०२० रयिसंवर्धनम् ...{Loading}...
Whitney subject
- To Agni and other gods: for various blessings.
VH anukramaṇī
रयिसंवर्धनम्।
१-१० वसिष्ठः। १-२ अग्निःच ३ अर्यमा, भगः, बृहस्पतिः, देवीः, ४ सोमः, अग्निः, आदित्यः, विष्णुः, ब्रह्मा, बृहस्पतिः, ५ अग्निः, ६ इन्द्रवायू, ७ अर्यमा, बृहस्पतिः, इन्द्रः, वातः, विष्णुः, सरस्वती, सविता, वाजी, ८ विश्वा भुवनानि, ९ पञ्च प्रदिशः, १० वायुस्त्वष्टा। अनुष्टुप्, ६ पथ्यापङ्क्तिः, ८ विराड् जगती।
Whitney anukramaṇī
[Vasiṣṭha.—daśarcam. āgteyam uta mantroktadevatyam. ānuṣṭubham: 6. patkyāpan̄kti; 8. virāḍjagatī.]
Whitney
Comment
Excepting the last verse, the hymn is found in Pāipp. iii. (in the verse-order 1-3, 7, 4, 6, 5, 8, 9). It includes (vss. 2-7) a whole RV. hymn (x. 141), with a single RV. verse (iii. 29. 10) prefixed, and only the last two verses occur nowhere else. It is used in Kāuś. (18. 13) in the nirṛtikarman, with an offering of rice mixed with pebbles; again (40. 11), in the rite of the removal of the sacrificial fire, with transfer of it to the fire-sticks or to one’s self; again (41. 8), with v. 7 and vii. 1, in a rite for success in winning wealth; and the comm. directs vs. 4 to be used in the sava sacrifices (ity anayā bhṛgvan̄girovidaś catura ārṣeyān āhvayet). In Vāit., vs. 1 appears in the agniṣṭoma sacrifice (24. 14), and again in the sarvamedha (38. 14) with the same use as in Kāuś. 40. 11; and also in the agnicayana (28. 25), with the laying of the gārhapatya bricks; further, verses 2-4 and 7 and 8 in the agnicayana (29. 19); vs. 4 a, b in the agniṣṭoma (15. 16), as the adhvaryu follows the fire and soma; vs. 5 in the same (23. 20), with certain offerings; and vs. 6 in the same (19. 2), with a graha to Indra and Vāyu.
Translations
Translated: Weber, xvii. 272; Griffith, i. III.—See Weber, Berliner Sb., 1892, p. 797.
Griffith
A prayer for riches and general prosperity
०१ अयं ते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒यं ते॒ योनि॑रृ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तो अरो॑चथाः।
तं जा॒नन्न॑ग्न॒ आ रो॒हाथा॑ नो वर्धया र॒यिम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒यं ते॒ योनि॑रृ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तो अरो॑चथाः।
तं जा॒नन्न॑ग्न॒ आ रो॒हाथा॑ नो वर्धया र॒यिम् ॥
०१ अयं ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- This is thy seasonable womb (yóni), whence born thou didst shine;
knowing it, O Agni, ascend thou; then increase our wealth.
Notes
The verse is found in numerous other texts: besides RV. (iii. 29. 10),
in VS. (iii. 14 et al.), TS. (i. 5. 5² et al.), TB. (i. 2. 1¹⁶ et al.),
MS. (i. 5. 1 et al.), K. (vi. 9 et al.), Kap. (i. 16 et al.), JB. (i.
6l): in nearly all occurring repeatedly. VS.TS.TB.JB. differ from our
version only by reading áthā for ádhā at beginning of d; Ppp.
and the comm. have atha; MS.K. substitute tátas; but RV. gives
further sīda for roha in c, and gíras for rayím in d.
The comm., in accordance with the ritual uses of the verse, declares
ayám at the beginning to signify either the fire-stick or the
sacrificer himself.
Griffith
This is thine ordered place of birth whence sprung to life thou shinest forth. Knowing this, Agni, mount on high and cause our riches to increase.
