन्ति॑। मृ॒दुम्। मन्य॑मानः। दे॒व॒ऽपी॒युः। धन॑ऽकामः। न। चि॒त्तात्। सम्। तस्य॑। इन्द्रः॑। हृद॑ये। अ॒ग्निम्। इ॒न्धे॒। उ॒भे इति॑। ए॒न॒म्। द्वि॒ष्टः॒। नभ॑सी॒ इति॑। चर॑न्तम्। १८.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (देवपीयुः) विद्वानों का हिंसक, (धनकामः) धन चाहनेवाला पुरुष (न चित्तात्) विना विचारे (एनम्) इस [ब्राह्मण] को (मृदुम्) कोमल (मन्यमानः) मानता हुआ (हन्ति) नाश करता है, (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुष [ब्राह्मण वा परमेश्वर] (तस्य) उसके (हृदये) हृदय में (अग्निम्) अग्नि (सम् इन्धे) जला देता है, (उभे) दोनों (नभसी) सूर्य और पृथिवी लोक, (चरन्तम्) विचरते हुए (एनम्) इस पुरुष से (द्विष्टः) द्वेष करते हैं ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - आप्त पुरुषों के विरोधी मनुष्य का संसार भर में कोई साथी नहीं होता ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(यः) नास्तिकः (एनम्) आस्तिकं ब्राह्मणम् (हन्ति) नाशयति (मृदुम्) प्रथिम्रदिभ्रस्जां०। उ० १।२८। इति म्रद मर्दने−कु, सम्प्रसारणं च। कोमलम् (मन्यमानः) जानन् सन् (देवपीयुः) अ० ४।३५।७। देवानां विदुषां हिंसकः (धनकामः) धनेच्छुः (न चित्तात्) अज्ञानात् (सम्) सम्यक् (तस्य) ब्रह्महिंसकस्य (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् ब्राह्मणः परमेश्वरो वा (हृदये) मनसि (अग्निम्) दाहम् (इन्धे) दीपयति (उभे) द्वे (एनम्) ब्रह्मद्विषम् (द्विष्टः) द्रुह्यतः (नभसी) नहेर्दिवि भश्च। उ० ४।२११। इति णह बन्धने−असुन्, हस्य भः। द्यावापृथिव्यौ−निघ० ३।३०। (चरन्तम्) विचरन्तम् ॥

०६ न ब्राह्मणो

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न ब्रा॑ह्म॒णो हिं॑सित॒व्यो॒३॒॑ऽग्निः प्रि॒यत॑नोरिव।
सोमो॒ ह्य॑स्य दाया॒द इन्द्रो॑ अस्याभिशस्ति॒पाः ॥

०६ न ब्राह्मणो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The Brahman is not to be injured, like fire, by one who holds himself
    dear; for Soma is his heir, Indra his protector against imprecation.
Notes

The Pet. Lex. suggests the (acceptable, but unnecessary) emendation of
b to agnéḥ priyā́ tanū́r iva; this, however, is favored by the
reading of Ppp., agneṣ priyatamā tanūḥ. The expression seems to be
incomplete: “as fire [is not to be touched] by one” etc. Ppp. also
combines indro ‘sya in d. It is strange that the pada-text does
not divide dāyādáḥ ⌊BR. dāyá + āda⌋ as a compound word.

Griffith

No Brahman must be injured, safe as fire from him who loves himself. For Soma is akin to him and Indra guards him from the curse.

