०२२ अमित्रक्षयणम् ...{Loading}...
Whitney subject
- For the success and prosperity of a king.
VH anukramaṇī
अमित्रक्षयणम्।
१-७ वसिषठः, अथर्वा वा। क्षत्रियो राजा, इन्द्रश्च। त्रिष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Vasiṣṭha (? Atharvan?).—āindram. trāiṣṭubham.]
Whitney
Comment
Found in Pāipp. iii. (with vs. 3 before vs. 2), and most of it also in TB. (ii. 4. 77-8). Used by Kāuś. (14. 24) in a rite for victory in battle (the editor of Kāuś. regards the next hymn also as included, but evidently by an error), and also in the ceremony of consecration of a king (17. 28) ⌊Weber, Rājasūya, p. 142⌋; and the comm. mistakenly regards it as quoted at 72. 7, giving the pratīka as imam indra, instead of imam indram, as Kāuś. really reads (xii. 2. 47, evidently the verse intended). The Anukr. spreads itself at very unusual length over the character of the hymn: imam indra vardhaye ’ti vasiṣṭha āindraṁ trāiṣṭubhaṁ so ‘tharvā kṣatriyāya rājñe candramase prathamābhiḥ pañcabhir niramitrīkaraṇamukhyene ’ndram aprārthayad grāmagavāśvādi sarvaṁ rājyopakaraṇaṁ ca tataḥ parābhyām antyābhyām indrarūpeṇa svayam eva kṣatriyaṁ rājānaṁ candramasain āśiṣā prāṇudad iti. Probably Vasiṣṭha is the intended ṛṣi-name, and so ‘tharvā (one ms. sāuth-) a misreading for something else.
Translations
Translated; Ludwig, p. 457; Zimmer, 165; Grill, 67, 135; Griffith, i. 162; Bloomfield, 115, 404; Weber, xviii. 91.—Cf. Hillebrandt, Veda-chrestomathie, p. 43.
Griffith
A benediction on a newly consecrated king
०१ इममिन्द्र वर्धय
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒ममि॑न्द्र वर्धय क्ष॒त्रियं॑ म इ॒मं वि॒शामे॑कवृ॒षं कृ॑णु॒ त्वम्।
निर॒मित्रा॑नक्ष्णुह्यस्य॒ सर्वां॒स्तान्र॑न्धयास्मा अहमुत्त॒रेषु॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒ममि॑न्द्र वर्धय क्ष॒त्रियं॑ म इ॒मं वि॒शामे॑कवृ॒षं कृ॑णु॒ त्वम्।
निर॒मित्रा॑नक्ष्णुह्यस्य॒ सर्वां॒स्तान्र॑न्धयास्मा अहमुत्त॒रेषु॑ ॥
०१ इममिन्द्र वर्धय ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Increase, O Indra, this Kshatriya for me; make thou this man sole
chief of the clans (víś); unman (nis-akṣ) all his enemies; make them
subject to him in the contests for preeminence.
Notes
The comm. (with one of SPP’s mss.) has in b the strange reading
vṛṣām for viśām; and it treats aham and uttareṣu in d as two
separate words. He takes akṣṇuhi as from akṣ ‘attain’ (akṣū
vyāptāu), and so explains it (nirgatavyāptikān kuru). ⌊See Delbrück’s
discussion, Gurupūjākāumudī, p. 48-9.⌋ TB. combines a of this
verse (reading kṣatríyāṇām for -yam me) with b, c, d of our vs.
3. In our edition, an anusvāra is substituted for an accent-mark over
the syllable -nra- in d.
Griffith
Exalt and strengthen this my Prince, O Indra, Make him sole lord and leader of the people. Scatter his foes, deliver all his rivals into his hand in struggles for precedence.
