०२१ शान्तिः ...{Loading}...
Whitney subject
- With oblation to the various forms of fire or Agni.
VH anukramaṇī
शान्तिः।
१-१० वसिष्ठः। अग्निः। त्रिष्टुप्, १ पुरोनुष्टुप्, २, ३, ८ भुरिक् ५ जगती, ६ उपरिष्टाद्विराड् बृहती, ७ विराड् गर्भा, ९ निचृदनुष्टुप्, १० अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Vasiṣṭha.—daśarcam. āgneyam. trāiṣṭubham: 1. puro ‘nuṣṭubh; 2, 3, 8. bhurij; 5. jagatī; 6. upariṣṭādvirāḍbṛhatī; 7. virāḍgarbhā; 9, 10. anuṣṭubh (9. nicṛt).]
Whitney
Comment
The whole of the hymn is found in Pāipp., vss. 1-9 in iii., vs. 10 in vii. The material is used by Kāuś. in a number of rites: it is reckoned (9. 1; the comm. says, only vss. 1-7) to the bṛhachānti gaṇa; it appears in the charm against the evil influence of the flesh-eating fire (43. 16-21; according to the comm., vss. 1-7 are quoted in 16, and the whole hymn in 20); again, in the establishment of the house-fire (72. 13; vss. 1-7, comm.); again, in the funeral rites (82. 25), on the third day after cremation, with oblation to the relics; once more, in the expiatory ceremony (123. 1), when birds or other creatures have meddled with sacrificial objects. Moreover, vs. 8 (the comm. says, vss. 8-10), with other passages from xii. 2, in a rite of appeasement in the house-fire ceremony (71. 8). In Vāit., vss. 1-7 are used in the agniṣṭoma (16. 16) on occasion of the soma becoming spilt; and vs. 7 in the sākamedha part of the cāturmāsya sacrifice ⌊9. 17⌋.
Translations
Translated: Weber, xvii. 277; Grifiith, i. 113; vss. 1-7 also by Ludwig, p. 325.
Griffith
In honour of fire in all shapes, to appease Agni of the funeral pile and to quench the flames of cremation
०१ ये अग्नयो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ये अ॒ग्नयो॑ अ॒प्स्व१॒॑न्तर्ये वृ॒त्रे ये पुरु॑षे॒ ये अश्म॑सु।
य आ॑वि॒वेशौष॑धी॒र्यो वन॒स्पतीं॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ये अ॒ग्नयो॑ अ॒प्स्व१॒॑न्तर्ये वृ॒त्रे ये पुरु॑षे॒ ये अश्म॑सु।
य आ॑वि॒वेशौष॑धी॒र्यो वन॒स्पतीं॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
०१ ये अग्नयो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The fires that are within the waters, that are in Vṛtra, that are in
man, that are in stones, the one that hath entered the herbs, the
forest-trees—to those fires be this oblation made.
Notes
Verses 1-4 are found also in MS. (ii. 13. 13) and in K. (xl. 3); both
texts read yás for yé through the first half-verse, and áśmani for
áśmasu; MS. begins yó apsv àntár agnír, and K. yó apsv àgnír
antár; K. further has bhuvanāni viśvā for óṣadhīr yó vánaspátīṅs.
Ppp. reads yo apsv antar yo vṛtre antar yaḥ puruṣe yo ‘śmani: yo viveśa
oṣa-, and combines in d tebhyo ‘gni-. Part of the mss. (including
our P.M.W.I.) combine vivéś’ óṣadh- in c, and both editions have
adopted that reading—doubtless wrongly, since the Prāt. prescribes no
such irregularity, nor is it elsewhere found to occur with oṣadhi. The
comm. explains what different “fires” are intended: the vāḍava etc. in
the waters; that in the cloud (by Nir. ii. 16) or else in the body of
the Asura Vṛtra; in man, those of digestion; in stones, those in the
sūryakānta etc. (sparkling jewels); those that make herbs etc. ripen
their fruits. Weber regards the stones that strike fire as intended,
which seems more probable. The division of the verse by the Anukr., 8 +
11: 11 + 11, is not to be approved. ⌊Pādas a and b rather as 11
- 8; pādas c and d are in order, 12 + 11.—In c, correct to
āvivéśāúṣadhīr, as MS. reads.⌋
Griffith
All Fires that are in water and in Vritra, all those that man and stones contain within them, That which hath entered herbs and trees and bushes–to all these Fires be this oblation offered.
