०२१ गावः ...{Loading}...
Whitney subject
- Praise of the kine.
VH anukramaṇī
गावः।
१-७ ब्रह्मा । गावः । त्रिष्टुप्, २-४ जगती
Whitney anukramaṇī
[Brahman.—gavyam. trāiṣṭubham. 2-4. jagatī.]
Whitney
Comment
This hymn is not found in Pāipp., but it occurs in the Rig-Veda (vi. 28. 1-7; vs. 8, in a different meter, is perhaps a later addition), and also in TB. (ii. 8. 811-12). It is used by Kāuś. (19. 1), with i. 4-6 and others in a rite for ailing kine, and also (21. 8 ff.) in one for the prosperity of kine, vs. 7 being specifically mentioned as repeated when they go forth to pasture; vs. 7 appears further to be quoted at 19. 14, in a rite for the cow-stall; but the comm. declares two verses to be intended, and, if so, they must be vii. 75. 1, 2, since there is here no following verse. In Vāit. (21. 24), in the agniṣṭoma, the cows intended as sacrificial gifts are greeted with this hymn. The schol. (Kāuś. 16. 8) reckons vs. 4 to the abhaya gaṇa. The comm. ⌊and Keśava’s scholion to Kāuś. 27. 34⌋ declare hymns 21-30 to be mṛgāra-hymns (Kāuś. 27. 34; 9. 1), but the name would seem properly to belong only to hymns 23-29, which form a related group, and are by the Anukr. ascribed to Mṛgāra as author.
Translations
Translated: by RV. translators; and Griffith, i. 161; Weber, xviii. 87.
Griffith
Glorification and benediction of cows
०१ आ गावो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ गावो॑ अग्मन्नु॒त भ॒द्रम॑क्र॒न्त्सीद॑न्तु गो॒ष्ठे र॒णय॑न्त्व॒स्मे।
प्र॒जाव॑तीः पुरु॒रूपा॑ इ॒ह स्यु॒रिन्द्रा॑य पू॒र्वीरु॒षसो॒ दुहा॑नाः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ गावो॑ अग्मन्नु॒त भ॒द्रम॑क्र॒न्त्सीद॑न्तु गो॒ष्ठे र॒णय॑न्त्व॒स्मे।
प्र॒जाव॑तीः पुरु॒रूपा॑ इ॒ह स्यु॒रिन्द्रा॑य पू॒र्वीरु॒षसो॒ दुहा॑नाः ॥
०१ आ गावो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The kine have come, and have done what is excellent; let them stay
(sad) in the stall (goṣṭhá); let them take pleasure with us; may
they be rich in progeny here, many-formed, milking for Indra many dawns.
Notes
The other texts have no variants for this verse. The comm., after his
wont, turns the two aorists in a into imperatives; he renders
raṇayantu alternatively by ramayantu and ramantām; and he takes
“dawns” as equivalent to “days” (divasān). ⌊‘Full many a morning
yielding milk for Indra.’⌋
Griffith
The kine have come and brought good fortune: let them rest in the cow-pen and be happy near us. Here let them stay prolific, many-coloured, and yield through many morns their milk for Indra.
