०२८ पशुपोषणम्

०२८ पशुपोषणम् ...{Loading}...

Whitney subject
  1. To avert the ill omen of a twinning animal.
VH anukramaṇī

पशुपोषणम्।
१-६ ब्रह्मा। यमिनी। अनुष्टुप्, १ अतिशक्वरीगर्भा चतुष्पदातिजगती, ४ यवमध्या विराट् ककुप्, ५ त्रिष्टुप्, ६ विराड्गर्भा प्रस्तारपङ्क्तिः।

Whitney anukramaṇī

[Brahman (paśupoṣaṇāya).—yāminyam. ānuṣṭubham: 1. atiśakvarīgarbhā 4-p. atijagatī; 4. yavamadhyā virāṭkakubh; 5. triṣṭubh; 6. virāḍgarbhā prastārapan̄kti.]

Whitney

Comment

Not found in Pāipp. Used by Kāuś., in the chapter of portents, in the ceremonies of expiation for the birth of twins from kine, mares or asses, and human beings (109. 5; 110. 4; 111. 5).

Translations

Translated: Weber, xvii. 297; Griffith, i. 122; Bloomfield, 145, 359.

०१ एकैकयैषा सृष्ट्या

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

एकै॑कयै॒षा सृष्ट्या॒ सं ब॑भूव॒ यत्र॒ गा असृ॑जन्त भूत॒कृतो॑ वि॒श्वरू॑पाः।
यत्र॑ वि॒जाय॑ते य॒मिन्य॑प॒र्तुः सा प॒शून्क्षि॑णाति रिफ॒ती रुश॑ती ॥

०१ एकैकयैषा सृष्ट्या ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. She herself came into being by a one-by-one creation, where the
    being-makers created the kine of all forms; where the twinning [cow]
    gives birth, out of season, she destroys the cattle, snarling, angry.
Notes

The translation implies emendation of rúśatī at the end to rúṣyatī
or ruṣatī́ ⌊rather rúṣyatī, so as to give a jagatī cadence⌋—which,
considering the not infrequent confusion of the sibilants, especially
the palatal and lingual, in our text and its mss., and the loss of y
after a sibilant, is naturally suggested ⌊cf. iv. 16. 6^(b)⌋. The comm.
makes a yet easier thing of taking rúśatī from a root ruś ‘injure,’
but we have no such root. Some of our mss. (P.M.W.E.) read eṣā́m in
a, and two (P.O.) have sṛ́ṣṭvā.* The comm. understands sṛṣṭis
with eṣā in a, and explains ekāikayā by ekāikavyaktyā. Perhaps
we should emend to ékāí ’kayā ‘one [creature] by one [act of]
creation’ ⌊and reject eṣā́?, as the meter demands⌋. See Weber’s notes
for the comparison of popular views as to the birth of twins, more
generally regarded as of good omen. The Anukr. apparently counts 11
⌊13?⌋ + 15: 12 + 12 = 50 ⌊52?⌋ syllables; either bhūtakṛ́tas or
viśvárupās could well enough be spared out of b ⌊better the
former; but it is bad meter at best⌋. *⌊Shown by accent to be a blunder
for sṛ́ṣṭyā, not sṛṣṭvā.⌋

Griffith

एकै॑कयै॒षा सृष्ट्या॒ सं ब॑भूव॒ यत्र॒ गा असृ॑जन्त भूत॒कृतो॑ वि॒श्वरू॑पाः ।
यत्र॑ वि॒जाय॑ते य॒मिन्य॑प॒र्तुः सा प॒शून् क्षि॑णाति रिफ॒ती रुश॑ती ॥१॥

पदपाठः

एक॑ऽएकया। ए॒षा। सृष्ट्या॑। सम्। ब॒भू॒व॒। यत्र॑। गाः। असृ॑जन्त। भू॒त॒ऽकृतः॑। वि॒श्वऽरू॑पाः। यत्र॑। वि॒ऽजाय॑ते। य॒मिनी॑। अ॒प॒ऽऋ॒तुः। सा। प॒शून्। क्षि॒णा॒ति॒। रि॒फ॒ती। रुश॑ती। २८.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यमिनी
  • ब्रह्मा
  • अतिशक्वरीगर्भा चतुष्पदातिजगती
  • पशुपोषण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