पदपाठः
अ॒यम्। ते॒। योनिः॑। ऋ॒त्वियः॑। यतः॑। जा॒तः। अरो॑चथाः। तम्। जा॒नन्। अ॒ग्ने॒। आ। रो॒ह॒। अध॑। नः॒। व॒र्ध॒य॒। र॒यिम्। २०.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- रयिसंवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (अयम्) यह [सर्वव्यापी परमेश्वर] (ते) तेरा (ऋत्वियः) सब ऋतुओं [कालों] में मिलनेवाला (योनिः) कारण है, (यतः) जिससे (जातः) प्रकट होकर (अरोचनाः) तू प्रकाशमान हुआ है, (तम्) उस [योनि] को (जानन्) पहिचानकर (आ रोह) ऊँचा चढ़, (अथ) और (नः) हमारे लिये (रयिम्) धन (वर्धय) बढ़ा ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने अपनी सर्वशक्तिमत्ता और सर्वव्यापकता से हमें बड़ा समर्थ और उपकारी मनुष्य देह दिया है, ऐसा जानकर हम अपना ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद ३।२९।१०। और यजुर्वेद ३।१४ और १२।५२ एवं १५।५६। में है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(अयम्) सर्वत्र दृश्यमानः। (ते) तव। (योनिः) अ० १।११।३। कारणम्। (ऋत्वियः) अर्त्तेश्च तुः। उ०। ऋ गतौ-तु, चकारात् कित्। छन्दसि घस्। पा० ५।१।१०६। इति ऋतुशब्दात् तस्य प्राप्तमित्यर्थे घस्। इयादेशः। सर्वेषु ऋतुषु कालेषु प्राप्तः। (यतः) यस्माद् योनेः। (जातः) उत्पन्नः। प्रकटः सन्। (अरोचथाः) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च लङ्। त्वम् अदीप्यथाः। दीप्तोऽभवः। (तम्) योनिम्। (जानन्) अवगच्छन्। (अग्ने) अगि गतौ-नि। हे विद्वन्। (आ रोह) उन्नतिं प्राप्नुहि। (अथ) अनन्तरम्। (नः) अस्मभ्यम्। (वर्धय) समर्धय। (रयिम्) धनम्। ऐश्वर्यम् ॥
०२ अग्ने अच्छा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अग्ने॒ अच्छा॑ वदे॒ह नः॑ प्र॒त्यङ्नः॑ सु॒मना॑ भव।
प्र णो॑ यच्छ विशां पते धन॒दा अ॑सि न॒स्त्वम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अग्ने॒ अच्छा॑ वदे॒ह नः॑ प्र॒त्यङ्नः॑ सु॒मना॑ भव।
प्र णो॑ यच्छ विशां पते धन॒दा अ॑सि न॒स्त्वम् ॥
०२ अग्ने अच्छा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- O Agni, speak unto us here; be turned toward us with good-will;
bestow upon us, O lord of the people (víś); giver of riches art thou
to us.
Notes
RV. x. 141 begins with this verse, and it is found also in VS. (ix. 28),
TS. (i. 7. 10²), MS. (i. 11. 4), and K. (xiv. 2). RV.VS.MS.K. have prá
no y- in c, and, for viśām pate, RV.MS.K. read viśas pate, TS.
bhuvas p-, and VS. sahasrajit; VS. goes on with tváṁ hí dhanadā́
ási for d; VS.TS. further have práti for pratyán̄ in b. Ppp.
combines in d dhanadā ’si.
Griffith
Turn hither, Agni, speak to us, come to us with a friendly mind. Enrich us, Sovran of the Tribes! Thou art the giver of our wealth.
पदपाठः
अग्ने॑। अच्छ॑। व॒द॒। इ॒ह। नः॒। प्र॒त्यङ्। नः॒। सु॒ऽमनाः॑। भ॒व॒। प्र। नः॒। य॒च्छ॒। वि॒शा॒म्। प॒ते॒। ध॒न॒ऽदाः। अ॒सि॒। नः॒। त्वम्। २०.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- रयिसंवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (अच्छ) अच्छे प्रकार से (इह) यहाँ पर (नः) हमसे (वद) बोल, और (प्रत्यङ्) प्रत्यक्ष होकर (नः) हमारे लिए (सुमनाः) प्रसन्न मन (भव) हो। (विशाम् पते) हे प्रजाओं के रक्षक ! (नः) हमें (प्र यच्छ) दान दे, (त्वम्) तू (नः) हमारा (धनदाः) धनदाता (असि) है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब मनुष्य विद्वानों से विद्या ग्रहण करके संसार में ऐश्वर्य प्राप्त करें ॥२॥ मन्त्र २-७ ऋग्वेद म० १० सू० १४१ म० १-५ में कुछ भेद से हैं। यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद अ० ९ मन्त्र २८ में है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(अग्ने) हे विद्वन् ! (अच्छ) सम्यक्। (वद) ब्रूहि। उपदिश। (इह) अत्र समाजे। (प्रत्यङ्) प्रत्यञ्चन् अभिमुखं गच्छन्। (नः) अस्मान्। अस्मभ्यम्। (सुमनाः) प्रीतिमनाः। (प्र यच्छ) दानं कुरु। (विशांपते) हे प्रजानां पालक। (धनदाः) धन+दा-विच्। ऐश्वर्यस्य दाता। अन्यत् सुगमम् ॥
०३ प्र णो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्र णो॑ यच्छत्वर्य॒मा प्र भगः॒ प्र बृह॒स्पतिः॑।
प्र दे॒वीः प्रोत सू॒नृता॑ र॒यिं दे॒वी द॑धातु मे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्र णो॑ यच्छत्वर्य॒मा प्र भगः॒ प्र बृह॒स्पतिः॑।
प्र दे॒वीः प्रोत सू॒नृता॑ र॒यिं दे॒वी द॑धातु मे ॥
०३ प्र णो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let Aryaman bestow upon us, let Bhaga, let Brihaspati, let the
goddesses; let the divine Sūnṛtā also assign wealth to me.