पदपाठः
ये। अ॒ग्नयः॑। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। ये। वृ॒त्रे। ये। पुरु॑षे। ये। अश्म॑ऽसु। यः। आ॒ऽवि॒वेश॑। ओष॑धीः। यः। वन॒स्पती॑न्। तेभ्यः॑। अ॒ग्निऽभ्यः॑। हु॒तम्। अ॒स्तु॒। ए॒तत्। २१.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- पुरोऽनुष्टुप्
- शान्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (अग्नयः) अग्नियाँ [ईश्वर के तेज] (अप्सुअन्तः) जल के भीतर, (ये) जो (वृत्रे) मेघ में, (ये) जो (पुरुषे) पुरुष [मनुष्य शरीर] में और (ये) जो (अश्मसु) शिलाओं में हैं। (यः) जिस [अग्नि] ने (ओषधीः) औषधियों [अन्न, सोम लता आदि] में, और (यः) जिसने (वनस्पतीन्) वनस्पतियों [वृक्ष आदि] में (आ विवेश) प्रवेश किया है, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वर तेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस सूक्त में गुणों के वर्णन से गुणी परमेश्वर का ग्रहण है, अर्थात् जिस परमेश्वर की शक्ति से समुद्र में बड़वानल, मेघ में बिजुली, मनुष्य में अन्न पाचक अग्नि और पत्थर में चकमक, ओषधियों में फलपाक अग्नि आदि अद्भुत उपकारी शक्तियाँ वर्त्तमान हैं, उनके प्रेरक परमेश्वर को हमारा प्रणाम है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(अग्नयः) ईश्वरतेजांसि। (अप्सु) उदकेषु। (अन्तः) मध्ये। (वृत्रे) अ० २।५।३। वृत्रो वृणोतेर्वा वर्ततेर्वा वर्द्धतेर्वा-निरु० २।१७। मेघे-निघ० १।१०। (पुरुषे) अ० १।१६।४। मानुषशरीरे। (अश्मसु) अ० १।२।२। पाषाणशिलासु। (आविवेश) प्रविष्टवान्। (ओषधीः) व्रीहियवादिरूपाः। (वनस्पतीन्) अ० १।१२।३। सेवकरक्षकान्। वृक्षान्। (हुतम्) हु दाने-क्त। हविः। आत्मसर्पणम् ॥
०२ यः सोमे
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यः सोमे॑ अ॒न्तर्यो गोष्व॒न्तर्य आवि॑ष्टो॒ वयः॑सु॒ यो मृ॒गेषु॑।
य आ॑वि॒वेश॑ द्वि॒पदो॒ यश्चतु॑ष्पद॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यः सोमे॑ अ॒न्तर्यो गोष्व॒न्तर्य आवि॑ष्टो॒ वयः॑सु॒ यो मृ॒गेषु॑।
य आ॑वि॒वेश॑ द्वि॒पदो॒ यश्चतु॑ष्पद॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
०२ यः सोमे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- [The fire] that is within soma, that is within the kine, that is
entered into the birds, into the wild beasts (mṛgá), that entered into
bipeds, into quadrupeds—to those fires be this oblation made.
Notes
MS. and K. begin b with váyāṅsi yá āvivéṣa; Ppp. with yo viṣṭo
vayasi. The comm. takes the kine in a as representing the domestic
animals in general, the fire being that which makes their milk cooked
instead of raw, as often alluded to. SPP. follows the mss. in reading in
b váyaḥsu; our alteration to the equivalent váyassu was
needless. The verse (10 + 11: 13 + 11 = 45) is bhurij, but also
irregular enough. ⌊Pādas b and d are in order, each a
triṣṭubh; and c, if we throw out the second yás, is a good
jagatī; a is bad.⌋
Griffith
That which abides in Soma and in cattle, that which lies deep in birds and sylvan creatures, That which hath entered quadrupeds and bipeds–to all these Fires be this oblation offered.
पदपाठः
यः। सोमे॑। अ॒न्तः। यः। गोषु॑। अ॒न्तः। यः। आऽवि॑ष्टः। वयः॑ऽसु। यः। मृ॒गेषु॑। यः। आ॒ऽवि॒वेश॑। द्वि॒ऽपदः॑। यः। चतुः॑ऽपदः। तेभ्यः॑। अ॒ग्निऽभ्यः॑। हु॒तम्। अ॒स्तु॒। ए॒तत्। २१.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- शान्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो [अग्नि] (सोमे) सोम [चन्द्र, अमृत वा दूध, घी, आदि] के (अन्तः) भीतर, (यः) जो (गोषु अन्तः) गौ आदि पालतू पशुओं में, (यः) जो (वयःसु) पक्षियों में और (यः) जो (मृगेषु) बनैले जीवों में (आविष्टः) प्रविष्ट है, और (यः) जिसने (द्विपदः) दोपायों, और (यः) जिसने (चतुष्पदः) चौपायों में (आविवेश) प्रवेश किया है, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो अग्नि चन्द्रमा में सूर्य से है और जो सोमलता वा दूध आदि में रस पकाकर पौष्टिक बनाता है, और जो प्राणियों में वेग, बलवत्ता, जंगलीपन, और अन्य विशेषता का कारण है, उस अग्नि के संयोजक, वियोजक परमात्मा को हमारा नमस्कार है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(यः) अग्निः। (सोमे) चन्द्रे। अमृते। सोमलतादुग्धघृतादौ। (अन्तः) मध्ये। (गोषु) ग्राम्यपशुषु। (आविष्टः) प्रविष्टः। (वयःसु) पक्षिषु। (मृगेषु) अ० २।३६।४। आरण्यपशुषु। (आविवेश) म० १। (द्विपदः) अ० २।३४।१। पादद्वययुक्तान् मनुष्यादीन्। (चतुष्पदः) अ० २।३४।१। पादचतुष्टयोपेतान् प्राणिनः। अन्यद्गतम् ॥
०३ य इन्द्रेण
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य इन्द्रे॑ण स॒रथं॒ याति॑ दे॒वो वै॑श्वान॒र उ॒त वि॑श्वदा॒व्यः॑।
यं जोह॑वीमि॒ पृत॑नासु सास॒हिं तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
य इन्द्रे॑ण स॒रथं॒ याति॑ दे॒वो वै॑श्वान॒र उ॒त वि॑श्वदा॒व्यः॑।
यं जोह॑वीमि॒ पृत॑नासु सास॒हिं तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
०३ य इन्द्रेण ...{Loading}...