पदपाठः

न। ब्रा॒ह्म॒णः। हिं॒सि॒त॒व्यः᳡। अ॒ग्निः। प्रि॒यत॑नोःऽइव। सोमः॑। हि। अ॒स्य॒। दा॒या॒दः। इन्द्रः॑। अ॒स्य॒। अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपा। १८.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • अनुष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रियतनोः=–०−नुः) तन को प्रिय लगनेवाले (अग्निः इव) अग्नि के समान वर्तमान (ब्राह्मणः) ब्रह्मज्ञानी (न) नहीं (हिंसितव्यः) सताया जा सकता है। (हि) क्योंकि (सोमः) चन्द्रमा (अस्य) इसका (दायादः) दायभागी [के समान] और (इन्द्रः) सूर्य (अस्य) इसका (अभिशस्तिपाः) अपवाद से बचानेवाला है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ब्राह्मण वेदों का तत्त्व जानने से महाप्रबल होता है, क्योंकि वह सूर्य चन्द्रमा के समान नियम पर चलता है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(न) निषेधे (ब्राह्मणः) वेदज्ञ आप्तपुरुषः (हिंसितव्यः) केनापि हिंसितुमशक्यः (अग्निः) पावकः (प्रियतनोः) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। इति प्रथमायाः षष्ठी। प्रियतनुः। शरीरस्य हितकरः (इव) यथा (सोमः) चन्द्रः (हि) यस्मात्कारणात् (अस्य) ब्राह्मणस्य (दायादः) दा दाने−घञ्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। दायं विभजनीयधनमादत्ते। आतश्चोपसर्गे पा० ३।१।१३६। इति आ+दा−क। यद्वा, दायमत्ति, अद भोजने−अण्। दायभागी पुरुषो यथा (इन्द्रः) सूर्यः (अस्य) (अभिशस्तिपाः) अ० २।१३।३। अपवादाद् रक्षकः ॥

०७ शतापाष्ठां नि

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श॒तापा॑ष्ठां॒ नि गि॑रति॒ तां न श॑क्नोति निः॒खिद॑न्।
अन्नं॒ यो ब्र॒ह्मणां॑ म॒ल्वः स्वा॒द्व१॒॑द्मीति॒ मन्य॑ते ॥

०७ शतापाष्ठां नि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. He swallows down what (f.) has a hundred barbs; he is not able to
    tear it out—the fool who thinks of the food of Brahmans “I am eating
    what is sweet.”
Notes

The verse is wanting in Ppp. (as noticed above). The mss. read
niḥkhídan at end of b; our edition has made the necessary
emendation to -dam. The cow, of course, is meant in a, b. Many
mss. (B.M.E.I.H.D.K.) accent malvàḥ in c.

Griffith

The fool who eats the Brahmans’ food and thinks it pleasant to the taste, Eats, but can ne’er digest, the cow that bristles with a hundred barbs,

पदपाठः

श॒तऽअ॑पाष्ठम्। नि। गि॒र॒ति॒। ताम्। न। श॒क्नो॒ति॒। निः॒ऽखिद॑न्। अन्न॑म्। यः। ब्र॒ह्मणा॑म्। म॒ल्वः। स्वा॒दु। अ॒द्मि॒। इति॑। मन्य॑ते। १८.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • अनुष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - वह [दुष्ट] (शतापाष्ठाम्) सैकड़ों दुर्मार्गोंवाली विपत्ति को (नि गरति) निगलता है [पाता है] और (ताम्) उसको (निःखिदन्) पचाता हुआ [पचाने को] (न) नहीं (शक्नोति) समर्थ होता है। (ब्रह्मणाम्) ब्राह्मणों के (अन्नम्) अन्न को (स्वादु) स्वादु से (अद्मि) मैं खाता हूँ, (यः) जो (मल्वः) मलिन पुरुष (इति) ऐसा (मन्यते) मानता है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य आप्त विद्वानों पर अत्याचार करता है, वह अनिवारणीय विपत्ति में ही पड़ता है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(शतापाष्ठाम्) शत+अप+आस्थाम्। शतानि अपाष्ठा दुर्व्यवस्था यस्यां तां बहुदुर्मार्गयुक्तां विपत्तिम् (नि गरति) भक्षयति प्राप्नोति (ताम्) विपत्तिम् (न) निषेधे (शक्नोति) समर्थो भवति (निः खिदन्) खिद परिघाते−शतृ। परिघ्नन्। परिपचन् (अन्नम्) जीवनसाधनं भोग्यम् (यः) (ब्रह्मणाम्) ब्राह्मणानाम् (मल्वः) अ० ४।३६।१०। मलिनः। क्रूरः (स्वादु) कृवापाजिमिस्वदि०। उ–० १।१। इति ष्वद स्वादे−उण्। यथा तथा। भोज्यम्। मनोज्ञम् (अद्मि) भक्षयामि (इति) एवम् (मन्यते) जानाति ॥

