०१४ गोष्ठः ...{Loading}...
Whitney subject
- A blessing on the kine.
VH anukramaṇī
गोष्ठः।
१-६ ब्रह्मा। गोष्ठः, अहः, २ अर्यमा, पूषा, बृहस्पतिः, इन्द्रः, १-६ गावः, ५ गोष्ठश्च। अनुष्टुप्, ६आर्षी त्रिष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Brahman.—nānādevatyam uta goșțhadevatākam. ānușțubham: 6. ārṣī triṣṭubh.]
Whitney
Comment
The hymn (except vs. 5) is found in Pāipp. ii. (in the verse-order 2, 4, 6, 1, 3). It is used by Kāuś., with other hymns (ii. 26 etc.), in a ceremony for the prosperity of cattle (19. 14). In Vāit. (21. 26), vs. 2 accompanies the driving of kine in the agnișțoma. The Vāit. use does not appear to be mentioned by the comm., and his report of the Kāuś. use is mostly lost from the manuscript (but filled in by the editor).
Translations
Translated: Ludwig, p. 469; Weber, xvii. 244; Grill, 64, 112; Griffith, i. 101; Bloomfield, 143, 351.
Griffith
A benediction on a cattle pen
०१ सं वो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सं वो॑ गो॒ष्ठेन॑ सु॒षदा॒ सं र॒य्या सं सुभू॑त्या।
अह॑र्जातस्य॒ यन्नाम॒ तेना॑ वः॒ सं सृ॑जामसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सं वो॑ गो॒ष्ठेन॑ सु॒षदा॒ सं र॒य्या सं सुभू॑त्या।
अह॑र्जातस्य॒ यन्नाम॒ तेना॑ वः॒ सं सृ॑जामसि ॥
०१ सं वो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- With a comfortable (suṣád) stall, with wealth, with well-being,
with that which is the name of the day-born one, do we unite you.
Notes
Ppp. reads in b sapuṣṭyā for subhūtyā. The obscure third pāda is
found again below as v. 28. 12 c; it is altogether diversely
rendered (conjecturally) by the translators (Weber, “with the blessing
of favorable birth”; Ludwig, “with [all] that which one calls
day-born”; Grill, “with whatever a day of luck brings forth”); R.
suggests “with all (of good things) that the day brings, or that is
under the heaven”: none of these suits the other occurrence.
Griffith
A Pen wherein to dwell at ease, abundance and prosperity, Whate’er is called the birth of day, all this do we bestow on you.
पदपाठः
सम्। वः॒। गो॒ऽस्थेन॑। सु॒ऽसदा॑। सम्। र॒य्या। सम्। सुऽभू॑त्या। अहः॑ऽजातस्य। यत्। नाम॑। तेन॑। वः॒। सम्। सृ॒जा॒म॒सि॒। १४.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गौः
- ब्रह्मा
- अनुष्टुप्
- गोष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गोरक्षा का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे गौओं !] (वः) तुमको (सुषदा) सुख से बैठने योग्य (गोष्ठेन) गोशाला से (सम्) मिलाकर (रय्या) धन से (सम्) मिलाकर और (सुभूत्या) बहुत सम्पत्ति से (सम्) मिलाकर और (अहर्जातस्य) प्रतिदिन उत्पन्न होनेवाले [प्राणी] का (यत् नाम) जो नाम है, (तेन) उस [नाम] से (वः) तुमको (सम्, सृजामसि=०−मः) हम मिलाकर रखते हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य गौओं को स्वच्छ नीरोग गोशाला में रखकर पालें और उनको अपने धन और सम्पत्ति का कारण जानकर अन्य प्राणियों के समान उनके नाम बहुला, कामधेनु, नन्दिनी आदि रक्खे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(सम्)। सृजामसि इति व्यवहितक्रियापदेन सर्वत्र संबन्धः। (वः)। युष्मान्। (गोष्ठेन)। गोशालया। (सुषदा)। षद्लृ गतौ-क्विप्। सुखेन सीदन्ति यत्रेति सुषत्। सुखसदनयोग्येन। (रय्या)। धनेन। (सुभूत्या)। भू सत्तायां प्राप्तौ च-क्तिन्। बहुसम्पत्त्या। (अहर्जातस्य)। नञि जहातेः। उ० १।१५८। इति नञ्+ओहाक् त्यागे, कनिन्, आतो लोपः। न जहाति न त्यजति परिवर्त्तमानत्वात्, इत्यहः, दिनम्। जनी जन्मनि-क्त। अहन्यहनि जातस्य उत्पन्नस्य प्राणिनः। (संसृजामसि)। संसृजामः संयोजयामः। अन्यत् सुगमम् ॥
०२ सं वः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सं वः॑ सृजत्वर्य॒मा सं पू॒षा सं बृह॒स्पतिः॑।
समिन्द्रो॒ यो ध॑नंज॒यो मयि॑ पुष्यत॒ यद्वसु॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सं वः॑ सृजत्वर्य॒मा सं पू॒षा सं बृह॒स्पतिः॑।
समिन्द्रो॒ यो ध॑नंज॒यो मयि॑ पुष्यत॒ यद्वसु॑ ॥
०२ सं वः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let Aryaman unite you, let Pūshan, let Brihaspati, let Indra, who is
conqueror of riches; in my possession gain ye what is good.