Whitney
Translation
- He who, a god, goes in the same chariot with Indra, he that belongs
to all men (vāiśvānará) and to all gods (?), whom, very powerful in
fights, I call loudly on—to those fires be this oblation made.
Notes
MS. and K. have for a yéné ’ndrasya ráthaṁ sambabhūvúr, and Ppp.
partly agrees with them, reading ye ’ndreṇa sarathaṁ saṁbabhūva. In
b, the translation ventures to follow Ppp’s reading viśvadevyas
instead of -dāvyàs, because of its so obvious preferability in the
connection; -dāvyas is quite in place in vs. 9, and may perhaps have
blundered from there into this verse; but MS. and K. have -dāvyàs;
they further exchange the places of our 3 c and 4 c. Pāda b
is a very poor triṣṭubh, though capable of being read into 11
syllables ⌊read utá vā?⌋.
Griffith
The Fire that rideth by the side of Indra, the God Vaisvanara,. yea all-consuming, Whom, as the victor, I invoke in battles–to all these Fires be this oblation offered.
पदपाठः
यः। इन्द्रे॑ण। स॒ऽरथ॑म्। याति॑। दे॒वः। वै॒श्वा॒न॒रः। उ॒त। वि॒श्व॒ऽदा॒व्यः᳡। यम्। जोह॑वीमि। पृत॑नासु। स॒स॒हिम्। तेभ्यः॑। अ॒ग्निऽभ्यः॑। हु॒तम्। अ॒स्तु॒। ए॒तत्। २१.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठ
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- शान्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (देवः) प्रकाशमान वा जय चाहनेवाला [अग्नि] (इन्द्रेण) ऐश्वर्यवान् शूर के साथ (सरथम्) एक रथ पर चढ़कर (याति) चलता है, और [जो हमारे] (वैश्वानरः) सब नरों का हितकारी, (उत) और [जो शत्रु का] (विश्वदाव्यः) सब कुछ जलानेवाला है, और (यम्) जिस (सासहिम्) विजयी [अग्नि] को (पृतनासु) संग्रामों में (जोहवीमि) वारंवार आवाहन करता हूँ, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा के तेज को हृदय में धारण करके साहसी शूर आग्नेय अस्त्र-शस्त्रधारी सेना के द्वारा शत्रुओं को शीघ्र जीत लेता है, उस जगदीश्वर को हमारा नमस्कार है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(यः) अग्निः। (इन्द्रेण) ऐश्वर्यवता शूरेण। (सरथम्) समानरथम्। एकरथमारुह्य। (याति) गच्छति। (देवः) दीप्यमानः। विजिगीषुः। (वैश्वानरः) अ० १।१०।४। सर्वनरहितः। (विश्वदात्र्यः) दुन्योरनुपसर्गे। पा० ३।१।१४२। इति दु उपतापे-णः। दावः=उपतापः। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। इति यत्। शत्रूणां सर्वोपतापने साधुः। सर्वदाहकुशलः। (जोहवीमि) अ० २।१२।३। पुनः पुनराह्वयामि। (पृतनासु) वीपतिभ्यां तनन्। उ० ३।१५०। इति पृङ् व्यायामे-तनन्, स च कित्। टाप्। संग्रामेषु-निघ० २।१७। (सासहिम्) अ० ३।१८।५। ससहिम्। अभिभवितारम्। अन्यद् गतम् ॥
०४ यो देवो
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यो दे॒वो वि॒श्वाद्यमु॒ काम॑मा॒हुर्यं दा॒तारं॑ प्रतिगृ॒ह्णन्त॑मा॒हुः।
यो धीरः॑ श॒क्रः प॑रि॒भूरदा॑भ्य॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यो दे॒वो वि॒श्वाद्यमु॒ काम॑मा॒हुर्यं दा॒तारं॑ प्रतिगृ॒ह्णन्त॑मा॒हुः।
यो धीरः॑ श॒क्रः प॑रि॒भूरदा॑भ्य॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
०४ यो देवो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- He who is the all-eating god, and whom they call Desire (kā́ma),
whom they call giver, receiving one, who is wise, mighty, encompassing,
unharmable—to those fires be this oblation made.
Notes
MS. begins the verse with viśvā́dam agním; K., with hutādam agnim; of
b, both spoil the meter by reading pratigrahītā́ram; MS. begins
c with dhī́ro yáḥ; K’s c is corrupt. Ppp. reads āha for
āhus in a (not in b also). The comm. simply paraphrases
pratigṛhṇántam by pratigrahītī́ram; the reference is probably to the
offerings which Agni receives in order to give them to the various
gods. In our edition, an accent-mark belonging under ā of āhús in
a has slipped aside to the left.
