०२६ पाप-मोचनम्

०२६ पाप-मोचनम् ...{Loading}...

Whitney subject
  1. Praise and prayer to heaven and earth.
VH anukramaṇī

पाप-मोचनम्।
१-७ मृगारः। द्यावापृथिवी। त्रिष्टुप्, १ अष्टिः, २-३ जगती, ७ शाक्वरगर्भातिमध्येज्योतिः।

Whitney anukramaṇī

[Mṛgāra.—(see h. 23). 1. puro ’ṣṭir jagatī; 7. śākvaragarbhātimadhyejyotis.]

Whitney

Comment

Found in Pāipp. iv. (in a somewhat different verse-order*), after our hymn 27. The other texts (see under hymn 23) have but one verse that represents the hymn, made up of parts of our vss. 1 and 7. As to the use of the mṛgāra hymns by Kāuś., see under h. 23. In Vait. (15. 13), this hymn (or vs. 1) accompanies the offering to the udumbara twig in the agniṣṭoma. *⌊Order, 1, 2, 4, 6, 3, 5, 7.⌋

Translations

Translated: Griffith, i. 167; Weber, xviii. 106.

Griffith

A hymn to Heaven and Earth

०१ मन्वे वाम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

म॒न्वे वां॑ द्यावापृथिवी सुभोजसौ॒ सचे॑तसौ॒ ये अप्र॑थेथा॒ममि॑ता॒ योज॑नानि।
प्र॑ति॒ष्ठे ह्यभ॑वतं॒ वसू॑नां॒ ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

०१ मन्वे वाम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I reverence you, O heaven-and-earth, ye well-nourishing ones
    (subhójas), who, like-minded (sácetas) did spread out unmeasured
    intervals (yójana); since ye became foundations (pratiṣṭhā́) of good
    things, do ye free us from distress.
Notes

Ppp. omits the intrusive and meter-disturbing sácetasāu (which, on
account of its accent, is reckoned to b in the translation, as it
is also by the pada-text); and, against rule, it combines in b ye
‘prath-
. The comm., with one of SPP’s mss., reads aprathetām; and
TS.MS. have the same, followed by ámitebhir ójobhir yé pratiṣṭhé
ábhavatāṁ vásūnām:
they have of the verse only these two pādas, used as
part of a closing verse. The first half-verse is found also in the
Nāigeya-kāṇḍa of SV. (i. 623 a, b): this reads mánye for
manvé, accents subhójasāu, omits (like Ppp.) sácetasāu, and ends
with ámitam abhi yójanam; its second half-verse is our 2 c, d.

Griffith

O Heaven and Earth, I think on you, wise, givers of abundant gifts, ye who through measureless expanses have spread forth. For ye are seats and homes of goodly treasures. Deliver us, ye twain from grief and trouble.