Notes
Found also in the other texts (RV. x. 141. 2; VS. ix. 29; the rest as
above; and Kap. 29. 2). All of these, excepting TS., leave no in a
again unlingualized; VS.K. substitute pūṣā́ for bhágas in b, and
omit c; the others have devā́s instead of devī́s; for d, RV.
gives rāyó devī́ dadātu naḥ, while the others vary from this only by
prá vā́k for rāyás. By Sūnṛta (lit. ‘pleasantness, jollity’) the
comm. understands Sarasvatī to be intended.
Griffith
Let Aryaman vouchsafe us, wealth, and Bhaga, and Brihaspati, The Goddesses grant wealth to us, Sunrita, Goddess, give me wealth!
पदपाठः
प्र। नः॒। य॒च्छ॒तु॒। अ॒र्य॒मा। प्र। भगः॑। प्र। बृह॒स्पतिः॑। प्र। दे॒वीः। प्र। उ॒त। सू॒नृता॑। र॒यिम्। दे॒वी। द॒धा॒तु॒। मे॒। २०.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अर्यमा, भगः, बृहस्पतिः, देवी
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- रयिसंवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अर्यमा) वैरियों का नियन्ता वीर पुरुष, (प्र) अच्छे प्रकार (भगः) ऐश्वर्यवान् धनी पुरुष (प्र) अच्छे प्रकार, और (बृहस्पतिः) बड़ी-बड़ी विद्याओं का स्वामी, प्रधान आचार्य (प्र) अच्छे प्रकार (नः) हमें (देवीः) दिव्य शक्तियाँ (प्र यच्छतु) प्रदान करे। (उत) और (सूनृता) प्रिय सत्य वाणी (देवी) देवी [दिव्य गुणवाली] (मे) मुझे (रयिम्) ऐश्वर्य (प्र) अच्छे प्रकार (दधातु) देवे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य, विशेष गुणी आचार्यों से विशेष शिक्षाएँ पाकर, सत्यवादी सत्यकर्मी होकर ऐश्वर्यवान् होवें ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद ९।२९। में है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(नः) अस्मभ्यम्। (प्र यच्छतु) ददातु। (अर्यमा) अ० १।११।१। अ० ३।१४।२। शत्रुनियन्ता। (प्र) प्रकर्षेण। (भगः) ऐश्वर्यवान् पुरुषः। (बृहस्पतिः) अ० १।८।२। बृहतां बोधानां पालकः। आचार्यः। (देवीः) व्यावहारिकाः शक्तीः। (सूनृता) अ० ३।१२।२। सत्यप्रियात्मिका वाक्। सरस्वती। (रयिम्) ऐश्वर्यम्। (देवी) शोभनगुणवती। (दधातु) ददातु। (मे) मह्यम् ॥
०४ सोमं राजानमवसेऽग्निम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सोमं॒ राजा॑न॒मव॑से॒ऽग्निं गी॒र्भिर्ह॑वामहे।
आ॑दि॒त्यं विष्णुं॒ सूर्यं॑ ब्र॒ह्माणं॑ च॒ बृह॒स्पति॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सोमं॒ राजा॑न॒मव॑से॒ऽग्निं गी॒र्भिर्ह॑वामहे।
आ॑दि॒त्यं विष्णुं॒ सूर्यं॑ ब्र॒ह्माणं॑ च॒ बृह॒स्पति॑म् ॥
०४ सोमं राजानमवसेऽग्निम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- King Soma [and] Agni we call to aid with [our] songs (gír);
[also] Āditya, Vishṇu, Sūrya, and the priest (brahmán) Brihaspati.
Notes
Found in RV. (x. 141. 3), SV. (i. 91), VS. (ix. 26), and TS.MS.K. (as
above). The only variant in RV. is the preferable ādityā́n in c; it
is read also by the other texts except SV.K.; but SV. TS.MS.K. give
váruṇam for ávase in a; and they and VS. have anv ā́ rabhāmahe
for gīrbhír havāmahe in b. The comm. takes brahmā́ṇam in d as
“Prajapati, creator of the gods.”
Griffith
We call King Soma to our aid, and Agni with our songs and. hymn, The Adityas, Vishnu, Surya, and the Brahman-priest Brihaspati.
