०२२ वर्चः प्राप्तिः ...{Loading}...
Whitney subject
- To the gods: for splendor (várcas).
VH anukramaṇī
वर्चः प्राप्तिः।
१-६ वसिष्ठः। वर्चः, बृहस्पतिः, विश्वे देवाः। अनुष्टुप्, १ विराट् त्रिष्टुप्, ३ पञ्चपदा परानुष्टुप् विराडतिजगती, ४ त्र्यवसाना षट् पदा जगती।
Whitney anukramaṇī
[Vasiṣṭha.—varcasyam. bārhaspatyam uta vāiśvadevam. ānuṣṭubham: 1. virāṭ triṣṭubh; 3. 5-p. parānuṣṭub virāḍatijagatī; 4. 3-av. 6-p. jagatī.]
Whitney
Comment
Found also (except vs. 6) in Pāipp. iii. Is reckoned to the varcasya gaṇa (Kāuś. 12. 10, note), and used in a charm for splendor (13. 1), with binding on an amulet of ivory. The comm. quotes the hymn also as employed by the Nakṣ. K. in a mahāśānti called brāhmī, for attainment of brahman-splendor; and by Pariś. iv. 1, in the daily morning consecration of an elephant for a king.
Translations
Translated: Ludwig, p. 461; Weber, xvii. 282; Griffith, i. 115.
Griffith
The taming and training of an elephant for a king to ride on
०१ हस्तिवर्चसं प्रथताम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ह॑स्तिवर्च॒सं प्र॑थतां बृ॒हद्यशो॒ अदि॑त्या॒ यत्त॒न्वः॑ संब॒भूव॑।
तत्स॑र्वे॒ सम॑दु॒र्मह्य॑मे॒तद्विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः स॒जोषाः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ह॑स्तिवर्च॒सं प्र॑थतां बृ॒हद्यशो॒ अदि॑त्या॒ यत्त॒न्वः॑ संब॒भूव॑।
तत्स॑र्वे॒ सम॑दु॒र्मह्य॑मे॒तद्विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः स॒जोषाः॑ ॥
०१ हस्तिवर्चसं प्रथताम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let elephant-splendor, great glory, spread itself, which came into
being from Aditi’s body; that same have all together given to me—all the
gods, Aditi, in unison.
Notes
⌊Cf. vii. 17. 3 n.⌋
A number of the mss. (including our Bp.Op.) read ā́dityās ⌊accent!⌋ in
b, and several of ours follow it with yám instead of yát. Ppp.
rectifies the meter of d by reading devāsas. Emendation in a
to bṛhádyaśas would be acceptable. śB. (iii. 1. 3. 4; perhaps on the
basis of b?) has a legend of the production of the elephant from
something born of Aditi (see R. in Ind. Stud. xiv. 392). The comm.
explains prathatām in a by asmāsu prathitam prakhyātam bhavatu
‘be proclaimed as belonging to us.’ In our edition, an accent-mark has
dropped out from under the ba of -babhūva. An irregular verse,
scanned by the Anukr. as 12 + 10: 10 + 10 = 42, but convertible into 45
syllables by resolving tanú-as, sáru-e, víśu-e (of which only the
first is unobjectionable). ⌊If we read devāsas in d, the vs. is in
order (12 + 11:? + 11), except in c (tád ít sárve?).⌋
Griffith
Famed be the Elephant’s strength, the lofty glory, which out of Aditi’s body took existence! They all have given me this for my possession, even all the Gods and Aditi accordant.