पदपाठः
इ॒मम्। इ॒न्द्र॒। व॒र्ध॒य॒। क्ष॒त्रिय॑म्। मे॒। इ॒मम्। वि॒शाम्। ए॒क॒ऽवृ॒षम्। कृ॒णु॒। त्वम्। निः। अ॒मित्रा॑न्। अ॒क्ष्णु॒हि॒। अ॒स्य॒। सर्वा॑न्। तान्। र॒न्ध॒य॒। अ॒स्मै॒। अ॒ह॒म्ऽउ॒त्त॒रेषु॑। २२.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः, क्षत्रियो राजा
- वसिष्ठः, अथर्वा वा
- त्रिष्टुप्
- अमित्रक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
संग्राम में जय के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमेश्वर ! (त्वम्) तू (इमम्) इस (क्षत्रियम्) राज्य करने में चतुर राजा को (मे) मेरे लिये (वर्धय) बढ़ा, और (इमम्) इसको (विशाम्) मनुष्यों का (एकवृषम्) अद्वितीय प्रधान अर्थात् सार्वभौम शासक (कृणु) बना। (अस्य) इसके (सर्वान्) सब (अमित्रान्) वैरियों को (निरक्ष्णुहि) निर्बल करदे, और (तान्) उन्हें (अस्मै) इसके लिये (अहमुत्तरेषु) मैं ऊँचा होता हूँ, मैं ऊँचा होता हूँ, ऐसे कथनस्थान रणक्षेत्रों में (रन्धय) नाश कर वा वश में कर ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रजागण सर्वश्रेष्ठ पुरुष को राजा बनावें जो परमेश्वर में विश्वास करके युद्ध भूमि में शत्रुओं को मारकर प्रजा को सुखी रक्खे ॥१॥ सायणाचार्य ने (अहमुत्तरेषु) पद को पदपाठ के विरुद्ध [अहम् उत्तरेषु] ऐसे दो पद मानकर व्याख्या की है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(इमम्) अस्माकं मध्ये वर्त्तमानम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (वर्धय) समर्धय (क्षत्रियम्) क्षत्राद् घः। पा० ४।१।१३८। इति क्षत्र-घ। क्षत्रे राष्ट्रे साधुम्। राजानम् (मे) मह्यम् (विशाम्) विश प्रवेशने-क्विप्। विशः, मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्याणाम्। प्रजानाम् (एकवृषम्) वृषु सेचने, प्रजननैश्ययोः-क। अद्वितीयप्रधानम्। एकवीरम्। सार्वभौमम् (कृणु) कुरु (त्वम्) (अमित्रान्) अ० १।१९।२। पीडकान् शत्रून् (निः अक्ष्णुहि) अक्षू व्याप्तौ। निर्गतव्याप्तिकान् निर्बलान् कुरु (अस्य) राज्ञः (सर्वान्) तान् तथाविधान् शत्रून् (रन्धय) रध हिंसापाकयोः। रधिजभोरचि। पा० ७।१।६१। इति नुमागमः। रध्यतिर्वशगमने-निरु० १०।४०। नाशय। वशीकुरु (अस्मै) राज्ञे (अहमुत्तरेषु) अहम्+उत्तरेषु। अहमुत्तरो भवामि अहमुत्तरो भवामि इति कथनं यत्र। परस्परोत्कर्षाय योधानाम्। धावनकर्मसु। महासंग्रामेषु ॥
०२ एमं भज
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
एमं भ॑ज॒ ग्रामे॒ अश्वे॑षु॒ गोषु॒ निष्टं भ॑ज॒ यो अ॒मित्रो॑ अ॒स्य।
वर्ष्म॑ क्ष॒त्राणा॑म॒यम॑स्तु॒ राजेन्द्र॒ शत्रुं॑ रन्धय॒ सर्व॑म॒स्मै ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
एमं भ॑ज॒ ग्रामे॒ अश्वे॑षु॒ गोषु॒ निष्टं भ॑ज॒ यो अ॒मित्रो॑ अ॒स्य।
वर्ष्म॑ क्ष॒त्राणा॑म॒यम॑स्तु॒ राजेन्द्र॒ शत्रुं॑ रन्धय॒ सर्व॑म॒स्मै ॥
०२ एमं भज ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Portion thou this man in village, in horses, in kine; unportion that
man who is his enemy; let this king be the summit of authorities
(kṣatrá); O Indra, make every foe subject to him.
