०१३ आपः

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Whitney subject
  1. To the waters.
VH anukramaṇī

आपः।
१-७ भृगुः। वरुणः, सिन्धुः, आपः, २-३ इन्द्रः। अनुष्टुप्, १ निचृत्, ५ विराड् जगती, ६ निचृदगनुष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Bhṛgu.—saptarcam. vāruṇam uta sindhudāivatam. ānuṣṭubham: 1. nicṛt; 5. virāḍjagatī; 6. nicṛt triṣṭubh.]

Whitney

Comment

The first six verses occur in Pāipp. iii., and also in TS. (v. 6. 1), MS. (ii. 13. 1), and K. (xxxix. 2). The hymn is used by Kāuś. in a ceremony for directing water into a certain course (40. 1 ff.); the pādas of vs. 7 are severally employed in it (see under that verse); it also appears, with other hymns (i. 4-6, 33, etc. etc.), in a rite for good-fortune (41. 14). And the comm. describes it as used by one who desires rain. Verse 7 is further employed, with a number of other verses, by Vāit. (29. 13), in the agnicayana, accompanying the conducting of water, reeds, and a frog over the altar-site.—⌊Berlin ms. of Anukr. reads sindhvabdāivatam.⌋

Translations

Translated: Weber, xvii. 240; Griffith, i. 99; Bloomfield, 146, 348.—Cf. Bergaigne-Henry, Manuel, p. 143.

Griffith

A benediction on a newly cut water channel

०१ यददः सम्प्रयतीरहावनदता

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यद॒दः सं॑प्रय॒तीरहा॒वन॑दता ह॒ते।
तस्मा॒दा न॒द्यो॒३॒॑ नाम॑ स्थ॒ ता वो॒ नामा॑नि सिन्धवः ॥

०१ यददः सम्प्रयतीरहावनदता ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Since formerly (? adás), going forth together, ye resounded
    (nad) when the dragon was slain, thenceforth ye are streams (nadī́)
    by name: these are your names, O rivers.
Notes

The pada-mss. all commit the very gratuitous blunder of writing tā́ḥ
instead of tā́ at the beginning of d, as if it belonged to
sindhavas instead of to nā́māni; SPP. emends to tā́, and the comm.
so understands the word. The comm. takes adás as Vedic substitute for
amuṣmin, qualifying áhāu. None of the other texts gives any various
reading for this verse. Pāda d sets forth, as it were, the office of
the first four verses, in finding punning etymologies for sundry of the
names of water.

Griffith

As ye, when Ahi had been slain, flowed forth together with a roar, So are ye called the Roaring Ones: this, O ye Rivers, is your name.

पदपाठः

यत्। अ॒दः। स॒म्ऽप्र॒य॒तीः॒। अहौ॑। अन॑दत। ह॒ते। तस्मा॑त्। आ। न॒द्यः᳡। नाम॑। स्थ॒। ता। वः॒। नामा॑नि। सि॒न्ध॒वः॒। १३.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः, सिन्धुः, आपः
  • भृगुः
  • निचृदनुष्टुप्
  • आपो देवता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जल के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सिन्धवः) हे बहनेवाली नदियों ! (संप्रयतीः=संप्रयत्यः+यूयम्) मिलकर आगे बढ़ती हुई तुमने (अहौ हते) मेघ के ताड़े जाने पर (अदः) वह (यत्) जो (अनहत) नाद किया है। (तस्मात्) इसलिये (आ) ही (नद्यः) नाद करनेवाली, नदी (नाम) नाम (स्थ) तुम हो, (ता=तानि) वह [वैसे ही] (वः) तुम्हारे (नामानि) नाम हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब मेघ आपस में टकराकर गरजकर बरसते हैं, तब वह जल पृथिवी पर एकत्र होकर नाद करता हुआ बहता है, इससे उसका नदी नाम है। इसी प्रकार वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति समझकर अर्थ करना चाहिये ॥१॥ अजमेर पुस्तक में संप्रयतिः है, हमने अन्य पुस्तकों से संप्रयतीः पाठ लिया है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(यत्)। यत् किंचित्। (अदः)। तत्। (संप्रयतीः)। इण् गतौ शतृ, ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। संभूय, प्रयान्त्यः। (अहौ)। अ० २।५।५। मेघे। (अनदत)। णद, नदट्। वा अव्यक्ते शब्दे-लङ्। सांहितिको दीर्घः। यूयं ध्वनिं कृतवत्यः। (हते)। ताडिते। (तस्मात्)। तस्मात् कारणात्। (आ)। अवधारणे। (नद्यः)। नदट् पचाद्यच्। टिड्ढाणञ्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप् नद्यः कस्मान्नदना भवन्ति शब्दवन्त्यः-निरु० २।२४। नदनशीलाः। सरितः। (नाम)। अ० १।२४।३। नामधेयम्। (स्थ)। भवथ। (ता)। तानि। (वः)। युष्माकम्। (सिन्धवः)। अ० १।१५।१। स्यन्दनशीलाः। नद्यः ॥

