००२ भुवनेषु ज्येष्ठः

००२ भुवनेषु ज्येष्ठः ...{Loading}...

Whitney subject
  1. Mystic.
VH anukramaṇī

भुवनेषु ज्येष्ठः।
१-९ बृहद्दिवोऽथर्वा। वरुणः। त्रिष्टुप्, ९ भुरिक् परातिजागता त्रिष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Bṛhaddiva Atharvan.—navakam. vāruṇam. trāiṣṭubham: 9. bhurik parātijāgatā.]

Whitney

Comment

Found also in Pāipp. v. It is a RV. hymn (x. 120); and the first three verses occur in other texts. For the use of the hymn with its predecessor in Kāuś. 15. 1 and 22. 1 and 19. 1, note, see above, under h. 1; it is further applied, with vii. 1, in a kāmya rite (59. 17), with worship of Indra and Agni. The various verses appear also as follows: vs. 3, in a rite for prosperity (21. 21); vs. 4, with vi. 13 in a battle-rite (15. 6); vs. 5 in a similar rite (15. 8); vs. 6, in another (15. 9), and yet again, with vi. 125, and vii. 3 etc., as the king and his charioteer mount a new chariot (15. 11); vs. 7, next after vs. 3 (21. 23), with the holding of a light on the summit of an ant-hill; and vs. 8 in a women’s rite ⌊34. 21⌋, next after v. 1. 4—all artificial uses, having no relation to the texts quoted in them.

Translations

Translated: by the RV. translators; and Griffith, i. 189; Weber, xviii. 164.

Griffith

A glorification of Indra

०१ तदिदास भुवनेषु

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

तदिदा॑स॒ भुव॑नेषु॒ ज्येष्ठं॒ यतो॑ य॒ज्ञ उ॒ग्रस्त्वे॒षनृ॑म्णः।
स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो नि रि॑णाति॒ शत्रू॒ननु॒ यदे॑नं॒ मद॑न्ति॒ विश्व॒ ऊमाः॑ ॥

०१ तदिदास भुवनेषु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. That verily was the chief among beings whence was born the formidable
    one, of bright manliness; as soon as born, he dissolves [his] foes,
    when all [his] aids (ū́ma) revel after him.
Notes

RV. reads in d ánu yáṁ víśve mádanty ū́māḥ, and all the other texts
(SV. ii. 833; VS. xxxiii. 80; AA. i. 3. 4) agree with it. The Anukr.
ignores the considerable metrical irregularities.

Griffith

In all the worlds That was the best and highest whence sprang the Mighty One of splendid valour. As soon as born he overcomes his foemen, when those rejoice in him who bring him succour.

पदपाठः

तत्। इत्। आ॒स॒। भुव॑नेषु। ज्येष्ठ॑म्। यतः॑। ज॒ज्ञे। उ॒ग्रः। त्वे॒षऽनृ॑म्णः। स॒द्यः। ज॒ज्ञा॒नः। नि। रि॒णा॒ति॒। शत्रू॑न्। अनु॑। यत्। ए॒न॒म्। मद॑न्ति। विश्वे॑। ऊमाः॑। २.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • भुवनज्येष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) विस्तीर्ण ब्रह्म (इत्) ही (भुवनेषु) लोकों के भीतर (ज्येष्ठम्) सब में उत्तम और सब में बड़ा (आस) प्रकाशमान हुआ (यतः) जिस ब्रह्म से (उग्रः) तेजस्वी (त्वेषनृम्णः) तेजोमय बल वा धनवाला पुरुष (जज्ञे) प्रकट हुआ। (सद्यः) शीघ्र (जज्ञानः) प्रकट होकर (शत्रून्) गिरानेवाले विघ्नों को (नि रिणाति) नाश कर देता है। (यत्) जिससे (एनम् अनु) इस [परमात्मा] के पीछे-पीछे (विश्वे) सब (ऊमाः) परस्पर रक्षक लोग (मदन्ति) हर्षित होते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - आदि कारण परमात्मा की उपासना से मनुष्य वीर होकर शत्रुओं को मारता है, जिसके कारण सब लोग प्रसन्न होते हैं। उस जगदीश्वर की उपासना सब लोग किया करें ॥१॥ यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १० सू० १२०। वहाँ बृहद्दिव आथर्वण ऋषि हैं। यह मन्त्र कुछ भेद से यजु० में है−अ–० ३३ म० ८० ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(तत्) विस्तृतं ब्रह्म (इत्) एव (आस) अस गतिदीप्त्यादानेषु लिट्। दिदीपे (भुवनेषु) सत्सु लोकेषु (ज्येष्ठम्) प्रशस्ततमम्। वृद्धतमम् (यतः) यस्माद् ब्रह्मणः (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (उग्रः) प्रचण्डः। तेजस्वी (त्वेषनृम्णः) त्विष दीप्तौ−घञ्। नृम्णं बलनाम−निघ० २।९। धननाम−निघ० २।१०। नृम्णं बलं नॄन् नतम्−निरु० ११।९। नृनमनशब्दस्य वर्णलोपादौ नृम्णमिति रूपम्। त्वेषः कान्तिर्नृम्णं बलं धनं वा यस्य सः। तेजोबलः। तेजोधनः पुरुषः (सद्यः) शीघ्रम् (जज्ञानः) जनेर्लिटः कानच्। जातः सन् (नि) नितराम् (रिणाति) रि गतिरेषणयोः। हिनस्ति (शत्रून्) शातयितॄन्। विघ्नान् (अनु) अनुसृत्य। पश्चात् (यत्) यस्मात्कारणात् (एनम्) परमात्मानम् (मदन्ति) हृष्यन्ति (विश्वे) सर्वे (ऊमाः) अविसिविसिशुषिभ्यः कित्। उ० १।१४४। इति अव रक्षणे−मन्। ज्वरत्वरस्रिव्यवि। पा० ६।४।२०। इति ऊठ्। रक्षादिकर्मकर्तारः पुरुषाः ॥

