०१८ वनस्पतिः

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Whitney subject
  1. Against a rival wife: with a plant.
VH anukramaṇī

वनस्पतिः।
१-६ अथर्वा। वनस्पतिः। अनुष्टुप्, ४ अनुष्टुब्गर्भा चतुष्पदा उष्णिक्, ६ उष्णिग्गर्भा पथ्यापङ्क्तिः।

Whitney anukramaṇī

[Atharvan.—vānaspatyam. ānuṣṭubham: 4. 4-p. anuṣṭubgarbhā uṣṇih; 6. uṣṇiggarbhā pathyāpan̄kti.]

Whitney

Comment

This peculiarly Atharvan hymn has found its way also into the tenth book of the Rig-Veda (as x. 145, with exchange of place between vss. 3 and 4; it is repeated in RV. order at MP. i. 15. 1-6). Only three verses (our 4, 2, 1, in this order) are found in Pāipp. (vii.). Kāuś. uses it, among the women’s rites, in a charm (36. 19-21) for getting the better of a rival; vs. 6 a and b accompany the putting of leaves under and upon the (rival’s) bed. And the comm. (doubtless wrongly) regards vss. 5 and 6 to be intended by the pratīka quoted in 38. 30, instead of xii. 1.54, which has the same beginning.

Griffith

A jealous wife’s incantation against a rival

०१ इमां खनाम्योषधिम्

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इ॒मां ख॑ना॒म्योष॑धिं वी॒रुधां॒ बल॑वत्तमाम्।
यया॑ स॒पत्नीं॒ बाध॑ते॒ यया॑ संवि॒न्दते॒ पति॑म् ॥

०१ इमां खनाम्योषधिम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I dig this herb, of plants the strongest, with which one drives off
    (bādh) her rival; with which one wins completely (sam-vid) her
    husband.
Notes

RV. reads in b the accus. vīrúdham. For d, Ppp. gives kṛṇute
kevalaṁ patim
. The comm. (with our Op.) has oṣadhīm in a; he
understands throughout the herb in question to be the pāṭhā (cf. ii.
27. 4), though Kāuś. and the Anukr. speak only of bāṇāparṇī ‘arrow
leaf’ (not identified).

Griffith

From out the earth I dig this Plant, and herb of most effectual power, Wherewith one quells the rival wife and gains the husband for one’s self.

पदपाठः

इ॒माम्। ख॒ना॒मि॒। ओष॑धिम्। वी॒रुधा॑म्। बल॑वत्ऽतमाम्। यया॑। स॒ऽपत्नी॑म्। बाध॑ते। यया॑। स॒म्ऽवि॒न्दते॑। पति॑म्। १८.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • वनस्पति
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या के नाश का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वीरुधाम्) उगती हुई लताओं [सृष्टि के पदार्थों] में (इमाम्) इस (बलवत्तमाम्) बड़ी बलवाली (ओषधिम्) रोगनाशक ओषधि [ब्रह्मविद्या] को (खनामि) मैं खोदता हूँ, (यया) जिस [ओषधि] से [प्राणी] (सपत्नीम्) विरोधिनी [अविद्या] को (बाधते) हटाता है, और (यया) जिससे (पतिम्) सर्वरक्षक वा सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को (संविन्दते) यथावत् पाता है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य ब्रह्मविद्या परिश्रमपूर्वक प्राप्त करें। ईश्वर ज्ञान से ही विज्ञान बढ़कर मिथ्या ज्ञान का नाश होकर परम ऐश्वर्य वा मोक्ष मिलता है ॥१॥ यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद म० १०।१४५।१-६ में है। अजमेर वैदिक यन्त्रालय की ऋग्वेदसंहिता, मोहमयी [मुम्बई] की शाकलऋक्संहिता, और ऋग्वेदीय सायणभाष्य मेंउपनिषत्सपत्नीबाधनम् इस सूक्त का देवता लिखा है, इससे इस सूक्त में ब्रह्मविद्या का ही उपदेश है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(इमाम्) प्रत्यक्षाम्। (खनामि) खनु विदारे। खननेन अन्वेषणेन संपादयामि। (ओषधिम्) अ० १।२३।१। रोगनाशिकां ब्रह्मविद्याम्। (वीरुधाम्) अ० १।३२।१। विरोहणशीलानां लतारूपानां प्रजानां मध्ये। (बलवत्तमाम्) बलवत्-तमप्, टाप्। अतिशयेन बलवतीम्। (यया) ओषध्या। (सपत्नीम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति समान+पत्लृ अधोगतौ-इन्। नित्यं सपत्न्यादिषु। पा० ४।१।३५। इति ङीप् नकारान्तादेशश्च। समानपातनशीलम्। ब्रह्मविद्याविरोधिनीम्। अविद्याम्। (बाधते) विहन्ति। (संविन्दते) सम्यक् लभते। (पतिम्) पातेर्डतिः। उ० ४।५७। इति पा रक्षणे डति। यद्वा। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति पत ऐश्ये-इन्। सर्वरक्षकम्। ऐश्वर्यवन्तं परमेश्वरम् ॥