०८ जिह्वा ज्या

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जि॒ह्वा ज्या भव॑ति॒ कुल्म॑लं॒ वाङ्ना॑डी॒का दन्ता॒स्तप॑सा॒भिदि॑ग्धाः।
तेभि॑र्ब्र॒ह्मा वि॑ध्यति देवपी॒यून् हृ॑द्ब॒लैर्धनु॑र्भिर्दे॒वजू॑तैः ॥

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Whitney
Translation
  1. His tongue becomes a bow-string, his voice an [arrow-] neck, his
    teeth [become] shafts (nāḍīkā́) smeared with penance; with these the
    Brahman (brahmán) pierces the insulters of the gods, with bows having
    force from the heart [and] speeded by the gods.
Notes

Pāda d lacks a syllable, though the Anukr. takes no notice of it.
Hṛdbalāís is a questionable formation; Ppp. has instead nirjalāis,
which may contain hidden a better reading ⌊R. nirjyāis ‘without
bow-string’?⌋.

Griffith

His voice an arrow’s neck, his tongue a bowstring, his windpipes fire-enveloped heads of arrows, With these the Brahman pierces through blasphemers, with God-sped bows that quell the hearts within them.

पदपाठः

जि॒ह्वा। ज्या। भव॑ति। कुल्म॑लम्। वाक्। ना॒डी॒काः। दन्ताः॑। तप॑सा। अ॒भिऽदि॑ग्धाः। तेभिः॑। ब्र॒ह्मा। वि॒ध्य॒ति॒। दे॒व॒ऽपी॒यून्। हृ॒त्ऽब॒लैः। धनुः॑ऽभिः। दे॒वऽजू॑तैः। १८.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [ब्राह्मण की] (जिह्वा) जीभ (ज्या) धनुष् की डोरी, (वाक्) वाणी (कुल्मलम्) बाण का दण्डा (भवति) होती है और [उस की] (नाडीकाः) गले के भाग (तपसा) आग से (अभिदिग्धाः) पोते हुए (दन्ताः) तीर के दाँत हैं। (ब्रह्मा) ब्राह्मण (हृद्बलैः) हृदय तोड़नेवाले, (देवजूतैः) विद्वानों के भेजे हुए (तेभिः) उन (धनुर्भिः) धनुषों से (देवपीयून्) विद्वानों के सतानेवालों को (विध्यति) छेदता है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् मनुष्य अपने विद्याबल से दुष्टों का नाश कर देता है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(जिह्वा) रसना (ज्या) मौर्वी यथा (भवति) (कुल्मलम्) अ० २।३०।३। बाणदण्डछिद्रम् (वाक्) वाणी (नाडीकाः) नाड्यो विद्यन्तेऽस्य, नाडी-ठन्, छान्दसो दीर्घः। गलभागाः (दन्ताः) अ० ४।३।६। दन्तवत्तीक्ष्णाः शराणि (तपसा) तापकेनाग्निना (अभिदिग्धाः) अभिलिप्ताः (तेभिः) तैः (ब्रह्मा) ब्राह्मणः (विध्यति) छिनत्ति (देवपीयून्) म० ५। विद्वत्पीडकान् (हृद्बलैः) बल प्राणने वधे च−अच्। हृदयघातकैः (धनुर्भिः) चापैः (देवजूतैः) विद्वद्भिः प्रेरितैः ॥