०२ वावृधानः शवसा

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वा॒वृ॒धा॒नः शव॑सा॒ भूर्यो॑जाः॒ शत्रु॑र्दा॒साय॑ भि॒यसं॑ दधाति।
अव्य॑नच्च व्य॒नच्च॒ सस्नि॒ सं ते॑ नवन्त॒ प्रभृ॑ता॒ मदे॑षु ॥

०२ वावृधानः शवसा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Increasing with might (śávas), he of much force, a foe, assigns
    (dhā) fear to the barbarian, winning (n.) both what breathes not out
    and what breathes out; brought forward (n.), they resound together for
    thee in the revelings.
Notes

Sense and connection are extremely obscure; but all the texts (SV. ii.
834; AA. as above) agree throughout. Prábhṛtā, of course, might be
loc. sing. of -ti. Sásni in c is (with Grassmann) rendered as if
it were sásnis.

Griffith

Grown mighty in his strength, with ample vigour, he as a foe strikes fear into the Dasa, Eager to win the breathing and the breathless: All sang thy praise at banquet and oblation.

पदपाठः

व॒वृ॒धा॒नः। शव॑सा। भूरि॑ऽओजाः। शत्रुः॑। दा॒साय॑। भि॒यस॑म्। द॒धा॒ति॒। अव‍ि॑ऽअनत्। च। वि॒ऽअ॒नत्। च॒। सस्नि॑। सम्। ते॒। न॒व॒न्त॒। प्रऽभृ॑ता। मदे॑षु। २.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • भुवनज्येष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शवसा) बल से (वावृधानः) बढ़ता हुआ, (भूर्योजाः) महाबली, (शत्रुः) हमारा शत्रु (दासाय) दानपात्र दास को (भियसम्) भय (दधाति) देता है। (अव्यनत्) गतिशून्य, स्थावर, (च) और (व्यनत्) गतिवाला जङ्गम जगत् (च) निश्चय करके [परमात्मा में] (सस्नि) लपेटा हुआ है, (प्रभृता) अच्छे प्रकार पुष्ट किये हुए प्राणी (मदेषु) आनन्दों में (ते) तेरी (सम् नवन्तः=०−न्ते) यथावत् स्तुति करते हैं ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सर्वशक्तिमान् परमेश्वर समस्त जगत् में व्यापक होकर सब को धारण करता है, उसी की महिमा को जानकर सब मनुष्य पुरुषार्थपूर्वक अपने विघ्नों का नाश करके प्रसन्न होवें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(वावृधानः) वृधु−कानच्। वर्धमानः (शवसा) श्वेः सम्प्रसारणं च। उ० ४।१५३। इति टुओश्वि गतिवृद्ध्योः−असुन्। शवः=बलम्−निघ० २।९। बलेन (भूर्योजाः) बहुबलः (शत्रुः) शातयिता। रिपुः। विघ्नः (दासाय) दासृ दाने−घञ्। दानपात्राय सेवकाय (भियसम्) दिवः कित्। उ० ३।१।१२१। इति ञिभी भये−असच्। भयम् (दधाति) ददाति (अव्यनत्) अ+वि+अन प्राणने, गतौ च−शतृ। अनिति गतिकर्मा−निघ० २।१४। गतिशून्यं स्थावरं जगत् (च) (व्यनत्) विविधं गतिवज्जङ्गमं जगत् (च) अवधारणे (सस्नि) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट्च। पा० ३।२।१७१। ष्णै वेष्टने−किन्। यद्वा, ष्णा शौचे−किन्। आतो लोप इटि च। पा० ६।४।६४। आकारलोपः। सस्निं मेघं संस्नातम्−निरु० ५।१। परमात्मनि वेष्टितम् (ते) तुभ्यम् (सम् नवन्त) छान्दसमात्मनेपदं लटि रूपम्। नवते गतिकर्मा−निघ० २।१४। नवन्ते नुवन्ति। सम्यक् स्तुवन्ति, संगच्छन्ते वा (प्रभृता) प्रभृतानि प्रकर्षेण धृतानि पोषितानि वा (मदेषु) हर्षेषु ॥