Notes
‘In my possession,’ lit. ‘with me’ (bei mir, chez moi). The comm. takes
puṣyata as = poṣayata; and so do the translators, unnecessarily and
therefore inadmissibly; or, we may emend to puṣyatu, with vásu as
subject. “Unite” calls for the expression of with what; this is not
given, but the verse may be regarded as (except d) a continuation of
vs. 1. The three pādas a-c are found as a gāyatrī-verse in MS.
(iv. 2. 10: with poṣā́ for pūṣā́ in b). Ppp. has iha puṣyati at
beginning of d.
Griffith
May Aryaman pour gifts on you, and Pushan, land Brihaspati, And Indra, winner of the prize. Make ye my riches grow with me.
पदपाठः
सम्। वः॒। सृ॒ज॒तु॒। अ॒र्य॒मा। सम्। पू॒षा। सम्। बृह॒स्पतिः॑। सम्। इन्द्रः॑। यः। ध॒न॒म्ऽज॒यः। मयि॑। पु॒ष्य॒त॒। यत्। वसु॑। १४.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गोष्ठः, अहः, अर्यमा, पूषा, बृहस्पतिः, इन्द्रः
- ब्रह्मा
- अनुष्टुप्
- गोष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गोरक्षा का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वः) तुमको (अर्यमा) अरि अर्थात् हिंसकों का नियामक [गोपाल] (सम्) मिलाकर (पूषा) पोषण करनेवाला [गृहपति] (सम्) मिलाकर और (बृहस्पतिः) बड़े-बड़ों का रक्षक [विद्वान् वैद्यादि पुरुष] (सम्) मिलाकर और (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा, (यः धनंजयः) जो धनों का जीतनेवाला है, (सम् सृजतु) मिलाकर रक्खे। (मयि) मुझमें (यत्) पूजनीय (वसु) धन को (पुष्यत) तुम पुष्ट करो ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब प्रजागण और प्रजापालक राजा राजनियम से गौओं की वृद्धि करें जिससे कृषि, व्यापारादि द्वारा संसार में धन बढ़े ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(वः)। युष्मान्। (सं सृजतु)। संयोज्य पालयतु। (अर्यमा)। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति ऋ हिंसायाम्-विच्। पुगन्तलघूपधस्य च। पा० ७।३।८६। इति गुणः। ऋणोति हिनस्तीति अर् अरिः। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्क्लेदन्स्नेहन्मज्जन्मूर्धन्नर्यमन्०। उ० १।१५९। इति अर्+यम नियमे-कनिन्। अर्यमादित्योऽरीन्नियच्छतीति-निरु० ११।२३। अराम् अरीणां हिंसकानां नियामकः। गोपालः। (पूषा)। अ० १।९।१। पुष पुष्टौ-कनिन्। पोषकः। गृहपतिः। (बृहस्पतिः)। अ० १।८।२। बृहतां वेदादिशास्त्राणां पालकः। वैद्यादिविद्वान् पुरुषः। (इन्द्रः)। परमैश्वर्यवान् राजा। (धनंजयः)। संज्ञायां भृतॄवृजिधा०। पा० ३।२।४६। इति धन+जि जये खच्। अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम्। पा० ६।३।६७। इति मुम्। धनानां जेता। (पुष्यत)। पोषयत। वर्धयत। (यत्)। त्यजितनियजिभ्यो डित्। उ० १।१३२। इति यज पूजायाम्-अदि, स च डित्। यजनीयं पूजनीयम्। (वसु)। धनम् ॥
०३ सञ्जग्माना अबिभ्युषीरस्मिन्गोष्ठे
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सं॑जग्मा॒ना अबि॑भ्युषीर॒स्मिन्गो॒ष्ठे क॑री॒षिणीः॑।
बिभ्र॑तीः सो॒म्यं मध्व॑नमी॒वा उ॒पेत॑न ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सं॑जग्मा॒ना अबि॑भ्युषीर॒स्मिन्गो॒ष्ठे क॑री॒षिणीः॑।
बिभ्र॑तीः सो॒म्यं मध्व॑नमी॒वा उ॒पेत॑न ॥
०३ सञ्जग्माना अबिभ्युषीरस्मिन्गोष्ठे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Having come together, iinaffrighted, rich in manure, in this stall,
bearing the sweet of soma, come ye hither, free from disease.