०२ यत्प्रेषिता वरुणेनाच्छीभम्

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यत्प्रेषि॑ता॒ वरु॑णे॒नाच्छीभं॑ स॒मव॑ल्गत।
तदा॑प्नो॒दिन्द्रो॑ वो य॒तीस्तस्मा॒दापो॒ अनु॑ ष्ठन ॥

०२ यत्प्रेषिता वरुणेनाच्छीभम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. When, sent forth by Varuna, ye thereupon (ā́t) quickly skipped
    (valg) together, then Indra obtained (āp) you as ye went; therefore
    are ye waters (ā́p) afterward.
Notes

TS. and MS. have in d ā́pas (nomin.), and this is obviously the
true reading, and assumed in the translation; both editions follow the
mss. (except our Op.) in giving āpas. MS. begins the verse with
samprácyutās; for ā́t in b MS. has yát and TS. tā́s. In d,
Ppp. elides the a of anu; TS. leaves sthana unlingualized. The
comm. reads instead stana.

Griffith

As driven forth by Varuna ye swiftly urged your rolling waves, There Indra reached you as you flowed; hence ye are still the Water-floods.

पदपाठः

यत्। प्रऽइ॑षिताः। वरु॑णेन। आत्। शीभ॑म्। स॒म्ऽअव॑ल्गत। तत्। आ॒प्नो॒त्। इन्द्रः॑। वः॒। य॒तीः। तस्मा॑त्। आपः॑। अनु॑। स्थ॒न॒। १३.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • भृगुः
  • अनुष्टुप्
  • आपो देवता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जल के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (आत्) फिर (वरुणेन) सूर्य करके (प्रेषिताः) भेजे हुए तुम (शीभम्) शीघ्र (समवल्गत) मिलकर चलो, (तत्) तव (इन्द्रः) जीव ने [वा सूर्य ने] (यतीः) चलते हुए। (वः) तुमको (आप्नोत्) प्राप्त किया (तस्मात्) उससे (अनु) पीछे (आपः) प्राप्तियोग्य जल [नाम] (स्थन) तुम हो ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में आप्नोत् और आपः शब्द एक ही धातु आप्लृ व्याप्तौ से सिद्ध है। जब सूर्य की शक्ति से जल भूमि पर आकर फैलता है, तब जीव उसे पाता है, [और सूर्य भी फिर से लेता है] इससे जल का नाम आपः पाने योग्य वस्तु है। आपः शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(यत्)। यदा। (प्रेषिताः)। इष गतौ-क्त। प्रेरिताः। (वरुणेन)। वरणीयेन सूर्येण। (आत्)। अनन्तरम्। (शीभम्)। शीभ कत्थने-घञ्। क्षिप्रम्-निघ० २।१५। (समवल्गत)। वल्ग गतौ-लङ्, भौवादिकः। यूयं सम्भूय गतवत्यः। (तत्)। तदा। (आप्नोत्)। आप्लृ व्याप्तौ-लङ्। प्राप्तवान्। (इन्द्रः)। जीवः। सूर्यः। (वः)। युष्मान्। (यतीः)। इण् गतौ-शतृ। गमनं कुर्वतीः। (तस्मात्)। (आपः)। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ-क्विप्। अप्तृन्तृच्० पा० ६।४।११। इति सर्वनामस्थाने दीर्घः। आप आप्नोतेः-निरु० ९।२६। प्राप्तव्यानि जलानि। (अनु)। पश्चात्। (स्थन)। यूयं स्थ ॥