Notes
Ppp. elides the a of amitras in b, and in c has the better
reading varṣman ‘at the summit,’ which is also offered by the comm.,
and by three of SPP’s mss. TB. has várṣman, but as first word of a
very different half-verse, our iii. 4. 2 c, d, which it adds to our
first half-verse here to make a complete verse; in a it has imám ā́
instead of é ’mám, and in b nír amúm instead of níṣ ṭám, thus
rectifying the meter (the Anukr. takes no notice of the metrical
irregularity of our b); and it leaves asya without accent at the
end. Nearly half the mss. (including our P.M.W.I.K.) have in d
śátrūṅ, and the comm. seems to understand śatrūn. ⌊TB. combines yò
’mítro, against the meter.⌋
Griffith
Give him a share in village, kine, and horses, and leave his enemy without a portion. Let him as King be head and chief of Princes, Give up to him, O Indra, every foeman.
पदपाठः
आ। इ॒मम्। भ॒ज॒। ग्रामे॑। अश्वे॑षु। गोषु॑। निः। तम्। भ॒ज॒। यः। अ॒मित्रः॑। अ॒स्य। वर्ष्म॑। क्ष॒त्राणा॑म्। अ॒यम्। अ॒स्तु॒। राजा॑। इन्द्र॑। शत्रु॑म्। र॒न्ध॒य॒। सर्व॑म्। अ॒स्मै। २२.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः, क्षत्रियो राजा
- वसिष्ठः, अथर्वा वा
- त्रिष्टुप्
- अमित्रक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
संग्राम में जय के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इमम्) इसको (ग्रामे) ग्राम में, (अश्वेषु) घोड़ों में, और (गोषु) गौ आदिकों में (आभज) भाग्यवान् कर, और (यः) जो (अस्य) इसका (अमित्रः) वैरी है, (तम्) उस को (निर्भज) अलग कर दे। (अयम्) यह (राजा) राजा (क्षत्राणाम्) क्षत्रियों का (वर्ष्म) मस्तक [समान ऊँचा] (अस्तु) होवे। (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवाले इन्द्र भगवान् ! (अस्मै) इसके लिये (सर्वम्) सब (शत्रुम्) शत्रु को (रन्धय) वश में कर ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा परमेश्वर में श्रद्धा रखता हुआ अपनी प्रजा, सेना, और गौ आदि पशुओं की रक्षा करता हुआ अपने सब शत्रुओं का नाश करके क्षत्रियों का शिरोमणि बने ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(इमम्) राजानम् (आ भज) भज सेवाविश्राणनयोः। समन्तात् सेवस्व। भागं देहि (ग्रामे) अ० ४।७।५। वसतौ। (अश्वेषु) तुरङ्गेषु (गोषु) धेन्वादिपशुषु (तम्) शत्रुम् (निर्भज) निर्भक्तं वियुक्तं कुरु (यः) (अमित्रः) पीडकः शत्रुः (अस्य) राज्ञः (वर्ष्म) अ० ३।४।२। उन्नतस्थानम्। शिरोवदुन्नतः (क्षणात्राम्) अ० २।१५।४। क्षतस्त्रायकाणां क्षत्रियाणां मध्ये (अस्तु) (राजा) (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (शत्रुम्) रिपुम् (रन्धय) म० १। वशीकुरु (सर्वम्) (अस्मै) राजहिताय ॥
०३ अयमस्तु धनपतिर्धनानामयम्
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अ॒यम॑स्तु॒ धन॑पति॒र्धना॑नाम॒यं वि॒शां वि॒श्पति॑रस्तु॒ राजा॑।
अ॒स्मिन्नि॑न्द्र॒ महि॒ वर्चां॑सि धेह्यव॒र्चसं॑ कृणुहि॒ शत्रु॑मस्य ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒यम॑स्तु॒ धन॑पति॒र्धना॑नाम॒यं वि॒शां वि॒श्पति॑रस्तु॒ राजा॑।
अ॒स्मिन्नि॑न्द्र॒ महि॒ वर्चां॑सि धेह्यव॒र्चसं॑ कृणुहि॒ शत्रु॑मस्य ॥
०३ अयमस्तु धनपतिर्धनानामयम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let this man be riches-lord of riches; let this king be people-lord
of people; in him, O Indra, put great splendors; destitute of splendor
make thou his foe.
