०२५ कामस्य इषुः

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Whitney subject
  1. To command a woman’s love.
VH anukramaṇī

कामस्य इषुः।
१-६ भृगुः। मित्रावरुणौ, कामेषुः। अनुष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Bhṛgu (jāyākāmaḥ).—māitrāvaruṇaṁ kāmeṣudevatākaṁ ca. ānuṣṭubham.]

Whitney

Comment

Not found in Pāipp. Used by Kāuś. (35. 22) in the chapters of women’s rites, in a charm for bringing a woman under one’s control, by pushing her with a finger, piercing the heart of an image of her, etc.

Translations

Translated: Weber, v. 224; Muir, OST. v. 407; Ludwig, p. 516; Zimmer, p. 307; Weber, xvii. 290; Grill, 53, 115; Griffith, i. 119; Bloomfield, 102, 358.—Cf. Zimmer, p. 300; Bergaigne-Henry, Manuel, p. 144. Muir gives only a part.

Griffith

A man’s love-charm

०१ उत्तुदस्त्वोत्तुदतु मा

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उ॑त्तु॒दस्त्वोत्तु॑दतु॒ मा धृ॑थाः॒ शय॑ने॒ स्वे।
इषुः॒ काम॑स्य॒ या भी॒मा तया॑ विध्यामि त्वा हृ॒दि ॥

०१ उत्तुदस्त्वोत्तुदतु मा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let the up-thruster thrust (tud) thee up; do not abide (dhṛ) in
    thine own lair; the arrow of love (kā́ma) that is terrible, therewith I
    pierce thee in the heart.
Notes

Pāda a evidently suggests the finger-thrust of Kāuś.; what uttudá
really designates is matter for guessing, and the translators guess
differently; the comm. says “a god so named.” The comm. has the bad
reading dṛthās in b.

Griffith

Let the Impeller goad thee on. Rest not in peace upon thy bed. Terrible is the shaft of Love: therewith I pierce thee to the heart.

पदपाठः

उ॒त्ऽतु॒दः। त्वा॒। उत्। तु॒द॒तु॒। मा। धृ॒थाः॒। शय॑ने। स्वे। इषुः॑। काम॑स्य। या। भी॒मा। तया॑। वि॒ध्या॒मि॒। त्वा॒। हृ॒दि। २५.१।

पदपाठः

उ॒त्ऽतु॒दः। त्वा॒। उत्। तु॒द॒तु॒। मा। धृ॒थाः॒। शय॑ने। स्वे। इषुः॑। काम॑स्य। या। भी॒मा। तया॑। वि॒ध्या॒मि॒। त्वा॒। हृ॒दि। २५.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मित्रावरुणौ, कामबाणः
  • भृगु
  • अनुष्टुप्
  • कामबाण सूक्त

०२ आधीपर्णां कामशल्यामिषुम्

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आ॒धीप॑र्णां॒ काम॑शल्या॒मिषुं॑ संक॒ल्पकु॑ल्मलाम्।
तां सुसं॑नतां कृ॒त्वा कामो॑ विध्यतु त्वा हृ॒दि ॥

०२ आधीपर्णां कामशल्यामिषुम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The arrow feathered with longing (ādhī́), tipped with love, necked
    with resolve (? saṁkalpá-)—having made that well-straightened, let
    love pierce thee in the heart.
Notes

According to the comm., ādhī́ means mānasī pīḍā; śalyam is bāṇāgre
protam āyasam; kulmalam
is dāruśalyayoḥ saṁśleṣadravyam ⌊thing (like
a ferrule?) to fasten the tip to the shaft⌋. Our P.M.W. read tā́ for
tā́m at beginning of c. Pāda c requires the harsh resolution
ta-ā́m.

Griffith

That arrow winged with longing thought, its stem Desire, its neck, Resolve, Let Kama, having truly aimed, shoot forth and pierce thee in the heart.