०३ अपकामं स्यन्दमाना

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अ॑पका॒मं स्यन्द॑माना॒ अवी॑वरत वो॒ हि क॑म्।
इन्द्रो॑ वः॒ शक्ति॑भिर्देवी॒स्तस्मा॒द्वार्नाम॑ वो हि॒तम् ॥

०३ अपकामं स्यन्दमाना ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. As ye were flowing perversely (apakāmám), since Indra verily
    hindered (var) you by his powers, you, ye divine ones, therefore the
    name water (vā́r) is assigned you.
Notes

Ppp. has for c indro vas saktabhir devāís. TS. combines in d
vā́r ṇā́ma. The comm. apparently takes híkam as a single word (the TS.
pada-text so regards it), quoting as his authority Nāighaṇṭuka iii.
12; and again in d, if the manuscript does not do him injustice, he
reads hikam for hitam.

Griffith

Indra restrained you with his might. Goddesses, as ye glided on Not in accordance with his will: hence have ye got the name of Streams.

पदपाठः

अ॒प॒ऽका॒मम्। स्यन्द॑मानाः। अवी॑वरत। वः॒। हि। क॒म्। इन्द्रः॑। वः॒। शक्ति॑ऽभिः। दे॒वीः॒। तस्मा॑त्। वाः। नाम॑। वः। हि॒तम्। १३.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • भृगुः
  • अनुष्टुप्
  • आपो देवता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जल के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वः) वेगवान् वा वरणीय (इन्द्रः) जीव [वा सूर्य्य] ने (हि) ही (अपकामम्) व्यर्थ (स्यन्दमानाः) बहते हुए (वः) तुमको (शक्तिभिः) अपनी शक्तियों द्वारा (कम्) सुख से (अवीवरत) वरण [स्वीकार] अथवा, वारण [रोकना] किया, (तस्मात्) इससे (देवीः=देव्यः) हे दिव्य गुणवाली वा खेलवाली जल धाराओ ! (वः) तुम्हारा (नाम) नाम (वार्) वरणयोग्य वा वारणयोग्य जल (हितम्) रक्खा गया है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य भूमि पर अन्नादि के लिये और सूर्य्य आकाश में वृष्टि के लिये जल को चाहता है वा रोकता है, इसलिये जल का नाम वार् है। अवीवरत क्रिया और वार् शब्द दोनों वृञ् चाहना वा रोकना धातु से बनते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(अपकामम्)। विनैव कामेन, व्यर्थम्। (स्यन्दमानाः)। स्यन्दनं कुर्वाणाः। (अवीवरत)। वृञ् वरणे, यद्वा, वृ वारणे, स्वार्थिको णिच्। वृतवान्। वारितवान्। (वः)। युष्मान्। (हि)। निश्चयेन। (कम्)। सुखेन। (इन्द्रः)। जीवः। सूर्य्यः। (वः)। गतौ, वा, वृञ् वरणे-ड। वायुः, वरुणः। वेगवान्। वरणीयः। (शक्तिभिः)। स्वसामर्थ्यैः। (देवीः)। दिवु दीप्तौ, क्रीडायां च-अच्, ङीप्। हे देव्यः। दिव्यगुणाः। देवनशीलाः। (वार्)। वृञ् वरणे, वा वृ वारणे-णिच् क्विप्। (व्रियते) वार्यते वा यत्तद्। जलम्। (वः)। युष्माकम्। (हितम्)। धाञ् धारणे-क्त। धृतम् ॥

०४ एको वो

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एको॑ वो दे॒वोऽप्य॑तिष्ठ॒त्स्यन्द॑माना यथाव॒शम्।
उदा॑निषुर्म॒हीरिति॒ तस्मा॑दुद॒कमु॑च्यते ॥

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Whitney
Translation
  1. The one god stood up to you, flowing at [your] will; “the great
    ones have breathed up (ud-an),” said he; therefore water (udaká) is
    [so] called.
Notes