०९ तीक्ष्णेषवो ब्राह्मणा

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ती॒क्ष्णेष॑वो ब्राह्म॒णा हे॑ति॒मन्तो॒ यामस्य॑न्ति शर॒व्यां॒३॒॑ न सा मृषा॑।
अ॑नु॒हाय॒ तप॑सा म॒न्युना॑ चो॒त दु॒रादव॑ भिन्दन्त्येनम् ॥

०९ तीक्ष्णेषवो ब्राह्मणा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The Brahmans have sharp arrows, have missiles; what volley
    (śaravyā̀) they hurl, it is not in vain; pursuing (anu-hā) with
    fervor and with fury, they split him down even from afar.
Notes

Ppp. bas te tayā at the end, instead of enam. ⌊Pāda b is of
course jagatī.⌋

Griffith

Keen arrows have the Brahmans, armed with missiles: the shaft, when they discharge it, never faileth. Pursuing him with fiery zeal and anger, they pierce the foeman even from a distance.

पदपाठः

ती॒क्ष्णऽइ॑षवः। ब्रा॒ह्म॒णाः। हे॒ति॒ऽमन्तः॑। याम्। अस्य॑न्ति। श॒र॒व्या᳡म्। न। सा। मृषा॑। अ॒नु॒ऽहाय॑। तप॑सा। म॒न्युना॑। च॒। उ॒त। दू॒रात्। अव॑। भि॒न्द॒न्ति॒। ए॒न॒म्। १८.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (तीक्ष्णेषवः) तीक्ष्ण बाणवाले, (हेतिमन्तः) बरछियोंवाले (ब्राह्मणाः) ब्राह्मण लोग (याम्) जिस (शरव्याम्) बाणों की झड़ी को (अस्यन्ति) छोड़ते हैं, (सा) वह (मृषा) मिथ्या (न) नहीं होती। (तपसा) तप से (च) और (मन्युना) क्रोध से (अनुहाय) पीछा करके (दूरात्) दूर से (उत) ही (एनम्) इस [वैरी] को (अव भिन्दन्ति) वे लोग छेद डालते हैं ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब ब्राह्मण क्रुद्ध होते हैं, दुष्टों को जड़मूल से मिटा देते हैं ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(तीक्ष्णेषवः) तीव्रबाणोपेताः (ब्राह्मणाः) वेदज्ञाः (हेतिमन्तः) वज्रोपेताः (याम्) (अस्यन्ति) क्षिपन्ति (शरव्याम्) अ० १।१९।३। शरसंहतिम् (न) निषेधे (सा) (मृषा) मिथ्या (अनुहाय) ओहाङ् गतौ−ल्यप्। अनुगत्य (तपसा) तपनेन (मन्युना) क्रोधेन (च) (उत) एव (दूरात्) विप्रकृष्टस्थानात् (अव) अनादरे (भिन्दन्ति) छिन्दन्ति (एनम्) शत्रुम् ॥

१० ये सहस्रमराजन्नासन्दशशता

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ये स॒हस्र॒मरा॑ज॒न्नास॑न्दशश॒ता उ॒त।
ते ब्रा॑ह्म॒णस्य॒ गां ज॒ग्ध्वा वै॑तह॒व्याः परा॑भवन् ॥

१० ये सहस्रमराजन्नासन्दशशता ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. They that ruled, a thousand, and were ten hundreds, those
    Vāitahavyas, having devoured the cow of the Brahman, perished
    (parā-bhū).
Notes

Sahásram is taken as in apposition with , since rāj properly
governs a genitive. Ppp. has a different c, tebhyaḥ prabravīmi
tvā
. A syllable is lacking in a, unnoted by the Anukr.

Griffith

They who, themselves ten hundred, were the rulers of a thousand men, The Vaitahavyas, were destroyed for that they ate a Brahman’s cow.