०२ उत्तानपर्णे सुभगे

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उत्ता॑नपर्णे॒ सुभ॑गे॒ देव॑जूते॒ सह॑स्वति।
स॒पत्नीं॑ मे॒ परा॑ णुद॒ पतिं॑ मे॒ केव॑लं कृधि ॥

०२ उत्तानपर्णे सुभगे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. O thou of outstretched leaves, fortunate, god-quickened, powerful, do
    thou thrust away my rival, make my husband wholly mine.
Notes

‘Outstretched,’ lit. supine; horizontal, with the face of the leaf
upward. RV. has dhama for nuda in c, and the modern kuru for
kṛdhi at the end. Ppp. offers only the first half-verse, in this form:
uttānaparṇāṁ subhagāṁ sahamānāṁ sahasvatīm; MP. also has sahamāne
instead of devajūte.

Griffith

Auspicious, with expanded leaves, sent by the Gods, victorious Plant, Drive thou, the rival wife away, and make my husband only mine.

पदपाठः

उत्ता॑नऽपर्णे। सुऽभ॑गे। देव॑ऽजूते। सह॑स्वति। स॒ऽपत्नी॑म्। मे॒। परा॑। नु॒द॒। पति॑म्। मे॒। केव॑लम्। कृ॒धि॒। १८.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • वनस्पति
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या के नाश का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्तानपर्णे) हे विस्तृत पालनवाली ! (सुभगे) हे बड़े ऐश्वर्यवाली ! (देवजूते) हे विद्वानों करके प्राप्त की हुई ! (सहस्वति) हे बलवती [ब्रह्मविद्या] ! (मे) मेरी (सपत्नीम्) विरोधिनी [अविद्या] को (परा नुद) दूर हटा दे और (पतिम्) सर्वरक्षक वा सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को (मे) मेरा (केवलम्) सेवनीय (कृधि) कर ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - अनन्यवृत्ति पुरुष ब्रह्मविद्या से अविद्या को हटाकर आनन्दस्वरूप जगदीश्वर को जानकर आनन्द भोगता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(उत्तानपर्णे) उत्+तनु विस्तारे-घञ्। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति पॄ पालनपूरणयोः-न। हे उत्तमतया विस्तृतपालनयुक्ते। (सुभगे) हे सौभाग्यहेतुभूते। (देवजूते) जु गतौ-क्त। विद्वद्भिः प्राप्ते। (सहस्वति) हे बलवति ब्रह्मविद्ये। (सपत्नीम्) म० १। विरोधिनीम्। अविद्याम्। (मे) मम। (परा नुद) पराङ्मुखीं गमय। (पतिम्) म० १। (केवलम्) वृषादिभ्यश्चित्। उ० १।१०६। इति केवृ सेवने-कलच्। निर्णीतम्। सेवनीयम्। (कृधि) कुरु ॥

०३ नहि ते

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न॒हि ते॒ नाम॑ ज॒ग्राह॒ नो अ॒स्मिन्र॑मसे॒ पतौ॑।
परा॑मे॒व प॑रा॒वतं॑ स॒पत्नीं॑ गमयामसि ॥

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Whitney
Translation
  1. Since he has not named (grah) thy name, thou also stayest (ram)
    not with him as husband; unto distant distance make we my rival go.
Notes