उत्तम नियम से सुख होता है।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (एषा) यह [साधारणी सृष्टि] (एकैकया) एक एक (सृष्ट्या) सृष्टि [सृष्टि के परमाणु] से (सम्=संभूय) मिलकर (बभूव) हुई है, (यत्र) जिसमें (भूतकृतः) पृथ्वी आदि भूतों से बनानेवाले (विश्वरूपाः) नाना रूपवाले [ईश्वर गुणों] ने (गाः) भूमि, सूर्य आदि लोकों को (असृजन्त) सृजा है। (यत्र) जहाँ पर (यमिनी) उत्तम नियमवाली [बुद्धि] (अपर्तुः) ऋतु अर्थात् क्रम वा व्यवस्था से विरुद्ध (विजायते) हो जाती है [वहाँ] (सा) वह [व्यवस्था विरुद्ध बुद्धि] (रिफती) पीड़ा देती हुई और (रुशती) सताती हुई (पशून्) व्यक्त वाणीवाले और अव्यक्त वाणीवाले जीवों को (क्षिणाति) नष्ट कर देती है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ईश्वर ने अपनी सर्वशक्तिमत्ता से एक-एक परमाणु के संयोग से नियमानुसार यह इतनी बड़ी सृष्टि रची है। जो प्राणी ईश्वरीय नियम तोड़ता है, वह दुःख उठाता है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(एकैकया) भिन्नभिन्नया। व्यष्टिरूपया (सृष्ट्या) सृज विसर्गे-क्तिन्। सृजमानया (एषा) समष्टिरूपा सृष्टिः (सम्) संभूय (यत्र) यस्मिन् स्थाने। (गाः) गौः, पृथिवी-निघ० १।१। गौरिति पृथिव्या नामधेयं यद् दूरङ्गता भवति यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति-निरु० २।५। गौरित्यादित्यो भवति गमयति रसान् गच्छत्यन्तरिक्षे-निरु० २।१४। भूमिसूर्यादीन् लोकान् (असृजन्त) उदपादयन् (भूतकृतः) डुकृञ् करणे-क्विप्। पृथिवीजलतेजोवायुगमनभूतैर्निर्मातारः (विश्वरूपाः) नानारूपाः परमेश्वरगुणाः (विजायते) विविधं प्रादुर्भवति। (यमिनी) अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति यम-इनि। ऋन्नेभ्यो ङीप्। पा० ४।१।५। इति ङीप्। भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने। संबन्धेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः। वा० पा० ५।२।९४। प्रशस्तव्रतयुक्ता, सृष्टिः प्रजा बुद्धिर्वा (अपर्तुः) अपगतो वर्जित ऋतुर्नियमितकालः क्रमो व्यवस्था यस्याः सा तथाभूता (सा) अपर्तुर्बुद्धिः (पशून्) पशवो व्यक्तवाचश्चाप्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९। मनुष्यगवादीन् जीवान् (क्षिणाति) क्षि हिंसायाम्। नाशयति। (रिफनी) रिफ हिंसायाम्-शतृ। पीडां कुर्वती (रुशती) रुश हिंसायाम्-शतृ। दुःखं प्रापयन्ती ॥

०२ एषा पशून्त्सम्

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ए॒षा प॒शून्त्सं क्षि॑णाति क्र॒व्याद्भू॒त्वा व्यद्व॑री।
उ॒तैनां॑ ब्र॒ह्मणे॑ दद्या॒त्तथा॑ स्यो॒ना शि॒वा स्या॑त् ॥

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Whitney
Translation
  1. She quite destroys the cattle, becoming a flesh-eater, devourer (?
    vy-ádvarī); also one should give her to a priest (brahmán); so would
    she be pleasant, propitious.
Notes