०३ त्वे क्रतुमपि

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त्वे क्रतु॒मपि॑ पृञ्चन्ति॒ भूरि॒ द्विर्यदे॒ते त्रिर्भ॑व॒न्त्यूमाः॑।
स्वा॒दोः स्वादी॑यः स्वा॒दुना॑ सृजा॒ सम॒दः सु मधु॒ मधु॑ना॒भि यो॑धीः ॥

०३ त्वे क्रतुमपि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. In thee they mingle skill abundantly, when they twice, thrice become
    [thine] aids; unite thou with sweet (svādú) what is sweeter than
    sweet; mayest thou fight against yonder honey with honey (mádhu).
Notes

RV. differs only by reading vṛñjanti víśve at end of a; and SV.
(ii. 835) and AA. (as above) agree with it throughout; as does also
Ppp.; TS. (iii. 5. 10¹) begins d with áta ū ṣú, and ends it with
yodhi, which looks like a more original reading. ⌊Cf. Geldner, Ved.
Stud
. ii. 10.⌋

Griffith

All concentrate on thee their mental vigour what time these, twice or thrice, are thine assistants, Blend what is sweeter than the sweet with sweetness win quickly with our meath that meath in battle.

पदपाठः

त्वे इति॑। क्रतु॑म्। अपि॑। पृ॒ञ्च॒न्ति॒। भूरि॑। द्विः। यत्। ए॒ते। त्रिः। भव॑न्ति। ऊमाः॑। स्वा॒दोः। स्वादी॑यः। स्वा॒दुना॑। सृ॒ज॒। सम्। अ॒दः। सु। मधु॑। मधु॑ना। अ॒भि। यो॒धीः॒। २.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • भुवनज्येष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (त्वे अपि) तुझ में ही (क्रतुम्) अपनी बुद्धि को (भूरि) बहुत प्रकार से [सब प्राणी] (पृञ्चन्ति) जोड़ते हैं। (एते) यह सब (ऊमाः) रक्षक प्राणी (द्विः) दो बार [स्त्री पुरुष रूप से] (त्रिः) तीन बार (स्थान, नाम और जन्म रूप से) (भवन्ति) रहते हैं। (यत्) क्योंकि (स्वादोः) स्वादु से (स्वादीयः) अधिक स्वादु मोक्षसुख को (स्वादुना) स्वादु [सांसारिक सुख] के साथ (सम् सृज) संयुक्त कर] (अदः) उस (मधु) मधुर मोक्षसुख को (मधुना) मधुर [सांसारिक ज्ञान के साथ (सु) भले प्रकार (अभि) सब ओर से (योधीः) तूने पहुँचाया है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - लिङ्गरहित आत्मा कभी स्त्री कभी पुरुष होकर अपने कर्मानुसार मनुष्य आदि शरीर, नाम और जाति भोगता है। सब प्राणी परमेश्वर की महिमा जानकर सांसारिक व्यवहार द्वारा मोक्ष सुख प्राप्त करें, जैसे कि पूर्वज ऋषियों ने वेद द्वारा प्राप्त किया है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(त्वे) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेः शे आदेशः। त्वयि (क्रतुम्) प्रज्ञाम्−निघ० ३।९। (अपि) एव (पृञ्चन्ति) पृची सम्पर्के। संयोजयन्ति सर्वे प्राणिनः (भूरि) बहुप्रकारेण (द्विः) द्वित्रिचतुर्भ्यः सुच्। पा० ५।४।१८। इति सुच्। द्विवारं स्त्रीरूपेण पुंरूपेण च (यत्) यस्मात्। (एते) दृश्यमानाः (त्रिः) त्रि−सुच्। त्रिवारं स्थाननामजन्मरूपेण। धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति−निरु० ९।२८। (भवन्ति) वर्तन्ते (ऊमाः) म० १। रक्षकाः (स्वादोः) स्वादुनः। प्रियात् (स्वादीयः) स्वादु−ईयसुन्। स्वादुतरम्। प्रियतरं मोक्षसुखम् (स्वादुना) प्रियेण सांसारिकसुखेन (सम् सृज) संयोजय (अदः) तत् (सु) सुष्ठु (मधु) मधुरं मोक्षसुखम् (मधुना) मधुरेण सांसारिकज्ञानेन (अभि) अभितः (योधीः) युध्यति गतिकर्मा−निघ० २।१४। छान्दसं लुङि रूपम्। अयोत्सीः। त्वं गमितवान् प्रापितवानसि ॥