This translation of the first half-verse follows closely our text. RV.
has a very different version: nahy àsyā nā́ma gṛbhṇā́mi nó asmín ramate
jáne
‘since I name not her (its?) name, she (it?) also does not stay
with (find pleasure in) this person (people?).’ Winternitz applauds and
accepts his commentator’s explanation of b: “nor finds she pleasure
in me” (taking ayaṁ janas in the much later sense of “I”), but it
seems wholly unsatisfactory. The meter calls for emendation in a to
jagráha ‘I have named,’ equivalent to the RV. reading; and R. makes
the emendation, and retains the jáne of RV., rendering (as addressed
by the woman using the charm to the plant) “I have not named [to her]
thy name; and thou stayest (stayedst) not with the person (bei der
Person).” The comm. regards the rival as addressed, and conveniently
makes ramase = ramasva: “stay thou not with this my husband.” Weber
renders ramase by “kosest,” thou dalliest not. No satisfactory
solution of the difficulty is yet found.

Griffith

Indeed he hath not named her name: thou with this husband dalliest not, Far into distance most remote we drive the rival wife away.

पदपाठः

न॒हि। ते॒। नाम॑। ज॒ग्राह॑। नो इति॑। अ॒स्मिन्। र॒म॒से॒। पतौ॑। परा॑म्। ए॒व। प॒रा॒ऽवत॑म्। स॒ऽपत्नी॑म्। ग॒म॒या॒म॒सि॒। १८.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • वनस्पति
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या के नाश का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे सपत्नी अविद्या] (ते) तेरा (नाम) नाम (नहि) कभी नहीं (जग्राह) मैंने लिया है, (अस्मिन्) इस (पतौ) जगत् पति परमेश्वर में (नो) कभी नहीं (रमसे) तू रमण करती है। (पराम्) बैरिनि (सपत्नीम्) विरोध डालनेवाली [अविद्या] को (परावतम् एव) बहुत दूर ही (गमयामसि) हम पहुँचाते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग अविद्या का मान नहीं करके अविद्यारहित सर्वविद्यायुक्त परमात्मा का ध्यान करते, और अविद्या को हटाकर सत्यज्ञान पाते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(नहि) नव। (ते) तव। (नाम) नामन्सीमन्व्योमन्०। उ० ४।१५१। इति म्ना अभ्यासे-मनिन्। नामधेयम् (जग्राह) अहं गृहीतवान्। (नो) नैव। (अस्मिन्) प्रसिद्धे। (रमसे) त्वं क्रीडसि। (पतौ) म० १। छान्दसी घिसंज्ञा। पत्यौ। परमेश्वरे। (पराम्) ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति पॄ पालनपूरणयोः-अपादाने अप्। टाप्। शत्रुम्। वेरिणीम्। (एव) अवश्यम्। (परावतम्) अ० ३।४।५। दूरदेशगतम्। (सपत्नीम्) म० १। विरोधिनीम्। (गमयामसि) गमयामः। प्रापयामः ॥

०४ उत्तराहमुत्तर उत्तरेदुत्तराभ्यः

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उत्त॑रा॒हमु॑त्तर॒ उत्त॒रेदुत्त॑राभ्यः।
अ॒धः स॒पत्नी॒ या ममाध॑रा॒ साध॑राभ्यः ॥

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Whitney
Translation
  1. Superior [am] I, O superior one; superior, indeed, to them (f.)
    that are superior; below [is] she that is my rival; lower [is] she
    than they (f.) that are lower.
Notes

RV. has the better reading áthā for adhás in c, allowing c
and d to be combined into one sentence; and the comm. gives
correspondingly adha. Ppp. is more discordant and corrupt: uttarā
ā́ham uttarabhyo uttaro ed ādharabhyaḥ: adhaḥ sapatnī sāmarthy adhared
adhārabhyaḥ
. R. conjectures in a uttarāhāhamuttare, for úttarā
’hám ahamuttaré
⌊cf. iii. 8. 3⌋. The verse, even if scanned as 7 + 7: 8

  • 7 = 29, ought to be called bhurij.
Griffith

Stronger am I, O stronger one, yea, mightier than the mightier; Beneath me be my rival wife, down, lower than the lowest dames!