Notes
As noted above, TB. combines the last three pādas of this verse with our
1 a; it reads asmāí instead of asmín at beginning of c. The
comm. foolishly gives himself much vain trouble to prove that the
epithets in a and b are not repetitious.
Griffith
Let him be treasure-lord of goodly treasures, let him as King be master of the people. Grant unto him great power and might, O Indra, and strip his enemy of strength and vigour.
पदपाठः
अ॒यम्। अ॒स्तु॒। धन॑ऽपतिः। धना॑नाम्। अ॒यम्। वि॒शाम्। वि॒श्पतिः॑। अ॒स्तु॒। राजा॑। अ॒स्मिन्। इ॒न्द्र॒। महि॑। वर्चां॑सि। धे॒हि॒। अ॒व॒र्चस॑म्। कृ॒णु॒हि॒। शत्रु॑म्। अ॒स्य॒। २२.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः, क्षत्रियो राजा
- वसिष्ठः, अथर्वा वा
- त्रिष्टुप्
- अमित्रक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
संग्राम में जय के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह (धनानाम्) बहुत प्रकार के धनों का (धनपतिः) धनपति (अस्तु) होवे। (अयम्) यह (राजा) राजा (विशाम्) बहुत प्रजाओं का (विश्पतिः) प्रजापति (अस्तु) होवे। (इन्द्र) हे परमेश्वर ! (अस्मिन्) इस राज्य में (महि=महीनि) बड़े-बड़े (वर्चांसि) तेजों को (धेहि) धारण कर, (अस्य) इसके (शत्रुम्) वैरी को (अवर्चसम्) निस्तेज (कृणुहि) करदे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा परमेश्वर के अनुग्रह से पुरुषार्थपूर्वक बहुत धन एकत्र करके प्रजा की रक्षा करे और महाप्रतापी होकर शत्रुओं को वश में रक्खे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(अयम्) (अस्तु) (धनपतिः) धनानां निधीनां पालकः (धनानाम्) बहुविधधनानाम् (विशाम्) बहुप्रजानाम् (विश्पतिः) प्रजापालकः (राजा) (अस्मिन्) राजनि (इन्द्र) हे परमात्मन् (महि) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति मह पूजायाम्-इन्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति शसः सुः। महीनि महान्ति (वर्चांसि) तेजांसि (धेहि) धारय (अवर्चसम्) अतेजस्कम् (कृणुहि) कुरु (शत्रुम्) (अस्य) ॥
०४ अस्मै द्यावापृथिवी
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अ॒स्मै द्या॑वापृथिवी॒ भूरि॑ वा॒मं दु॑हाथां घर्म॒दुघे॑ इ॒व धे॒नू।
अ॒यं राजा॑ प्रि॒य इन्द्र॑स्य भूयात्प्रि॒यो गवा॒मोष॑धीनां पशू॒नाम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒स्मै द्या॑वापृथिवी॒ भूरि॑ वा॒मं दु॑हाथां घर्म॒दुघे॑ इ॒व धे॒नू।
अ॒यं राजा॑ प्रि॒य इन्द्र॑स्य भूयात्प्रि॒यो गवा॒मोष॑धीनां पशू॒नाम् ॥
०४ अस्मै द्यावापृथिवी ...{Loading}...
Whitney
Translation
- For him, O heaven-and-earth, milk ye much that is pleasant (vāmá),
like two milch kine that yield the hot-draught (gharmá-); may this
king be dear to Indra, dear to kine, herbs, cattle.