The name here really had in mind must be, it would seem, udan, but
udakám has to be substituted for it in the nominative; none of the
other texts offer a different form. TS. improves the meter of a by
omitting vas, and TS. and MS. leave the a of api unelided. Ppp.
differs more seriously: eko na deva upātiṣṭhat syandamānā upetyaḥ.
Yathāvaśam in b might be ‘at his will,’ opposed to apakāmám in
vs. 3. The sense of c is rather obscure; the comm. understands:
“saying ‘by this respect on the part of Indra we have become great,’
they breathed freely (or heaved a sigh of relief:
ucchvasitavatyas)"—which is senseless. R. suggests “Indra put himself
in their way with the polite address and inquiry: ’their worships have
given themselves an airing’; and conducted them on their way again”;
Weber understands them to sigh under the burden of the god standing
“upon” (ápi) them. The comm. declares api to have the sense of
adhi.

Griffith

One only God set foot on you flowing according to your will, The mighty ones breathed upward fast: hence; Water is the name they bear.

पदपाठः

एकः॑। वः॒। दे॒वः। अपि॑। अ॒ति॒ष्ठ॒त्। स्यन्द॑मानाः। य॒था॒ऽव॒शम्। उत्। आ॒नि॒षुः॒। म॒हीः। इति॑। तस्मा॑त्। उ॒द॒कम्ः। उ॒च्य॒ते॒। १३.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः, सिन्धुः, आपः
  • भृगुः
  • अनुष्टुप्
  • आपो देवता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जल के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (एकः) अकेला (देवः) जयशील परमात्मा (यथावशम्) इच्छानुसार (स्यन्दमानाः) बहते हुए (वः) तुम्हारा (अपि अतिष्ठत्) अधिष्ठाता हुआ। (महीः=महत्यः) शक्तिवाले [आपः जल] ने (इति) इस प्रकार (उत्+आनिषुः) ऊपर को श्वास ली, (तस्मात्) इसलिये (उदकम्) ऊपर को श्वास लेनेवाला उदक वा जल (उच्यते) कहा जाता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ईश्वर की सामर्थ्य से सूर्य्य द्वारा जल आकाश में चढ़ता है, इसलिये उदक जल का नाम है। उत् आनिषुः और उदकम् उत्+अन, श्वास लेना-धातु से बनते हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(एकः)। अद्वितीयः। (वः)। युष्मान्। (देवः)। दिवु विजिगीषायाम्-अच्। जेता। (अपि अतिष्ठत्)। अपि=अधि। अधिष्ठितवान्। शासितवान् (स्यन्दमानाः)। स्यन्दनशीलाः। (यथावशम्)। यथेच्छम्। (उत् आनिषुः)। अन प्राणने-लुङ्। उच्छ्वासितवत्यः। (महीः)। महत्यः। (इति)। एवम्। (तस्मात्)। (उदकम्)। कृदाधारार्चिकलिभ्यः कः। उ० ३।४०। इति उत्+अन प्राणने-क। नलोपः। यद्वा। उदकं च। उ० २।३९। इति उन्दी क्लेदने-क्वुन्। उदकं कस्मादुनत्तीति सतः-निरु० २।२४। उच्छ्वासकम्। उन्दनशीलम्। जलम्। (उच्यते)। कथ्यते ॥

०५ आपो भद्रा

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आपो॑ भ॒द्रा घृ॒तमिदाप॑ आसन्न॒ग्नीषोमौ॑ बिभ्र॒त्याप॒ इत्ताः।
ती॒व्रो रसो॑ मधु॒पृचा॑मरंग॒म आ मा॑ प्रा॒णेन॑ स॒ह वर्च॑सा गमेत् ॥

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Whitney
Translation
  1. The waters [are] excellent; the waters verily were ghee; these
    waters verily bear Agni-and-Soma; may the strong (tīvrá) satisfying
    savor (rása) of the honey-mixed (-pṛc) come to me along with breath,
    with splendor.
Notes

TS. reads āsus for āsan at end of a, and both TS. and MS., as
also the comm., have gan at the end (MS.p. agan). MS. combines
differently the material of our vss. 5 and 6: first our 6 a, b with
5 c, d, then our 5 a, b with 6 c, d; and for our 5 a it
reads ā́po devī́r ghṛtaminvā́ u ā́pas. This last seems also to be intended
by Ppp., with its āpo devīr ghṛtam itāpāhus; and it has ityā instead
of it tās at end of b, and combines -gamā mā in c-d. The
comm. renders madhupṛcām by madhunā rasena sampṛktānām; the
description in pāda c almost makes us fancy some kind of mineral
water to be had in view.