पदपाठः
आ। गावः॑। अ॒ग्म॒न्। उ॒त। भ॒द्रम्। अ॒क्र॒न्। सीद॑न्तु। गो॒ऽस्थे। र॒णय॑न्तु। अ॒स्मे इति॑। प्र॒जाऽव॑तीः। पु॒रु॒ऽरूषाः॑। इ॒ह। स्युः॒। इन्द्रा॑य। पू॒र्वीः। उ॒षसः॑। दुहा॑नाः। २१.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गोसमूहः
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- गोसमूह सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गावः) पाने वा स्तुति योग्य, विद्याएँ (आ अग्मन्) प्राप्त हुई हैं, (उत) और उन्होंने (भद्रम्) कल्याण (अक्रन्) किया है। वे (गोष्ठे) हमारी गोठ अर्थात् विद्यासमाज में (सीदन्तु) प्राप्त होवें और (अस्मे) हमें (रणयन्तु=रमयन्तु) सुख देवें। वे (इह) यहाँ समाज में (इन्द्राय) परम ऐश्वर्यवाले पुरुष के लिये (पूर्वीः) बहुत (उषसः) प्रभातवेलाओं तक (प्रजावतीः) उत्तम मनुष्योंवाली, (पुरुरूपाः) अनेक लक्षणवाली होकर (दुहानाः) [कामनाओं को] पूर्ण करती हुईं (स्युः) रहें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्याएँ परमेश्वर से आकर संसार को महा उपकारी हुई हैं। मनुष्य ईश्वरविद्या, शिल्पविद्या आदि अनेक विद्याओं को प्राप्त करें और (इन्द्र) महापुरुषार्थी प्रधान पुरुष के सहायक होकर बहुत काल तक सुख भोगें ॥१॥ यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद में है, म० ६ सू० २८ म० १-७। उस में सूक्त के भरद्वाज बार्हस्पत्य ऋषि हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(गावः) गमेर्डोः। उ० २।६७। इति गम्लृ गतौ गाने वा-डो। गौरिति वाङ्नाम-निघ० १।११। प्रापणीया गानयोग्या वा वाचः। विद्याः (आ अग्मन्) मन्त्रे घसह्वर०। पा० २।४।८०। इति लुङि च्लेर्लुक्। अगमन् आगताः प्राप्ता अभवन् (उत) अपि च (भद्रम्) कल्याणम् (अक्रन्) पूर्ववत् लुङ्। अकार्षुः (सीदन्तु) षद्लृ गतौ। ताः प्राप्नुवन्तु (गोष्ठे) गावो वाचस्तिष्ठन्ति यत्र। विद्यासमाजे (रणयन्तु) रणाय रमणीयाय संग्रामाय-निरु० १०।४७। इति निर्देशात् मस्य णः। रमयन्तु सुखयन्तु (अस्मे) विभक्तेः शे। अस्मान् (प्रजावतीः) प्रजावत्यः। प्रशस्तजनवत्यः (पुरुरूपाः) बहुरूपाः। नानाविधाः (इह) अस्मिन् गोष्ठे (स्युः) भवेयुः (इन्द्राय) परमैश्वर्ययुक्ताय पुरुषाय (पूर्वीः) पुरु बहुनाम-निघ० ३।१। ततो ङीप्। पूर्वीः। बह्वीः (उषसः) कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया। उषः−कालोपलक्षितान् दिवसान्। सर्वकालम् (दुहानाः) दुह प्रपूरणे-शानच्। कामान् प्रपूरयन्त्यः ॥
०२ इन्द्रो यज्वने
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्रो॒ यज्व॑ने गृण॒ते च॒ शिक्ष॑त॒ उपेद्द॑दाति॒ न स्वं मु॑षायति।
भूयो॑भूयो र॒यिमिद॑स्य व॒र्धय॑न्नभि॒न्ने खि॒ल्ये नि द॑धाति देव॒युम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रो॒ यज्व॑ने गृण॒ते च॒ शिक्ष॑त॒ उपेद्द॑दाति॒ न स्वं मु॑षायति।
भूयो॑भूयो र॒यिमिद॑स्य व॒र्धय॑न्नभि॒न्ने खि॒ल्ये नि द॑धाति देव॒युम् ॥
०२ इन्द्रो यज्वने ...{Loading}...
Whitney
Translation
- To the sacrificer and singer, to the helpful one (?), Indra verily
gives further, steals not what is his; increasing more and more the
wealth of him, he sets the godly man (devayú) in an undivided domain
(? khilyá).
Notes
The other texts have in a the decidedly better reading pṛṇaté ca
śikṣati of which ours is simply a corruption; the comm., heedless of
the accent, takes our śíkṣate as a verb (= gāḥ prayacchati). In
d they have the better accent ábhinne; and TB. reads khillé;
most of our mss. could be better understood as khilpé than as
khilyé; the comm. defines khila as aprahataṁ sthānam, and khilya
as tatrabhava; R. conjectures “stonewall” for khilya. All our mss.,
and part of SPP’s, read mukhāyati in b.
Griffith
Indra aids him who offers sacrifice and praise: he takes not what is his, and gives him more thereto. Increasing ever more and ever more his wealth, he makes the pious dwell within unbroken bounds.