Notes
Ppp. combines dughe ’va in b, and has bhūyās in c; and at
the end it agrees with TB. in reading utā́ ’pā́m for paśūnā́m. TB.
further has asmé in a, and -dúghe ’va dhenúḥ in b ⌊but see
Prāt. i. 82 n.⌋; and it prefixes sám to duhāthām. Probably it is the
loss of that prefix or of some other that causes duhāthām to stand in
all the mss. without accent at the beginning of the pāda: an
inadmissible anomaly, though read in both texts; we ought to have
emended to duhā́thām. The comm. explains that gharma- in b
signifies the pravargya. ⌊The meter requires the prefix.⌋
Griffith
Like milch-kine yielding milk for warm libations, pour, Heaven and Earth! on him full many a blessing. May he as King be Indra’s well-beloved, the darling of the kine, the plants, the cattle.
पदपाठः
अ॒स्मै। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑। भूरि॑। वा॒मम्। दु॒हा॒था॒म्। घ॒र्म॒दुघे॑ इ॒वेति॑ घ॒र्म॒दुघे॑ऽइव। धे॒नू इति॑। अ॒यम्। राजा॑। प्रि॒यः। इन्द्र॑स्य। भू॒या॒त्। प्रि॒यः। गवा॑म्। ओष॑धीनाम्। प॒शू॒नाम्। २२.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः, क्षत्रियो राजा
- वसिष्ठः, अथर्वा वा
- त्रिष्टुप्
- अमित्रक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
संग्राम में जय के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी तुम दोनों ! (अस्मै) इस राजा के लिये (घर्मदुघे) यज्ञ की पूर्ति करनेवाली (धेनू इव) दो गौओं के समान (भूरि) बहुत (वामम्) उत्तम धन (दुहाथाम्) पूर्ण करो। (अयम्) यह (राजा) राजा (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (प्रियः) प्रिय (गवाम्) विद्याओं का, (ओषधीनाम्) सब अन्नों का और (पशूनाम्) दोपाये और चौपाये जीवों का (प्रियः) प्रिय (भूयात्) होवे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा सूर्य पृथिवी आदि सब लोकों और पदार्थों से विज्ञानपूर्वक उपकार लेकर धन संचय करे, और अनेक विद्याओं और अन्नों और सब प्राणियों की वृद्धि करके सुख प्राप्त करे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(अस्मै) राज्ञे (द्यावापृथिवी) हे द्यावापृथिव्यौ। सूर्यभूलोकौ। तत्रस्थपदार्थाः, इत्यर्थः (भूरि) प्रभूतम् (वामम्) अर्तिस्तुसुहु०। उ० १।१४०। इति वा गतिगन्धनयोः-मन्। यद्वा। इषियुधीन्धि०। उ० १।१४५। इति वन सम्भक्तौ याचने च-मक्। नस्य आकारः। प्रशस्यम्-निघ० ३।८। धनम् (दुहाथाम्) दुग्धम्। प्रपूरयतम् (घर्मदुघे) घर्म+दुघे। घर्म इति व्याख्यातम्-अ० ४।१।२। दुहः कब्घश्च। पा० ३।२।७०। इति दुह प्रपूरणे-कप्, हस्य घश्च। टाप्। घर्मस्य यज्ञस्य प्रपूरयित्र्यौ यज्ञाय दोग्ध्र्यौ (इव) यथा (धेनू) गावौ (अयम्) (राजा) (प्रियः) हृद्यः। तर्पकः। (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (गवाम्) वाणीनाम्। विद्यानाम् (ओषधीनाम्) व्रीहियवादिसस्यानाम् (पशूनाम्) द्विपाच्चतुष्पदां प्राणिनाम् ॥
०५ युनज्मि त
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यु॒नज्मि॑ त उत्त॒राव॑न्त॒मिन्द्रं॒ येन॒ जय॑न्ति॒ न प॑रा॒जय॑न्ते।
यस्त्वा॒ कर॑देकवृ॒षं जना॑नामु॒त राज्ञा॑मुत्त॒मं मा॑न॒वाना॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यु॒नज्मि॑ त उत्त॒राव॑न्त॒मिन्द्रं॒ येन॒ जय॑न्ति॒ न प॑रा॒जय॑न्ते।
यस्त्वा॒ कर॑देकवृ॒षं जना॑नामु॒त राज्ञा॑मुत्त॒मं मा॑न॒वाना॑म् ॥
०५ युनज्मि त ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I join to thee Indra who gives superiority (? utttarā́vant), by whom
men conquer, are not conquered; who shall make thee sole chief of people
(jána), also uppermost of kings descended from Manu.