Notes
Three of the pādas (a, b, d) again form, with considerable variants,
a gāyatrī in MS. (ibid.) immediately following the one noted above:
MS. has ávihrutās for ábibhyuṣīs, purīṣíṇīs for kar-, and, in
place of our d, svāveśā́ na ā́ gata. Ppp. gives, as not seldom, in
part the MS. readings, corrupted: it begins saṁjanānāṁ vihṛtām, has
havis for madhu in c, and, for d, svāveśāsa etana. The
combination of p. upa॰étana into s. upétana is one of those aimed at
by Prāt. iii. 52, according to the comment on that rule; but it would
equally well fall under the general rule (iii. 38) as to the order of
combination when ā comes between two vowels (upa-ā-itana like
indra-ā-ihi etc.). ⌊Cf. also Lanman, JAOS. x. 425.⌋
Griffith
Moving together, free from fear, with plenteous droppings in this pen, Bearing sweet milk-like Soma-juice, come hither free from all disease.
पदपाठः
स॒म्ऽज॒ग्मा॒नाः। अबि॑भ्युषीः। अ॒स्मिन्। गो॒ऽस्थे। क॒री॒षिणीः॑। बिभ्र॑तीः। सो॒म्यम्। मधु॑। अ॒न॒मी॒वाः। उ॒प॒ऽएत॑न। १४.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गौः
- ब्रह्मा
- अनुष्टुप्
- गोष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गोरक्षा का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मिन् गोष्ठे) इस गोशाला में (संजग्मानाः) मिलकर चलती हुई, (अबिभ्युषीः=०−ष्यः) निर्भय रहती हुई, (करीषिणीः=०−ण्यः) गोबर करनेवाली, (सोम्यम्) अमृतमय (मधु) रस (बिभ्रतीः=०−त्यः) धारण करती हुई, (अनमीवाः) नीरोग तुम (उपेतन=उप, आ, इत) चली आओ ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य गौओं को हिंसक जीवों से बचाकर नीरोग रक्खें जिससे वे रोगनाशक, अमृतमय दूध, घृत आदि पदार्थ देती रहें। गौ के मूत्र, गोबर, दूध आदि के गुण और प्रयोग बहुत हैं ॥३॥ शब्दकल्पद्रुम कोष में गौ के गुण वर्णन करते हुए कहा है−गोमूत्रं गोमयं क्षीरं सर्पिर्दधि च रोचना। षडङ्गमेतन्मङ्गल्यं पवित्रं सर्वदा गवाम् ॥ गोमूत्र, गोबर, दूध, घी, दही और गोरोचना, गौओं के यह छह प्रकार के सर्वदा मङ्गलकारी शुद्ध पदार्थ हैं ॥ मनु भगवान् का वचन है-गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम्। एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सान्तपनं स्मृतम् ॥ मनु० ११।२१२ ॥ गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी और कुशा का पानी, एक दिन [खावे] फिर एक दिन-रात उपवास करे। यह कृच्छ्र सान्तपन कहाता है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(संजग्मानाः)। समो गम्यृच्छिभ्याम्। पा० १।३।२९। इति संपूर्वाद् गमेरात्मनेपदत्वात् लिटः कानच्। संगच्छमानाः। (अबिभ्युषीः)। ञिभी भये-लिटः क्वसुः, ङीप्। वसोः संप्रसारणम्। पा० ६।४।३१। इति संप्रसारणम्। जसः पूर्वसवर्णदीर्घः। अबिभ्यत्यः। (करीषिणीः)। कॄतॄभ्यामीषन्। उ० ४।२६। इति कॄ विक्षेपे, विज्ञाने-ईषन्। अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति इनि। करीषिण्यः करीषेण गोमयेन युक्ताः। (बिभ्रतीः)। भृञ् भरणे-शतृ। बिभ्रत्यः। धारयन्त्यः। (सोम्यम्)। मये च पा० ४।४।१३८। इति सोम-य प्रत्ययः। अमृतमयम्। (मधु)। मधुरं दुग्धघृतादि। (अनमीवाः)। अ० २।३०।३। रोगरहिताः। (उपेतन)। इण् गतौ-लोट्। तस्य तनादेशः। उपागच्छत ॥
०४ इहैव गाव
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒हैव गा॑व॒ एत॑ने॒हो शके॑व पुष्यत।