पदपाठः
इन्द्रः॑। यज्व॑ने। गृ॒ण॒ते। च॒। शिक्ष॑ते। उप॑। इत्। द॒दा॒ति॒। न। स्वम्। मु॒षा॒य॒ति॒। भूयः॑ऽभूयः। र॒यिम्। इत्। अ॒स्य॒। व॒र्धय॑न्। अ॒भि॒न्ने। खि॒ल्ये। नि। द॒धा॒ति॒। दे॒व॒ऽयुम्। २१.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गोसमूहः
- ब्रह्मा
- जगती
- गोसमूह सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा (यज्वने) यज्ञ करनेवाले (च) और (गृणते) उपदेशक पुरुष को (शिक्षते) शिक्षा देता है, और (उप=उपेत्य) आदर करके (स्वम्) धन (ददाति) देता है, और (न) न (मुषायति) चुराता है, और (देवयुम्) दिव्य गुण वा विद्वानों के प्राप्त करानेवाले (रयिम्) धन को (भूयोभूयः) अधिक-अधिक (इत्) ही (वर्धयन्) बढ़ाता हुआ (अस्य) इस संसार के (अभिन्ने) अटूट (खिल्ये) कण-कण प्राप्ति के लाभ में (निदधाति) निधिरूप से रखता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - प्रतापी राजा स्वार्थ छोड़कर विद्यादानादि में धन को व्यय करता है, विद्याबल से धन बढ़ाता हुआ संसार को बहुत लाभ पहुँचाता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(इन्द्रः) राजा (यज्वने) सुयजोर्ङ्वनिप्। पा० ३।२।१०३। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-ङ्वनिप्। यज्ञकर्त्रे (गृणते) गॄ शब्दे-शतृ। उपदेशकाय जनाय (च) (शिक्षते) उपदिशति (उप) उपेत्य (इत्) अवधारणे (ददाति) सुपात्राय प्रयच्छति (न) निषेधे (स्वम्) धनम् (मुषायति) छन्दसि शायजपि। पा० ३।१।८४। इति मुष स्तेये श्नः शायच्। मुष्णाति, चोरयति (भूयोभूयो) बहुतरम् (रयिम्) धनम्, (इत्) (अस्य) संसारस्य (वर्धयन्) समर्धयन् (अभिन्ने) अच्छिन्ने। निरुपद्रवे (खिल्ये) खिल कणश आदाने-क। ततो यत्। कणश आदानस्थाने, अप्रहते देशे भवे सुरक्षिते लाभे (निदधाति) निधिरूपेण स्थापयति (देवयुम्) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। इति देव+या प्रापणे-कु। देवानां दिव्यगुणानां विदुषां वा प्रापकम् ॥
०३ न ता
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
न ता न॑शन्ति॒ न द॑भाति॒ तस्क॑रो॒ नासा॑मामि॒त्रो व्य॒थिरा द॑धर्षति।
दे॒वांश्च॒ याभि॒र्यज॑ते॒ ददा॑ति च॒ ज्योगित्ताभिः॑ सचते॒ गोप॑तिः स॒ह ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न ता न॑शन्ति॒ न द॑भाति॒ तस्क॑रो॒ नासा॑मामि॒त्रो व्य॒थिरा द॑धर्षति।
दे॒वांश्च॒ याभि॒र्यज॑ते॒ ददा॑ति च॒ ज्योगित्ताभिः॑ सचते॒ गोप॑तिः स॒ह ॥
०३ न ता ...{Loading}...
Whitney
Translation
- They shall not be lost; no thief shall harm [them]; no hostile
[person] shall dare attack their track (?); with whom he both
sacrifices to the gods and gives, long verily with them does the
kine-lord go in company.
Notes
Both the other texts* accent vyáthis in b, as does one of our
mss. (O.), and one of SPP’s. Before this word TB. has nāí ’nā amitró.
The comm. explains vyathis as vyathājanakam āyudham. The pāda is
very obscure as it stands. ⌊An earlier draft of the translator’s ms.
reads: “Naśanti, by its association, and its difference from
naśyanti, must be meant as subjunctive (aor.), notwithstanding its
ending.” I am tempted to suggest ná tā́ naśan; tā́ (acc. pl. fem.) ná
dabhāti táskaras.—BR., vi. 1438, take vyáthis as ‘unbemerkt von,’
with genitive, āsām. But see Geldner’s discussion of the combinations
of vyáthis with ā-dhṛṣ, Ved. Stud. ii. 29.—Note that TB’s ămitró
(both ed’s read so in the text and both have ă- in the comm.) is
neither amítro nor āmitró. *⌊In TB., the pratīkas of vss. 3 and 4
stand in RV. order at ii. 8. 8¹¹; but the vss. are given in full at ii.
4. 6⁹.⌋
Griffith
These are ne’er lost, no robber ever injures them: no evil-minded foe attempts to harass them. The master of the kine lives a long life with these, the Cows whereby he pours his gifts and serves the Gods.