पदपाठः

ये। स॒हस्र॑म्। अरा॑जन्। आस॑न्। द॒श॒ऽश॒ताः। उ॒त। ते। ब्रा॒ह्म॒णस्य॑। गाम्। ज॒ग्ध्वा। वै॒त॒ऽह॒व्याः। परा॑। अ॒भ॒व॒न्। १८.१०।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • अनुष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (सहस्रम्) बलवान् सेना दल पर (अराजन्) राज करते थे और (उत) आप भी (दशशताः) दस सौ (आसन्) थे। (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण की (गाम्) वाणी को (जग्ध्वा) नाश करके (ते) वे (वैतहव्याः) देवताओं के अन्न खानेवाले (पराभवन्) हार गये ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिन मनुष्यों के बहुत सी सेना और परिवार भी बड़ा होता है, वे पाखण्डी वेद आज्ञा पर न चल कर नष्ट हो जाते हैं ॥१०॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १०−(ये) पाखण्डिनः (सहस्रम्) सहस्वत्−निरु–० ३।१०। सहो बलम्−निघ० २।१, रो मत्वर्थीयः। बलवत् सेनादलम् (अराजन्) अशासुः (आसन्) अभवन् (दशशताः) अर्शआद्यच्। दशशतयुक्ताः। बहुसंख्याकाः (उत) अपि (ते) (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मवेत्तुः (गाम्) वाणीम् (जग्ध्वा) भक्षयित्वा नाशयित्वा (वैतहव्याः) वी खादने−क्त। वीतं खादितं हव्यं देवयोग्यान्नं यैस्ते वीतहव्याः। स्वार्थे अण् (पराभवन्) पराजयं प्राप्तवन्तः ॥

११ गौरेव तान्हन्यमाना

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गौरे॒व तान्ह॒न्यमा॑ना वैतह॒व्याँ अवा॑तिरत्।
ये केस॑रप्राबन्धायाश्चर॒माजा॒मपे॑चिरन् ॥

११ गौरेव तान्हन्यमाना ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The cow herself, being slain, pulled down those Vāitahavyas, who
    cooked the last she-goat of Kesaraprābandhā (?).
Notes

The second half-verse is totally defaced in Ppp. The pada-text reads
in d carama॰ájām; the accent is anomalous, and the sense
unacceptable; Ludwig’s translation, “letztgeboren,” implying emendation
to carama-jā́m, suggests a welcome improvement of the text.
Késara॰prābandhāyās has its long ā of -prā- in pada-text noted
in Prāt. iv. 96. Ppp. reads ivā ’carat in b.

Griffith

The cow, indeed, when she was slain o’erthrew those Vaitahavyas, who Cooked the last she-goat that remained of Kesaraprabandha’s flock.

पदपाठः

गौः। ए॒व। तान्। ह॒न्यमा॑ना। वै॒त॒ऽह॒व्यान्। अव॑। अ॒ति॒र॒त्। ये। केस॑रऽप्राबन्धायाः। च॒र॒म॒ऽअजा॑म्। अपे॑चिरन्। १८.११।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • अनुष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हन्यमाना) नाश की जाती हुई (गौः) वाणी ने (एव) अवश्य (तान्) उन (वैतहव्यान्) देवताओं के अन्न खानेवालों को (अवातिरत्) उतार दिया है। (ये) जिन्होंने (केसरप्राबन्धायाः) आत्मा में चलनेवाली अबन्ध शक्ति [परमेश्वर] की (चरमाजाम्) व्यापक विद्या को (अपेचिरन्) पचाया है [नष्ट कर दिया है] ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो दुष्ट मनुष्य सर्वव्यापिनी वेदवाणी को नाश करना चाहते हैं, पण्डितों द्वारा वे मूर्ख नष्ट हो जाते हैं ॥११॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ११−(गौः) वाणी (एव) अवश्यम् (तान्) (हव्यमाना) हिंस्यमाना नाश्यमाना (वैतहव्यान्) म० १०। वीतहव्यान् खादितदेवयोग्यान्नान् (अवातिरत्) पराभवत् (ये) (केसरप्राबन्धायाः) के+सृ गतौ−अच्+प्र+अबन्धायाः। के आत्मनि सरणशीलायाः प्रकर्षेण अबन्धायाः मुक्तस्वभावायाः शक्तेः परमेश्वरस्य (चरमाजाम्) चरम+अजाम्। चरेश्च। उ० ५।६९। इति चर गतौ−अमच्+अज गतिक्षेपणयोः−पचाद्यच्, गतिर्ज्ञानम्, वीभावाभावः। अजा अजनाः−तिरु० ४।२५। चरमां व्यापिकाम् अजां विद्याम् (अपेचिरन्) पच पाके लङि छान्दसं रूपम्। अपचन्। पाकेन तापेन नाशितवन्तः ॥