०४ यदि चिन्नु

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यदि॑ चि॒न्नु त्वा॒ धना॒ जय॑न्तं॒ रणे॑रणे अनु॒मद॑न्ति विप्राः।
ओजी॑यः शुष्मिन्त्स्थि॒रमा त॑नुष्व॒ मा त्वा॑ दभन्दु॒रेवा॑सः क॒शोकाः॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. If now after thee that conquerest riches in contest after contest
    (ráṇa) the devout ones (vípra) revel, more forcible, O vehement one,
    extend thou what is stanch; let not the ill-conditioned Kaśokas damage
    thee.
Notes

RV. begins a with íti cid dhí tvā, and b with máde-made; in
c it reads (with Ppp.) dhṛṣṇo for śuṣmin, and at the end of the
verse yātudhā́nā durévāḥ; Ppp. has instead durevā yātudhānāḥ.

Griffith

If verily in every war the sages joy and exult in thee who win- nest treasures, With mightier power, strong God, extend thy firmness: let not malevolent Kaokas harm thee.

पदपाठः

यदि॑। चि॒त्। नु। त्वा॒। धना॑। जय॑न्तम्। रणे॑ऽरणे। अ॒नु॒ऽमद॑न्ति। विप्राः॑। ओजी॑यः। शु॒ष्मि॒न्। स्थि॒रम्। आ। त॒नु॒ष्व॒। मा। त्वा॒। द॒भ॒न्। दुः॒ऽएवा॑सः। क॒शोकाः॑। २.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः
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  • त्रिष्टुप्
  • भुवनज्येष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) जो (चित्) निश्चय करके (विप्राः) पण्डित जन (रणेरणे) प्रत्येक रण में (नु) शीघ्र (धना) धनों को (जयन्तम्) जीतनेवाले (त्वा) तेरे (अनु मदन्ति) पीछे-पीछे आनन्द पाते हैं। (शुष्मिन्) हे बलवन् परमात्मन् ! (ओजीयः) अधिक बलवान् (स्थिरम्) स्थिर मोक्षसुख (आ) सब ओर से (तनुष्व) फैला। (दुरेवासः=दुरेवाः) दुष्ट गतिवाले (कशोकाः) परसुख में शोक करनेवाले जन (त्वा) तुझ को (मा दभन्) न सतावें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - बुद्धिमान् मनुष्य विघ्नों को हटाकर कठिन-कठिन कार्य सिद्ध करके स्थिर सुख पाते हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(यदि) सम्भावनायाम् (चित्) एव (नु) क्षिप्रम् (त्वा) त्वाम् (धना) धनानि (जयन्तम्) जयेन प्राप्नुवन्तम् (रणेरणे) सर्वस्मिन् युद्धे (अनुमदन्ति) अनुसृत्य हृष्यन्ति (विप्राः) मेधाविनः (ओजीयः) ओजस्वि−ईयसुन्। विन्मतोर्लुक्। पा० ५।३।६५। इति विनो लुक्, टिलोपः। बलवत्तरम् (शुष्मिन्) हे बलवन् (स्थिरम् निश्चलं मोक्षसुखम् (आ) समन्तात् (तनुष्व) विस्तारय (मा दभन्) मा हिंसन्तु (त्वा) त्वाम् (दुरेवासः) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति दुर्+इण् गतौ−वन्, असुक्। दुर्गतयः पुरुषाः (कशोकाः) कं सुखम्−निघ० ३।६। के परसुखे शोकः खेदो येषां ते ॥

०५ त्वया वयम्

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त्वया॑ व॒यं शा॑शद्महे॒ रणे॑षु प्र॒पश्य॑न्तो यु॒धेन्या॑नि॒ भूरि॑।
चो॒दया॑मि त॒ आयु॑धा॒ वचो॑भिः॒ सं ते॑ शिशामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वयां॑सि ॥

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Whitney
Translation
  1. By thee do we prevail in the contests, looking forward to many
    things to be fought [for]; I stir up thy weapons with spells
    (vácas); I sharpen up thy powers (váyas) with incantation
    (bráhman).
Notes

RV. and Ppp. have no variants.

Griffith

Proudly we put our trust in thee in battles, when we behold great wealth the prize of combat. I with my words impel thy weapons onward, and sharpen with my prayer thy vital vigour.