पदपाठः

उत्ऽत॑रा। अ॒हम्। उ॒त्ऽत॒रे॒। उत्ऽत॑रा। इत्। उत्ऽत॑राभ्यः। अ॒धः। स॒ऽपत्नी॑। या। मम॑। अध॑रा। सा। अध॑राभ्यः। १८.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुब्गर्भाचतुष्पादुष्णिक्
  • वनस्पति
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या के नाश का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्तरे) हे अति उत्तम [ब्रह्मविद्या] (अहम्) मैं [प्रजा] (उत्तरा) अधिक उत्तम [भूयासम्=हो जाऊँ], (उत्तराभ्यः) अन्य उत्तम [पशु आदि प्रजाओं] से (इत्) तो (उत्तरा) अधिक उत्तम [प्रजा अस्मि=प्रजा हूँ] (मम) मेरी (या) जो (अधरा) नीच (सपत्नी) विरोधिनी [अविद्या है], (सा) वह (अधराभ्यः) नीच [विपत्तियों] से (अधः) नीची है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य सब पशु आदि प्राणियों से उत्तम है, इससे वह सब उत्तम विद्याओं में परम उत्तम ब्रह्मविद्या प्राप्त करके सर्वोत्कृष्ट होवे, और सब विपत्तियों वा क्लेशों के मूल अविद्या को निकालता रहे ॥४॥ भगवान् पतञ्जलि का वचन है−अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः ॥ अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ यो. द. २।३,४ ॥ १-(अविद्या) मिथ्याज्ञान, २-(अस्मिता) अहंकार, ३-(राग) राग वा तृष्णा, ४-(द्वेष) द्वेष वा घृणा, और ५-(अभिनिवेश) शरीर से प्रीति वा मरण से भय, यह पाँच क्लेश हैं ॥ अविद्या पिछले चार [अस्मिता आदि] का खेत है, चाहे वे १-सोते हुए, २-सूक्ष्म, ३-दबे हुए, वा ४-फैले हुए हों ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(उत्तरा) उत्कृष्टरा। (अहम्) मनुष्यरूपा प्रजा। (उत्तरे) हे उत्कृष्टतरे ब्रह्मविद्ये। (उत्तराभ्यः) अन्यपश्वादिप्रजाभ्य उत्कृष्टतराभ्यः। (अधः) अधस्तात्। (सपत्नी) म० १। विरोधिनी। अविद्या। (अधरा) अन्यनिकृष्टाभ्यो विपत्तिभ्यः ॥

०५ अहमस्मि सहमानाथो

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अ॒हम॑स्मि॒ सह॑मा॒नाथो॒ त्वम॑सि सास॒हिः।
उ॒भे सह॑स्वती भू॒त्वा स॒पत्नीं॑ मे सहावहै ॥

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Whitney
Translation
  1. I am overpowering; likewise art thou very powerful; we both, becoming
    full of power, will overpower my rival.
Notes

The verse xix. 32. 5 is a variation on this. RV. reads átha for átho
in b, and the older bhūtvī́ for bhūtvā́ in c.

Griffith

I am the conqueror, and thou, thou also art victorious: As victory attends us both we will subdue my fellowwife.

पदपाठः

अ॒हम्। अ॒स्मि॒। सह॑माना। अथो॒ इति॑। त्वम्। अ॒सि॒। स॒स॒हिः। उ॒भे इति॑। सह॑स्वती॒ इति॑। भू॒त्वा। स॒ऽपत्नी॑म्। मे॒। स॒हा॒व॒है॒। १८.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • वनस्पति
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या के नाश का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्या] (अहम्) मैं (सहमाना) जयशील [प्रजा] (अस्मि) हूँ, (अथो) और (त्वम्) तू भी (सासहिः=ससहिः) जयशील (असि) है। (उभे) दोनों हम [तू और मैं] (सहस्वती=०-त्यौ) जयशील (भूत्वा) होकर (मे) मेरी (सपत्नीम्) विरोधिनी [अविद्या] को (सहावहै) जीत लें ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - योगी जन ब्रह्मविद्या में एकवृत्ति होकर अविद्या को जीतकर आनन्द भोगते हैं ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(सहमाना) षह अभिभवे-शानच्। अभिभवित्री प्रजा। (अथो) अपि च। (सासहिः) किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। वा० पा० ३।२।१७१। इति षह अभिभवे-कि, लिड्वद्भावः। छान्दसो दीर्घः। अभिभवित्री। (उभे) त्वं च अहं च, आवाम्। (सहस्वती) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। अभिभवनवत्यौ। जयशीले। (सपत्नीम्) म० १। विरोधिनीम्, अविद्याम्। (सहावहै) षह अभिभवे-लोट्। आवाम् अभिभवाव ॥