१२ एकशतं ता

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एक॑शतं॒ ता ज॒नता॒ या भूमि॒र्व्य॑धूनुत।
प्र॒जां हिं॑सि॒त्वा ब्राह्म॑णीमसंभ॒व्यं परा॑भवन् ॥

१२ एकशतं ता ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Those hundred and one fellows (? janátā) whom the earth shook off,
    having injured the progeny of the Brahmans, perished irretrievably.
Notes

Bp. accents properly vi॰ádhūnuta in b, but all the saṁhitā mss.
give vyàdh-, and D. has correspondingly ví॰adh-: cf. 19. 11 . Ppp.
reads vāi for tās in a, and bhūmir yā in b.

Griffith

One and a hundred were the folk, those whom the earth shook off from her: When they had wronged the Brahman race they perished incon- ceivably.

पदपाठः

एक॑ऽशतम्। ताः। ज॒नताः॑। याः। भूमिः॑। विऽअ॑धूनुत। प्र॒ऽजाम्। हिं॒सि॒त्वा। ब्राह्म॑णीम्। अ॒स॒म्ऽभ॒व्यम्। परा॑। अ॒भ॒व॒न्। १८.१२।

अधिमन्त्रम् (VC)
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ताः) वे (जनताः) लोग (एकशतम्) एक सौ एक [थे] (याः) जिन को (भूमिः) भूमि ने (व्यधूनुत) हिला दिया है और जो (ब्राह्मणीम्) ब्राह्मणसंबन्धिनी (प्रजाम्) प्रजा को (हिंसित्वा) सता कर (असंभव्यम्) संभावना [शक्यता] के विना (पराभवन्) हार गये हैं ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - बहुत से मनुष्य इस पृथिवी पर वेदज्ञानियों को सताने से निःसन्देह नष्ट हो गये हैं ॥१२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १२−(एकशतम्) एकाधिकं शतम् असंख्याताः (ताः) (जनताः) समूहार्थे−तल्। जनसमूहाः (याः) (भूमिः) पृथिवी (व्यधूनुत) धूञ् कम्पने−लङ्। विशेषेणाकम्पयत (प्रजाम्) जनताम् (हिंसित्वा) दुःखयित्वा (ब्राह्मणीम्) ब्रह्मन्−अण्, ङीप्। ब्राह्मणसम्बन्धिनीम् (असंभव्यम्) अ+सम्+भू−यत्। यथा तथा सम्भावनां शक्यतां विना। अवश्यम् (पराभवन्) पराजयं गताः ॥

१३ देवपीयुश्चरति मर्त्येषु

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दे॑वपी॒युश्च॑रति॒ मर्त्ये॑षु गरगी॒र्णो भ॑व॒त्यस्थि॑भूयान्।
यो ब्रा॑ह्म॒णं दे॒वब॑न्धुं हि॒नस्ति॒ न स पि॑तृ॒याण॒मप्ये॑ति लो॒कम् ॥

१३ देवपीयुश्चरति मर्त्येषु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The insulter of the gods goes about among mortals; he becomes one
    who has swallowed poison, [becomes] mainly composed of bones; he who
    injures the Brahman, the connection of the gods, he goes not to the
    world to which the Fathers go.
Notes

Garagīrṇá is an anomalous compound, but its meaning is hardly
doubtful; it is so interpreted by the comm. to AśS. ix. 5. 1;
ásthibhūyān, virtually ‘reduced to a skeleton.’ Ppp. exchanges our 4
c, d and 13 c, d, givinig the former here without a variant.