पदपाठः
न। ताः। न॒श॒न्ति॒। न। द॒भा॒ति॒। तस्क॑रः। न। आ॒सा॒म्। आ॒मि॒त्रः। व्य॒थिः। आ। द॒ध॒र्ष॒ति॒। दे॒वान्। च॒। याभिः॑। यज॑ते। ददा॑ति। च॒। ज्योक्। इत्। ताभिः॑। स॒च॒ते॒। गोऽप॑तिः। स॒ह। २१.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गोसमूहः
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- गोसमूह सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ताः) वे [विद्यायें] (न) नहीं (नशन्ति) नष्ट होती हैं, (न) न [उन्हें] (तस्करः) चोर (दभाति) ठगता है, (न) न (आमित्रः) पीड़ा देनेवाला (व्यथिः) व्यथाकारी शत्रु (आसाम्) इनकी (आ दधर्षति) हंसी उड़ाता है। (च) और (गोपतिः) विद्याओं का स्वामी, वाचस्पति (याभिः) जिन [विद्याओं] से (देवान्) दिव्य गुणों को (यजते) पूजता (च) और (ददाति) देता है, (ताभिः सह) उन [विद्याओं] के साथ (ज्योक् इत्) बहुत ही काल तक वह (सचते) मिला रहता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्या अक्षय कोश है। जो मनुष्य विद्याओं को सत्कारपूर्वक ग्रहण करके संसार में फैलाता है। वह यशस्वी होकर सदा आनन्द भोगता है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(न) नहि (ताः) गावः। विद्याः (नशन्ति) णश अदर्शने, श्यनः शप्। नश्यन्ति (दभाति) दम्भु दम्भे=वञ्चने, छान्दसं रूपम्। दम्भयति दभ्नोति वञ्चति ताः तस्करः अ० ४।३।२। उपतापकरः। चोरः (आसाम्) गवाम्। विद्यानाम् (आमित्रः) अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति आङ्+अम पीडने-इत्रच्। आ समन्ताद् आमयति पीडयतीति सः। शत्रुः (व्यथिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति व्यथ भयसंचलनयोः-इन्। व्यथाजनको दुष्टः (आ दधर्षति) धृष प्रहसने। आधर्षति आधर्षणं प्रहसनं तिरस्कारं करोति (देवान्) दिव्यगुणान् (च) (याभिः) गोभिः। विद्याभिः (यजते) पूजयति (ददाति) प्रयच्छति (च) (ज्योक्) निरन्तरम् (इत्) (ताभिः) गोभिः। विद्याभिः (सचते) समवैति (गोपतिः) गवां विद्यानां स्वामी। वाचस्पतिः (सह) सहितः ॥
०४ न ता
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
न ता अर्वा॑ रे॒णुक॑काटोऽश्नुते॒ न सं॑स्कृत॒त्रमुप॑ यन्ति॒ ता अ॒भि।
उ॑रुगा॒यमभ॑यं॒ तस्य॒ ता अनु॒ गावो॒ मर्त॑स्य॒ वि च॑रन्ति॒ यज्व॑नः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
न ता अर्वा॑ रे॒णुक॑काटोऽश्नुते॒ न सं॑स्कृत॒त्रमुप॑ यन्ति॒ ता अ॒भि।
उ॑रुगा॒यमभ॑यं॒ तस्य॒ ता अनु॒ गावो॒ मर्त॑स्य॒ वि च॑रन्ति॒ यज्व॑नः ॥
०४ न ता ...{Loading}...
Whitney
Translation
- No dust-raising horseman (? árvan) reaches them; not unto the
slaughter-house (?) do they go; those kine of that sacrificing mortal
roam over wide-going fearlessness.
Notes
RV. differs only by retaining the a of aśnute in a, as do one or
two of our mss. (O.K.) and half of SPP’s; and its pada-text divides
saṁskṛta॰tra in b, while the AV. pada-mss. (except our Op.)
leave the word undivided (by an oversight, the AV. Index Verborum
gives the RV. form). The comm. explains arvā by hiṅsako vyāghrādiḥ,
and -kakāṭa by udbhedaka; also saṁskṛtatra by māṅsapācaka
(because viśasitaṁ trāyate pālayati), quoting from an unknown source
the line saṁskṛtaḥ syād viśasitaḥ saṁskṛtatraś ca pācakaḥ. The comment
to Prāt. ⌊iv. 58⌋ makes the word come from the root kṛ. TB. ⌊also
retains the a of aśnute and it⌋ has in d mártyasya. In our
printed text, the upper accent-mark in reṇúkakāṭo is over the wrong
k.