०६ अभि तेऽधाम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒भि ते॑ऽधां॒ सह॑माना॒मुप॑ तेऽधां॒ सही॑यसीम्।
मामनु॒ प्र ते॒ मनो॑ व॒त्सं गौरि॑व धावतु प॒था वारि॑व धावतु ॥

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Whitney
Translation
  1. I have put on (abhí) for thee the overpowering one (f.); I have put
    to (úpa) for thee the very powerful one; after me let thy mind run
    forth as a cow after her calf, run as water on its track.
Notes

RV. reads úpa for abhí in a, and has for b abhí tvā ’dhāṁ
sáhīyasā
. The application of a and b as made by Kāuś. (see
above) would suit the prepositions as found in RV. decidedly better than
as in our text; but much more appropriate is the use made by MP.,
elements of the root being secretly bound on the arms of the wife, with
which she embraces the husband below and above ⌊so that one arm is under
him and the other over him⌋; then in abhy adhām is further implied (as
elsewhere ⌊e.g. iii. 11. 8⌋) the value of abhidhānī, the halter or
bridle with which a horse is controlled. The Anukr. does not sanction
the resolution ma-ā́m in c.

Griffith

I’ve girt thee with the conquering Plant, beneath thee laid the mightiest one. As a cow hastens to her calf, so let thy spirit speed to me, hasten like water on its way.

पदपाठः

अ॒भि। ते॒। अ॒धा॒म्। सह॑मानाम्। उप॑। ते॒। अ॒धा॒म्। सही॑यसीम्। माम्। अनु॑। प्र। ते॒। मनः॑। व॒त्सम्। गौःऽइ॑व। धा॒व॒तु॒। प॒था। वाःऽइ॑व। धा॒व॒तु॒। १८.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • उष्णिग्गर्भापथ्यापङ्क्तिः
  • वनस्पति
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या के नाश का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे जीव !] (ते) तेरे लिए (सहमानाम्) प्रबल [अविद्या] को (अभि=अभिभूय) हराकर (अधाम्) मैंने रक्खा है, और (ते) तेरे लिये (सहीयसीम्) अधिक प्रबल [ब्रह्मविद्या] को (उप) आदर से (अधाम्) मैंने रक्खा है, सो (ते मनः) तेरा मन (माम् अनु) मेरे पीछे-पीछे [योगी के स्वरूप में] (प्रधावतु) दौड़ता रहे और (धावतु) दौड़ता रहे, (गौः इव) जैसे गौ (वत्सम्) अपने बछड़े के पीछे, और (वाः इव) जैसे जल (पथा) अपने मार्ग से [दौड़ता है] ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - योगवृत्तियों के निरोध से अविद्या को जीतकर स्वरूप अर्थात् अपनी और परमात्मा की शक्ति को जानकर परोपकार में आगे बढ़ता है, जैसे स्वभाव से गौ अपने छोटे बच्चे के पीछे दौड़ती फिरती है और पानी नीचे मार्ग से समुद्र को चला जाता है ॥६॥ भगवान् पतञ्जलि ने कहा है−योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥ यो० द० १।२, ३ ॥ योग चित्त की वृत्तियों का रोकना है ॥१॥ तब देखनेवाले को अपने रूप में चित्त का ठहराव होता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(अभि) अभिभूय। जित्वा। (ते) तव हिताय। (अधाम्) डुधाञ् धारणपोषणयोः-लुङ्। अहम् अधार्षम्। (सहमानाम्) म० ५। प्रबलाम् अविद्याम्। (उप) पूजायाम्। (सहीयसीम्)। सोढृ-ईयसुन्। सोढृतराम्। बलवत्तरां ब्रह्मविद्याम्। (माम्) योगिनम्। (अनु) अनुसृत्य। (ते) तव। (मनः) चित्तम्। (वत्सम्)। गोशिशुम्। (गौः इव) धेनुर्यथा। (प्रधावतु) प्रकर्षेण शीघ्रं गच्छतु। (पथा) मार्गेण। (वार्) अ० ३।१३।३। जलम् ॥