Griffith

Among mankind the Gods’ despiser moveth: he hath drunk poison, naught but bone is left him. Who wrongs the kinsman of the Gods, the Brahman, gains not the sphere to which the Fathers travelled.

पदपाठः

दे॒व॒ऽपी॒युः। च॒र॒ति॒। मर्त्ये॑षु। ग॒र॒ऽगी॒र्णः। भ॒व॒ति॒। अस्थि॑ऽभूयान्। यः। ब्र॒ह्मा॒णम्। दे॒वऽब॑न्धुम्। हि॒नस्ति॑। न। सः। पि॒तृ॒ऽयान॑म्। अपि॑। ए॒ति॒। लो॒कम्। १८.१३।

अधिमन्त्रम् (VC)
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवपीयुः) विद्वानों का सतानेवाला (मर्त्येषु) मनुष्यों के बीच (चरति) फिरता है, (गरगीर्णः) विष खाया हुआ वह (अस्थिभूयान्) हाड़ ही हाड़ (भवति) रह जाता है। (यः) जो मनुष्य (देवबन्धुम्) महात्माओं के बन्धु (ब्राह्मणम्) ब्राह्मण को (हिनस्ति) सताता है, (सः) वह (पितृयाणम्) पालन करनेवाले विद्वानों के पाने योग्य (लोकम्) लोक को (न अपि) कभी नहीं (एति) पाता है ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - देवनिन्दक पुरुष अविद्या के कारण दुर्बल आत्मा और रोगी होकर विद्वानों में प्रतिष्ठा नहीं पाता ॥१३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १३−(देवपीयुः) म० ५। विदुषां हिंसकः (चरति) गच्छति (मर्त्येषु) मनुष्येषु (गरगीर्णः) गॄ निगरणे−अप्+गॄ−क्त। परो विषो गीर्णो भक्षितो येन सः (भवति) (अस्थिभूयान्) अस्थि+बहु−ईयसुन्। बहोर्लोपो भू च बहोः। पा० ६।४।१५८। इति ईकारलोपो बहोश्च भूरादेशः। अस्थिभिर्बहुतरः। अस्थिशेषः। अतिदुर्बलः (यः) पाखण्डी (ब्राह्मणम्) वेदवेत्तारम् (देवबन्धुम्) विदुषां प्रियम् (हिनस्ति) दुःखयति (न अपि) न कदापि (सः) दुष्टः (पितृयाणम्) पितृभिः पालकैर्विद्वद्भिर्गमनीयम् (एति) प्राप्नोति (लोकम्) पदम्। भुवनम् ॥

१४ अग्निर्वै नः

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अ॒ग्निर्वै नः॑ पदवा॒यः सोमो॑ दाया॒द उ॑च्यते।
ह॒न्ताभिश॒स्तेन्द्र॒स्तथा॒ तद्वे॒धसो॑ विदुः ॥

१४ अग्निर्वै नः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Agni verily our guide. Soma is called [our] heir, Indra slayer of
    imprecation (?): so know the devout that.
Notes

Ppp. reads, for second half-verse, jayatā ’bhiśasta indras tat satyaṁ
devasaṁhitam
. Pāda c plainly calls for correction (pada has
abhí॰śastā); Zimmer proposes abhíśastam, the Pet. Lex. ⌊vii. 1515⌋
abhíśastim; abhíśatyās, gen., or even abhiśastipā́s (cf. vs. 6),
might be suggested as yet more probable.

Griffith

Agni, in sooth, is called our guide, Soma is called our next of kin. Indra quells him who curses us. Sages know well that this is so.