Griffith

आपो॑ भ॒द्रा घृ॒तमिदाप॑ आसन्न॒ग्नीषोमौ॑ बिभ्र॒त्याप॒ इत् ताः।
ती॒व्रो रसो॑ मधुपृचा॑मरंग॒म आ मा॑ प्रा॒णेन॑ स॒ह वर्च॑सा गमेत्॥५॥

पदपाठः

आपः॑। भ॒द्राः। घृ॒तम्। इत्। आपः॑। आ॒स॒न्। अ॒ग्नीषोमौ॑। बि॒भ्र॒ती॒। आपः॑। इत्। ताः। ती॒व्रः। रसः॑। म॒धु॒ऽपृचा॑म्। अ॒र॒म्ऽग॒मः। आ। मा॒। प्रा॒णेन॑। स॒ह। वर्च॑सा। ग॒मे॒त्। १३.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः, सिन्धुः, आपः
  • भृगुः
  • विराड्जगती
  • आपो देवता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जल के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (आपः) जल (भद्राः) मङ्गलमय और (आपः) जल (इत्) ही (घृतम्) घृत (आसन्) था। (ताः) वह (इत्) ही (आपः) जल (अग्नीषोमौ) अग्नि और चन्द्रमा को (बिभ्रति) पुष्ट करता है। (मधुपृचाम्) मधुरता से भरी [जल धाराओं] का (अरंगमः) परिपूर्ण मिलनेवाला, (तीव्रः) तीव्र [तीक्ष्ण, शीघ्र प्रवेश होनेवाला] (रसः) रस (मा) मुझको (प्राणेन) प्राण और (वर्चसा सह) कान्ति वा बल के साथ (आ गमेत्) आगे ले चले ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जल से घृत सारमय पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जल अग्नि अर्थात् जठराग्नि, बिजुली, बड़वानल आदि और चन्द्रलोक से मिलकर हमें पुष्टि देता है और कृषि आदि में प्रयुक्त होकर अन्नादि उत्पन्न करके प्राणियों का बल और तेज बढ़ाता है ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(आपः)। प्रापणीयं जलम्। (भद्राः)। भदि कल्याणकारणे-रक्। मङ्गलप्रदाः। (घृतम्)। घृतवत् सारवस्तु। (इत्)। एव। (आसन्)। अभवन्। (अग्नीषोमौ)। ईदग्नेः सोमवरुणयोः। पा० ६।३।२७। इति ईत्वम्। अग्नेः स्तुत्स्तोमसोमाः। पा० ८।३।८२। इति षत्वम्। अग्निं च सोमं चन्द्रं च। (बिभ्रति)। धारयन्ति। (तीव्रः)। ऋजेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति बाहुलकात्। तिज तीक्ष्णीकरणे-रन्, जस्य वो दीर्घत्वं च। तीक्ष्णम्। (रसः)। सारः। मधुपृचाम्। पृची संपर्के-क्विप्। मधुना रसेन संपृक्तानाम्। (अरंगमः)। अलंगमः। पर्याप्तगमनः। अक्षीणाः। (प्राणेन)। जीवनेन। (मा)। माम्। (वर्चसा)। तेजसा। बलेन। (आ गमेत्)। आगमयेत्, प्रापयेत् ॥

०६ आदित्पश्याम्युत वा

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आदित्प॑श्याम्यु॒त वा॑ शृणो॒म्या मा॒ घोषो॑ गच्छति॒ वाङ्मा॑साम्।
मन्ये॑ भेजा॒नो अ॒मृत॑स्य॒ तर्हि॒ हिर॑ण्यवर्णा॒ अतृ॑पं य॒दा वः॑ ॥