इ॒हैवोत प्र जा॑यध्वं॒ मयि॑ सं॒ज्ञान॑मस्तु वः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒हैव गा॑व॒ एत॑ने॒हो शके॑व पुष्यत।
इ॒हैवोत प्र जा॑यध्वं॒ मयि॑ सं॒ज्ञान॑मस्तु वः ॥
०४ इहैव गाव ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Come ye just here, O kine, and flourish here like śákā; also
multiply (pra-jā) just here; let your complaisance be toward me.
Notes
śáke ’va (p. śákā॰iva) in b is very obscure: Weber renders “like
dung” (as if śákā = ćákṛt); Ludwig, “with the dung” (as if śákā =
śáknā́); Grill, “like plants” (implying śākam iva or śākā iva) the
comm. says “multiply innumerably, like flies” (śakā = makṣikā); this
last is, so far as can be seen, the purest guesswork, nor is anything
brought up in its support; and the “dung” comparisons are as unsuitable
as they are unsavory. The explanation of the comm. accords with one
among those offered by the commentators on VS. xxiv. 32 (= MS. iii. 14.
13) and TS. v. 5. 18¹, where śákā also occurs. Ppp. reads ṣakā iva.
SPP. reports his pada-mss. as accenting gā́vaḥ in a, but emends
in his pada-text to gāvaḥ; the latter is read by all ours, so far as
noted.
Griffith
Come hither, to this place, O Cows: here thrive as though ye were manured. Even here increase and multiply; let us be friendly, you and me.
पदपाठः
इ॒ह। ए॒व। गा॒वः॒। आ। इ॒त॒न॒। इ॒हो॒ इति॑। शका॑ऽइव। पु॒ष्य॒त॒। इ॒ह। ए॒व। उ॒त। प्र। जा॒य॒ध्व॒म्। मयि॑। स॒म्ऽज्ञान॑म्। अ॒स्तु॒। वः॒। १४.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गौः
- ब्रह्मा
- अनुष्टुप्
- गोष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गोरक्षा का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गावः) हे गौओ ! (इह एव) यहाँ ही (एतन) आओ (इहो=इह उ) यहाँ ही (शका इव) समर्था [गृहपत्नी] के समान (पुष्यत) पोषण करो। (उत) और (इह एव) यहाँ पर ही (प्रजायध्वम्) बच्चों से बढ़ो। (मयि) मुझमें (वः) तुम्हारा (संज्ञानम्) प्रेम (अस्तु) होवे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे समर्थ गृहपत्नी घरवालों का पोषण करके प्रसन्न रखती है, ऐसे ही गौएँ अपने दूध घी, आदि से अपने रक्षकों को पुष्ट और स्वस्थ करती हैं। इससे सब मनुष्य प्रीतिपूर्वक उनका पालन करें और उनका वंश बढ़ावें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(आ इतन)। एत। आगच्छत। (इहो)। इह-उ। अत्रैव। शका। शक्लृ सामर्थ्ये-पचाद्यच्, टाप्। शक्नोतीति शका-इति सिद्धान्तकौमुद्याम् [प्रत्ययस्थात् कात्०। पा० ७।३।४४] इति व्याख्यायाम्। समर्था राजपत्नी गृहपत्नी वा। (पुष्यत)। पोषयत। (उत)। अपि च। (प्र जायध्वम्)। प्रजया प्रवर्धध्वम्। (मयि)। गोरक्षके। (संज्ञानम्)। सम्यग् ज्ञानम्। प्रीतिभावः। (वः)। युष्माकम् ॥
०५ शिवो वो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
शि॒वो वो॑ गो॒ष्ठो भ॑वतु शारि॒शाके॑व पुष्यत।
इ॒हैवोत प्र जा॑यध्वं॒ मया॑ वः॒ सं सृ॑जामसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
शि॒वो वो॑ गो॒ष्ठो भ॑वतु शारि॒शाके॑व पुष्यत।
इ॒हैवोत प्र जा॑यध्वं॒ मया॑ वः॒ सं सृ॑जामसि ॥
०५ शिवो वो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let your stall be propitious; flourish ye like śāriśā́kā; also
multiply just here; with me we unite you.