पदपाठः

आ॒धीऽप॑र्णाम्। काम॑ऽशल्याम्। इषु॑म्। सं॒क॒ल्पऽकु॑ल्मलाम्। ताम्। सुऽसं॑नताम्। कृ॒त्वा। कामः॑। वि॒ध्य॒तु॒। त्वा॒। हृ॒दि। २५.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मित्रावरुणौ, कामबाणः
  • भृगुः
  • अनुष्टुप्
  • कामबाण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

अविद्या के नाश से विद्या की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (आधीपर्णाम्) अधिष्ठान वा प्रतिष्ठा के पंखवाले, (कामशल्याम्) वीर्य [तपोबल] की अणिवाले (संकल्पकुल्मलाम्) संकल्प के दंड छिद्रवाले (ताम्) उस [प्रसिद्ध, बुद्धि रूपी] (इषुम्) तीर को (सुसंनताम्) ठीक-२ लक्ष्य पर सीधा (कृत्वा) करके (कामः) सुन्दर मनोरथ (त्वा) तुझ [अविद्या] को (हृदि) हृदय में (विध्यतु) बेधे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ब्रह्मचारी योगी बुद्धि बल से अविद्या को हटाकर प्रतिष्ठावान् बलवान्, और सत्यसंकल्पी होता है ॥२॥ मुण्डकोपनिषद् का वचन है−प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥ मुण्ड० उ० २।२।४ ॥ (प्रणवः) (धनुः) धनुष् (आत्मा हि) आत्मा ही (शरः) तीर, और (ब्रह्म) ब्रह्म (तल्लक्ष्यम्) उसका लक्ष्य (उच्यते) कहा जाता है, (अप्रमत्तेन) अप्रमत्त, अति सावधान मनुष्य (वेद्धव्यम्) बेधे, और वह (शरवत्) तीर के समान (तन्मयः) उसमें लय (भवेत्) हो जावे ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(आधीपर्णाम्) आ+डुधाञ् धारणपोषणयोः-कि, ङीप्। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति पॄ पालनपूरणयोः-न। आधी अधिष्ठानं प्रतिष्ठा पर्णं पत्रमिव यस्यास्तां तथाविधाम्। (कामशल्याम्) शल्यः। अ० २।३०।३। कामं वीर्यं तपोबलं शल्यो बाणाप्रभाग इव यस्यास्तां तथोक्तान् (इषुम्) तीरम्। (संकल्पकुल्मलाम्) सम्+कृपू सामर्थ्ये-घञ्, रस्य लः। कुल्मलम्। अ० २।३०।३। संकल्पो दृढविचारः कुल्मलं बाणदण्डछिद्रमिव यस्यास्तां तथोक्ताम्। (ताम्) प्रसिद्धाम्। (सुसंनताम्) सु+सम्+णम नतौ।–क्त। सुष्ठु सम्यङ् नतां लक्ष्यीकृताम्। (कृत्वा) विधाय (कामः) कमु-घञ्। सुमनोरथः, यथा धर्मार्थकाममोक्षः। (विध्यतु) म० १। ताडयतु (त्वा) त्वां विद्याम् (हृदि) हृदये ॥

०३ या प्लीहानम्

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या प्ली॒हानं॑ शो॒षय॑ति॒ काम॒स्येषुः॒ सुसं॑नता।
प्रा॒चीन॑पक्षा॒ व्यो॑षा॒ तया॑ विध्यामि त्वा हृ॒दि ॥

०३ या प्लीहानम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The well-straightened arrow of love which dries the spleen,
    forward-winged, consuming (vyòṣa)—therewith I pierce thee in the
    heart.
Notes

The accent of vyòṣa is anomalous ⌊Skt. Gram. §1148 n⌋, being rather
that of a possessive compound ⌊§1305 a⌋; ⌊cf. vs. 4⌋. The comm. appears
to take plīhan as signifying ’lung’; the obscure prācīnapakṣa he
makes equivalent to ṛjavaḥ pakṣā yasyāḥ.