पदपाठः
सोम॑म्। राजा॑नम्। अव॑से। अ॒ग्निम्। गीः॒ऽभिः। ह॒वा॒म॒हे॒। आ॒दि॒त्यम्। विष्णु॑म्। सूर्य॑म्। ब्र॒ह्माण॑म्। च॒। बृह॒स्पति॑म्। २०.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोमः, अग्निः, आदित्यः, विष्णुः, ब्रह्मा, बृहस्पतिः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- रयिसंवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अवसे) रक्षा के लिए (गीर्भिः) स्तुतियों से (सोमम्) ऐश्वर्य के कारण, (राजानम्) सबके शासक (अग्निम्) विद्वान् (आदित्यम्) बड़े दीप्यमान, (विष्णुम्) सबमें व्यापक, (सूर्यम्) चलानेवाले, (ब्रह्माणम्) सबमें बड़े वेदप्रकाशक ब्रह्मा (च) और (बृहस्पतिम्) बड़े बड़ों के रक्षक बृहस्पति [परमेश्वर वा मनुष्य] को (हवामहे) हम बुलाते हैं ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब मनुष्य जगदीश्वर के गुण, कर्म स्वभाव के ज्ञान और बड़े लोगों के आश्रय से अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद ९।२६ में है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(सोमम्) अ० १।६।२। ऐश्वर्यहेतुम्। (राजानम्) अ० १।१०।१। सर्वशासकम्। (अवसे) रक्षणाय। (अग्निम्) विद्वांसम्। (गीर्भिः) वाणीभिः। स्तुतिभिः। (हवामहे) आह्वयामः। (आदित्यम्) अ० १।९।१। आदीप्यमानम्। (विष्णुम्) विषेः किच्च। उ० ३।३९। इति विष्लृ, व्याप्तौ-नु। विष्णुः, यज्ञः। निघ० ३।१७। पदनाम, निघ० ४।२। यद्विषितो भवति तद्विष्णुर्भवति विष्णुर्विशतेर्वा-निरु० १२।१८। व्यापकम्। (सूर्यम्) अ० १।३।५। सर्वप्रेरकम्। (ब्रह्माणम्) अ० २।६।२। सर्ववृद्धम्। वेदप्रकाशकम्। (बृहस्पतिम्)। अ० १।८।२। बृहतां महतां पालकम् ॥
०५ त्वं नो
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त्वं नो॑ अग्ने अ॒ग्निभि॒र्ब्रह्म॑ य॒ज्ञं व॑र्धय।
त्वं नो॑ देव॒ दात॑वे र॒यिं दाना॑य चोदय ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्वं नो॑ अग्ने अ॒ग्निभि॒र्ब्रह्म॑ य॒ज्ञं व॑र्धय।
त्वं नो॑ देव॒ दात॑वे र॒यिं दाना॑य चोदय ॥
०५ त्वं नो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Do thou, O Agni, with the fires (agní), increase our worship
(bráhman) and sacrifice; do thou, O god, stir us up to give, unto
giving wealth.
Notes
The second half-verse is of doubtful meaning—perhaps ‘impel to us wealth
for giving’ etc.—being evidently corrupted from the better text of RV.
(x. 141. 6; also SV. ii. 855), which reads in c devátātaye for
deva dā́tave, and in d rāyás for rayím; even Ppp. has
devatātaye. The comm. has dānave (rendering it “to the sacrificer
who has given oblations”) for dātave, also nodaya for codaya.
Griffith
Do thou, O Agni, with thy fires strengthen our prayer and. sacrifice. Incite thou us, O God, to give, and send us riches to bestow.
पदपाठः
त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। अ॒ग्निऽभिः॑। ब्रह्म॑। य॒ज्ञम्। च॒। व॒र्ध॒य॒। त्वम्। नः॒। दे॒व॒। दात॑वे। र॒यिम्। दाना॑य। चो॒द॒य॒। २०.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- रयिसंवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे विद्वान् ! [परमेश्वर वा पुरुष] (अग्निभिः) विद्वानों के द्वारा (त्वम्) तू (नः) हमारे (ब्रह्म) वेद ज्ञान वा ब्रह्मचर्य (च) और (यज्ञम्) यज्ञ [१-विद्वानों के पूजन, २-पदार्थों के संगतिकरण, और ३-विद्यादि के दान] को (वर्धय) बढ़ा, (देव) हे दानशील, ! (त्वम्) तू (नः) हममें से (दातवे) दानशील पुरुष को (दानाय) दान के लिए (रयिम्) धन (चोदय) भेज ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर के ज्ञान से अपना ज्ञान और कर्मकौशल्य बढ़ावें और उपकारी कामों में आप सहायक बनें और दूसरों को सहायक बनावें ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(नः) अस्माकम्। अस्माकं मध्ये। (अग्ने) हे विद्वन् परमेश्वर राजन् वा (अग्निभिः) म० १। विद्वद्भिः सह। (ब्रह्म) वेदज्ञानम्। ब्रह्मचर्यम्। (यज्ञम्) देवपूजनम्। पदार्थसंगतिकरणम्। विद्यादिदानम् (वर्धय) उन्नय। (देव) देवो दानाद्वा दीपनाद्वा-निरु० ७।१५। हे दानशील (दातवे) सितनिगमिमसि०। उ० १।६९। इति डुदाञ्-दाने-तुन्। दात्रे पुरुषाय। (रयिम्) धनम्। (दानाय) त्यागाय। (चोदय) प्रेरय ॥
०६ इन्द्रवायू उभाविह
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इ॑न्द्रवा॒यू उ॒भावि॒ह सु॒हवे॒ह ह॑वामहे।
यथा॑ नः॒ सर्व॒ इज्जनः॒ संग॑त्यां सु॒मना॑ अस॒द्दान॑कामश्च नो॒ भुव॑त् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॑न्द्रवा॒यू उ॒भावि॒ह सु॒हवे॒ह ह॑वामहे।
यथा॑ नः॒ सर्व॒ इज्जनः॒ संग॑त्यां सु॒मना॑ अस॒द्दान॑कामश्च नो॒ भुव॑त् ॥
०६ इन्द्रवायू उभाविह ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Indra-and-Vāyu, both of them here, we call here with good call, that
to us even every man may be well-willing in intercourse, and may become
desirous of giving to us.