Notes
There is no Ppp. text of this verse to help cast light on the obscure
and difficult śāriśākā (p. śāriśā́kā॰iva). The comm. (implying
-kās) explains the word as meaning “kinds of creatures that increase
by thousands in a moment,” but offers no etymology or other support; the
translators supply a variety of ingenious and unsatisfactory conjectures
(Weber, “like śāri-dung,” śāri perhaps a kind of bird; Grill
“[fatten yourselves] like the śārikā” or hooded crow; Ludwig simply
puts a question-mark in place of a translation). R. offers the
conjecture śāriḥ (= śāliḥ) śaka iva ’like rice in manure.’ Our P.
M.E.I, accent śā́riśā́ke ’va.
⌊BIoomfield emends to śāri-śukeva (= -kās iva), ’thrive ye like
starlings and parrots.’ True, these birds are habitual companions in
literature as in life (see my translation of Karpūra-mañjarī, p. 229,
note), loquacity being their salient characteristic; but what is the
tertium comparationis between the thriving of cows and of starlings?⌋
Griffith
Auspicious be this stall to you. Prosper like cultivated rice. Even here increase and multiply. Myself do we bestow on you.
पदपाठः
शि॒वः। वः॒। गो॒ऽस्थः। भ॒व॒तु॒। शा॒रि॒शाका॑ऽइव। पु॒ष्य॒त॒। इ॒ह। ए॒व। उ॒त। प्र। जा॒य॒ध्व॒म्। मया॑। वः॒। सम्। सृ॒जा॒म॒सि॒। १४.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गौः, गोष्ठः
- ब्रह्मा
- अनुष्टुप्
- गोष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गोरक्षा का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वः) तुम्हारी (गोष्ठः) गोशाला (शिवः) मङ्गलदायक (भवतु) होवे। (शारिशाका इव) शालि [साठी चावल] की शाखा [उपज] के समान (पुष्यत) पोषण करो। (उत) और (इह एव) यहाँ ही (प्रजायध्वम्) बच्चों से बढ़ो। (मया=अस्माभिः) अपने साथ (वः) तुमको (संसृजामसि=०−मः) हम मिलाकर रखते हैं ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे शारि, शालि साठी चावल की शालि शाका थोड़े प्रयत्न से साठ दिन में ही पक जाती है, वैसे ही मनुष्य यत्नपूर्वक थोड़े परिश्रम से पालन करके गौओं से दूध, घी और खेती के लिये बैल आदि पाकर बहुत लाभ उठाते हैं ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(शिवः) सुखकरः। (वः)। युष्माकम्। (गोष्ठः)। गोशालः। (शारिशाका)। जनिघसिभ्यामिण्। उ० ४।१३०। इति शल गतौ-इञ्। लस्य रत्वम्। शल्यते प्राप्यतेऽसौ शालिः। षष्टिकादिधान्यम्। शक सामर्थ्ये घञ्, टाप्। शक्नोति कर्षको यया सा शाका, साखा, इति भाषा। अन्नोत्पत्तिः। (पुष्यत)। पोषयत। (मया)। एकवचनं बहुवचने। (अस्माभिः)। अन्यद् व्याख्यातं म० ४, १ ॥
०६ मया गावो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
मया॑ गावो॒ गोप॑तिना सचध्वम॒यं वो॑ गो॒ष्ठ इ॒ह पो॑षयि॒ष्णुः।
रा॒यस्पोषे॑ण बहु॒ला भव॑न्तीर्जी॒वा जीव॑न्ती॒रुप॑ वः सदेम ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मया॑ गावो॒ गोप॑तिना सचध्वम॒यं वो॑ गो॒ष्ठ इ॒ह पो॑षयि॒ष्णुः।
रा॒यस्पोषे॑ण बहु॒ला भव॑न्तीर्जी॒वा जीव॑न्ती॒रुप॑ वः सदेम ॥
०६ मया गावो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Attach yourselves, O kine, to me as lord of kine; this your stall
here [be] flourishing; to you, becoming numerous with abundance of
wealth, to you living, may we living be near (upa-sad).