Notes
Ppp. reads in a tam uttarāvantam indra. TB. has in b jáyāsi
and parājáyāsāi, and in the second half-verse sá tvā ’kar ekavṛṣabháṁ
svā́nām átho rājann utt-. The comm. explains uttarā́vantam by
atiśayitotkarṣavantam.
Griffith
I join in league with thee victorious Indra, with whom men conquer and are ne’er defeated. He shall make thee the folk’s sole lord and leader, shall make thee highest of all human rulers.
पदपाठः
यु॒नज्मि॑। ते॒। उ॒त्त॒रऽव॑न्तम्। इन्द्र॑म्। येन॑। जय॑न्ति। न। प॒रा॒ऽजय॑न्ते। यः। त्वा॒। कर॑त्। ए॒क॒ऽवृ॒षम्। जना॑नाम्। उ॒त। राज्ञा॑म्। उ॒त्ऽत॒मम्। मा॒न॒वाना॑म्। २२.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः, क्षत्रियो राजा
- वसिष्ठः, अथर्वा वा
- त्रिष्टुप्
- अमित्रक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
संग्राम में जय के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (ते !) तेरे लिये (उत्तरावन्तम्) अत्यन्त उत्तम गुणवाले (इन्द्रम्) परमेश्वर को (युनज्मि) मैं संयुक्त करता हूँ, (येन) जिसके साथ [शूर जन] (जयन्ति) जय पाते हैं, और (न) कभी नहीं (पराजयन्ते) हारते हैं। (यः) जो (त्वा) तुझको (जनानाम्) मनुष्यों के बीच (एकवृषम्) अद्वितीय प्रधान, और (मानवानाम्) मननशील अथवा माननीय (राज्ञाम्) राजाओं में (उत्तमम्) अति श्रेष्ठ (करत्) करे ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् पुरुष राजा को परमेश्वर का उपदेश करें, जिसके आश्रय से वह राजा धीर-वीर होकर प्रजा का पालन करे और उत्तमों में उत्तम राजा हो ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(युनज्मि) योजयामि (ते) तुभ्यम् (उत्तरावन्तम्) छान्दसो दीर्घः। अत्युत्कृष्टगुणयुक्तम् (इन्द्रम्) परमात्मानम् (येन) इन्द्रेण सह (जयन्ति) शूरा जयं प्राप्नुवन्ति (न) निषेधे (पराजयन्ते) विपराभ्यां जेः। पा० १।३।१९। इति आत्मनेपदम्। शत्रुभ्यः सकाशात् पराभवं प्राप्नुवन्ति (यः) इन्द्रः (त्वा) त्वां राजानम् (करत्) करोतेर्लेट्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इति अडागमः। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इति इकारलोपः। कुर्यात् (एकवृषम्) म० १। अद्वितीयं सुखसेचकं सार्वभौमम् (जनानाम्) शूरजनानाम् (उत) अपि च (राज्ञाम्) क्षत्रियाणाम् (उत्तमम्) पुण्यं सर्वश्रेष्ठं प्रजापरिपालनशौर्यादिगुणैरुत्कृष्टम् (मानवानाम्) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति। मनु-अण्। मननशीलानाम्। यद्वा। छन्दसीवनिपौ च। वा० पा० ५।२।१०९। इति मान-व प्रत्ययो मत्वर्थे। मान्यानाम् ॥
०६ उत्तरस्त्वमधरे ते
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उत्त॑र॒स्त्वमध॑रे ते स॒पत्ना॒ ये के च॑ राज॒न्प्रति॑शत्रवस्ते।
ए॑कवृ॒ष इन्द्र॑सखा जिगी॒वां छ॑त्रूय॒तामा भ॑रा॒ भोज॑नानि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उत्त॑र॒स्त्वमध॑रे ते स॒पत्ना॒ ये के च॑ राज॒न्प्रति॑शत्रवस्ते।
ए॑कवृ॒ष इन्द्र॑सखा जिगी॒वां छ॑त्रूय॒तामा भ॑रा॒ भोज॑नानि ॥
०६ उत्तरस्त्वमधरे ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Superior [art] thou, inferior thy rivals, whosoever, O king, are
thine opposing foes; sole chief, having Indra as companion, having
conquered, bring thou in the enjoyments (bhójana) of them that play
the foe.