Notes
Found also (except the last pāda, which even Ppp. repudiates) in RV. (x.
141. 4), VS. (xxxiii. 86), and MS.K. (as above). For ubhā́v ihá in
a, RV. reads bṛ́haspátim, and the other texts susaṁdṛ́śā. For
d, VS. has anamīváḥ saṁgáme for sáṁgatyām, and MS. the same
without anamīvás; TS. has (in iv. 5. 1²) a nearly corresponding
half-verse: yáthā naḥ sárvam íj jágad ayakṣmáṁ sumánā ásat. Ppp. omits
a, perhaps by an oversight. The comm. takes suhávā in b as for
suhávāu, which is perhaps better. In our edition, the word is
misprinted susáv-.
Griffith
Both Indra here and Vayu we invoke with an auspicious call, That in assembly all the folk may be benevolent to us, and be inclined to give us gifts.
पदपाठः
इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑। उ॒भौ। इ॒ह। सु॒ऽहवा॑। इ॒ह। ह॒वा॒म॒हे॒। यथा॑। नः॒। सर्वः॑। इत्। जनः॑। सम्ऽग॑त्याम्। सु॒ऽमनाः॑। अस॑त्। दान॑ऽकामः। च॒। नः॒। भुव॑त्। २०.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रवायू
- वसिष्ठः
- पथ्यापङ्क्तिः
- रयिसंवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (उभौ) दोनों (सुहवा=०-वौ) सुख से बुलाने योग्य (इन्द्रवायू) सूर्य और पवन [के समान स्त्री पुरुष] को (इह इह) यहाँ पर ही (हवामहे) हम बुलाते हैं, (यथा) जिससे (सर्वः इत्) सभी (जनः) जने (नः) हमारी (संगत्याम्) संगति में (सुमनाः) प्रसन्न चित्तवाले (असत्) होवें, (च) और (नः) हमारी (दानकामः) दान के लिए कामना (भुवत्) होवे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब स्त्री पुरुष प्रयत्न करके घर में और सभा में परस्पर परोपकारी, प्रसन्न चित्त, धार्मिक और धर्मकार्यों में दानशील हों, जैसे सूर्य अपने प्रकाश और वृष्टि आदि से और पवन अपने चेष्टादान और शीघ्रगमन आदि से असंख्य लाभ पहुँचाते हैं ॥६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद ३३।८६ में है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(इन्द्रवायू) ईदूदेद्द्विवचनं प्रगृह्यम्। पा० १।१।११। इति उभौ परे प्रकृतिभावः। सूर्यपवनसदृशौ स्त्रीपुरुषौ। (उभौ) द्वौ। (इह इह) अस्मिन्नेव गृहे समाजे वा। (सुहवा) ईषद्दुःसुषु०। पा० ३।३।१२६। सु+ह्वयतेः-खल्। सुहवौ सुखेन ह्वातुं शक्यौ। (हवामहे) आह्वयामः। (यथा) यस्मात्। (नः) अस्माकम् (इत्) एव। (जनः) लोकः। (संगत्याम्) समितौ। सभायाम्। (सुमनाः) प्रसन्नचित्तः। (असत्, भुवत्) लेटि रूपम्। भवेत्। (दानकामः) दानाय कामः, अभिलाषः ॥
०७ अर्यमणं बृहस्पतिमिन्द्रम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॑र्य॒मणं॒ बृह॒स्पति॒मिन्द्रं॒ दाना॑य चोदय।
वातं॒ विष्णुं॒ सर॑स्वतीं सवि॒तारं॑ च वा॒जिन॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑र्य॒मणं॒ बृह॒स्पति॒मिन्द्रं॒ दाना॑य चोदय।
वातं॒ विष्णुं॒ सर॑स्वतीं सवि॒तारं॑ च वा॒जिन॑म् ॥
०७ अर्यमणं बृहस्पतिमिन्द्रम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Do thou stir up Aryaman, Brihaspati, Indra, unto giving; [also]
Vāta (wind), Vishṇu, Sarasvatī, and the vigorous (vājín) Savitar.
Notes
Found also in RV. (x. 141. 5), VS. (ix. 27), and TS.MS.K. (as above).
All save RV. read vā́cam instead of vā́tam in c, and so does the
comm.; K. puts vācam after viṣṇum ⌊and for a it has our vs. 4
a⌋.
Griffith
Urge Aryaman to send us gifts, and Indra, and Brihaspati, Vata, Vishnu, Sarasvati, and the strong courser Savitar.