Griffith
The all-devouring God whom men call Kama, he whom they call the Giver and Receiver, Invincible, pervading, wise, and mighty–to all these Fires be this oblation offered.
पदपाठः
यः। दे॒वः। वि॒श्व॒ऽअत्। यम्। ऊं॒ इति॑। काम॑म्। आ॒हुः। यम्। दा॒तार॑म्। प्र॒ति॒ऽगृ॒ह्णन्त॑म्। आ॒हुः। यः। धीरः॑। श॒क्रः। प॒रि॒ऽभूः। अदा॑भ्यः। तेभ्यः॑। अ॒ग्निऽभ्यः॑। हु॒तम्। अ॒स्तु॒। ए॒तत्। २१.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- त्रिष्टुप्
- शान्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (देवः) प्रकाशमान अग्नि, [वैरियों में] (विश्वात्) सबका खानेवाला है, (यम्) जिसको (उ) ही (कामम्) कमनीय वा कामना पूरी करनेवाला (आहुः) लोग कहते हैं, (यम्) जिसको (दातारम्) देनेवाला और (प्रतिगृह्णन्तम्) लेनेवाला (आहुः) बताते हैं। (यः) जो (धीरः) पुष्टि करनेवाला, (शक्रः) शक्तिमान् (परिभूः) सर्वव्यापक और (अदाभ्यः) न दबने योग्य है, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा को विद्वान् लोग आनन्ददाता और प्रार्थना का माननेवाला जानते हैं, और जिसके ध्यान से पुरुषार्थी लोग शत्रुओं को जीतते हैं, उसको हमारा प्रणाम है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(देवः) प्रकाशमानोऽग्निः। (विश्वात्) अदोऽनन्ने। अ० ३।२।६८। इति विश्व+अद भक्षणे-विट्। शत्रूणां सर्वभक्षकः। (कामम्) कमु इच्छायाम्-घञ्। कमनीयम्। कामयितारम्। (आहुः) ब्रूञ्-लेट्। ब्रुवन्ति। (दातारम्) इष्टफलस्य प्रदातारम्। (प्रतिगृह्णन्तम्) ग्रह-शतृ। प्रार्थनायाः स्वीकर्तारम्। (धीरः) अ० २।३५।३। धाञ्-क्रन्, ईत्वम्। दधाति पोषयतीति। धारकः। पोषकः। (शक्रः) अ० २।५।४। शक्तिमान्। (परिभूः) परि+भू सत्तायाम्, प्राप्तौ-क्विप्। सर्वव्यापकः। (अदाभ्यः) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।२२४। इति दम्भु दम्भे-ण्यत्। दभ्नोतिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। अहिंस्यः। अजेयः ॥
०५ यं त्वा
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यं त्वा॒ होता॑रं॒ मन॑सा॒भि सं॑वि॒दुस्त्रयो॑दश भौव॒नाः पञ्च॑ मान॒वाः।
व॑र्चो॒धसे॑ य॒शसे॑ सू॒नृता॑वते॒ तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यं त्वा॒ होता॑रं॒ मन॑सा॒भि सं॑वि॒दुस्त्रयो॑दश भौव॒नाः पञ्च॑ मान॒वाः।
व॑र्चो॒धसे॑ य॒शसे॑ सू॒नृता॑वते॒ तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
०५ यं त्वा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Thou on whom as priest (hótar) agreed with their mind the thirteen
kinds of beings (bhāuvaná), the five races of men (mānavá): to the
splendor-bestowing, glorious one, rich in pleasantness—to those fires be
this oblation made.
Notes
The unusual and obscure number “thirteen” here seduces the comm. into
declaring first that bhāuvaná signifies “-month,” coming from
bhuvana “year”; and then the mānavā́s are the seasons! But he further
makes the latter to be the four castes, with the niṣādas as fifth, and
the former the thirteen sons, Viśvakarman etc., of a great sage named
bhuvana (because of viśvakarvman bhāuvana in AB. viii. 21. 8-11).
Ppp. reads bhuvanā for bhāuvanā́s. The Anukr. does not heed that the
last pāda is triṣṭubh.
Griffith
To thee, strength-giver, glorious, rich in pleasant strains, whom. in their minds the thirteen creatures of the world, And the five sons of man regard as Hotar-priest–to all these- Fires be this oblation offered.