Griffith

The shaft of Kama, pointed well, that withers and consumes the spleen. With hasty feathers, all aglow, therewith I pierce thee to the heart.

पदपाठः

या। प्ली॒हान॑म्। शो॒षय॑ति। काम॑स्य। इषुः॑। सुऽसं॑नता। प्रा॒चीन॑ऽपक्षा। विऽओ॑षा। तया॑। वि॒ध्या॒मि॒। त्वा॒। हृ॒दि। २५.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मित्रावरुणौ, कामबाणः
  • भृगुः
  • अनुष्टुप्
  • कामबाण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

अविद्या के नाश से विद्या की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (कामस्य) सुन्दर मनोरथ का (सुसंनता) ठीक-२ लक्ष्य पर चलाया हुआ, (प्राचीनपक्षा) प्राचीन [वेदविज्ञान] का पंख रखनेवाला, (व्योषा) विविध प्रकार से [अविद्या का] दाह करनेवाला [बुद्धिरूपी] (या) जो (इषुः) तीर [अविद्या] की (प्लीहानम्) गति [वा तिल्ली नाम मर्मस्थान] को (शोषयति) सुखा देता है, (तया) उससे (त्वा) तुझ [अविद्या] को (हृदि) हृदय में (विध्यामि) बेधता हूँ ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचर्य और दृढ़ प्रतिज्ञा से वेदविज्ञान द्वारा अविद्या मिटाकर आनन्द भोगे, जैसे शूर वैरी का मर्मस्थान छेद कर सुखी होता है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(प्लीहानम्) अ० २।३३।३। प्लिह गतौ-कनिन्। गमनम्। कुक्षिवामपार्श्वस्थमांसखण्डम् (शोषयति) दहति (कामस्य) सुमनोरथस्य (इषुः) तीरम् (सुसंनता) सुष्ठु सम्यक् लक्ष्यीकृता (प्राचीनपक्षा) प्राचीनं वेदविज्ञानं पक्ष इव यस्याः सा तथोक्ता (व्योषा) वि+उष दाहे पचाद्यच्, टाप्। विशेषेण दाहशीला। अन्यद्गतम्-म० १ ॥

०४ शुचा विद्धा

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शु॒चा वि॒द्धा व्यो॑षया॒ शुष्का॑स्या॒भि स॑र्प मा।
मृ॒दुर्निम॑न्युः॒ केव॑ली प्रियवा॒दिन्यनु॑व्रता ॥

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Whitney
Translation
  1. Pierced with consuming pain (śúc), dry-mouthed, do thou come
    creeping to me, gentle, with fury allayed, entirely [mine],
    pleasant-spoken, submissive.
Notes

The great majority of mss. (including our Bp.P.M. W.E.I.) accent vyóṣa
in this verse, which is preferable; but both editions give vyòṣa,
because the mss. are unanimously for it in vs. 3 c. The comm.
renders it by vidāhayukta. ⌊I cannot make out from W’s collations that
M.W. read vyóṣa⌋.

Griffith

Pierced through with fiercely-burning heat, steal to me with thy parching lips, Gentle and humble, all mine own, devoted, with sweet words of love.

पदपाठः

शु॒चा। वि॒ध्दा। विऽओ॑षया। शुष्क॑ऽआस्या। अ॒भि। स॒र्प॒। मा॒। मृ॒दुः। निऽम॑न्युः। केव॑ली। प्रि॒य॒ऽवा॒दिनी॑। अनु॑ऽव्रता। २५.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मित्रावरुणौ, कामबाणः
  • भृगुः
  • अनुष्टुप्
  • कामबाण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