पदपाठः

म॒न्वे। वा॒म्। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑। सु॒ऽभो॒ज॒सौ॒। सऽचे॑तसौ। ये इति॑। अप्र॑थेथाम्। अमि॑ता। योज॑नानि। प्र॒ति॒स्थे इति॑ प्र॒ति॒ऽस्थे। हि। अभ॑वतम्। वसू॑नाम। ते इति॑। नः॒। मु॒ञ्च॒त॒म्। अंह॑सः। २६.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • द्यावापृथिवी
  • मृगारः
  • पुरोऽष्टिर्जगती
  • पापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सुभोजसौ) हे उत्तम भोग देनेवाली वा पालन करनेवाली (सचेतसौ) समान ज्ञान करानेवाली (द्यावापृथिवी) सूर्य पृथिवी ! (वाम्) तुम दोनों का (मन्वे) मैं मनन करता हूँ, (ये) जिन तुम दोनों ने (अमिता) अगणित (योजनानि) संयोग कर्मों को (अप्रथेथाम्) प्रसिद्ध किया है और (हि) अवश्य ही (वसूनाम्) धनों की (प्रतिष्ठे) आधार (अभवतम्) हुई हो। (ते) वे तुम दोनों (वः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सूर्य और पृथिवी के परस्पर आकर्षण से अन्न, धन और अनेक संयोग-वियोग क्रियाएँ प्रकट होती हैं। मनुष्य उनके गुणों का यथावत् उपयोग करके आनन्द भोगें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(मन्वे) मननं करोमि (वाम्) युवयोः (द्यावापृथिवी) हे द्यावापृथिव्यौ ! हे सूर्यभूलोकौ ! (सुभोजसौ) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति भुज पालनाभ्यवहारयोः-असुन्। शोभनपालयित्र्यौ। सुष्ठु भोजयित्र्यौ (सचेतसौ) अ० १।३०।२। समानचेतयित्र्यौ (ये) द्यावापृथिव्यौ (अप्रथेथाम्) प्रथ प्रख्याने-लङ्। प्रख्यातवत्यौ। प्रसिद्धीकृतवत्यौ (अमिता) माङ् माने शब्दे च-क्त। अमितानि। अपरिमितानि बहूनि (योजनानि) युजिर्-योगे-ल्युट्। संयोजनानि। संयोगकर्माणि (प्रतिष्ठे) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।३।१०६। इति प्रति+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-अधिकरणेऽङ्। आधारभूते (हि) अवश्यम् (अभवतम्) (वसूनाम्) निवासहेतूनां धनानाम्-निघ० २।१०। (ते) तथाभूते युवाम् (नः) अस्मान् (मुञ्चतम्) मोचयतम् (अंहसः) कष्टात् ॥

०२ प्रतिष्ठे ह्यभवतम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प्र॑ति॒ष्ठे ह्यभ॑वतं॒ वसू॑नां॒ प्रवृ॑द्धे देवी सुभगे उरूची।
द्यावा॑पृथिवी॒ भव॑तं मे स्यो॒ने ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

०२ प्रतिष्ठे ह्यभवतम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Since ye became foundations of good things, ye much increased,
    divine, fortunate, wide-extended ones, O heaven-and-earth, be pleasant
    to me: do ye free us from distress.
Notes

Ppp. has in a babhūvathus (for ábhavatam). The comm., with a
couple of SPP’s mss., reads praviddhe (= sūtravat
sarvajagadanupraviddhe
) in b. As noted under vs. 1, SV. has
(omitting me in c) the second half-verse, here carried on as
refrain through vss. 3-6. ⌊In c, scan -pṛthvī…sioné.⌋

Griffith

Yea, seats and homes are ye of goodly treasures, grown strong, divine, blessed, and far-extending, To me, O Heaven and Earth, be ye auspicious. Deliver us, ye twain, from grief and trouble.

पदपाठः

प्र॒ति॒स्थे इति॑ प्र॒ति॒ऽस्थे। हि। अभ॑वतम्। वसू॑नाम्। प्रवृ॑ध्दे इति॒ प्रऽवृ॑ध्दे। दे॒वी॒ इति॑। सु॒भगे॒ इति॑ सुऽभगे। उ॒रू॒ची॒ इति॑। द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑। भव॑तम्। मे॒। स्यो॒ने इति॑। ते इति॑। नः॒। मु॒ञ्च॒त॒म्। अंह॑सः। २६.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • द्यावापृथिवी
  • मृगारः
  • त्रिष्टुप्
  • पापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रवृद्धे) हे बड़ी वृद्धिवाली, (देवी) दिव्यस्वरूप (सुभगे) बड़े ऐश्वर्यवाली, (उरूची) बहुत पदार्थ प्राप्त करानेवाली तुम दोनों (हि) ही (वसूनाम्) धनों की (प्रतिष्ठे) आधार (अभवतम्) हुई हो। (द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी ! तुम दोनों (मे) मेरे लिये (स्योने) सुखवती (भवतम्) होओ। (ते) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य सूर्य और पृथिवी के विज्ञान से अनेक ऐश्वर्य प्राप्त करके सुखी रहें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(प्रतिष्ठे) म० १। आधारभूते (हि) अवश्यम् (अभवतम्) (वसूनाम्) धनानाम् (प्रवृद्धे) हे प्रकर्षेण वृद्धियुक्ते (देवी) हे देव्यौ दिव्यस्वरूपे (सुभगे) हे शोभनैश्वर्ये (उरूची) अ० ३।३।१। उरवो बहवः पदार्था अञ्चन्ति गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति याभ्यां सकाशात् ते उरूच्यौ। बहुपदार्थप्रापिके (द्यावापृथिवी) हे सूर्यभूलोकौ ! भवतम् (मे) मह्यम् (स्योने) अ० १।३३।१। सुखवत्यौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥

०३ असन्तापे सुतपसौ

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॑सन्ता॒पे सु॒तप॑सौ हुवे॒ऽहमु॒र्वी ग॑म्भी॒रे क॒विभि॑र्नम॒स्ये॑।
द्यावा॑पृथिवी॒ भव॑तं मे स्यो॒ने ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

०३ असन्तापे सुतपसौ ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I call upon the not-distressing, of excellent penance, wide,
    profound, to be reverenced by poets: O heaven- etc. etc.
Notes

Possibly an antithesis is intended between the first two (doubtfully
translated) epithets, both founded on tap ‘heat.’ Ppp. has the better
reading vām for aham at end of a.

Griffith

I call on you who warm and cause no sorrow, deep, spacious, meet to be adored by poets. To me, O Heaven and Earth, be ye auspicious. Deliver us, ye twain, from grief and trouble.

पदपाठः

अ॒सं॒ता॒पे इत्य॑स॒म्ऽता॒पे। सु॒ऽतप॑सौ। हु॒वे॒। अ॒हम्। उ॒र्वी इति॑। ग॒म्भी॒रे इति॑। क॒विऽभिः॑। न॒म॒स्ये॒३॑ इति॑। द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑। भव॑तम्। मे॒। स्यो॒ने इति॑। ते इति॑। नः॒। मु॒ञ्च॒त॒म्। अंह॑सः। २६.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • द्यावापृथिवी
  • मृगारः
  • त्रिष्टुप्
  • पापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सुतपसौ) सुन्दर ताप रखनेवाली, (असंतापे) संताप न देनेवाली, (उर्वी) चौड़ी, (गम्भीरे) गहरी [शान्त स्वभाववाली] (कविभिः) विद्वानों से (नमस्ये) नमस्कारयोग्य तुम दोनों को (अहम्) मैं (हुवे) पुकारता हूँ। (द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी ! तुम दोनों (मे) मेरे लिये…. म० २ ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सूर्य के पिण्ड में ताप है, जिससे पृथिवी तापयुक्त होती है। इस प्रकार दोनों के ताप से सब जगत् के पदार्थ रक्षित रहते हैं। उन दोनों के यथावत् ज्ञान से मनुष्य बुद्धिमान् होकर आनन्द प्राप्त करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(असंतापे) नास्ति संतापो याभ्याम्। असंतापकर्त्र्यौ (सुतपसौ) सुन्दरतापयुक्ते। शोभनैश्वर्ययुक्ते (हुवे) आह्वयामि (अहम्) जीवः (उर्वी) उर्व्यौ। विस्तीर्णे (गम्भीरे) गभीरगम्भीरौ। उ० ४।३५। इति गम्लृ गतौ-ईरन्, मस्य भः, नुम् च। गमनीये प्रापणीये। शान्तस्वभावे। महाशये (कविभिः) मेधाविभिः (नमस्ये) वन्दनीये। अन्यत् पूर्ववत् म० २ ॥

०४ ये अमृतम्

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ये अ॒मृतं॑ बिभृ॒थो ये ह॒वींषि॒ ये स्रो॒त्या बि॑भृ॒थो ये म॑नु॒ष्या॑न्।
द्यावा॑पृथिवी॒ भव॑तं मे स्यो॒ने ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

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Whitney
Translation
  1. Ye who bear the immortal (amṛ́ta), who the oblations; who bear the
    streams (srotyā́), who human beings (manuṣyà): O heaven- etc. etc.
Notes

Ppp. puts b before a.