पदपाठः
यम्। त्चा॒। होता॑रम्। मन॑सा। अ॒भि। स॒म्ऽवि॒दुः। त्रयः॑ऽदश। भौ॒व॒नाः। पञ्च॑। मा॒न॒वाः। व॒र्चः॒ऽधसे॑। य॒शसे॑। सू॒नृता॑ऽवते। तेभ्यः॑। अ॒ग्निऽभ्यः॑। हु॒तम्। अ॒स्तु॒। ए॒तत्। २१.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- जगती
- शान्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (त्रयोदश) तेरह [दो कान, दो नथनें, दो आँखें और एक मुख यह सात शिर के, और दो हाथ, दो पद, एक उपस्थेन्द्रिय, और एक गुदास्थान, यह छः शिर के नीचे के] (भौवनाः) भुवनों से संबन्धवाले प्राणी, और (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश, इन पाँच तत्त्व] से संबन्धवाले (मानवाः) मनुष्य (मनसा) मनन शक्ति से (वर्चोधसे) तेज धारण करानेवाले और (सूनृतावते) प्रिय सत्य वाणीवाले (यशसे) यश के लिये (यम्) जिस (त्वा) तुझ [अग्नि] को (होतारम्) दानी (अभि) सब प्रकार (संविदुः) ठीक-ठीक जानते हैं, (तेभ्यः) उन (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब शरीरधारी उस परमपिता की महिमा विचारपूर्वक गाकर तेजस्वी, सत्यवादी और यशस्वी होते हैं, उसको यह हमारा नमस्कार है ॥५॥ पञ्च मानवाः शब्द पञ्चजनाः शब्द का पर्यायवाची है, जिसका अर्थमनुष्य है−निघ० २।३। उसकी व्याख्या, निरु० ३।८ में इस प्रकार की है−“पञ्च जनाः गन्धर्व, पितर, देव, असुर और राक्षस, ऐसा कोई-२ मानते हैं, चारों वर्ण और निषाद पाँचवाँ, यह औपमन्यव ऋषि का मत है निषाद किस लिये, इसमें पाप स्थित है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(यम्। त्वा) अग्निम्। (होतारम्) दातारम्। मनसा। मननेन। चित्तेन। (अभि) अभितः सर्वतः। (संविदुः) विद ज्ञाने-लट्। सम्यग् विदन्ति जानन्ति। (त्रयोदश) त्रयश्च दश च। सप्त शीर्षण्याः षड् अधोभागस्थाः पाणिपादोपस्थगुदावयवाः। (भौवनाः) भू सत्तायाम्-क्युन्, इति भुवनम्। अ० २।१।३। भुवन्-अण्। भुवनानि भवनानि गृणानि इन्द्रियाणि येषां ते भौवनाः प्राणिनः। (पञ्च, मानवाः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति मनु-अण्। मनुर्मननं येषां ते मानवाः। पञ्च भूतसम्बन्धिनो मनुष्याः। अथवा, पञ्चमानवा एव पञ्च जनाः। पञ्चजनाः, मनुष्यनाम-निघ० २।३। पञ्चजनाः…….. गन्धर्वाः पितरो देवा असुरा रक्षांसीत्येके चत्वारो वर्णा निषादः पञ्चम इत्यौपमन्यवो निषादः कस्मान्निषण्णमस्मिन् पापकमिति नैरुक्ताः-निरु० ३।८। (वर्चोधसे) दधातेरसुन्। तेजसां दात्रे। (यशसे) अशेर्देवने युट् च। उ० ४।१९१। इति अशू व्याप्तौ-असुन्, युडागमश्च, देवनं स्तुतिः। यशःप्राप्तये। (सूनृतावते) अ० ३।१२।२। प्रियसत्यात्मिका वाक् सूनृता, तद्वते। एवंभूताय यशसे। अन्यद् गतम् ॥
०६ उक्षान्नाय वशान्नाय
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उ॒क्षान्ना॑य व॒शान्ना॑य॒ सोम॑पृष्ठाय वे॒धसे॑।
वै॑श्वान॒रज्ये॑ष्ठेभ्य॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उ॒क्षान्ना॑य व॒शान्ना॑य॒ सोम॑पृष्ठाय वे॒धसे॑।
वै॑श्वान॒रज्ये॑ष्ठेभ्य॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
०६ उक्षान्नाय वशान्नाय ...{Loading}...
Whitney
Translation
- To him whose food is oxen, whose food is cows, to the soma-backed,
the pious: to those of whom the one for all men (vāiśvānará-) is
chief—to those fires be this oblation made.
Notes
The first half-verse is RV. viii. 43. 11 a, b (also found, without
variant, in TS. i. 3. 147). MS. (ii. 13. 13) has the whole verse as
pādas a, b, d, e, interposing as c the pāda (stómair vidhemā
’gnáye) which ends the gāyatrī in RV.TS. The meter (8 + 8: 8 + 11)
is, as bṛhatī, rather nicṛt than virāj.
Griffith
To him who feeds on ox and cow, sage, bearing Soma on his back, To all Vaisvanara’s followers–to these be this oblation paid.