Notes
Ppp. has in a adhare santv anye. TB. puts together a and c
as first half of a verse to the other half of which our text has nothing
corresponding; and it reads ékavṛṣā for ehavṛṣás. The comm. takes
prati and śatravas in b as two independent words; he paraphrases
bhójanāni by bhogasādhanāni dhanāni.
Griffith
Supreme art thou, beneath thee are thy rivals, and all, O King, who were thine adversaries. Sole lord and leader and allied with Indra, bring, conqueror, thy foremen’s goods and treasures.
पदपाठः
उत्त॑रः। त्वम्। अध॑रे। ते॒। स॒ऽपत्नाः॑। ये। के। च॒। रा॒ज॒न्। प्रति॑ऽशत्रवः। ते॒। ए॒क॒ऽवृ॒षः। इन्द्र॑ऽसखा। जि॒गी॒वान्। श॒त्रु॒ऽय॒ताम्। आ। भ॒र॒। भोज॑नानि। २२.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः, क्षत्रियो राजा
- वसिष्ठः, अथर्वा वा
- त्रिष्टुप्
- अमित्रक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
संग्राम में जय के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [राजन् !] हे राजन् ! (त्वम्) तू (उत्तरः) अधिक ऊँचा हो, (च) और (ये के) जो कोई (ते) तेरे (प्रतिशत्रवः) प्रतिकूलवर्ती शत्रु और (ते) तेरे (सपत्नाः) साथ झगड़नेवाले हैं, [वे] (अधरे) नीचे होवें। (इन्द्रसखा) परमेश्वर का मित्र, (जिगीवान्) विजयी और (एकवृषः) अद्वितीय प्रधान तू (शत्रूयताम्) शत्रुओं जैसे आचरणवाले मनुष्यों के (भोजनानि) भोगों के साधन, धन-धान्यों को (आभर) लाकर भरदे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा प्रतिकूलवर्ती सब शत्रुओं को परमेश्वर के सहाय से जीतकर सर्वथा निर्बल करे और प्रजा को सुख देवे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(उत्तरः) ऊर्ध्वतरः (त्वम्) राजन् (अधरे) नीचाः (ते) त्वदीयाः (सपत्नाः) अ० १।९।२। सहपतित्ववन्तः। शत्रवः (ये के च राजन्) (प्रतिशत्रवः) प्रतिकूलवर्तिनो वैरिणः (एकवृषः) म० १। अद्वितीयशासकः (इन्द्रसखा) इन्द्रेण परमेश्वरेण सखित्वयुक्तः (जिगीवान्) जि जये+क्वसु। सन्लिटोर्जेः। पा० ७।३।५७। इत्यभ्यासादुत्तरस्य कुत्वम्। छान्दसो दीर्घः। जयशीलः (शत्रूयताम्) अ० ३।१।३। शत्रु-क्यच्,-शतृ। शत्रुवदाचरताम् (आ भरा) छान्दसो दीर्घः। आनीय धर (भोजनानि) ण्युट् च। पा० ३।३।११५। इति भुज पालनाभ्यवहारयोः-ल्युट्। भोगसाधनानि धान्यानि धनानि च ॥
०७ सिंहप्रतीको विशो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सिं॒हप्र॑तीको॒ विशो॑ अद्धि॒ सर्वा॑ व्या॒घ्रप्र॑ती॒कोऽव॑ बाधस्व॒ शत्रू॑न्।
ए॑कवृ॒ष इन्द्र॑सखा जिगी॒वां छ॑त्रूय॒तामा खि॑दा॒ भोज॑नानि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सिं॒हप्र॑तीको॒ विशो॑ अद्धि॒ सर्वा॑ व्या॒घ्रप्र॑ती॒कोऽव॑ बाधस्व॒ शत्रू॑न्।
ए॑कवृ॒ष इन्द्र॑सखा जिगी॒वां छ॑त्रूय॒तामा खि॑दा॒ भोज॑नानि ॥
०७ सिंहप्रतीको विशो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Of lion-aspect, do thou devour (ad) all the clans (viś); of
tiger-aspect, do thou beat down the foes; sole chief, having Indra as
companion, having conquered, seize thou on (ā-khid) the enjoyments of
them that play the foe.