Griffith

Ye who maintain Amrit and sacrifices, ye who support rivers and human beings, To me, O Heaven and Earth, be ye auspicious, Deliver us, ye twain, from grief and trouble.

पदपाठः

ये इति॑। अ॒मृत॑म्। बि॒भृ॒थः। ये इति॑। ह॒वीषि॑। ये इति॑। स्रो॒त्याः। बि॒भृ॒थः। ये इति॑। म॒नु॒ष्या᳡न्। द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑। भव॑तम्। मे॒। स्यो॒ने इति॑। ते इति॑। नः॒। मु॒ञ्च॒त॒म्। अंह॑सः। २६.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • द्यावापृथिवी
  • मृगारः
  • त्रिष्टुप्
  • पापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो तुम दोनों (अमृतम्) मृत्यु से बचने के साधन और (ये) जो तुम (हवींषि) देने और ग्रहण करने योग्य अन्न आदि पदार्थों को (बिभृथः) धारण करती हो, (ये) जो तुम दोनों (स्रोत्याः) जल वा नदियों को और (ये) जो तुम दोनों (मनुष्यान्) मनुष्यों को (बिभृथः) धारण करती हो। (द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी तुम दोनों (मे) मेरे लिये….. म० २ ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सूर्य और पृथिवी के परस्पर आकर्षण से वृष्टि होकर अन्न आदि उत्पन्न होते हैं, जिन से मनुष्य आदि प्राणियों को अमृत अर्थात् अन्न आदि पदार्थ मिलते हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(ये) द्यावापृथिव्योर्युवाम् (अमृतम्) नास्ति मृतं मरणं यस्मात् तत्। मरणाद्रक्षणसाधनम्। अन्नादिकम् (बिभृथः) धारयथः (हवींषि) अर्चिशुचिहु०। उ० २।१०८। इति हु दानादानादनतर्पणेषु-इसि। देवग्राह्यद्रव्याणि धान्यादीनि (स्रोत्याः) स्रोतसो विभाषा ड्यड्ड्यौ। पा० ४।४।११३। इति स्रोतस्-ड्य। स्रोतसि भवाः। अपो जलानि। स्रोत्याः, नदीनाम-निघ० १।१३। (मनुष्यान्) मननशीलान् नरान्। अन्यत् पूर्ववत्-म० २ ॥

०५ ये उस्रिया

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ये उ॒स्रिया॑ बिभृ॒थो ये वन॒स्पती॒न्ययो॑र्वां॒ विश्वा॒ भुव॑नान्य॒न्तः।
द्यावा॑पृथिवी॒ भव॑तं मे स्यो॒ने ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

०५ ये उस्रिया ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Ye who bear the ruddy [kine], who the forest-trees; ye within whom
    [are] all beings: O heaven- etc. etc.
Notes

One or two of our mss. (H.I.), as the majority of SPP’s, make at the
beginning the false combination yá usr-. The comm. declares usriya a
gonāman.

Griffith

Ye by whom cows and forest trees are cherished within whose range all creatures are included, To me, O Heaven and Earth, be ye auspicious. Deliver us, ye twain, from grief and trouble.