पदपाठः
ह॒स्ति॒ऽव॒र्च॒सम्। प्र॒थ॒ता॒म्। बृ॒हत्। यशः॑। अदि॑त्याः। यत्। त॒न्वः᳡। स॒म्ऽब॒भूव॑। तत्। सर्वे॑। सम्। अ॒दुः॒। मह्य॑म्। ए॒तत्। विश्वे॑। दे॒वाः। अदि॑तिः। रा॒ऽजोषाः॑। २२.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- वर्चः प्राप्ति सुक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
कीर्ति पाने के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (हस्तिवर्चसम्) हाथी के बल से युक्त (बृहत्) बड़ा (यशः) यश (प्रथताम्) फैले, (यत्) जो (अदित्याः) अदीन वेदवाणी वा प्रकृति के (तन्वः) विस्तार से (संबभूव) उत्पन्न हुआ है, (तत्) सो (एतत्) यह [यश] (मह्यम्) मुझको (सजोषाः) समान प्रीतिवाली (अदितिः) अखण्ड वेदवाणी वा प्रकृति और (विश्वे) सब (देवाः) प्रकाशमान गुणों ने (सर्वे) सर्वव्यापक विष्णु भगवान् में (सम्) ठीक प्रकार से (अदुः) दिया है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य वेदविद्या और प्रकृति के यथावत् ज्ञान से (जिस सबका केन्द्र परमेश्वर है) हाथी आदि का सामर्थ्य पाकर यशस्वी होता है। म० ६ देखो ॥१॥ भगवान् पतञ्जलि का वचन है−बलेषु हस्तिबलादीनि ॥ यो० द० ३।२३ ॥ बलों में [संयम करने से] हाथी के से बल हो जाते हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(हस्तिवर्चसम्) हस्ताज्जातौ। पा० ५।२।१३३। इति हस्त-इनि। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति वर्चस्-अच् मत्वर्थे। गजस्य बलयुक्तम्। (प्रथताम्) प्रथ प्रख्याने-लोट्। प्रख्यातं भवतु। (बृहत्) महत्। (यशः) कीर्त्तिः। (अदित्याः)। अ० २।२८।४। अदितिः, वाक्-निघ० १।११। अदीनाया वेदवाण्याः प्रकृतेर्वा। (यत्) यशः। (तन्वः) अ० १।१।१।१। शरीरात्। विस्तृतेः। (संबभूव) उत्पन्नमभवत्। (सर्वे) सर्वनिघृष्व०। उ० १।१५३। इति सृ गतौ-वन्, यद्वा। सर्व गतौ-अच्। सरति सर्वति वा गच्छति व्याप्नोतीति सर्वः, शिवः, विष्णुः। तस्मिन् व्यापके परमेश्वरे। (सम्) सम्यक्। (अदुः) दाञो लुङ्। दत्तवन्तः। (मह्यम्) मदर्थम्। (विश्वे) सर्वे। (देवाः) दिव्यगुणाः। (अदितिः) अदीना, अखण्डिता वा वेदवाणी प्रकृतिर्वा। (सजोषाः) समान+जुषी प्रीतिसेवनयोः-असुन्। समानप्रीतिः ॥
०२ मित्रश्च वरुणश्चेन्द्रो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
मि॒त्रश्च॒ वरु॑ण॒श्चेन्द्रो॑ रु॒द्रश्च॑ चेततुः।
दे॒वासो॑ वि॒श्वधा॑यस॒स्ते मा॑ञ्जन्तु॒ वर्च॑सा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मि॒त्रश्च॒ वरु॑ण॒श्चेन्द्रो॑ रु॒द्रश्च॑ चेततुः।
दे॒वासो॑ वि॒श्वधा॑यस॒स्ते मा॑ञ्जन्तु॒ वर्च॑सा ॥
०२ मित्रश्च वरुणश्चेन्द्रो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let both Mitra and Varuṇa, Indra and Rudra, [each] take notice; the
all-nourishing gods—let them anoint me with splendor.
Notes
All the mss.* read cetatus at end of b, and so does Ppp., and our
edition has it; but SPP. follows the comm. and substitutes cetatu; SV.
i. 154 has sómaḥ pūṣā́ ca cetatuḥ; the translation implies cetatu,
the other being probably a false form, generated under stress of the
difficult construction of a singular verb with the preceding subjects.
Weber takes it as cetatus, 3d dual perf. of root cat “frighten into
submission.” The Anukr. takes no notice of the deficiency of a syllable
in a. *⌊So W’s two drafts; but his collations note P.M.W. as
reading cetutaḥ (!) and Op. as reading cetatú.⌋
Griffith
On this have Mitra, Varuna, Indra, and Rudra fixed their thought. May those all-fostering deities anoint and balm me with his strength.