Griffith
The charger with his dusty brow o’ertakes them not, and never to the shambles do they take their way. These Cows, the cattle of the pious worshipper, roam over wide- spread pasture where no danger is.
पदपाठः
न। ताः। अर्वा॑। रे॒णुक॑ऽकाटः। अ॒श्नु॒ते॒। न। सं॒स्कृ॒त॒त्रम्। उप॑। य॒न्ति॒। ताः। अ॒भि। उ॒रु॒ऽगा॒यम्। अभ॑यम्। तस्य॑। ताः। अनु॑। गावः॑। मर्त॑स्य। वि। च॒र॒न्ति॒। यज्व॑नः। २१.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गोसमूहः
- ब्रह्मा
- जगती
- गोसमूह सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (न) न तो (अर्वा) घोड़े के समान विषयासक्त, अथवा हिंसक पुरुष, और (न) न (रेणुककाटः) धूलि के कुएँ के समान गिर जानेवाला मनुष्य (ताः) जन [विद्याओं] को (अश्नुते) पाता है। (ताः) वे विद्याएँ (संस्कृतत्रम्) संस्कृत [शुद्ध] विद्याओं के रक्षक जन को (अभि) सब ओर से (उप यन्ति) आती हैं। (ताः गावः) वे विद्याएँ (तस्य) उस (यज्वनः) देवताओं के पूजनेवाले (मर्त्तस्य) मनुष्य के (उरुगायम्) बड़े प्रशंसनीय (अभयम्) निर्भय राज्य में (अनु) अनुकूलता से (विचरन्ति) विचरती हैं ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विषयी, अदृढ़स्वभाव, दुष्ट जन विद्या के उत्तम फल को नहीं पा सकते हैं। जितेन्द्रिय, विद्वानों के सत्कार करनेवाले राजा सुरक्षित राज्य में अनेक उत्तम विद्याएँ उन्नति को प्राप्त होती हैं ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(न) निषेधे (ताः) गाः। वाचः। विद्याः (अर्वा) अवद्यावमाधमार्वरेफाः कुत्सिते। उ० ५।५४। इति ऋ गतौ हिंसायां च-वन्। अर्वा, अश्वनाम-निघ० १।१४। अर्वेरणवान्-निरु० १०।३१। निकृष्टप्रतिकृष्टार्वरेफ०। इत्यमरः−२१।५४। ऋच्छति मार्गम्, ऋणोत्यन्यान्। अश्व इव विषयासक्तो हिंसको वा कुत्सितः पुरुषः (रेणुककाटः) रेणु+क+काटः। अजिवृरीभ्यो निच्च। उ० ३।३८। इति री गतिरेषणयोः-नु। इति रेणुः। कटे वर्षावरणयोः-घञ्। कस्य जलस्य काटो वर्षणं सेचनं यस्मात् स ककाटः कूपः। धूलिकूप इव पतनस्वभावः (अश्नुते) प्राप्नोति (संस्कृतत्रम्) संस्कृत+त्रैङ् रक्षणे-क। संस्कृतानां देववाणीनां शोभनविद्यानां रक्षकम् (उपयन्ति) आगच्छन्ति प्राप्नुवन्ति (अभि) आभिमुख्येन (उरुगावम्) अ० २।१२।१। बहुप्रशंसनीयम् (अभयम्) निर्भयं राज्यम् (तस्य) विद्यारक्षकस्य (ताः) (अनु) अनुकूलतया (गावः) विद्याः (मर्तस्य) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति मृङ् प्राणत्यागे-तन्। मारयति दोषान् स मर्तः। मनुष्यस्य (विचरन्ति) विविधं गच्छन्ति (यज्वनः) म० २। याजकस्य। देवपूजकस्य ॥
०५ गावो भगो
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गावो॒ भगो॒ गाव॒ इन्द्रो॑ म इछा॒द्गावः॒ सोम॑स्य प्रथ॒मस्य॑ भ॒क्षः।
इ॒मा या गावः॒ स ज॑नास॒ इन्द्र॑ इ॒च्छामि॑ हृ॒दा मन॑सा चि॒दिन्द्र॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
गावो॒ भगो॒ गाव॒ इन्द्रो॑ म इछा॒द्गावः॒ सोम॑स्य प्रथ॒मस्य॑ भ॒क्षः।
इ॒मा या गावः॒ स ज॑नास॒ इन्द्र॑ इ॒च्छामि॑ हृ॒दा मन॑सा चि॒दिन्द्र॑म् ॥
०५ गावो भगो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The kine [are] Bhaga; Indra has seemed to me the kine; the kine
[are] the draught of first soma; these kine—that, O people, [is]
Indra; with whatever heart [and] mind I seek Indra.