०६ आदित्पश्याम्युत वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Then indeed I see, or also hear; unto me comes the noise, to me the
    voice of them; I think myself then to have partaken ambrosia (amṛ́ta)
    when, ye gold-colored ones, I have enjoyed (tṛp) you.
Notes

TS. has the inferior readings nas for at end of b and yád
for yadā́ in d. MS. is corrupt in b; its pada-text reads
vā́k: nu: āsām, but the editor gives in saṁhitā-text vā́r nv āsām.
The comm. combines vā́g mā. Ppp. has at the beginning yād for ād.
The comm. takes the opportunity of the occurrence of hiraṇya- in d
to bring forward an etymology of it which he here and there repeats; it
is hita-ramaṇīya! The verse is improperly reckoned as nicṛt. ⌊In the
edition amṛ́tastha is a misprint for -sya.

Griffith

आदित् प॑श्याम्यु॒त वा॑ शृणो॒म्या मा॒ घोषो॑ गच्छति॒ वाङ् मा॑साम्।
मन्ये॑ भेजा॒नो अ॒मृत॑स्य तर्हि॒ हिर॑ण्यवर्णा॒ अतृ॑पं य॒दा वः॑ ॥६॥

पदपाठः

आत्। इत्। प॒श्या॒मि॒। उ॒त। वा॒। शृ॒णो॒मि॒। आ। मा॒। घोषः॑। ग॒च्छ॒ति॒। वाक्। मा॒। आ॒सा॒म्। मन्ये॑। भे॒जा॒नः। अ॒मृत॑स्य। तर्हि॑। हिर॑ण्यऽवर्णाः। अतृ॑पन्। य॒दा। वः॒। १३.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः, सिन्धुः, आपः
  • भृगुः
  • निचृत्त्रिष्टुप्
  • आपो देवता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जल के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (आत्) तब (इत्) ही (पश्यामि) मैं देखता हूँ, (उत) और (वा) अथवा (शृणोमि) मैं सुनता हूँ, (आसाम्) इसकी [जल के रस की] (घोषः) ध्वनि (मा) मुझे (आ गच्छति) आती है और (वाक्) वाक्शक्ति (मा) मुझे [आती है]। (हिरण्यवर्णाः) हे कमनीय पदार्थ वा सुवर्ण का विस्तार करनेवाले [जल]। (तर्हि) तभी (अमृतस्य) अमृत का (भेजानः) भोग करता हुआ मैं (मन्ये) अपने को मानूँ, (यदा) जब (वः) तुम्हारी (अतृपम्) तृप्ति मैंने पाई है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जल के यथावत् प्रयोग से प्राणी में दर्शनशक्ति और श्रवणशक्ति और घोष ध्वन्यात्मक शब्द और वाक् वर्णात्मक शब्द बोलने की शक्ति होती है और तभी वह इष्ट सुवर्णादि धन की प्राप्ति से भूख आदि से मृत्युदुःख का त्याग करके अमृत अर्थात् आनन्द भोगता है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(आत् इत्)। अनन्तरमेव। (पश्यामि)। ईक्षे। (उत वा)। अपि वा। (शृणोमि)। आकर्णयामि। (मा)। माम्। (घोषः)। घुष स्तुतिविशब्दयोः-घञ्। ध्वन्यात्मकशब्दः। ध्वनिः। (आ गच्छति)। प्राप्नोति। (वाक्)। वर्णात्मकशब्दः। वाणी। (आसाम्)। अपाम्। जलस्य। (मन्ये)। जाने। तर्कयामि। (भेजानः)। भज सेवायां लिटः कानच्। तॄफलभजत्रपश्च। पा० ६।४।१२२। इति लिटि अकारस्य एत्वम् अभ्यासलोपश्च। भजमानाः सेवमानाः। (अमृतस्य)। मरणनाशकस्य। (सुखस्य)। (तर्हि)। तदा। (हिरण्यवर्णाः)। अ० १।३३।१। वर्ण वर्णक्रियाविस्तारगुणवचनेषु-घञ्। हिरण्यस्य कमनीयपदार्थस्य सुवर्णस्य वा वर्णं विस्तारो याभिस्तास्तथाभूताः। तत्सम्बुद्धौ। (अतृपम्)। तृप तृप्तौ लङ्। तृप्तिं प्राप्तवानस्मि। (यदा)। (वः)। युष्माकम् ॥