पदपाठः

त्वया॑। व॒यम्। शा॒श॒द्म॒हे॒। रणे॑षु। प्र॒ऽपश्य॑न्तः। यु॒धेन्या॑नि। भूरि॑। चो॒दया॑मि। ते॒। आयु॑धा। वचः॑ऽभिः। सम्। ते॒। शि॒शा॒मि॒। ब्रह्म॑णा। वयां॑सि। २.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • भुवनज्येष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (भूरि) बहुत से (युधेन्यानि) युद्धों को (प्रपश्यन्तः) देखते हुए (वयम्) हम लोग (त्वया) तेरे साथ (रणेषु) रणक्षेत्रों में [शत्रुओं को] (शाशद्महे) मार गिराते हैं। (ते) तेरे (वचोभिः) वचनों से (आयुधा) अपने शस्त्रों को (चोदयामि) मैं आगे बढ़ाता हूँ और (ते) तेरे (ब्रह्मणा) ब्रह्मज्ञान से (वयांसि) अपने जीवनों को (सम्) यथावत् (शिशामि) तीक्ष्ण करता हूँ ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - शूर वीर मनुष्य परमेश्वर में विश्वास करके पुरुषार्थपूर्वक बड़े-बड़े कार्य सिद्ध करते हैं ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(त्वया) इन्द्रेण सह (वयम्) उपासकाः (शाशद्महे) शद्लृ शातने यङ्लुकि रूपम्। भृशं शातयामः, नाशयामः शत्रून् (रणेषु) रणक्षेत्रेषु (प्रपश्यन्तः) प्रकर्षेणावलोकयन्तः (युधेन्यानि) वृञ एण्यः। उ० ३।९८। इति बाहुलकाद्−युध सम्प्रहारे−एन्य, स च कित्। युद्धानि (भूरि) भूरीणि बहूनि (चोदयामि) प्रेरयामि (ते) तव (आयुधा) स्वायुधानि (वचोभिः) वचनैः। उपदेशैः (सम्) सम्यक् (ते) तव (शिशामि) शो तनूकरणे-श्यनः श्लुः, इत्वं च। श्यामि, तनूकरोमि (ब्रह्मणा) ब्रह्मज्ञानेन (वयांसि) स्वजीवनानि ॥

०६ नि तद्दधिषेऽवरे

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नि तद्द॑धि॒षेऽव॑रे॒ परे॑ च॒ यस्मि॒न्नावि॒थाव॑सा दुरो॒णे।
आ स्था॑पयत मा॒तरं॑ जिग॒त्नुमत॑ इन्वत॒ कर्व॑राणि॒ भूरि॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. Thou didst set that down in the lower and the higher, in what abode
    (duroṇá) thou didst aid with aid; cause ye to stand there the moving
    mother; from it send ye many exploits.
Notes

RV. and Ppp. put the verse after our 7. Ppp. has no variants; RV. reads
in a ávaram páraṁ ca, and, for c, d, ā́ mātárā sthāpayase
jigatnū́ áta inoṣi kárvarā purū́ṇi:
a quite different, but little less
obscure version of the text: “Indra checks the revolution of the sky, in
order to gain time for his deeds.” R.

Griffith

Thou in that house, the highest or the lowest, which thy protec- tion guards, bestowest riches. Establish ye the ever-wandering mother, and bring full many deeds to their completion.

पदपाठः

नि। तत्। द॒धि॒षे॒। अव॑रे। परे॑। च॒। यस्मि॑न्। आवि॑थ। अव॑सा। दु॒रो॒णे। आ। स्था॒प॒य॒त॒। मा॒तर॑म्। जि॒ग॒त्नुम्। अतः॑। इ॒न्व॒त॒। कर्व॑राणि। भूरि॑। २.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • भुवनज्येष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमात्मन् !] (अवरे) छोटे (च) और (परे) बड़े मनुष्य में (तत्) उस [घर] को (नि) निश्चय करके (दधिषे) तूने पोषण किया है। (यस्मिन्) जिस (दुरोणे) कष्ट से भरने योग्य घर में (अवसा) अन्न से (आविथ) तूने रक्षा की है। [हे मनुष्यो !] (जिगत्नुम्) सर्वव्यापक (मातरम्) माता [परमेश्वर] को (आ) भली-भाँति (स्थापयत) [हृदय में] ठहराओ और (अतः) इसी से (भूरि) बहुत से (कर्वराणि) कर्मों को (इन्वत) सिद्ध करो ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर की उपासनापूर्वक अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके अपने सब काम सिद्ध करें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(नि) निश्चयेन (तत्) दुरोणम् (दधिषे) डुधाञ् धारणपोषणयोः−लिट्। पोषितवानसि (अवरे) अल्पे जने (परे) उत्कृष्टे (च) (यस्मिन्) (आविथ) अवतेर्लिट्। त्वं रक्षितवानसि (अवसा) अवः=अन्नम्−निघ० २।७। तर्पकेणान्नेन (दुरोणे) रास्नासास्ना०। उ० ३।१५। इति दुःपूर्वादवतेर्नकि रुटि गुणः। दुरोण इति गृहनाम दुःखा भवन्ति दुस्तर्पाः−निरु० ४।५। दुस्तर्पे गृहे (आ) समन्तात् (स्थापयत) धारयत हृदये हे जनाः (मातरम्) निर्मात्रीं शक्तिम्। परमात्मानम् (जिगत्नुम्) गमेः सन्वच्च। उ० ३।३१। इति गम्लृ−गतौ−क्त्नु। गतिशीलां व्यापिकाम् (अतः) अस्मात्कारणात् (इन्वत) इवि व्याप्तौ। व्याप्नुत। साधयत (कर्वराणि) कॄगॄशॄवॄञ्चतिभ्यः ष्वरच्। उ० २।१२१। इति डुकृञ् करणे−ष्वरच्। कर्माणि−निघ० २।१। (भूरि) भूरीणि ॥