पदपाठः
मि॒त्रः। च॒। वरु॑णः। च॒। इन्द्रः॑। रु॒द्रः। च॒। चे॒त॒तु॒। दे॒वासः॑। वि॒श्वऽधा॑यसः। ते। मा॒। अ॒ञ्ज॒न्तु॒। वर्च॑सा। २२.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः
- वसिष्ठः
- विराट्त्रिष्टुप्
- वर्चः प्राप्ति सुक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
कीर्ति पाने के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रः) सबका मित्र, (च) और (वरुणः) अति श्रेष्ठ (च) और (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् (च) और (रुद्रः) ज्ञानदाता वा दुःखनाशक परमेश्वर (चेततु) चेताता रहे, और (ते) वे [प्रसिद्ध] (विश्वधायसः) सब जगत् के पोषण करनेवाले (देवासः=देवाः) दिव्य पदार्थ [पृथिवी, जल, वायु, तेज, आकाश आदि] (मा) मुझको (वर्चसा) तेज वा बल से (अञ्जन्तु) कान्तिवाला करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब स्त्री पुरुष परमेश्वर की महिमा को जानें और विज्ञानपूर्वक सब पदार्थों से उपकार लेकर तेजस्वी और यशस्वी होवें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(मित्रः) सर्वप्रेरकः। सर्वहितकारी। (वरुणः) वरणीयः। श्रेष्ठः। (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्। (रुद्रः) अ० २।२७।६। रुत्-र। ज्ञानदाता। दुःखनाशकः परमेश्वरः। (चेततु) चिती ज्ञाने। चेतयतु। (देवासः) असुगागमः। पृथिव्यादिदेवाः। (विश्वधायसः) वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। इति विश्व+दधातेरसुन्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। सर्वस्य जगतो धातारः पोषयितारः। (ते) प्रसिद्धाः। (अञ्जन्तु) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु। प्रकाशयन्तु। संयोजयन्तु (वर्चसा) तेजसा। बलेन ॥
०३ येन हस्ती
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येन॑ ह॒स्ती वर्च॑सा संब॒भूव॒ येन॒ राजा॑ मनु॒ष्ये॑ष्व॒प्स्व१॒॑न्तः।
येन॑ दे॒वा दे॒वता॒मग्र॒ आय॒न्तेन॒ माम॒द्य वर्च॒साग्ने॑ वर्च॒स्विनं॑ कृणु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
येन॑ ह॒स्ती वर्च॑सा संब॒भूव॒ येन॒ राजा॑ मनु॒ष्ये॑ष्व॒प्स्व१॒॑न्तः।
येन॑ दे॒वा दे॒वता॒मग्र॒ आय॒न्तेन॒ माम॒द्य वर्च॒साग्ने॑ वर्च॒स्विनं॑ कृणु ॥
०३ येन हस्ती ...{Loading}...
Whitney
Translation
- With what splendor the elephant came into being, with what the king
among men (manuṣyà), among waters, with what the gods in the beginning
went to godhood—with that splendor do thou, O Agni, now make me
splendid.
Notes
Apsú, in b, is an impertinent intrusion as regards both sense and
meter; it is wanting in Ppp. In c all the mss. give āyam (saṁh.,
āyaṁ); our edition makes the necessary emendation to ā́yan, and so
does SPP. in his pada-text; but in saṁhitā (perhaps by an oversight)
he reads āyan, unaccented; the comm. has āyan (accent doubtful): cf.
iv. 14. 1 c, where the mss. again read āyam for āyan in the same
phrase. Ppp. has a very different second half-verse: yena devā jyotiṣā
āyām udāyan tena mā ’gne varcasā saṁ sṛje ’ha. The comm. makes apsu
in b mean either “[creatures] in the waters,” or else “[Yakshas,
Gandharvas, etc.] in the atmosphere.” The metrical definition of the
Anukr. is mechanically correct ⌊52-2 = 50⌋ if we count 13 syllables in
b ⌊and combine varcasāgne⌋!
Griffith
The strength wherewith the Elephant was dowered, that decks a King among the men, in waters, O Agni, even with that strength make thou me vigorous to-day.