अविद्या के नाश से विद्या की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्या] (व्योषया) विशेष दाह करनेवाली (शुचा) पीड़ा से (विद्धा) बिंधी हुई, (शुष्कास्या) सूखे मुखवाली, (मृदुः) कोमल स्वभाववाली (निमन्युः) निरभिमान, (केवली) सेवनीया, (प्रियवादिनी) प्रिय बोलनेवाली और (अनुव्रता) अनुकूल आचरणवाली [पतिव्रता स्त्री के समान] तू (मा अभि) मेरी ओर (सर्प) चली आ ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यहाँ से तीन मन्त्र विद्यापरक हैं। मन्त्र का आशय यह है, जो ब्रह्मचारी विद्या के लिए पूरी लालसा से यत्नपूर्वक परिश्रम करता है, विद्या शीघ्र ही उसको मिलकर हितकारिणी होती है, जैसे सती गुणवती स्त्री मन, वचन और कर्म से अपने पति की सेवा करती है ॥४॥ ऋग्वेद के परमब्रह्मज्ञान सूक्त वा विद्यासूक्त में भी विद्या की उपमा पतिव्रता स्त्री से दी है। उ॒त त्वः॒ पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्वः॑ शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनाम्। उतो त्व॑स्मै तन्वं१ विस॑स्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑ ॥ ऋ० १०।७१।४ ॥ (त्वः) एक पुरुष ने (पश्यन् उत) देखते हुए भी (वाचम्) वेद वाणी को (न ददर्श) नहीं देखा है, (त्वः) एक पुरुष (शृण्वन् उत) सुनता हुआ भी (एनाम्) इसको (न शृणोति) नहीं सुनता है। (उतो) किन्तु (त्वस्मै) एक पुरुष को [अपना] (तन्वम्) स्वरूप [परमज्ञान] (विसस्रे) उसने दिखाया है, (इव) जैसे (उशती) अनुरागवती (सुवासाः) सुन्दर वस्त्रवाली (जाया) पत्नी [अपने] (पत्ये) पति को ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(शुचा) शुच शोके-क्विप्। शोकेन। पीडया (विद्धा) ताडिता (व्योषया) म० ३। विशेषेण दाहशीलया (शुष्कास्या) शुष्कमुखयुक्ता (अभि) अभिगत्य। उपेत्य (सर्प) गच्छ (मृदुः) प्रथिम्रदिभ्रस्जां० उ० १।२८। इति म्रद क्षोदे-कु। संप्रसारणं च। कोमलस्वभावा (निमन्युः) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। इति मन गर्वे-युच्। निरभिमाना (केवली) अ० ३।१८।२। केवलमामक०। पा० ४।१।३०। इति ङीप्। सेवनीया। सेवमाना वा (प्रियवादिनी) हितभाषिणी (अनुव्रता) अनुकूलाचरणपरा ॥

०५ आजामि त्वाजन्या

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आजा॑मि॒ त्वाज॑न्या॒ परि॑ मा॒तुरथो॑ पि॒तुः।
यथा॒ मम॒ क्रता॒वसो॒ मम॑ चि॒त्तमु॒पाय॑सि ॥

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Whitney
Translation
  1. I goad thee hither with a goad (ā́janī), away from mother, likewise
    from father, that thou mayest be in my power (krátu), mayest come unto
    my intent.
Notes

The second half-verse is identical with vi. 9. 2 c, d, and nearly so
with i. 34. 2 c, d.

Griffith

Away Lfrom mother and from sire I drive thee hither with a whip, That thou mayst be at my command and yield to every wish of mine.