पदपाठः

ये इति॑। उ॒स्रियाः॑। बि॒भृ॒थः। ये इति॑। वन॒स्पती॑न्। ययोः॑। वा॒म्। विश्वा॑। भुव॑नानि। अ॒न्तः। द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑। भव॑तम्। मे॒। स्यो॒ने इति॑। ते इति॑। नः॒। मु॒ञ्च॒त॒म्। अंह॑सः। २६.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • द्यावापृथिवी
  • मृगारः
  • त्रिष्टुप्
  • पापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो तुम दोनों (उस्रियाः) गौओं को और (ये) जो तुम दोनों (वनस्पतीन्) वनस्पतियों को (बिभृथः) धारण करती हो, (ययोः वाम्) जिन तुम दोनों के (अन्तः) भीतर (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक हैं। (द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी ! तुम दोनों (मे) मेरे लिये…. म० २ ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सूर्य के ताप और पृथिवी के संयोग से किरण द्वारा वृष्टि होकर गौ आदि सब पशु और सब वृक्ष पुष्ट होते हैं और सब लोक उनके ही प्रभाव में ठहरे हैं ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(ये) युवाम् (उस्रियाः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति वस निवासे-रक्, सम्प्रसारणं च। वसति क्षीरादिहविरस्याम्-इति उस्रा। ततः पृषोदरादित्वात्स्वार्थे घ। उस्रियेति गोनामोत्स्राविणोऽस्यां भोगाः। उस्रेति च, निरु० ४।१९। गाः (बिभृथः) धारयथः (वनस्पतीन्) अ० १।१२।३। वनानां सेवकानां पालकान्। वृक्षान् (ययोः) (वाम्) युवयोः (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (भुवनानि) अ० २।१।३। लोकान्। (अन्तः) मध्ये। अन्यत् पूर्ववत्-म० २ ॥

०६ ये कीलालेन

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ये की॒लाले॑न त॒र्पय॑थो॒ ये घृ॒तेन॒ याभ्या॑मृ॒ते न किं च॒न श॑क्नु॒वन्ति॑।
द्यावा॑पृथिवी॒ भव॑तं मे स्यो॒ने ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

०६ ये कीलालेन ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Ye who gratify with sweet drink (kīlā́la), who with ghee; without
    whom [men] can [do] nothing whatever: O heaven- etc. etc.
Notes

All the pada-mss. make in b the absurd division śaknu॰vánti, as
if the word were a neut. pl. from the stem śaknuvánt. Ppp. has in
a kīlālāis. The comm. interprets kīlāla simply as anna.

Griffith

Ye who delight in nectar and in fatness, ye without whom men have no strength or power, To me, O Heaven and Earth, be ye auspicious. Deliver us, ye twain, from grief and trouble.

पदपाठः

ये इति॑। की॒लाले॑न। त॒र्पय॑थः। ये इति॑। घृ॒तेन॑। याभ्या॑म्‌। ऋ॒ते। न। किम्। च॒न। श॒क्नुवन्ति॑। द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑। भव॑तम्। मे॒। स्यो॒ने इति॑। ते इति॑। नः॒। मु॒ञ्च॒त॒म्। अंह॑सः। २६.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • द्यावापृथिवी
  • मृगारः
  • त्रिष्टुप्
  • पापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो तुम दोनों (कीलालेन) जाठराग्नि के निवारण करनेवाले अन्न से, और (ये) जो तुम दोनों (घृतेन) जल से (तर्पयथः) तृप्त करती हो, (याभ्याम् ऋते) जिन तुम दोनों के बिना [सब प्राणी] (किम् चन) कुछ भी (न) नहीं (शक्नुवन्ति) शक्ति रखते हैं। (द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी ! (मे) मेरे लिये (स्योने) सुखवती (भवतम्) हो। (ते) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सूर्य और पृथिवी के प्रभाव से अन्न और जल आदि पदार्थ उत्पन्न होकर जगत् का उपकार करते हैं। उनके विज्ञान से सब मनुष्य सुखी रहें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(ये) युवाम् (कीलालेन) कील-अलेन। कील बन्धने खण्डने च घञ् क वा। अल निवारणे-अण्। कीलं जाठराग्नेर्ज्वालामलति वारयतीति। कीलालम् अन्नम्-निघ० २।७। अन्नेन (तर्पपथः) (घृतेन) उदकेन निघ० १।१२। (याभ्याम्) अन्यारादितरर्ते०। पा० २।३।२९। इति पञ्चमी (ऋते) विना (न) निषेधे (किञ्चन) यथातथा। किमपि (शक्नुवन्ति) शक्ता भवन्ति सर्वे जनाः। अन्यत् पूर्ववत्। म० २ ॥