पदपाठः
येन॑। ह॒स्ती। वर्च॑सा। स॒म्ऽब॒भूव॑। येन॑। राजा॑। म॒नु॒ष्ये᳡षु। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। येन॑। दे॒वाः। दे॒वता॑म्। अग्रे॑। आय॑न्। तेन॑। माम्। अ॒द्य। वर्च॑सा। अग्ने॑। व॒र्च॒स्विन॑म्। कृ॒णु॒। २२.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः
- वसिष्ठः
- पञ्चपदा परानुष्टुब्विराडतिजगती
- वर्चः प्राप्ति सुक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
कीर्ति पाने के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (येन) जिस (वर्चसा) तेज से (हस्ती) हाथी, और (येन) जिस [तेज] से (राजा) ऐश्वर्यवान् राजा (मनुष्येषु) मनुष्यों और (अप्सुअन्तः) जल और अन्तरिक्ष के भीतर (संबभूव) पराक्रमी हुआ है, और (येन) जिस [तेज] से (देवाः) देवताओं [महात्मा पुरुषों] ने (अग्रे) पहिले काल में (देवताम्) देवतापन (आयन्) पाया है, (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप जगदीश्वर ! (तेन वर्चसा) उस तेज से (माम्) मुझको (अद्य) आज (वर्चस्विनम्) तेजस्वी (कृणु) कर ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब स्त्री पुरुष हाथी आदि पशुओं, और पूर्वज शूरवीर ऋषि महात्माओं के बुद्धि बल का अनुभव करके (अद्य) आज अर्थात् शीघ्र उपाय से जल, थल, और आकाश में, (अग्नि) परमेश्वर की भक्ति के साथ अपनी गति बढ़ावें और अग्नि के समान तेजस्वी होकर संसार में कीर्तिमान् होवें ॥३॥ योगेश्वर पतञ्जलि का वचन है−तीव्रसंवेगानामासन्नः ॥ यो० द० १।२१ ॥ [समाधिलाभ] उग्र अच्छे वेगवालों के समीप होता है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(हस्ती) म० १। गजः। (वर्चसा) तेजसा। (संबभूव) समर्थो बभूव। (राजा) राजति ईष्टे स राजा। ऐश्वर्यवान् पुरुषः। (मनुष्येषु) अ० ३।४।६। मनु-यत्, षुगागमः। मननशीलेषु। स्थलप्राणिषु, इत्यर्थः। (अप्सु) उदकेषु-निघ० १।१२। अन्तरिक्षे-निघ० १।३। (अन्तः) मध्ये। (देवाः) विजिगीषवो महात्मानः। (देवताम्) देवत्वम्। माहात्म्यम्। (अग्रे) पर्वकाले। (आयन्) इण् गतौ-लङ्। प्राप्नुवन्। (माम्) उपासकम्। (अद्य) अ० १।१।१। अस्मिन् दिने। तत्कालम्। (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन्। (वर्चस्विनम्) तेजस्विनम्। (कृणु) कुरु ॥
०४ यत्ते वर्चो
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यत्ते॒ वर्चो॑ जातवेदो बृ॒हद्भव॒त्याहु॑तेः।
याव॒त्सूर्य॑स्य॒ वर्च॑ आसु॒रस्य॑ च ह॒स्तिनः॑।
ताव॑न्मे अ॒श्विना॒ वर्च॒ आ ध॑त्तां॒ पुष्क॑रस्रजा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यत्ते॒ वर्चो॑ जातवेदो बृ॒हद्भव॒त्याहु॑तेः।
याव॒त्सूर्य॑स्य॒ वर्च॑ आसु॒रस्य॑ च ह॒स्तिनः॑।
ताव॑न्मे अ॒श्विना॒ वर्च॒ आ ध॑त्तां॒ पुष्क॑रस्रजा ॥
०४ यत्ते वर्चो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What great splendor becomes thine, O Jātavedas, from the offering;
how great splendor there is of the sun, and of the ásura-like
elephant—so great splendor let the (two) Aśvins, lotus-wreathed, assign
unto me.
Notes
All the mss. read in b bhavati, and SPP. accordingly adopts it in
his edition; ours makes the necessary correction to bhávati. The comm.
reads āhute, vocative, at end of b; Ppp. has instead āhutam; and
then adds to it, as second half-verse, our 3 d, e (with abhya for
adyá, and kṛdhi for kṛṇu), putting also the whole ⌊i.e. our 4 a,
b + 3 d, e⌋ before our vs. 3; and then it gives the remainder
(c-f) of our vs. 4 here, with kṛṇutām for ā́ dhattām, and in
c yavad varcaḥ sūr-.
Griffith
The lofty strength which sacrifice brings, Jatavedas! unto thee, What strength the Sun possesses, all strength of the royal Ele- phant–such strength vouchsafe to me the pair of Asvins lotus-garlanded!