The pada-text divides vi॰ádvarī, evidently taking the word from root
ad ’eat’; the Pet. Lex. suggests emendation to vyádhvarī, from
vyadh ‘pierce.’ The comm. reads vyadhvarī, but he defines it first
as coming from adhvan, and meaning “possessed of bad roads, that cause
unhappiness,” or, second, as from adhvara, and signifying “having
magical sacrifices, that give obstructed fruit”! ⌊See note to vi. 50. 3,
where W. corrects the text to vyadvará: accent of masc. and fem.,
Gram. § 1171 a, b.⌋

Griffith

ए॒षा प॒शून्त्सं क्षि॑णाति क्र॒व्याद् भू॒त्वा व्यद्व॑री ।
उ॒तैनां॑ ब्र॒ह्मणे॑ दद्या॒त् तथा॑ स्यो॒ना शि॒वा स्या॑त्॥२॥

पदपाठः

ए॒षा। प॒शून्। सम्। क्षि॒णा॒ति॒। क्र॒व्य॒ऽअत्। भू॒त्वा। वि॒ऽअद्व॑री। उ॒त। ए॒ना॒म्। ब्र॒ह्मणे॑। द॒द्या॒त्। तथा॑। स्यो॒ना। शि॒वा। स्या॒त्। २८.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यमिनी
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • पशुपोषण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

उत्तम नियम से सुख होता है।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (एषा) यह [व्यवस्था विरुद्ध बुद्धि] (क्रव्याद्) मांस खानेवाली और (व्यद्वरी) अनेक विधि से भक्षणशीला (भूत्वा) होकर (पशून्) दो पाए और चौपाये जीवों को (संक्षिणाति) सर्वथा नष्ट करती है। (उत) इस लिये (एनाम्) इस [अनिष्ट बुद्धि को] (ब्रह्मणे) ब्रह्म [ईश्वर, वेद, वा ब्राह्मण को] (दद्यात्) वह सौंपे, (तथा) तो वह (स्योना) सुखदायिनी और (शिवा) कल्याणी (स्यात्) हो जावे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - कुबुद्धि पापी मनुष्य परमात्मा वा वेद वा उत्तम विद्वान् की शरण लेकर उत्तम कर्म करने से सुधर जाता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(एषा) अपर्तुर्बुद्धिः (पशून्) द्विपदश्चतुष्पदः प्राणिनः (संक्षिणाति) सर्वथा नाशयति (क्रव्याद्) अ० २।२५।५। मांसभक्षिका (व्यद्वरी) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति वि+अद भक्षणे-वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। विविधं भक्षणशीला (उत) एवंविधे। (एनाम्) अपर्तुं बुद्धिम् (ब्रह्मणे) ईश्वरस्य वेदस्य ब्राह्मणस्य वा शरणाय। (दद्यात्) समर्पयेत् (तथा) तेन प्रकारेण (स्योना) अ० १।३३।१। सुखकरी। (शिवा) कल्याणी। (स्यात्) भवेत् ॥

०३ शिवा भव

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शि॒वा भ॑व॒ पुरु॑षेभ्यो॒ गोभ्यो॒ अश्वे॑भ्यः शि॒वा।
शि॒वास्मै सर्व॑स्मै॒ क्षेत्रा॑य शि॒वा न॑ इ॒हैधि॑ ॥

०३ शिवा भव ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Be thou propitious to men (púruṣa), propitious to kine, to horses,
    propitious to all this field (kṣétra); be propitious to us here.
Notes

‘Field’ seems taken here in a general sense, and might be rendered
‘farm.’ The Anukr. takes no notice of the irregularities in c and
d, probably because they balance each other.