०७ यन्मेदमभिशोचति येनयेन

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यन्मेदम॑भि॒शोच॑ति॒ येन॑येन वा कृ॒तं पौरु॑षेया॒न्न दैवा॑त्।
स्तौमि॒ द्यावा॑पृथि॒वी ना॑थि॒तो जो॑हवीमि॒ ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

०७ यन्मेदमभिशोचति येनयेन ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. This that scorches (abhi-śuc) me, or by whomsoever done, from what
    is human, not divine—I praise heaven-and-earth, [as] a suppliant I
    call loudly on [them]: do ye free us from distress.
Notes

The verse looks as if broken off in the middle, to allow addition of the
regular close. Ppp. has at end of b the more manageable reading
pāuruṣeyaṁ na dāivyam. TS.MS. have the second half-verse added to our
1 b, c; but they have also our 7 a, b (in the form yád idám mā
’bhiśócati pāúruṣeyeṇa dāívyena
) as first half of a similar verse to
“all the gods.” The comm. understands pāpāt as to be supplied in
b, and takes na as the particle of comparison.

Griffith

The grief that pains me here, whoever caused it, not sent by fate, hath sprung from human action. I, suppliant, praise Heaven, Earth, and oft invoke them. Deliver us, ye twain, from grief and trouble.

पदपाठः

यत्। मा। इ॒दम्। अ॒भि॒ऽशोच॑ति। येन॑ऽयेन। वा॒। कृ॒तम्। पौरु॑षेयात्। न। दैवा॑त्। स्तौमि॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। ना॒थि॒तः। जो॒ह॒वी॒मि॒। ते इति॑। नः॒। मु॒ञ्च॒त॒म्। अंह॑सः। २६.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • द्यावापृथिवी
  • मृगारः
  • शाक्वरगर्भातिमध्येज्योतिस्त्रिष्टुप्
  • पापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (येनयेन) जिस किसी कारण से (पौरुषेयात्) पुरुष [इस शरीर] से किया हुआ (वा) अथवा (दैवात्) दैव [प्रारब्ध, पूर्वजन्म] के फल से प्राप्त हुआ (यत्) जो (इदम्) यह (कृतम्) कर्म (न) इस समय (मा) मुझ को (अभिशोचति) शोक में डालता है। [इसलिये] (नाथितः) मैं अधीन होकर (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी को (स्तौमि) सराहता हूँ और (जोहवीमि) बारंबार पुकारता हूँ। (ते) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य पुरुषार्थ के साथ सुकर्म करके इस जन्म वा प्रारब्ध से प्राप्त हुए दुःख का नाश करके सूर्य पृथिवी आदि लोकों के उपयोग से सुख भोगें ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(यत्) (मा) माम् (इदम्) इण् गतौ-दमुक्। पुरोवर्त्ति (अभिशोचति) अभितः सर्वतो दहति (येनयेन) येनकेन कारणेन (वा) अथवा (कृतम्) कर्म (पौरुषेयात्) पुरुषाद्बधविकारसमूहतेनकृतेषु। वा० पा० ५।१।१०। इति पुरुष-ढञ्। पुरुषकृतोत्कर्मणः (न) सम्प्रत्यर्थे-निरु० ७।३१। (दैवात्) अ० ४।१६।८। पूर्वजन्मार्जितात् कर्मणः (स्तौमि) प्रशंसामि (द्यावापृथिव्यौ) (नाथितः) अ० ४।२३।७। नाथवान्। अधीनः (जोहवीमि) पुनः पुनराह्वयामि। अन्यत् पूर्ववत् ॥