०७ स्तुष्व वर्ष्मन्पुरुवर्त्मानम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

स्तु॒ष्व व॑र्ष्मन्पुरु॒वर्त्मा॑नं॒ समृभ्वा॑णमि॒नत॑ममा॒प्तमा॒प्त्याना॑म्।
आ द॑र्शति॒ शव॑सा॒ भूर्यो॑जाः॒ प्र स॑क्षति प्रति॒मानं॑ पृथि॒व्याः ॥

०७ स्तुष्व वर्ष्मन्पुरुवर्त्मानम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Praise thou fully, O summit, the many-tracked, skilful (? ṛ́bhvan),
    most active (iná) Āptya of the Āptyas; may he look on with might, he
    of much force; may he overpower the counterpart of the earth.
Notes

The RV. version is different throughout: stuṣéyyam puruvárpasam ṛ́bhvam
inátamam āptyám āptyā́nām: ā́ darṣate śávasā saptá dā́nūn prá sākṣate
pratimā́nāni bhū́ri;
and with this Ppp. agrees. The translation follows
our text servilely, as it may be called, save in the obviously
unavoidable emendation of āptám to āptyám in b; O. is our only
ms. that reads āptyám. The verse is far too irregular to be let pass
as merely a triṣṭubh.

Griffith

Praise in the height Him who hath many pathways, courageous, strongest, Aptya of the Aptyas Through strength he shows himself of ample power: pattern of Prithivi, he fights and conquers.

पदपाठः

स्तु॒ष्व। व॒र्ष्म॒न्। पु॒रु॒ऽवर्त्मा॑नम्। सम्। ऋभ्वा॑णम्। इ॒नऽत॑मम्। आ॒प्तम्। आ॒प्त्याना॑म्। आ। द॒र्श॒ति॒। शव॑सा। भूरि॑ऽओजाः। प्र। स॒क्ष॒ति॒। प्र॒ति॒ऽमान॑म्। पृ॒थि॒व्याः। २.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • भुवनज्येष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वर्ष्मन्) हे ऐश्वर्यवान् पुरुष ! (पुरुवर्त्मानम्) बहुत मार्गवाले (ऋभ्वाणम्) दूर-दूर तक चमकनेवाले, (इनतमम्) महा प्रभु और (आप्त्यानाम्) आप्त [यथार्थवक्ता] पुरुषों में रहनेवाले गुणों के (आप्तम्) यथार्थवक्ता परमेश्वर की (सम्) यथावत् (स्तुष्व) स्तुति कर। (भूर्योजाः) वह महाबली (शवसा) अपने बल से (आ) सब ओर (दर्शति) देखता है, और वह (पृथिव्याः) पृथिवी का (प्रतिमानम्) प्रतिमान होकर (प्र) भली-भाँति (सक्षति) व्यापता है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य जगदीश्वर परमात्मा के गुण कर्म स्वभाव विचार कर अपनी उन्नति करें ॥७॥ (पृथिव्याः प्रतिमानम्) इसके साथ मिलान करो [पृथिवीव वरिम्णा] य० ३।५। वह पृथिवी के समान अपने फैलाव से है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(स्तुष्व) प्रशंस (वर्ष्मन्) अ० ३।४।२। वृष प्रजननैश्ययोः−मनिन्। हे ऐश्वर्य्यवन् मनुष्य (पुरुवर्त्मानम्) बहुमार्गवन्तम् (सम्) सम्यक् (ऋभ्वाणम्) आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति उरु+भा दीप्तौ यद्वा भू सत्तायाम्−वनिप्, स च डित्। उरुशब्दस्य ऋकारः। ऋभव उरु भान्तीति वा, ऋतेन भान्तीति वा, ऋतेन भवन्तीति वा−निरु० ११।१५। उरु−भासनम्। उरुभूतम् (इनतमम्) अतिशयेनेश्वरं (आप्तम्) आप्लृ−क्त। यथार्थवक्तारम् (आप्त्यानाम्) आप्त−यत्। आप्तेषु यथार्थज्ञातृषु भवानां गुणानाम् (आ) समन्तात् (दर्शति) पश्यति (शवसा) बलेन (भूर्योजाः) महाबलः (प्र) प्रकर्षेण (सक्षति) षच समवाये−लेटि सिप्। गतिकर्मा−निघ० २।१४। सक्षतिराप्नोतिकर्मा−निरु० ११।२१। व्याप्नोति (प्रतिमानम्) माङ् माने−ल्युट्। प्रतिरूपं सत् (पृथिव्याः) भूमेः ॥