Notes
Bhávantas in c would be a desirable emendation. Upa-sad may be
rather ‘wait upon’ (so Grill), only then we should expect rather
sadāma (comm., upagacchema). ⌊W’s implied difference between
sadema and sadāma is not clear to me.⌋ Ppp. reads in a
gopatyā, and its b is mayi vo goṣṭha iha poṣayāti. ⌊The epithet
ārṣī seems to be as meaningless here as at iii. 12. 7—see note, end.⌋
Griffith
Follow me, Cows, as master of the cattle. Here may this Cow- pen make you grow and prosper, Still while we live may we approach you living, ever increasing with the growth of riches.
पदपाठः
मया॑। गा॒वः॒। गोऽप॑तिना। स॒च॒ध्व॒म्। अ॒यम्। वः॒। गो॒ऽस्थः। इ॒ह। पो॒ष॒यि॒ष्णुः। रा॒यः। पोषे॑ण। ब॒हु॒लाः। भव॑न्तीः। जी॒वाः। जीव॑न्तीः। उप॑। वः॒। स॒दे॒म॒। १४.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गौः
- ब्रह्मा
- आर्षी त्रिष्टुप्
- गोष्ठ सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
गोरक्षा का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गावः) हे गौओं ! (मया गोपतिना) मुझ गोपति से (सचध्वम्) मिली रहो। (इह) यहाँ (अयम्) यह (पोषयिष्णुः) पोषण करनेवाली (वः) तुम्हारी (गोष्ठः) गोशाला है। (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि से (बहुलाः) बहुत पदार्थ देनेवाली अथवा वृद्धि करनेवाली (भवन्तीः) होती हुई और (जीवन्तीः) जीती हुई (वः) तुमको (जीवाः) जीते हुए हम लोग (उप) आदर से (सदेम) प्राप्त करते रहें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य गौओं की सेवा से दुग्ध, घृत, कृषि आदि की उन्नति करके बहुत काल तक जीते और सुख भोगते रहें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(गावः)। हे धेनवः। (गोपतिना)। गोरक्षकेण। (सचध्वम्)। षच समवाये। समवेता भवत। संगच्छध्वम्। (पोषयिष्णुः)। णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। इति पोषयतेः-इष्णुच्। पोषकः। (बहुलाः)। बहु+ला दाने क, टाप्। यद्वा। हृषेरुलच्। उ० १।९६। इति बहि वृद्धौ-उलच्। न लोपः। यद्वा, वह प्रापणे-उलच्। टाप्। बहुपदार्थदात्रीः। वृद्धिशीलाः। (भवन्तीः)। भू सत्तायाम्-शतृ, ङीप्। वर्त्तमानाः। (जीवाः)। चिरजीविनो वयम्। (जीवन्तीः)। बहुकालजीवनोपेताः। (उप)। आदरेण। (वः)। युष्मान्। (सदेम)। सदेराशीर्लिङि। गच्छेम। प्राप्नुयाम। अन्यद् गतम् ॥