पदपाठः

आ। अ॒जा॒मि॒। त्वा॒। आ॒ऽअज॑न्या। परि॑। मा॒तुः। अथो॒ इति॑। पि॒तुः। यथा॑। मम॑। क्रतौ॑। असः॑। मम॑। चि॒त्तम्। उ॒प॒ऽआय॑सि। २५.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मित्रावरुणौ, कामबाणः
  • भृगु
  • अनुष्टुप्
  • कामबाण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

अविद्या के नाश से विद्या की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्या !] (त्वा) तुझको (आजन्या) पूरे उपाय से [अपनी] (मातुः) माता से (अथो) और (पितुः) पिता से (परि) सब ओर (आ) यथानियम (अजामि) प्राप्त करता हूँ, (यथा) जिससे (मम) मेरे (क्रतौ) कर्म वा बुद्धि में (असः) तू रहे, (मम चित्तम्) मेरे चित्त में (उपायसि) तू पहुँचती है ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब स्त्री पुरुष माता-पिता आदि से विद्या पाकर परीक्षा द्वारा साक्षात् करके हृदय में दृढ़ करें ॥५॥ इस मन्त्र का उत्तरार्ध कुछ भेद से अथर्व० १।३४।२ में आया है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(आ) समन्तात् (अजामि) अज गतिक्षेपणयोः। गच्छामि। प्राप्नोमि (आजन्या) आ+अज गतौ-ल्युट्, ङीप्। समन्ताद् गत्या। पूर्णोपायेन (परि) सर्वतः (मातुः) जनन्याः सकाशात् (अथो) अपि च (पितुः) पालकात्। जनकात् (यथा) येन प्रकारेण। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० १।३४।२ ॥

०६ व्यस्यै मित्रावरुणौ

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व्य॑स्यै मित्रावरुणौ हृ॒दश्चि॒त्तान्य॑स्यतम्।
अथै॑नामक्र॒तुं कृ॒त्वा ममै॒व कृ॑णुतं॒ वशे॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. Do ye, O Mitra-and-Varuṇa, cast out the intents from her heart; then,
    making her powerless, make her [to be] in my own control.
Notes

P.M.W. begin c with yáthā. Asyāi in a is doubtless to be
understood as a genitive (cf. iv. 5. 6), though the comm. says “a dative
in genitive sense.” ⌊Cf. Lanman, JAOS. X. 359, end.⌋

The fifth anuvāka has 5 hymns and 35 verses. The quoted Anukr. says
pañca ca rcaḥ.

Griffith

Mitra and Varuna, expel all thought and purpose from her heart. Deprive her of her own free will and make her subject unto me.

पदपाठः

वि। अ॒स्यै॒। मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒। हृ॒दः। चि॒त्तानि॑। अ॒स्य॒त॒म्। अथ॑। ए॒ना॒म्। अ॒क्र॒तुम्। कृ॒त्वा। मम॑। ए॒व। कृ॒णु॒त॒म्। वशे॑। २५.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मित्रावरुणौ, कामबाणः
  • भृगुः
  • अनुष्टुप्
  • कामबाण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

अविद्या के नाश से विद्या की प्राप्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रावरुणौ) हे प्राण और अपान (अस्यै) इस [विद्या] के लिए [मेरे] (हृदः) हृदय के (चित्तानि) विचारों को (वि अस्यतम्) फैलाओ। (अथ) और (एनाम्) इसको (अक्रतुम्) अहिंसिका [हितकारिणी] (कृत्वा) करके (मम एव) मेरे ही (वशे) वश में (कृणुतम्) करो ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी प्राण और अपान अर्थात् इन्द्रियों को जीतकर अपने विचारों को बढ़ाकर महाहितकारिणी विद्या को उपयोगी बनावें ॥६॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−अस्यै। अस्या विद्यायाः प्राप्तये (मित्रावरुणौ) अ० १।२०।२। हे प्राणापानौ (हृदः) मम हृदयस्य (चित्तानि) ज्ञानानि। विचारान् (वि+अस्यतम्) असु क्षेपणे। विस्तारयतम् (अथ) अनन्तरम् (एनाम्) निर्दिष्टाम् (अक्रतुम्) कृञः कतुः उ० १।७६। इति कृञ् हिंसायाम्-कतु। अहिंसाशीलाम्। सुखप्रदाम् (कृत्वा) विधाय (कृणुतम्) कुरुतम् (वशे) आयत्तत्वे। प्रभुत्वे ॥