Notes
The translation implies in a the RV. reading achān, of which our
ichāt seems merely an unintelligent and unintelligible corruption; TB.
has instead acchāt, and our O.K. give the same. Both the other texts
add íd after ichā́mi in d. The comm. translates in a “may
Indra desire that there be kine for me.” ⌊The latter part of c is of
course the well-known refrain of RV. ii. 12.⌋
Griffith
To me the Cows seem Bhaga, they seem Indra, they seem a portion of the first poured Soma. These present Cows, they, O ye men, are Indra. I long for Indra with my heart and spirit.
पदपाठः
गावः॑। भगः॑। गावः॑। इन्द्रः॑। मे॒। इ॒च्छा॒त्। गावः॑। सोम॑स्य। प्र॒थ॒मस्य॑। भ॒क्षः। इ॒माः। याः। गावः॑। सः। ज॒ना॒सः॒। इन्द्रः॑। इ॒च्छामि॑। हृ॒दा। मन॑सा। चि॒त्। इन्द्र॑म्। २१.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गोसमूहः
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- गोसमूह सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गावः) विद्याएँ ही (भगः) धन हैं, (गावः) विद्याएँ (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य हैं, (गावः) विद्याएँ (प्रथमस्य) अति श्रेष्ठ (सोमस्य) सोमरस अर्थात् अमृत वा मोक्ष का (भक्षः) सेवन हैं, [इति] (मे इच्छात्) [यह] मेरी इच्छा हो। (जनासः) हे मनुष्यो ! (इमाः) ये (याः) जो (गावः) विद्याएँ हैं, (सः) सो ही (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य हैं। (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य की (चित्) ही (हृदा) हृदय अर्थात् आत्मा और (मनसा) विज्ञान के साथ (इच्छामि) मैं चाह करता हूँ ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्याओं को धन, ऐश्वर्य और मोक्ष का मुख्य साधन जानकर पूर्ण श्रद्धा से प्राप्त करें ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(गावः) वाचः। विद्याः (भगः) भजनीयं धनम्-निघ० २।१०। (इन्द्रः) परमैश्वर्यं सन्ति (मे) मम (इच्छात्) इषु इच्छायां लेटि आडागमः। इच्छा भवेत्-इति (सोमस्य) ऐश्वर्यवतो अमृतस्य मोक्षस्य (प्रथमस्य) अतिश्रेष्ठस्य (भक्षः) वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२। इति भज सेवने-स। सेवनम्। भोगः (इमाः) (याः) (वाचः) (सः) स एव (इन्द्रः) ऐश्वर्यम् (जनासः) हे जनाः। विद्वांसः (इच्छामि) अहं कामये (हृदा) हृदयेन। आत्मना (मनसा) विज्ञानेन (चित्) अपि। एव (इन्द्रम्) विद्यारूपम् ऐश्वर्यम् ॥
०६ यूयं गावो
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यू॒यं गा॑वो मेदयथा कृ॒शं चि॑दश्री॒रं चि॑त्कृणुथा सु॒प्रती॑कम्।
भ॒द्रं गृ॒हं कृ॑णुथ भद्रवाचो बृ॒हद्वो॒ वय॑ उच्यते स॒भासु॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यू॒यं गा॑वो मेदयथा कृ॒शं चि॑दश्री॒रं चि॑त्कृणुथा सु॒प्रती॑कम्।
भ॒द्रं गृ॒हं कृ॑णुथ भद्रवाचो बृ॒हद्वो॒ वय॑ उच्यते स॒भासु॑ ॥
०६ यूयं गावो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Ye, O kine, fatten whoever is lean; the unlovely (aśrīrá) one ye
make of good aspect; ye make the house excellent, O ye of excellent
voice; great is your vigor (váyas) called in the assemblies (sabhā́).
Notes
The RV. version agrees at all points with ours; TB. accents kṛ́śam in
a and has aślīlā́m in b (its kṛṇuthāt is a misprint, as its
commentary shows). The comm. reads kṛṇuta in c; sabhāsu in d
he paraphrases with janasamūheṣu.