पदपाठः
यत्। ते॒। वर्चः॑। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। बृ॒हत्। भव॑ति। आऽहु॑तेः। याव॑त्। सूर्य॑स्य। वर्चः॑। आ॒सुरस्य॑। च॒। ह॒स्तिनः॑। ताव॑त्। मे॒। अ॒श्विना॑। वर्चः॑। आ। ध॒त्ता॒म्। पुष्क॑रऽस्रजा। २२.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः
- वसिष्ठः
- त्र्यवसाना षट्पदा जगती
- वर्चः प्राप्ति सुक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
कीर्ति पाने के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जिस कारण से (जातवेदः) उत्पन्न संसार के ज्ञानवाले परमेश्वर ! (ते) तेरे लिये (आहुतेः) आहुति [आत्मदान] से [हमारा] (वर्चः) तेज (बृहत्) बड़ा (भवति) होता है, (यावत्) जितना (वर्चः) तेज वा बल (आसुरस्य) प्राणियों वा मेघों के हितकारक (सूर्यस्य) सूर्य का (च) और (हस्तिनः) हाथी का है, (तावत्) उतना (वर्चः) तेज वा बल (मे) मेरे लिये (पुष्करस्रजा=०-जौ) पोषण देनेवाले (अश्विना=०-नौ) माता पिता वा सूर्य्य चन्द्रमा (आधत्ताम्) सब प्रकार देवें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब स्त्री पुरुष माता पिता की सुशिक्षा और सूर्य चन्द्रमा के समान नियम से परमेश्वर की आज्ञापालन में मन लगाकर अपना बल बढ़ावें और सूर्य आदि दूरस्थ और हाथी आदि पृथिवीस्थ पदार्थों का बल, विज्ञान द्वारा जानकर उन्नति करें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(यत्) यस्मात् कारणात्। (ते) तुभ्यम्। (वर्चः) तेजः। बलम्। (जातवेदः) अ० १।७।२। हे जातस्य उत्पन्नस्य संसारस्य ज्ञातः परमेश्वर। (बृहत्) महत्। (आहुतेः) दानात्। आत्मसमर्पणात्। (यावत्) अ० ३।१५।३। यत्परिमाणम्। (सूर्यस्य) आदित्यस्य। (आसुरस्य) असुर इति व्याख्यातम् अ० १।१०।१। असुः प्राणः-रो मत्वर्थीयः। असुरः प्राणी, ततो अण् प्रत्ययः। प्राणिभ्यो हितस्य। यद्वा, असुरो मेघः-निघ० १।१०। तेभ्यो हितस्य। (हस्तिनः) गजस्य। (तावत्) तत्परिमाणम्। (मे) मह्यम्। (अश्विना) अ० २।२९।६। मातापितरौ। सूर्याचन्द्रमसौ। (आ धत्ताम्) समन्तात् स्थापयताम्। प्रयच्छताम् (पुष्करस्रजौ) पुषः कित्। उ० ४।४। इति पुष पोषणे-करन्। पुष्णातीति पुष्करम्। ऋत्विग्दधृक्स्रग्० पा० ३।२।५९। इति सृज त्यागे=दाने-क्विन्। पोषणदातारौ ॥
०५ यावच्चतस्रः प्रदिशश्चक्षुर्यावत्समश्नुते
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याव॒च्चत॑स्रः प्र॒दिश॒श्चक्षु॒र्याव॑त्समश्नु॒ते।
ताव॑त्स॒मैत्वि॑न्द्रि॒यं मयि॒ तद्ध॑स्तिवर्च॒सम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
याव॒च्चत॑स्रः प्र॒दिश॒श्चक्षु॒र्याव॑त्समश्नु॒ते।
ताव॑त्स॒मैत्वि॑न्द्रि॒यं मयि॒ तद्ध॑स्तिवर्च॒सम् ॥
०५ यावच्चतस्रः प्रदिशश्चक्षुर्यावत्समश्नुते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- As far as the four directions, as far as the eye reaches (sam-aś),
let so great force (indriyá) come together, that elephant-splendor, in
me.
Notes
The comm. reads sam etu in c.
Griffith
Far as the heaven’s four regions spread, far as the eye’s most distant ken. So wide, so vast let power be mine, this vigour of the Elephant.