Griffith

शि॒वा भ॑व॒ पुरु॑षेभ्यो॒ गोभ्यो॒ अश्वे॑भ्यः शि॒वा।
शि॒वास्मै सर्व॑स्मै॒ क्षेत्रा॑य शि॒वा न॑ इ॒हैधि॑ ॥३॥

पदपाठः

शि॒वा। भ॒व॒। पुरु॑षेभ्यः। गोभ्यः॑। अश्वे॑भ्यः। शि॒वा। शि॒वा। अ॒स्मै। सर्व॑स्मै। क्षेत्रा॑य। शि॒वा। नः॒। इ॒ह। ए॒धि॒। २८.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यमिनी
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • पशुपोषण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

उत्तम नियम से सुख होता है।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हे यमिनि) उत्तम नियमवाली बुद्धि ! (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये (शिवा) कल्याणी और (गोभ्यः) गौओं को और (अश्वेभ्यः) घोड़ों को (शिवा) कल्याणी (भव) हो, (इह) यहाँ (अस्मै सर्वस्मै क्षेत्राय) इस सब खेत को (शिवा) कल्याणी और (नः) हमको (शिवा) कल्याणी (एधि) हो ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य ईश्वर ज्ञान से उत्तम बुद्धि पाकर सब संसार को सुखदायी होता है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(क्षेत्राय) अ० २।८।५। शालिगोधूमादिकेदारवर्धनाय (एधि) अस्तेर्लोटि रूपम्। भव। अन्यत् स्पष्ठम् ॥

०४ इह पुष्टिरिह

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इ॒ह पुष्टि॑रि॒ह रस॑ इ॒ह स॑हस्र॒सात॑मा भव।
प॒शून्य॑मिनि पोषय ॥

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Whitney
Translation
  1. Here prosperity, here sap—here be thou best winner of a thousand;
    make the cattle prosper, O twinning one.
Notes

The comm. supplies bhavatu to the first pāda. All the mss. agree in
giving the false accent sahásrasātamā in b; it should be
sahasrasā́tamā—or, to rectify the meter, simply -sā́. It
pada-division, sahásra॰sātama is prescribed by the text of Prāt. iv.
45. Kakubh properly has no need of the adjunct yavamadhyā; it is
very seldom used by our Anukr. as name of a whole verse ⌊8 + 12: 8⌋.

Griffith

इ॒ह पुष्टि॑रि॒ह रस॑ इ॒ह स॒हस्र॑सातमा भव । प॒शून् य॑मिनि पोषय ॥४॥

पदपाठः

इ॒ह। पुष्टिः॑। इ॒ह। रसः॑। इ॒ह। स॒ह॒स्र॒ऽसात॑मा। भ॒व॒। प॒शून्। य॒मि॒नि॒। पो॒ष॒य॒। २८.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यमिनी
  • ब्रह्मा
  • यवमध्या विराट्ककुप्
  • पशुपोषण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

उत्तम नियम से सुख होता है।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) यहाँ पर (पुष्टिः) पुष्टि, और (इह) यहाँ पर ही (रसः) रस होवे। (यमिनि) हे उत्तम नियमवाली बुद्धि ! (इह) यहाँ पर (सहस्रसातमा) अत्यन्त करके सहस्रों प्रकार से धन देनेवाली (भव) हो, और (पशून्) व्यक्त और अव्यक्त वाणीवाले जीवों को (पोषय) पुष्ट कर ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - उत्तम नियम युक्त बुद्धि से मनुष्य अनेक प्रकार की वृद्धि और दूध, घी, आदि रस और बहुत सा धन पाकर सब जीवों की रक्षा करता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(पुष्टिः) वृद्धिः। समृद्धिः (रसः) क्षीरदुग्धादिरूपः (सहस्रसातमा) जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति सहस्र+षणु दाने-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। प० ६।४।४१। इति आत्त्वम्। अतिशायने तमबिष्ठनौ। प० ५।३।५५। इति तमप्। टाप्। अतिशयेन सहस्रधनस्य दात्री (पोषय) समेधय। अन्यद् व्याख्यातं म० १ ॥

०५ यत्रा सुहार्दः

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यत्रा॑ सु॒हार्दः॑ सु॒कृतो॒ मद॑न्ति वि॒हाय॒ रोगं॑ त॒न्वः१॒॑ स्वायाः॑।
तं लो॒कं य॒मिन्य॑भि॒संब॑भूव॒ सा नो॒ मा हिं॑सी॒त्पुरु॑षान्प॒शूंश्च॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. Where the good-hearted [and] well-doing revel, quitting disease of
    their own body—into that world hath the twinning one come into being;
    let her not injure our men and cattle.
Notes

The first half-verse is also that of vi. 120. 3 (which occurs further in
TA.). Some of SPP’s mss. write in b tanvā̀s, protracting the
kampa-syllable.