०८ इमा ब्रह्म

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इ॒मा ब्रह्म॑ बृ॒हद्दि॑वः कृणव॒दिन्द्रा॑य शू॒षम॑ग्रि॒यः स्व॒र्षाः।
म॒हो गो॒त्रस्य॑ क्षयति स्व॒राजा॒ तुर॑श्चि॒द्विश्व॑मर्णव॒त्तप॑स्वान् ॥

०८ इमा ब्रह्म ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. These incantations (bráhman) may Brihaddiva, foremost
    heaven-winner, make, a strain (śūṣá) for Indra; he rules, an autocrat,
    over the great stall (gotrá); may he, quick (? túra), rich in
    fervor, send (?) all.
Notes

The fourth pāda is attempted to be rendered literally from our text,
although this is plainly a gross corruption of the RV. text: dúraś ca
víśvā avṛṇod ápa svā́ḥ
. RV. has also before it svarā́jas, and in a
vivakti for kṛṇavat. Ppp. agrees with RV. throughout. Svarṣā́s (p.
svaḥ॰sā́ḥ) is prescribed by Prāt. ii. 49.

Griffith

Brihaddiva, the foremost of light-winners, hath made these holy prayers, this strength for Indra. Free Lord, he rules the mighty fold of cattle, winning, aglow, even all the billowy waters.

पदपाठः

इ॒मा। ब्रह्म॑। बृ॒हत्ऽदि॑वः। कृ॒ण॒व॒त्। इन्द्रा॑य। शू॒षम्। अ॒ग्रि॒यः। स्वः॒ऽसाः। म॒हः। गो॒त्रस्य॑। क्ष॒य॒ति॒। स्व॒ऽराजा॑। तुरः॑। चि॒त्। विश्व॑म्। अ॒र्ण॒व॒त्। तप॑स्वान्। २.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • भुवनज्येष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहद्दिवः) बड़े व्यवहार वा गतिवाला, (अग्रियः) अगुआ और (स्वर्षाः) स्वर्ग का सेवन करनेवाला पुरुष (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये (इमा) इन (ब्रह्म=ब्रह्माणि) बड़े स्तोत्रों को (शूषम्) अपना बल (कृणवत्) बनावे। (स्वराजा) वह स्वतन्त्र राजा परमेश्वर (महः) बड़े (गोत्रस्य) भूपति राजा का (क्षयति) राजा है, और वह (तुरः) शीघ्र स्वभाव, (तपस्वान्) सामर्थ्यवाला परमात्मा (चित्) ही (विश्वम्) सब जगत् में (अर्णवत्) व्यापता है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य जगदीश्वर परम पिता के गुण जान कर अपना बल बढ़ावें ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(इमा) इमानि (ब्रह्म) ब्रह्माणि बृहन्ति स्तोत्राणि (बृहद्दिवः) इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति बृहत्+दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारस्तुतिगत्यादिषु−क। बृहद्व्यवहारवान्। महागतिमान् पुरुषः (कृणवत्) कृवि हिंसाकरणयोः−लेट्। कुर्यात् (इन्द्राय) परमेश्वराय (शूषम्) बलनाम−निघ० २।९। स्वबलम् (अग्रियः) घच्छौ च। पा० ४।४।११७। इति अग्र−घ। अग्रे भवः। श्रेष्ठः (स्वर्षाः) जनसनखनक्रम०। पा० ३।२।६७। इति षण सम्भक्तौ दाने च−विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इत्यात्वम्। सनोतेरनः। पा–० ८।३।१०८। इति षत्वम्। स्वर्गस्य सम्भक्ता सेवनकर्ता (महः) महतः (गोत्रस्य) गो+त्रैङ् रक्षणे−क। गोः पृथिव्या रक्षकस्य पुरुषस्य (क्षयति) क्षि ऐश्ये। ईष्टे (स्वराजा) स्वतन्त्रः स्वामी (तुरः) शीघ्रस्वभावः (चित्) एव (विश्वम्) सर्वं जगत् (अर्णवत्) ऋण गतौ−लडर्थे लेट्। अर्णोति। व्याप्नोति (तपस्वान्) ऐश्वर्यवान् ॥