पदपाठः
याव॑त्। चत॑स्रः। प्र॒ऽदिशः॑। चक्षुः॑। याव॑त्। स॒म्ऽअ॒श्नु॒ते। ताव॑त्। स॒म्ऽऐतु॑। इ॒न्द्रि॒यम्। मयि॑। तत्। ह॒स्ति॒ऽव॒र्च॒सम्। २२.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- वर्चः प्राप्ति सुक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
कीर्ति पाने के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यावत्) जितनी दूर (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) महादिशायें हैं, और (यावत्) जितनी दूर (चक्षुः) आँख [दर्शन शक्ति] (समश्नुते) फैलती है, (तावत्) वहाँ तक (मयि) मुझमें (तत्) वह (हस्तिवर्चसम्) हाथी के बलवाला (इन्द्रियम्) परम ऐश्वर्य (समैतु) आकर मिले ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य सब पार्थिव और दिव्य पदार्थों के यथावत् ज्ञान से सामर्थ्य बढ़ाकर उन्नति करें ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(चतस्रः) चतुःसंख्याकाः। (प्रदिशः) महादिशः। (चक्षुः) अ० १।३३।४। नेत्रं दर्शनसामर्थ्यम्। (समश्नुते) सम्यग् व्याप्नोति (समैतु) सम्+आ एतु। सम्यग् आगच्छतु। (इन्द्रियम्) अ० १।३५।३। इन्द्र-घञ्। इन्द्रस्य परमैश्वर्ययुक्तस्य लिङ्गम्। परमैश्वर्यम्। (मयि) ईश्वरभक्ते। (तत्) प्रसिद्धम्। (हस्तिवर्चसम्) म० १। गजस्य बलयुक्तम् ॥
०६ हस्ती मृगाणाम्
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ह॒स्ती मृ॒गाणां॑ सु॒षदा॑मति॒ष्ठावा॑न्ब॒भूव॒ हि।
तस्य॒ भगे॑न॒ वर्च॑सा॒भि षि॑ञ्चामि॒ माम॒हम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ह॒स्ती मृ॒गाणां॑ सु॒षदा॑मति॒ष्ठावा॑न्ब॒भूव॒ हि।
तस्य॒ भगे॑न॒ वर्च॑सा॒भि षि॑ञ्चामि॒ माम॒हम् ॥
०६ हस्ती मृगाणाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Since the elephant has become the superior (atiṣṭhā́vant) of the
comfortable (? suṣád) wild beasts, with his fortune [and] splendor
do I pour (sic) upon myself.
Notes
That is, ‘I shed it upon me, cover myself with it.’ The comm.
understands the somewhat questionable suṣád nearly as here translated,
“living at their pleasure in the forest”; and atiṣṭhāvant as
possessing superiority either of strength or of position.
Weber entitles the hymn, without good reason, “taming of a wild
elephant.”
Griffith
Now hath the Elephant become chief of all pleasant beasts to ride. With his high fortune and his strength I grace and conscorate myself.
पदपाठः
ह॒स्ती। मृ॒गाणा॑म्। सु॒ऽसदा॑म्। अ॒ति॒स्थाऽवा॑न्। ब॒भूव॑। हि। तस्य॑। भगे॑न। वर्च॑सा। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। माम्। अ॒हम्। २२.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- वर्चः प्राप्ति सुक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
कीर्ति पाने के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (हि) क्योंकि (सुषदाम्) सुखसे चढ़ने योग्य (मृगाणाम्) पशुओं में (हस्ती) हाथी (अतिष्ठावान्) प्रतिष्ठावाला (बभूव) हुआ है, (तस्य) उसके (भगेन) सेवनीय (वर्चसा) कान्ति से (अहम्) मैं (माम्) अपने को (अभिषिञ्चामि) भले प्रकार सींचूँ [शुद्ध करूँ] ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे हाथी में अन्य पशुओं से अधिक बुद्धि बल होता है, वैसे ही प्रधान पुरुष अन्य पुरुषों से अधिक बुद्धिबलवाला होवे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(हस्ती) गजः। (मृगाणम्) पशूनां मध्ये। (सुषदाम्) अ० ३।१४।१। सुखेन सदनयोग्यानाम्। (अतिष्ठावान्) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।१।१०६। इति अति+ष्ठा-अङ्, टाप्, मतुप्। प्रतिष्ठावान्। (हि) यस्मात् कारणात्। (तस्य) गजस्य। (भगेन) भजनीयेन। सेवनीयेन। (वर्चसा) तेजसा। (अभि) सर्वतः। (सिञ्चामि) शोधयामि। (माम्) आत्मानम्। (अहम्) उपासकः ॥