०७ इदं व

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इ॒दं व॑ आपो॒ हृद॑यम॒यं व॒त्स ऋ॑तावरीः।
इ॒हेत्थमेत॑ शक्वरी॒र्यत्रे॒दं वे॒शया॑मि वः ॥

०७ इदं व ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. This, O waters, [is] your heart, this your young (vatsá), ye
    righteous ones; come thus hither, ye mighty ones, where I now make you
    enter.
Notes

The preceding verses have been simple laudation of the waters; this
appended one (which is found neither in Ppp. nor in the other texts)
adds a practical application, and is the sole foundation of the
employment of the hymn by Kāuś. With the first pāda a piece of gold is
buried in the desired channel; with b a prepared frog is fastened
there; with c the frog is covered with a water-plant; with d
water is conducted in.

Griffith

इ॒दं व॑ आपो॒ हृद॑यम॒यं व॒त्स ऋ॑तावरीः ।
इ॒हेत्थमेत॑ शक्वरी॒र्यत्रे॒दं वे॒शया॑मि वः ॥७॥

पदपाठः

इ॒दम्। वः॒। आ॒पः॒। हृद॑यम्। अ॒यम्। व॒त्सः। ऋ॒त॒ऽव॒रीः॒। इ॒ह। इ॒त्थम्। आ। इ॒त॒। श॒क्व॒रीः॒। यत्र॑। इ॒दम्। वे॒शया॑मि। वः॒। १३.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणः, सिन्धुः, आपः
  • भृगुः
  • अनुष्टुप्
  • आपो देवता सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

जल के गुणों का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (आपः) हे प्राप्ति के योग्य जल धाराओं ! (इदम्) यह (वः) तुम्हारा (हृदयम्) स्वीकार योग्य हृदय वा कर्म है। (ऋतावरीः) हे सत्यशील [जलधाराओं !] (अयम्) यह (वत्सः) निवास देनेवाला, आश्रय है। (शक्वरीः) हे शक्तिवालियों ! (इत्थम्) इस प्रकार से (इह) यहाँ पर (आ इत) आओ, (यत्र) जहाँ (वः) तुम्हारे (इदम्) जल को (वेशयामि) प्रवेश करूँ ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - कृषि, यन्त्र, औषधादि में जल के यथायोग्य प्रयोग से प्राणियों को सुख मिलता है ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(इदम्)। उपरोक्तम्। (वः)। युष्माकम्। (आपः)। हे प्राप्तव्या जलधाराः। (हृदयम्)। वृह्रोः षुग्दुकौ च। उ० ४।१०। इति हृञ् हरणे-कथन् दुक् च, हरणं प्रापणं स्वीकारः स्तेयं नाशनं च। हरणीयं प्राप्तव्यं हृदयं कर्म वा। (वत्सः)। वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। इति वस निवासे-स। निवासकः। आश्रयः। (ऋतावरीः)। छन्दसीवनिपौ च। वा० पा० ५।२।१०९। इति मत्वर्थीयो वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ६।३।१३७। इति सांहितिको दीर्घः। वा छन्दसि। पा० ३।४।८८। इति जसः पूर्वसवर्णदीर्घः। हे ऋतवर्यः। सत्योपेताः। (इत्थम्)। अनेन प्रकारेण। (आ इत)। आगच्छत। (शक्वरीः)। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति शक्लृ शक्तौ-वनिप्। पूर्ववद् ङीब्रेफपूर्वसवर्णदीर्घाः। (शक्वर्यः)। शक्ताः। समर्थाः। (यत्र)। (इदम्)। इन्देः कमिन्नलोपः। उ० ४।१५७। इति इदि परमैश्वर्ये-कमिन्। उदकम्-निघ० १।१२। (वेशयामि)। प्रवेशयामि। अन्तः स्थापयामि ॥