Notes
Ppp. has only the second half-verse, and reads for d śatrūyatām
abhi tiṣṭhā mahāṅsi (our vii. 73. 10 etc.: see under that verse). The
whole verse is wanting in TB. The comm., with one of SPP’s mss., reads
ápa for áva in b. He paraphrases addhi (which is a frequent
expression for the action of a ruler upon his subjects) very properly by
bhun̄kṣva; and ā khida, less acceptably, by ācchindhi.
Griffith
Consume, with lion aspect, all their hamlets, with tiger aspect, drive away thy foemen. Sole lord and leader and allied with Indra, seize, conqueror, thine enemies’ possessions.
पदपाठः
सिं॒हऽप्र॑तीकः। विशः॑। अ॒ध्दि॒। सर्वाः॑। व्या॒घ्रऽप्र॑तीकः। अव॑। बा॒ध॒स्व॒। शत्रू॑न्। ए॒क॒ऽवृ॒षः। इन्द्र॑ऽसखा। जि॒गी॒वान्। श॒त्रु॒ऽय॒ताम्। आ। खि॒द॒। भोज॑नानि। २२.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः, क्षत्रियो राजा
- वसिष्ठः, अथर्वा वा
- त्रिष्टुप्
- अमित्रक्षयण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
संग्राम में जय के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (सिंहप्रतीकः) सिंहतुल्य पराक्रमी तू (सर्वाः) सब [शत्रुओंके] (विशः) मनुष्यों को (अद्धि) खाले, (व्याघ्रप्रतीकः) व्याघ्रसमान झपट कर (शत्रून्) दुष्ट वैरियों को (अव बाधस्व) हटादे। (इन्द्रसखा) परमेश्वर का मित्र, (जिगीवान्) विजयी और (एकवृषः) अद्वितीय प्रधान तू (शत्रूयताम्) शत्रु जैसे आचरणवाले मनुष्यों के (भोजनानि) भोगों के साधन धन-धान्यों को (आ खिद) छीनले ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा पूर्ण पराक्रम से शत्रुओं की सेनाओं और शत्रुओं का नाश करे और सब प्रकार से विजय प्राप्त करके उन्हें अपने अधीन रक्खे ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(सिंहप्रतीकः) सिंह इति। गतम्-अ० ४।८।७। अलीकादयश्च। उ० ४।२५। इति प्रति+इण् गतौ-कीकन्। प्रतीयते स प्रतीकः। प्रतीतिः ख्यातिः। सिंहतुल्यपराक्रमः (विशः) प्रजाः शत्रूणाम् (अद्धि) अद भक्षणे-लोट्। भुङ् क्षत्र नाशय (सर्वाः) सकलाः (व्याघ्रप्रतीकः) व्याघ्रवदाक्रमणशीलः (अव बाधस्व) निवारय (शत्रून्) शातयितॄन्। हिंसकान् (आखिद) खिद दैन्ये परिघाते च। आङ् पूर्वः खिदिः आच्छेदने। आच्छिन्धि। अपहरेत्यर्थः। अन्यद् व्याख्यातं म० ६ ॥