पदपाठः
उ॒क्षऽअ॑न्नाय। व॒शाऽअन्ना॑य। सोम॑ऽपृष्ठाय। वे॒धसे॑। वै॒श्वा॒न॒रऽज्ये॑ष्ठेभ्यः। तेभ्यः॑। अ॒ग्निऽभ्यः॑। हु॒तम्। अ॒स्तु॒। ए॒तत्। २१.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- उपरिष्टाद्विराड्बृहती
- शान्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (उक्षान्नाय) प्रबलों के अन्नदाता, (वशान्नाय) वशीभूत निर्बल प्रजाओं के अन्नदाता, (सोमपृष्ठाय) अमृत सींचनेवाले और (वेधसे) उत्पन्न करनेवाले (तेभ्यः) उन [चार प्रकार के] (वैश्वानरज्येष्ठेभ्यः) सब नरों के हितकारी [परमेश्वर] को प्रधान रखनेवाले (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस (वैश्वानर) सब मनुष्य आदि के हितकारी परमेश्वर की शक्ति से सब प्राणी पुष्ट होते हैं, उसको हमारा नमस्कार है ॥६॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध ऋग्वेद ८।४३।११ में है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(उक्षान्नाय) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति उक्ष सेचने, वृद्धौ च-कनिन्। उक्षा महन्नाम-निघ० ३।३। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः। निरु० १२।९। कॄवृजॄसिद्रुपन्यनि०। उ० ३।१०। इति अन प्राणने-न। इति अन्नम्। उक्षभ्यो महद्भ्यः प्रबलेभ्योऽन्नं यस्मात् तस्मै। प्रबलानां भोजनदात्रे। (वशान्नाय) वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा० पा० ३।३।५८। इति वश स्पृहायाम्-अप्, टाप्। वशाभ्यो वशीभूताभ्यः प्रजाभ्योऽन्नं यस्मात् तस्मै। निर्बलप्रजानां भोजनदात्रे। (सोमपृष्ठाय) तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। इति पृषु सेचने-थक्। अमृतसेचकाय। (वेधसे) अ० ११।१। विधात्रे। विधानकर्त्रे (वेश्वानरज्येष्ठेभ्यः) वैश्वानर इति व्याख्यातम्-अ० १।१०।४। विश्वनरहितः परमेश्वरो ज्येष्ठो वृद्धः प्रधानो येषां तेभ्यः। अन्यद् गतम् ॥
०७ दिवं पृथिवीमन्वन्तरिक्षम्
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दिवं॑ पृथि॒वीमन्व॒न्तरि॑क्षं॒ ये वि॒द्युत॑मनुसं॒चर॑न्ति।
ये दि॒क्ष्व॑१न्तर्ये वाते॑ अ॒न्तस्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दिवं॑ पृथि॒वीमन्व॒न्तरि॑क्षं॒ ये वि॒द्युत॑मनुसं॒चर॑न्ति।
ये दि॒क्ष्व॑१न्तर्ये वाते॑ अ॒न्तस्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥
०७ दिवं पृथिवीमन्वन्तरिक्षम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- They who move on along the sky, the earth, the atmosphere, along the
lightning; who are within the quarters, who within the wind—to those
fires be this oblation made.
Notes
Our P.M.W. read in b vīdyútam, and P.M.W.I, end the pāda with
-carati. SPP. regards the exposition of the comm. as implying that the
latter takes anu in b as an independent word: ánu saṁc-. In the
definition of the Anukr., virāj appears to be used as meaning ‘a pāda
of 10 syllables’ (11 + 10: 10 + 11 = 42). ⌊Read yé ca vā́te?⌋
The three remaining verses of the hymn are plainly independent of what
precedes, concerning themselves directly with the appeasement of an
ill-omened fire; but the combination of the two parts is an old one,
being found also in Ppp. The ejection of the evidently patched-together
vs. 6 would reduce the first part ⌊vss. 1-7⌋ to the norm of this book.
Griffith
All fiery flames that follow after lightning, flashing o’er earth, through firmament and heaven, All that are in the wind and skyey regions–to all these Fires be this oblation offered.
पदपाठः
दिव॑म्। पृ॒थि॒वीम्। अनु॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। ये। वि॒ऽद्युत॑म्। अ॒नु॒ऽसं॒चर॑न्ति। ये। दि॒क्षु। अ॒न्तः। ये। वाते॑। अ॒न्तः। तेभ्यः॑। अ॒ग्निऽभ्यः॑। हु॒तम्। अ॒स्तु॒। ए॒तत्। २१.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- विराड्गर्भा त्रिष्टुप्
- शान्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो [तेज] (दिवम्) सूर्यलोक में, (पृथिवीम्) पृथिवी में और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (अनु) लगातार और (विद्युतम्) बिजुली में (अनुसंचरन्ति) लगातार चलते रहते हैं, (ये) जो (दिक्षु अन्तः) दिशाओं के भीतर और (ये) जो (वाते अन्तः) पवन के भीतर हैं, (तेभ्यः) उन (अग्निभिः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा के तेज सब लोकों, सब पदार्थों और सब दिशाओं में हैं, उस जगदीश्वर को हमारा नमस्कार है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(दिवम्) सूर्यलोकम्। (पृथिवीम्) भूमिम्। (अनु) अनुप्रविश्य। (ये) अग्नयः। (विद्युतम्) अ० १।१३।१। विद्योतमानां तडितम्। (अनुसंचरन्ति)। अनुप्रविश्य सम्यग् गच्छन्ति व्याप्नुवन्ति। अन्यद् गतम् ॥
०८ हिरण्यपाणिं सवितारमिन्द्रम्
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हिर॑ण्यपाणिं सवि॒तार॒मिन्द्रं॒ बृह॒स्पतिं॒ वरु॑णं मि॒त्रम॒ग्निम्।
विश्वा॑न्दे॒वानङ्गि॑रसो हवामह इ॒मं क्र॒व्यादं॑ शमयन्त्व॒ग्निम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
हिर॑ण्यपाणिं सवि॒तार॒मिन्द्रं॒ बृह॒स्पतिं॒ वरु॑णं मि॒त्रम॒ग्निम्।
विश्वा॑न्दे॒वानङ्गि॑रसो हवामह इ॒मं क्र॒व्यादं॑ शमयन्त्व॒ग्निम् ॥
०८ हिरण्यपाणिं सवितारमिन्द्रम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Gold-handed Savitar, Indra, Brihaspati, Varuṇa, Mitra, Agni, all the
gods, the Angirases, do we call; let them appease (śam) this
flesh-eating fire.