पदपाठः
अ॒र्य॒मण॑म्। बृह॒स्पति॑म्। इन्द्र॑म्। दाना॑य। चो॒द॒य॒। वात॑म्। विष्णु॑म्। सर॑स्वतीम्। स॒वि॒तार॑म्। च॒। वा॒जिन॑म्। २०.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अर्यमा, बृहस्पतिः, इन्द्रः, वातः, विष्णुः, सरस्वती, सविता, वाजी
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- रयिसंवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे ईश्वर !] (अर्यमणम्) वैरियों के रोकनेवाले राजा, (बृहस्पतिम्) बड़े बड़ों के रक्षक गुरु और (इन्द्रम्) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष और (वातम्) पवन, (विष्णुम्) यज्ञ, (च) और (वाजिनम्) वेगवाले, वा अन्नवाले, वा बलवाले (सवितारम्) लोकों के चलानेवाले सूर्य से (सरस्वतीम्) विज्ञानों के भण्डार सरस्वती, वेदविद्या को (दानाय) दान के लिये (चोदय) प्रवृत्त कर ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ईश्वरभक्त (अर्यमा) राजा वा सेनापति, (बृहस्पति) प्रधान आचार्य और (इन्द्र) दण्डनेता वा कोषाध्यक्ष आदि अधिकारी अपने-२ पदों पर दृढ़ रहकर पवन, सूर्य, अग्नि, जल, पृथिवी आदि अद्भुत पदार्थों द्वारा वेदविज्ञान फैलावें ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद अ० ९ म० २७ में है ॥ मनु महाराज ने लिखा है−सैनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ॥ मनु० १२।१० ॥ वेद शास्त्र का जाननेवाला पुरुष, सेनापति के पद, राजा के पद, और दण्डदाता के पद और सब लोगों पर आधिपत्य [चक्रवर्ति राज्य] के योग्य होता है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(अर्यमणम्) म० ३। अरिनियन्तारम्। (बृहस्पतिम्) म०। बृहतां पालकम्। (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तं पुरुषम्। (दानाय) त्यागाय। (चोदय) नय। प्रवर्त्तय। अस्य धातोः-णीञ् इत्यतेन सह अर्थनिबन्धनायां द्विकर्मकत्वम्। अकथितं च। पा० १।४।५१। इति अर्यमणमादीनां सप्तपदानाम् अपादाने कर्मत्वम्। (वातम्) पवनम्। (विष्णुम्) म० ४। यज्ञम्। (सरस्वतीम्) सरोभिर्विज्ञानैर्युक्तां वेदविद्याम्। (सवितारम्) अ० १।१८।२। लोकानां प्रेरकम् (वाजिनम्) अ० १।४।४। वाज-इनि। वेगवन्तम्। अन्नवन्तम्। बलवन्तम् ॥
०८ वाजस्य नु
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वाज॑स्य॒ नु प्र॑स॒वे सं ब॑भूविमे॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑नानि अ॒न्तः।
उ॒तादि॑त्सन्तं दापयतु प्रजा॒नन्र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं॒ नि य॑च्छ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वाज॑स्य॒ नु प्र॑स॒वे सं ब॑भूविमे॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑नानि अ॒न्तः।
उ॒तादि॑त्सन्तं दापयतु प्रजा॒नन्र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं॒ नि य॑च्छ ॥
०८ वाजस्य नु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- In the impulse (prasavá) of vigor (? vā́ja) now have we come into
being, and all these beings within. Both let him, foreknowing, cause him
to give who is unwilling to give, and do thou confirm to us wealth
having all heroes.
Notes
The verse seems to have no real connection with what precedes and
follows, nor do its two halves belong together. They are in other texts,
VS. (ix. 25 and 24) and TS. (in i. 7. 10¹), parts of two different
verses, in a group of three, all beginning with vā́jasya followed by
prasavá, and all alike of obscure and questionable interpretation, and
belonging to the so-called vājaprasavīyāni, which form a principal
element in the vājapeya sacrifice (see Weber’s note on this verse
⌊also his essay Ueber den Vājapeya, Berliner Sb., 1892, p. 797⌋).
Instead of nú in a, TS. and MS.K. (as above), as also Ppp., have
the nearly equivalent idám; and all (save Ppp.) read ā́ babhūvima
instead of sáṁ babhūvima at end of a, and sarvátas instead of
antár at end of b, omitting the meter-disturbing utá at
beginning of c; VS.K. read in c dāpayati for -tu; and all
save K. give the preferable yachatu at the end (the comm. has
yacchāt); then VS. gives sá no rayím in d, and K. has a peculiar
d: soma rayiṁ sahavīraṁ ni yaṁsat. Ppp. is defective in parts of
this verse and the next; it reads at the end of c prajānāṁ. Pāda
a is the only one that has a jagatī character. ⌊TS. has
sárvavīrām.⌋
Griffith
Now have we reached the ordering of power, and all these worlds of life are held within it. Let him who knows urge e’en the churl to bounty Give wealth. to us with all good men about us.