Griffith

यत्रा॑ सु॒हार्दः॑ सु॒कृतो॒ मद॑न्ति वि॒हाय॒ रोगं॑ त॒न्व॑१ स्वायाः॑ ।
तं लो॒कं य॒मिन्य॑भि॒संब॑भूव॒ सा नो॒ मा हिं॑सी॒त् पुरु॑षान् प॒शूंश्च॑ ॥५॥

पदपाठः

यत्र॑। सु॒ऽहार्दः॑। सु॒ऽकृतः॑। मद॑न्ति। वि॒ऽहाय॑। रोग॑म्। त॒न्वः᳡। स्वायाः॑। तम्। लो॒कम्। य॒मिनी॑। अ॒भि॒ऽसंब॑भूव। सा। नः॒। मा। हिं॒सी॒त्। पुरु॑षान्। प॒शून्। च॒। २८.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यमिनी
  • ब्रह्मा
  • त्रिष्टुप्
  • पशुपोषण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

उत्तम नियम से सुख होता है।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) जहाँ पर (सुहार्दः) सुन्दर हृदयवाले (सुकृतः) सुकर्मी लोग (स्वायाः तन्वः) अपने शरीर का (रोगम्) रोग (विहाय) त्यागकर (मदन्ति) आनन्द भोगते हैं। (तम्) उस (लोकम्) लोक [जनसमूह] को (यमिनी) उत्तम नियमवाली [सुमति] (अभिसंबभूव) साक्षात् आकर मिली है। (सा) वह [सुमति] (नः) हमारे (पुरुषान्) पुरुषों (च) और (पशून्) ढोरों को (मा हिंसीत्) न पीड़ा दे ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस घर में परस्पर हितैषी पुण्यात्मा स्त्री पुरुष नीरोग रहकर विद्या और धन को भोगते हैं, वह उनकी नियमवती सुमति देवी का साक्षात् फल है। वहाँ पर सब मनुष्य और गौ, घोड़े आदि बहुत काल तक जीकर आपस में उपकारी होते हैं ॥५॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध अ० का० ६ सू० १२० म० ३ में इस प्रकार है−यत्रा॑ सु॒हार्दः॑ सु॒कृतो॒ मद॑न्ति वि॒हाय॒ रोगं॑ त॒न्वः स्वायाः॑। अश्लो॑णा॒ अङ्गै॒रह्रु॒ताः स्व॒र्गे तत्र॑ पश्येम पि॒तरौ॑ च पु॒त्रान् ॥ जहाँ पर सुन्दर हृदयवाले सुकर्मी लोग अपने शरीर का रोग त्यागकर आनन्द भोगते हैं, (तत्र) वहाँ पर (स्वर्गे) स्वर्ग में (अश्लोणाः) बिना लंगड़े हुए और (अङ्गैः अह्रुताः) अङ्गों से विना टेढ़े हुए हम (पितरौ) माता पिता (च) और (पुत्रान्) सन्तानों को (पश्येम) देखते रहें ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(यत्र) यस्मिन् लोके गृहे (सुहार्दः) हृदये भवं हार्दम्। प्राग्दीव्यतोऽण्। पा० ४।१।८३। इति हृदय-अण्। हृदयस्य हृल्लेखयदण्लासेषु। पा० ६।३।५०। इति हृदयस्य हृत्। अन्त्यलोपश्छान्दसः। यद्वा। हार्दम् आनुकूल्यं करोति हार्दयति। हार्दयतेः क्विपि णिलोपे रूपम्। शोभनहार्दः। सुहृदयाः। अनुकूलकारिणः। (सुकृतः। सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः। पा० ३।२।८९। डुकृञ् करणे-क्विप्। शोभनकर्माणः। (मदन्ति) मदी=हर्षे। हृष्यन्ति (विहाय) ओहाक् त्यागे-ल्यप्। त्यक्त्वा (रोगम्) व्याधिम् (तन्वः) शरीरस्य। (स्वायाः) स्वकीयस्य (लोकम्) लोक दर्शने घञ्। जनसमूहम् (यमिनी) म० १। नियमवती सुमतिः (अभिसंबभूव) भू सत्तायां प्राप्तौ च-लिट् आभिमुख्येन सम्यक् प्राप्तवती (मा हिंसीत्) मा हिनस्तु (नः) अस्माकम् (पुरुषान्) कलत्रपुत्रपौत्रभृत्यादीन्। (पशून्) गवाश्वादीन् ॥