०९ एवा महान्बृहद्दिवो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ए॒वा म॒हान्बृ॒हद्दि॑वो॒ अथ॒र्वावो॑च॒त्स्वां त॒न्व१॒॑मिन्द्र॑मे॒व।
स्वसा॑रौ मात॒रिभ्व॑री अरि॒प्रे हि॒न्वन्ति॑ चैने॒ शव॑सा व॒र्धय॑न्ति च ॥

०९ एवा महान्बृहद्दिवो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. So hath the great Brihaddiva Atharvan spoken of his own self (tanū́)
    [as of] Indra; the two blameless, mother-growing sisters—[men] both
    impel them with might (śávas) and increase them.
Notes

The second half-verse seems again a corruption of the RV. version, which
has plurals instead of duals in c, and omits the meter-disturbing
ene (p. ene íti) in d. Ppp. again agrees with RV.; but in b
it has tanum for tanvam. Our text should give, with the others,
mātaríbhvar- in c; all the mss. have it. ⌊The vs. is svarāj
rather than bhurij.⌋

Griffith

Thus hath Brihaddiva, the great Atharvan, spoken to Indra as himself in person. Two sisters free from stain, the Matarivans, with power impel him onward and exalt him.

पदपाठः

ए॒व। म॒हान्। बृ॒हत्ऽदि॑वः। अथ॑र्वा। अवो॑चत्। स्वाम्। त॒न्व᳡म्। इन्द्र॑म्। ए॒व। स्वसा॑रौ। मा॒त॒रिभ्व॑री॒ इति॑। अ॒रि॒प्रे इति॑। हि॒न्वन्ति॑। च॒। ए॒ने॒ इति॑। शव॑सा। व॒र्धय॑न्ति। च॒। २.९।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः
  • बृहद्दिवोऽथर्वा
  • भुरिक्परातिजागता त्रिष्टुप्
  • भुवनज्येष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (महान्) महान्, (बृहद्दिवः) बड़े व्यवहारवाले, (अथर्वा) निश्चलस्वभाव पुरुष ने (स्वाम्) अपनी (तन्वम्) विस्तृत स्तुति (इन्द्रम्) परमेश्वर के लिये (एव) इस प्रकार से (अवोचत्) कही है। (मातरिभ्वरी) आकाश में वर्तमान (स्वसारौ) अच्छे प्रकार ग्रहण करनेवाले वा गतिवाले [वा दो बहिनों के समान सहायकारी] दिन और रात (च) और (अरिप्रे) निर्दोष (एने) यह दोनों [सूर्य और पृथिवी] (शवसा) अपने सामर्थ्य से [उसी को] (हिन्वन्ति) प्रसन्न करती (च) और (वर्धयन्ति) सराहती हैं ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - हम से पहिले ऋषियों ने भी उसी परमात्मा की स्तुति की है, और दिन रात आदि काल और सूर्य पृथिवी आदि सब लोक उसी के आज्ञाकारी हैं ॥९॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ९−(एव) एवम् (महान्) गुणैरधिकः (बृहद्दिवः) म० ८। बृहद्व्यवहारवान् (अथर्वा) अ० ४।१।७। निश्चलो मनुष्यः (अवोचत्) वचेर्लुङ्। प्रोक्तवान् (स्वाम्) आत्मीयाम् (तन्वम्) विस्तृतां स्तुतिम्, इति सायणः−ऋ० १०।१२०।९। (इन्द्रम्) परमेश्वरं प्रति (एव) निश्चयेन (स्वसारौ) स्वसा सु असा स्वेषु सीदतीति वा−निरु० ११।३२। सावसेर्ऋन्। उ० २।९६। इति सु+असु क्षेपणे, यद्वा अस दीप्तौ, ग्रहणे, गतौ, सत्तायां च−ऋन्। सुष्ठु ग्रहणशीले गतिशीले वा यद्वा भगिन्यौ यथा सह दृश्यमाने। अहोरात्रौ (मातरिभ्वरी) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति मातरि+भू सत्तायाम्−वनिप्, स च डित्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। मातर्यन्तरिक्षे [निरु० ७।२६] वर्तमाने (अरिप्रे) रप व्यक्तायां वाचि−रक्। रपो रिप्रमिति पापनामनी भवतः−निरु० ४।२१। निर्दोषे (हिन्वन्ति) हिवि प्रीणने। प्रीणयन्ति तर्पयन्ति (च) समुच्चये (एने) दृश्यमाने द्यावापृथिव्यौ (शवसा) स्वसामर्थ्येन (वर्धयन्ति) स्तुवन्ति (च) समुच्चये ॥