Notes
Ppp. inverts the order of a and b. ⌊MGS. has the vs. at ii. i.
6.⌋ The comm. gives a double explanation of “gold-handed”: either
“having gold in his hand to give to his praisers,” or “having a hand of
gold”; he also allows us to take án̄girasas either as accusative or as
nominative, “we the Angirases.” The Anukr. notes that c is jagatī.
Griffith
The golden-handed Savitar and Indra, Brihaspati, Varuna, Mitra, and Agni, The Angirases we call, the Visve Devas: let them appease this Agni, Flesh-devourer.
पदपाठः
हिर॑ण्यऽपाणिम्। स॒वि॒तार॑म्। इन्द्र॑म्। बृह॒स्पति॑म्। वरु॑णम्। मि॒त्रम्। अ॒ग्निम्। विश्वा॑न्। दे॒वान्। अङ्गि॑रसः। ह॒वा॒म॒हे॒। इ॒मम्। क्र॒व्य॒ऽअद॑म्। श॒म॒य॒न्तु॒। अ॒ग्निम्। २१.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- शान्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (हिरण्यपाणिम्) सूर्य आदि तेजों से स्तुति किये हुए (सवितारम्) सबके प्रेरक (इन्द्रम्) बड़े ऐश्वर्यवाले (बृहस्पतिम्) बड़े लोकों के रक्षक (वरुणम्) सबमें श्रेष्ठ, (मित्रम्) हितकारी (अग्निम्) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर से (विश्वान्) सब (देवान्) विजय करानेवाले (अङ्गिरसः) ज्ञानों वा पुरुषार्थों को (हवामहे) हम माँगते हैं (इमम्) इस (क्रव्यादम्) मांस खानेवाले (अग्निम्) अग्नि [समान दुःख] को (शमयन्तु) वे शान्त कर दें ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य ईश्वर के अनुपम गुणों का अनुभव करके पुरुषार्थी बनें और अग्नि समान तापकारी और शरीरशोषक दुःखों का नाश करें ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(हिरण्यपाणिम्) हिरण्यम्-इति व्याख्यातम्। अ० १।९।२। अशिपणाय्योरुडायलुकौ च। उ० ४।१३३। इति पण व्यवहारे, पन स्तुतौ च-इण्। इति पाणिः। हिरण्यपाणिम्-हिरण्यानि सूर्यादीनि तेजांसि पाणौ स्तवने यस्य तम्-इति दयानन्दभाष्ये य० २२।१०। (सवितारम्) सर्वप्रेरकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम्। (बृहस्पतिम्) बृहतां लोकानां रक्षकम्। (वरुणम्) वरणीयम्। (मित्रम्) स्नेहिनम्। (अग्निम्) ज्ञानस्वरूपं परमेश्वरम्। (देवान्) विजिगीषून्। (अङ्गिरसः) अ० २।१२।४। अगि गतौ-भावे इसि, रुट् च। ज्ञानानि। पुरुषार्थान्। (हवामहे) आह्वयामः। याचामहे। द्विकर्मकत्वाद् अग्निम्-इत्यस्य, अङ्गिरसः-इत्यस्य च कर्मत्वम्। (क्रव्यादम्) क्रव्ये च। पा० ३।२।६९। इति अदेर्विट् मांसभक्षकम्। (शमयन्तु) शान्तं कुर्वन्तु। (अग्निम्) अग्निवत्तापकं दुःखम् ॥
०९ शान्तो अग्निः
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शा॒न्तो अ॒ग्निः क्र॒व्याच्छा॒न्तः पु॑रुष॒रेष॑णः।
अथो॒ यो वि॑श्वदा॒व्य॑१स्तं क्र॒व्याद॑मशीशमम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
शा॒न्तो अ॒ग्निः क्र॒व्याच्छा॒न्तः पु॑रुष॒रेष॑णः।
अथो॒ यो वि॑श्वदा॒व्य॑१स्तं क्र॒व्याद॑मशीशमम् ॥
०९ शान्तो अग्निः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Appeased is the flesh-eating, appeased the men-injuring fire; so also
the one that is of all conflagrations, him, the flesh-eating, have I
appeased.
Notes
Ppp. has atho puruṣareṣiṇaḥ for b, and this time viśvadavyas in
c. The anuṣṭubh is rather virāj than nicṛt.