पदपाठः
वाज॑स्य। नु। प्र॒ऽस॒वे। सम्। ब॒भू॒वि॒म॒। इ॒मा। च॒। विश्वा॑। भुव॑नानि। अ॒न्तः। उ॒त। अदि॑त्सन्तम्। दा॒प॒य॒तु॒। प्र॒ऽजा॒नन्। र॒यिम्। च॒। नः॒। सर्व॑ऽवीरम्। नि। य॒च्छ॒। २०.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- विश्वा भुवनानि
- वसिष्ठः
- विराड्जगती
- रयिसंवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वाजस्य) बल के (प्रसवे) उत्पत्ति में (नु) ही (संबभूविम) हम समर्थ हुए हैं, (च) और (इमा=इमानि) यह (विश्वा=विश्वानि) सब (भुवनानि) लोक (अन्तः) [उसीके] भीतर हैं, (प्रजानन्) ज्ञानवान् ईश्वर (अदित्सन्तम्) देने की इच्छा न करनेवाले से (उत) भी (दापयतु) दिलावे। (च) और [हे ईश्वर] (नः) हमें (सर्ववीरम्) सर्ववीरों से युक्त (रयिम्) धन (नि) नित्य (यच्छ) दे ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब चराचर जगत् अन्न के आश्रित ठहरा है। सर्वज्ञ परमेश्वर अदानी पुरुषों को भी सुपात्रों के लिये दान शक्ति देवे, और हमें और हमारे वीरों को धनी बनावे ॥८॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद १९।२५ वा २४ में है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८−(वाजस्य) बलस्य। (नु) एव। (प्रसवे) ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति प्र+षू प्रेरणे, यद्वा, षूङ् प्राणिगर्भविमोचने-अप्। उत्पत्तौ। (संबभूविम) भू सत्तायाम्-लिट्। वयं समर्था बभूविम। (इमा) इमानि। परिदृश्यमानानि। (विश्वा) सर्वाणि। (भुवनानि) अ० २।१।४। भू-क्युन्। लोकाः (अन्तः) वाजप्रसवस्य मध्ये वर्त्तन्ते। (उत) अपि। (अदित्सन्तम्) नञ्+दा, सन्-शतृ। सनि भीमाघुरभ०। पा० ७।४।५४। इति इसादेशः। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। इति सस्य तकारः। दातुमनिच्छन्तम्। (दापयतु) दानाय प्रवर्तयतु। (प्रजानन्) अवगच्छन् परमेश्वरः। (रयिम्) धनम्। (नः) अस्मभ्यम्। (सर्ववीरम्) सर्ववीरोपेतम् (नि) नियमेन। नित्यम्। (यच्छतु) पाघ्राध्मास्थाम्नादाण्० पा० ७।३।७८। इति दाण् दाने यच्छादेशः। ददातु ॥
०९ दुह्रां मे
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दु॒ह्रां मे॒ पञ्च॑ प्र॒दिशो॑ दु॒ह्रामु॒र्वीर्य॑थाब॒लम्।
प्रापे॑यं॒ सर्वा॒ आकू॑ती॒र्मन॑सा॒ हृद॑येन च ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दु॒ह्रां मे॒ पञ्च॑ प्र॒दिशो॑ दु॒ह्रामु॒र्वीर्य॑थाब॒लम्।
प्रापे॑यं॒ सर्वा॒ आकू॑ती॒र्मन॑सा॒ हृद॑येन च ॥
०९ दुह्रां मे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let the five directions yield (duh) to me, let the wide ones yield
according to their strength; may I obtain all my designs, with mind and
heart.
Notes
All the pada-mss. divide and accent prá: ápeyam, but SPP. emends to
prá: āpeyam ⌊see Sansk. Gram. §850⌋; the comm. reads āpeyam. The
comm. declares urvī́s to designate heaven and earth, day and night, and
waters and herbs.
Griffith
May heaven’s five spacious regions pour their milk for me with all their might. May I obtain each wish and hope formed by my spirit and my heart.