Griffith
O Cows, ye fatten e’en the worn and wasted, and make the unlovely beautiful to look on. Prosper my home, ye with auspicious voices! Your power is magnified in our assemblies.
पदपाठः
यू॒यम्। गा॒वः। मे॒द॒य॒थ॒। कृ॒शन्। चि॒त्। अ॒श्री॒रम्। चि॒त्। कृ॒णु॒थ॒। सु॒ऽप्रती॑कम्। भ॒द्रम्। गृ॒हम्। कृ॒णु॒थ॒। भ॒द्र॒ऽवा॒चः॒। बृ॒हत्। वः॒। वयः॑। उ॒च्य॒ते॒। स॒भासु॑। २१.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गोसमूहः
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- गोसमूह सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गावः) हे विद्याओ ! (यूयम्) तुम (कृशम्) दुर्बल से (चित्) भी, (अश्रीरम्) श्रीरहित निर्धन से (चित्) भी (मेदयथ) स्नेह करती हो और (सुप्रतीकम्) बड़ी प्रतीतिवाला वा बड़े रूपवाला (कृणुथ) बना देती हो। (भद्रवाचः) हे कल्याणी विद्याओ ! (गृहम्) घर को (भद्रम्) मङ्गलमय (कृणुथ) कर देती हो, (सभासु) विद्वानों से प्रकाशमान सभाओं में (वः) तुम्हारा ही (वयः) बल (बृहत्) बड़ा (उच्यते) बखाना जाता है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्या से दुर्बल मनुष्य सबल, और निर्धन बड़ा विश्वासी और रूपवान् होता है, विद्वानों के घर में सदा आनन्द रहता, और विद्वानों की ही राज सभा और पंचायतों में बड़ाई होती है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(यूयम्) (गावः) हे विद्याः (मेदयथ) ञिमिदा स्नेहने-णिच्। स्नेहयथ। आप्याययथ (कृशम्) अनुपसर्गात् फुल्लक्षीबकृशोल्लाघाः। पा० ८।२।५५। इति कृश तनूकरणे-क्तप्रत्ययान्तो निपात्यते। क्षीणं निर्बलम् (चित्) अपि (अश्रीरम्) रो मत्वर्थीयः। अश्रीयुक्तम्। निर्धनम्। अमङ्गलम् (कृणुथ) कुरुथ (सुप्रतीकम्) अलीकादयश्च। उ० ४।२५। इति सु+प्र+इण् गतौ-कीकन्, धातोस्तुट्च। शोभनप्रतीतिवन्तम्। शोभनावयवम्। सुरूपम् (भद्रम्) कल्याणकरम् (गृहम्) गेहम् (भद्रवाचः) हे शोभना वाचो विद्याः (बृहत्) महत् (वः) युष्माकम् (वयः) अ० २।१०।३। यौवनम्। बलम् (उच्यते) प्रशस्यते। (सभासु) सह+भा दीप्तौ-अङ्, टाप्, सहस्य सः। विद्वद्भिः प्रकाशमानासु परिषत्सु ॥
०७ प्रजावतीः सूयवसे
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र॒जाव॑तीः सू॒यव॑से रु॒शन्तीः॑ शु॒द्धा अ॒पः सु॑प्रपा॒णे पिब॑न्तीः।
मा व॑ स्ते॒न ई॑शत॒ माघशं॑सः॒ परि॑ वो रु॒द्रस्य॑ हे॒तिर्वृ॑णक्तु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्र॒जाव॑तीः सू॒यव॑से रु॒शन्तीः॑ शु॒द्धा अ॒पः सु॑प्रपा॒णे पिब॑न्तीः।
मा व॑ स्ते॒न ई॑शत॒ माघशं॑सः॒ परि॑ वो रु॒द्रस्य॑ हे॒तिर्वृ॑णक्तु ॥
०७ प्रजावतीः सूयवसे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Rich in progeny, shining in good pasture, drinking clear waters at a
good watering-place—let not the thief master you, nor the evil-plotter;
let Rudra’s weapon avoid you.