पदपाठः

अ॒ग्निः। वै। नः॒। प॒द॒ऽवा॒यः। सोमः॑। दा॒या॒दः। उ॒च्य॒ते॒। ह॒न्ता। अ॒भिऽश॑स्ता। इन्द्र॑। तथा॑। तत्। वे॒धसः॑। वि॒दुः॒। १८.१४।

अधिमन्त्रम् (VC)
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्नि [सूर्य] (वै) ही (नः) हमारा (पदवायः) पथदर्शक, और (सोमः) चन्द्रमा (दायादः) दायभागी (उच्यते) कहा जाता है। (इन्द्रः) परमेश्वर (अभिशस्ता=०−स्तुः) अपवादी का (हन्ता) नाश करनेवाला है। (तथा) वैसा ही (तत्) उस बात को (वेधसः) विद्वान् लोग (विदुः) जानते हैं ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सूर्य चन्द्रमा के समान सन्मार्ग में चलते हैं, वे परमात्मा की कृपा से दुष्कर्मों से बचकर आनन्द भोगते हैं ॥१४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १४−(अग्निः) सूर्यः (वै) निश्चयेन (नः) अस्माकम् (पदवायः) पद+वा गतौ−घञ्, युक् च। पथदर्शकः (सोमः) चन्द्रः (दायादः) म० ६। दायभागी। बन्धुः (उच्यते) कथ्यते (हन्ता) नाशकः (अभिशस्ता) शसु हिंसायाम्−तृच्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति षष्ठ्याः सुः। अभिशस्तुः। मिथ्यापवादकस्य (इन्द्रः) परमेश्वरः (तथा) तेन प्रकारेण (तत्) वचनम् (वेधसः) अ० १।११।१। मेधाविनः (विदुः) जानन्ति ॥

१५ इषुरिव दिग्धा

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इषु॑रिव दि॒ग्धा नृ॑पते पृदा॒कूरि॑व गोपते।
सा ब्रा॑ह्म॒णस्येषु॑र्घो॒रा तया॑ विध्यति॒ पीय॑तः ॥

१५ इषुरिव दिग्धा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Like an arrow smeared [with poison], O lord of men, like an adder,
    O lord of cattle—that arrow of the Brahman is terrible; with it he
    pierces the insulting.
Notes

Ppp. reads digdhā instead of ghorā in c. The Anukr. does not
call the verse bhurij, although the full pronunciation of the iva in
a would make it so. In the first half-verse doubtless the two lower
castes are addressed.

Griffith

Prince! like a poisoned arrow, like a deadly snake, O lord of kine! Dire is the Brahman’s arrow: he pierces his enemies therewith.

पदपाठः

इषुः॑ऽइव। दि॒ग्धा। नृ॒ऽप॒ते॒। पृ॒दा॒कूःऽइ॑व। गो॒ऽप॒ते॒। सा। ब्रा॒ह्म॒णस्य॑। इषुः॑। घो॒रा। तया॑। वि॒ध्य॒ति॒। पीय॑तः। १८.१५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मगवी
  • मयोभूः
  • अनुष्टुप्
  • ब्रह्मगवी सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (नृपते) हे नरपालक ! (गोपते) हे भूमिपालक ! (दिग्धा) विष में भरे (इषुः इव) बाण के समान और (पृदाकूः इव) फुँफकारती हुई साँपिनी के समान (सा) वह (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण की (घोर) भयानक (इषुः) बरछी है, (तया) उस से (पीयतः) सतानेवालों को (विध्यति) वह छेदता है ॥१५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - नीतिकुशल राजा के राज्य में वेदवेत्ता लोग विद्या के प्रभाव से शत्रुओं को नाश करते हैं ॥१५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १५−(इषुः) बाणः (इव) यथा (दिग्धा) विषासक्ता (नृपते) हे नरपालक (पृदाकूः) कुत्सितशब्द-कारिणी सर्पिणी (इव) (गोपते) हे भूरक्षक (सा) पूर्वोक्ता गौर्वाणी (ब्राह्मणस्य) वेदवेत्तुः (इषुः) हननशक्तिः। अस्त्रभेदः (घोरा) कराला (तया) इष्वा (विध्यति) छिनत्ति (पीयतः) पीय हिंसायाम्−शतृ। हिंसाशीलान् ॥