पदपाठः
दु॒ह्राम्। मे॒। पञ्च॑। प्र॒ऽदिशः॑। दु॒ह्राम्। उ॒र्वीः। य॒था॒ऽब॒लम्। प्र। आ॒पे॒य॒म्। सर्वाः॑। आऽकू॑तीः। मन॑सा। हृद॑येन। च॒। २०.९।
अधिमन्त्रम् (VC)
- पञ्च प्रदिशः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- रयिसंवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पञ्च) फैली हुई [वा पाँच] (प्रदिशः) उत्तम दान क्रियायें [वा प्रधान दिशायें] (मे) मेरे लिये (उर्वीः) फैली हुई शक्तियों को (यथाबलम्) यथाशक्ति (दुह्राम्) भरती रहें, (दुह्राम्) भरती रहें। (मनसा) मन [मनन शक्ति] से (च) और (हृदयेन) हृदय [ग्रहण शक्ति] से (सर्वाः) सब (आकूतीः) संकल्पों को (प्र, आपेयम्) मैं पाता रहूँ ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्या आदि के दान से अपना सामर्थ्य बढ़ावें और सब दिशाओं से उत्तम गुण प्राप्त करें तथा श्रवण, मनन और निदिध्यासन [ध्यान देकर विचार] से अपने मनोरथ सिद्ध करें ॥९॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ९−(दुहाम् दुह्राम्) दुह प्रपूरणे-लोट्। आत्मनेपदम्। बहुलं छन्दसि। पा० १।७।८। इति झप्रत्ययस्य अतो रुडागमः। लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति द्विर्वचनम्। अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते-निरु० १०।४२। नित्यं दुहताम्। प्रपूरयन्तु। (पञ्च) अ० १।३०।४। पचि विस्तारे-कनिन्। विस्तृताः। संख्यावाची वा। (प्रदिशः) अ० १।३०।४। दिश दाने क्विप्। प्रकृष्टा दानक्रियाः। अथवा। प्राच्याद्याश्चतस्रः। शिरोबिन्दुश्चेति पञ्च प्रदिशः। (उर्वीः) वोतो गुणवचनात्। पा० ४।१।४४। इति उरु-ङीप्। विस्तीर्णाः शक्तीः। (यथाबलम्) यथाशक्ति। (प्र, आपेयम्) आप्लृ व्याप्तौ-आशिषि लिङि। अहं प्राप्नवानि। (सर्वाः) समस्ताः। (आकूतीः)। अ० ३।२।३। संकल्पान्। (मनसा) मननेन। (हृदयेन) अ० २।२९।६। हृञ् स्वीकारे-कयन्, दुक् वा ग्रहणेन। निदिध्यासनेनेत्यर्थः ॥
१० गोसनिं वाचमुदेयम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
गो॒सनिं॒ वाच॑मुदेयं॒ वर्च॑सा मा॒भ्युदि॑हि।
आ रु॑न्धां स॒र्वतो॑ वा॒युस्त्वष्टा॒ पोषं॑ दधातु मे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
गो॒सनिं॒ वाच॑मुदेयं॒ वर्च॑सा मा॒भ्युदि॑हि।
आ रु॑न्धां स॒र्वतो॑ वा॒युस्त्वष्टा॒ पोषं॑ दधातु मे ॥
१० गोसनिं वाचमुदेयम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- A kine-winning voice may I speak; with splendor do thou arise upon
me; let Vāyu (wind) enclose (ā-rudh) on all sides; let Tvashṭar assign
to me abundance.
Notes
Several of our mss. (P.M.W.O.Kp.) read rudhām in c. The comm.
explains ā́ rundhām by prāṇātmanā ”vṛṇotu.
This fourth anuvāka contains 5 hymns, with 40 verses, and the
quotation from the old Anukr. is simply daśa.
Griffith
May speech that winneth cows be mine. With splendour mount thou over me. May Vayu hedge me round about May Pushan make me pros- perous.
पदपाठः
गो॒ऽसनि॑म्। वाच॑म्। उ॒दे॒य॒म्। वर्च॑सा। मा॒। अ॒भि॒ऽउदि॑हि। आ। रु॒न्धा॒म्। स॒र्वतः॑। वा॒युः। त्वष्टा॑। पोष॑म्। द॒धा॒तु॒। मे॒। २०.१०।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वायुः, त्वष्टा
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- रयिसंवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गोसनिम्) गोलोक [गौओं वा स्वर्ग] की देनेवाली (वाचम्) वाणी को (उदेयम्) मैं बोलूँ। [हे ईश्वर !] (वर्चसा) तेज के साथ (मा=माम्) मेरे ऊपर (अभ्युदिहि) सब ओर से उदय हो। (वायुः) प्राण वायु [मुझको] (सर्वतः) सब प्रकार से (आ रुन्धाम्) घेरे रहे। (त्वष्टा) विश्वकर्मा परमेश्वर वा सूर्य (मे) मेरे लिए (पोषम्) पोषण (दधातु) देता रहे ॥१०॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य ईश्वर के ध्यान से सत्यवादी और सत्यकर्मी होकर अपने प्राणों को वश में रक्खे और पुरुषार्थी होकर सूर्य से वृष्टि द्वारा अपना पोषण प्राप्त करे ॥१०॥ ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १०−(गोसनिम्) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। इति षणु दाने-इन्। गां धेनुं स्वर्गं वा सनोति ददातीति गोसनिः। गोलोकस्य धेनसमूहस्य। स्वर्गलोकस्य वा दात्रीम्। (वाचम्) वाणीम्। (उदेयम्) लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इति वद व्यक्तायां वाचि-अङ्। उद्यासम्। (वर्चसा) तेजसा। अन्नेन-निघ० २।७। (मा) माम्। (अभ्युदिहि) अभित उद्गच्छ प्राप्नुहि। (आ रुन्धाम्) रुधिर् आवरणे-लोट्। आवृणोतु। आच्छादयतु। (सर्वतः) सर्वाभ्यो दिग्भ्यः। (वायुः) सूत्रात्मा। प्राणः। (त्वष्टा) अ० २।५।६। सूक्ष्मकर्ता। विश्वकर्मा परमेश्वरः। सूर्यः। (पोषम्) पुष्टिम्। (दधातु) धारयतु। ददातु। (मे) मह्यम् ॥