Griffith
Flesh-eating Agni is appeased, appeased is he who hurteth men. Now him who burneth every thing, the Flesh-consumer, have I stilled.
पदपाठः
शा॒न्तः। अ॒ग्निः। क्र॒व्य॒ऽअत्। शा॒न्तः। पु॒रु॒ष॒ऽरेष॑णः। अथो॒ इति॑। यः। वि॒श्व॒ऽदा॒व्यः᳡। तम्। क्र॒व्य॒ऽअद॑म्। अ॒शी॒श॒म॒म्। २१.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- निचृदनुष्टुप्
- शान्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (क्रव्यात्) मांस खानेवाला (अग्निः) अग्नि [समान तापकारी दुःख] (शान्तः) शान्त हो। (पुरुषरेषणः) पुरुषों का सतानेवाला [कष्ट] (शान्तः) शान्त हो। (अथो) और भी (यः) जो (विश्वदाव्यः) सब [सुखों] का जलानेवाला है (तम्) उस (क्रव्यादम्) मांस खानेवाले [अग्निरूप दुःख] को (अशीशमम्) मैंने शान्त कर दिया है ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - दूरदर्शी पुरुष विघ्नों को हटाकर आप सुखी रहते और सबको सुखी रखते हैं ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(शान्तः) सुखकरः। (अग्निः) अग्निवत्तापकरं दुःखम्। (क्रव्यात्) म० ८। मांसभक्षकः। (पुरुषरेषणः) रिष वधे-ल्युट्। पुरुषहिंसकः। (विश्वदाव्यः) म० ३। सर्वसुखनाशनसमर्थः। (अशीशमम्) शमु उपशमे-ण्यन्तात् लुङि चङि रूपम्। अहं शान्तं कृतवान्। अन्यद् गतम् ॥
१० ये पर्वताः
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ये पर्व॑ताः॒ सोम॑पृष्ठा॒ आप॑ उत्तान॒शीव॑रीः।
वातः॑ प॒र्जन्य॒ आद॒ग्निस्ते क्र॒व्याद॑मशीशमन् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ये पर्व॑ताः॒ सोम॑पृष्ठा॒ आप॑ उत्तान॒शीव॑रीः।
वातः॑ प॒र्जन्य॒ आद॒ग्निस्ते क्र॒व्याद॑मशीशमन् ॥
१० ये पर्वताः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The mountains that are soma-backed, the waters that lie supine, the
wind, Parjanya, then also Agni—these have appeased the flesh-eating one.
Notes
All our mss. save one (O.), and all SPP’s save two or three that follow
the comm., read aśīśamam (apparently by infection from the end of vs.
9) at the end; both editions emend to -man, which is the reading of
the comm. ⌊Ppp. has the vs. in vii. (as noted above), and combines
-pṛṣṭhā ”pa in a-b and parjanyā ”d in c.—For “soma-backed,”
see Hillebrandt, Ved. Mythol. i. 60 f.⌋
Griffith
The mountains where the Soma grows, the waters lying calm and still, Vata, Parjanya, Agni’s self have made the Flesh-consumer rest.
पदपाठः
ये। पर्व॑ताः। सोम॑ऽपृष्ठाः। आपः॑। उ॒त्ता॒न॒ऽशीव॑रीः। वातः॑। प॒र्जन्यः॑। आत्। अ॒ग्निः। ते। क्र॒व्य॒ऽअद॑म्। अ॒शी॒श॒म॒न्। २१.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठ
- अनुष्टुप्
- शान्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (पर्वताः) पहाड़ (सोमपृष्ठाः) सोम [अमृत अर्थात् ओषधि वा जल] को पीठ पर रखनेवाले हैं, [उन्होंने और] (उत्तानशीवरीः वर्यः) ऊपर को मुख करके सोनेवाले [सूर्य की ओर चढ़नेवाले] (आपः) जल, (वातः) पवन, (पर्जन्यः) मेघ, (आत्) और (अग्निः) अग्नि, (ते) उन सबने (क्रव्यादम्) मांसभक्षक [अग्नि रूप दुःख] को (अशीशमन्) शान्त कर दिया है ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रयत्न करें कि सोमलता आदि औषध उत्पन्न करनेवाले पर्वत, जल, वायु, मेघ, अग्नि आदि सब पदार्थ शुद्ध रहकर सुखदायक होवें ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०−(पर्वताः) पर्व पूर्त्तौ-अतच्। शैलाः। (सोमपृष्ठाः) सोमः, अमृतम् ओषधिर्जलं वा पृष्ठे उपरिभागे येषां ते तथाभूताः। (आपः) जलानि। (उत्तानशीवरीः) उत्+तनु विस्तारे-घञ्। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति शीङः क्वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्व सवर्णदीर्घः। ऊर्ध्वमुखशयाः। सूर्याभिमुखवर्त्तमानाः। (वातः) वायुः। (पर्जन्यः)। सेचको मेघः। (आत्) अपि च। (अग्निः) पावकः। (क्रव्यादम्) मांसभक्षकं रोगम्। (अशीशमन्) शमु णिच्, लुङि। शान्तं कृतवन्तः ॥