०६ यत्रा सुहार्दाम्

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यत्रा॑ सु॒हार्दां॑ सु॒कृता॑मग्निहोत्र॒हुतां॒ यत्र॑ लो॒कः।
तं लो॒कं य॒मिन्य॑भि॒संब॑भूव॒ सा नो॒ मा हिं॑सी॒त्पुरु॑षान्प॒शूंश्च॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. Where is the world of the good-hearted, of the well-doing, where of
    them that offer the fire-offering (agnihotrá-)—into that world hath
    the twinning one come into being; let her not injure our men and cattle.
Notes

The omission of the superfluous yátra in b would rectify the
meter. The Anukr. should say āstārapan̄kti instead of prastāra-; its
virāj means here a pāda of 10 syllables.

Griffith

यत्रा॑ सु॒हार्दां॑ सु॒कृता॑मग्निहोत्र॒हुतां॒ यत्र॑ लो॒कः ।
तं लो॒कं य॒मिन्य॑भि॒संब॑भूव॒ सा नो॒ मा हिं॑सी॒त् पुरु॑षान् प॒शूंश्च॑ ॥६॥

पदपाठः

यत्र॑। सु॒ऽहार्दा॑म्। सु॒ऽकृता॑म्। अ॒ग्नि॒हो॒त्र॒ऽहुता॑म्। यत्र॑। लो॒कः। तम्। लो॒कम्। य॒मिनी॑। अ॒भि॒ऽसंब॑भूव। सा। नः॒। मा। हिं॒सी॒त्। पुरु॑षान्। प॒शून्। च॒। २८.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यमिनी
  • ब्रह्मा
  • विराड्गर्भा प्रस्तारपङ्क्तिः
  • पशुपोषण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

उत्तम नियम से सुख होता है।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) जहाँ पर (सुहार्दाम्) सुन्दर हृदयवाले (सुकृताम्) सुकर्मियों का और (यत्र) जहाँ पर (अग्निहोत्रहुताम्) अग्निहोत्र करनेवालों का (लोकः) लोक [जन समूह] है, (तम् लोकम्) उस लोक को (यमिनी) उत्तम नियमवाली [सुमति] (अभिसम्बभूव) साक्षात् आकर मिली है। (सा) वह [सुमति] (नः पुरुषान्) हमारे पुरुषों (च) और (पशून्) ढोरों को (मा हिंसीत्) न पीड़ा दे ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जहाँ सब स्त्री पुरुष एकमन रहकर पुण्यात्मा पुरुषार्थी होकर अग्निहोत्र करते अर्थात् वेदमन्त्रों से अग्नि में मिष्ट सुगन्ध द्रव्य चढ़ाकर वायुशुद्धि करते और अग्निविद्या द्वारा अग्निनौका, अग्नियान, विमान आदि रचते, वहाँ (यमिनी) नियमवती सुमति के निवास से सब जने आनन्द भोगते हैं ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(सुहार्दाम्) म० ५। शोभनहृदयानां शोभनज्ञानानाम्। (सुकृताम्) म० ५। शोभनं कर्म कृतवताम् (अग्निहोत्रहुताम्) अग्निहोत्र+हु दानादानादनेषु क्विप्, नुक् च्। अग्नौ होमादिकं जुह्वतां कुर्वताम्। अन्यद् गतम् ॥