Notes
The translation of a follows our text, though the false accent
ruśántīs (TB. has the same reading) shows that the word is only a
corruption of the RV. reading riśántīs ‘cropping, grazing.’ The comm.,
though reading ruśantīs, renders it tṛṇam bhakṣayantīs. ⌊The TB.
comm. in both ed’s reads riśantīs.⌋ Both the other texts have in a
sūyávasam, and at the end hetī́ rudrásya vṛjyāḥ (TB. vṛñjyāt). With
our c, d compare also TS. i. 1. 1 (differing only in the order of
words in d ⌊rudrásya hetíḥ pári vo vṛṇaktu, which is metrically
much better than our AV. order, albeit the RV. order is as good as that
of TS. if we pronounce rudṛ-ásya⌋). The comm. supplies to aghaśaṅsas
in c vyāghrādir duṣṭamṛgaḥ. ⌊For īśata, see Skt. Gram. §615.⌋
Griffith
In goodly pasturage, bright-hued, prolific, drinking pure water at fair drinking-places, Never be thief or sinful man your master, and may the dart of Rudra still avoid you!
पदपाठः
प्र॒जाऽव॑तीः। सु॒ऽयव॑से। रु॒शन्तीः॑। शु॒ध्दाः। अ॒पः। सु॒ऽप्र॒पा॒ने। पिब॑न्तीः। मा। वः॒। स्ते॒नः। ई॒श॒त॒। मा। अ॒घऽशं॑सः। परि॑। वः॒। रु॒द्रस्य॑। हे॒तिः। वृ॒ण॒क्तु॒। २१.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गोसमूहः
- ब्रह्मा
- त्रिष्टुप्
- गोसमूह सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यप्रजाओ !] (प्रजावतीः) उत्तम सन्तानवाली, (सुयवसे) सुन्दर यव आदि अन्नवाले [घर] में [अन्न] (रुशन्तीः) खाती हुईं, और (सुप्रपाणे) सुन्दर जलस्थान में (शुद्धाः) शुद्ध (अपः) जलोंको (पिबन्तीः) पीती हुईं (वः) तुमको (स्तेनः) चोर (मा ईशत) वश में न करे, और (मा) न (अघशंसः) बुरा चीतनेवाला, डाकू उचक्का आदि [वश में करे]। (रुद्रस्य) पीड़ानाशक परमेश्वर की (हेतिः) हननशक्ति (वः) तुमको (परि) सब ओर से (वृणक्तु) त्यागे रहे ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्याएँ उपार्जन करके अपनी सन्तानों को उत्तम शिक्षा देते हुए और अन्न जल आदि का सुप्रबन्ध करते हुए सदा हृष्ट पुष्ट बुद्धिमान् और धर्मिष्ठ रहें, जिससे उन्हें न चोर आदि सता सके और न परमेश्वर दण्ड देवे ॥७॥ (मा व स्तेन इति) यह पाद य० १।१ और (परि वो रुद्रस्येति) यह पाद य० १६।५०। में है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(प्रजावतीः) उत्तमसन्तानयुक्ताः [हे प्रजाः-इति शेषः] (सुयवसे) अत्यविचमि०। उ० ३।११७। इति सु+यु मिश्रणामिश्रणयोः-असच्। शोभनानि यवाद्यन्नानि यस्मिन् तस्मिन् गृहे (रुशन्तीः) रुश हिंसायाम्-शतृ। अन्नं भक्षयन्तीः (शुद्धाः) निर्मलाः (अपः) जलानि (सुप्रपाणे) सुन्दरे जलपानस्थाने (पिबन्तीः) पानं कुर्वतीः (वः) युष्मान् (स्तेनः) चोरः (व स्तेन) खर्परे शरि वा लोपो वक्तव्यः। वा० पा० ८।३।३६। इति विसर्गलोपः। (मा ईशत) मा ईशिष्ट। अधिकारे वशे न करोतु (मा) मा ईशत (अघशंसः) अघ पापकरणे-पचाद्यच्, शसि इच्छायाम्-अच्। अघं पापं शंसति इच्छतीति यः। अनिष्टचिन्तकः (परि) सर्वतः (वः) युष्मान् (रुद्रस्य) रुद्+रस्य। रुदिर् अश्रुविमोचने-क्विप, इति रुत् पीडा। रुङ् गतिहिंसनयोः-ड। रुदं पीडां रवते नाशयतीति रुद्रः, तस्य दुःखनाशकस्य परमेश्वरस्य (हेतिः) ऊतियूतिजूति०। पा० ३।३।९७। इति हन वधे क्तिन्। हन्यते ताड्यते अनया। हननशक्तिः (वृणक्तु) वृजी वर्जने। वर्जयतु। त्यजतु ॥