०११ दीर्घायुः प्राप्तिः

०११ दीर्घायुः प्राप्तिः ...{Loading}...

Whitney subject
  1. For relief from disease, and for long life.
VH anukramaṇī

दीर्घायुः प्राप्तिः।
१-८ ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराश्च। इन्द्राग्नी, आयुष्यं, यक्ष्मनाशनम्। त्रिष्टुप्, ४ शक्करीगर्भा जगती, ५-६ अनुष्टुप्, ७ उष्णिग्बृहतीगर्भा पथ्यापङ्क्तिः, ८ त्र्यवसाना षट् पदा बृहतीगर्भा जगती।

Whitney anukramaṇī

[Brahman and Bhṛgvan̄giras.—aṣṭarcam. āindrāgnāyuṣyam, yakṣmanāśanadevatyam. trāiṣṭubham: 4. śakvarīgarbhā jagatī; 5, 6. anuṣṭubh; 7. uṣṇigbṛhatīgarbhā pathyāpan̄kti; 8. 3-av. 6-p. bṛhatīgarbhā jagatī.]

Whitney

Comment

The first four verses are found in Pāipp. i., with the bulk of the 4-verse hymns; they are also RV. x. 161. 1-4 (RV. adds a fifth verse, which occurs below as viii. 1. 20). The hymn is used by Kāuś. (27. 32, 33) in a general healing ceremony (without specification of person or occasion; the schol. and comm. assume to add such), and, in company with many others (iv. 13. 1 etc. etc.), in a rite for length of life (58. 11); and it is reckoned to the takmanāśana gaṇa (26. 1, note) and to the āyuṣya gaṇa (54. 11, note; but the comm., ignoring these, counts it as one of the aṅholin̄ga gaṇa). In Vāit. (36. 19), vs. 8 accompanies the setting free of the horse at the aśvamedha sacrifice; and the hymn (the edition says, i. 10. 4; the pratīkas are the same) is employed, with ii. 33 etc., in the puruṣamedha (38. 1).—⌊See also W’s introduction to ii. 33.⌋

Translations

Translated: Weber, xvii. 231; Griffith, i. 95; Bloomfield, 49, 341.—In part also by Roth, Zur Litteratur und Geschichte des Weda, p. 42.

Griffith

A charm for the recovery of a dangerously sick man

०१ मुञ्चामि त्वा

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मु॒ञ्चामि॑ त्वा ह॒विषा॒ जीव॑नाय॒ कम॑ज्ञातय॒क्ष्मादु॒त रा॑जय॒क्ष्मात्।
ग्राहि॑र्ज॒ग्राह॒ यद्ये॒तदे॑नं॒ तस्या॑ इन्द्राग्नी॒ प्र मु॑मुक्तमेनम् ॥

०१ मुञ्चामि त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. I release thee by oblation, in order to living, from unknown yákṣma
    and from royal yákṣma; if now seizure (gráhi) hath seized him, from
    it, O Indra-and-Agni, do ye release him.
Notes

RV. inserts after yádi in c. Ppp. has, in the second
half-verse, grāhyā gṛhīto yady eṣa yatas tata ind-. The comm. explains
rājayakṣma as either “king of yakṣmas” or else “the y. that seized
king Soma first,” quoting for the latter TS. ii. 5. 6⁵ ⌊see references
in Bloomfield’s comment⌋. The first pāda is jagatī.

Griffith

For life I set thee free by this oblation both from unmarked’. decline and from consumption: Or if the grasping demon have possessed him, free him from her,. O Indra, thou and Agni!

पदपाठः

मु॒ञ्चामि॑। त्वा॒। ह॒विषा॑। जीव॑नाय। कम्। अ॒ज्ञा॒त॒ऽय॒क्ष्मात्। उ॒त। रा॒ज॒ऽय॒क्ष्मात्। ग्राहिः॑। ज॒ग्राह॑। यदि॑। ए॒तत्। ए॒न॒म्। तस्याः॑। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। प्र। मु॒मु॒क्त॒म्। ए॒न॒म्। ११.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम्
  • ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

रोग नाश करने के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्राणी !] (त्वा) तुझको (हविषा) भक्ति के साथ (कम्) सुख से (जीवनाय) जीवन के लिए (अज्ञातयक्ष्मात्) अप्रकट रोग से (उत) और (राजयक्ष्मात्) राज रोग से (मुञ्चामि) मैं छुड़ाता हूँ। (यदि) जो (ग्राहिः) जकड़नेवाली पीड़ा [गठियारोग] ने (एतत्) इस समय में (एनम्) इस प्राणी को (जग्राह) पकड़ लिया है, (तस्याः) उस [पीड़ा] से (इन्द्राग्नी) हे सूर्य और अग्नि ! (एनम्) इस [प्राणी] को (प्र मुमुक्तम्) तुम छुड़ाओ ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सद्वैद्य गुप्त और प्रकट रोगों से विचारपूर्वक रोगी को अच्छा करता है, ऐसे ही प्रत्येक मनुष्य (इन्द्राग्नी) सूर्य और अग्नि अर्थात् सूर्य से लेकर अग्नि पर्यन्त अर्थात् दिव्य और पार्थिव सब पदार्थों से उपकार लेकर, अथवा सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी विद्वानों से मिलकर, अपने दोषों को मिटाकर यशस्वी होवे ॥१॥ इस मन्त्र का मिलान अथर्व० का० २ सू० ९ मं० १ से करो ॥ मन्त्र १-४ ऋग्वेद १०।१६१।१-४ में कुछ भेद से और फिर अथर्व० २०।९६।६-९ में हैं। ऋग्वेद में इस सूक्त का ऋषिप्राजापत्यो यक्ष्मनाशनः और देवताराजयक्ष्मघ्नम् है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(मुञ्चामि)। विश्लेषयामि। (त्वा)। प्राणिनम्। (हविषा)। आत्मदानेन। भक्त्या। उपायेन। (जीवनाय)। प्राणधारणाय। चिरकालयशोधारणाय-इत्यर्थः। (कम्)। अव्ययम्। सुखेन। (अज्ञातयक्ष्मात्)। अर्त्तिस्तुसुहु०। उ० १।१४०। इति यक्ष पूजायाम्-मन्। अलक्षितमहारोगात्। (राजयक्ष्मात्)। राजदन्तादिषु परम्। पा० २।२।३१। इति उपसर्जनस्य परत्वम्। यक्ष्माणं राजा राजयक्ष्मः, तस्मात्। क्षयरोगात्। (ग्राहिः)। अ० २।९।१। ग्रहणशीला पीडा। (जग्राह)। गृहीतवती। (यदि)। चेत्। (तस्याः)। ग्राह्याः सकाशात्। (इन्द्राग्नी)। सूर्याग्नी। दिव्यपार्थिवपदार्थाः, यद्वा। तद्वत् तेजस्वी विद्वान् पुरुषः। (प्र मुमुक्तम्)। मुचेर्विकरणस्य श्लुः। प्रमोचयतम्। (एनम्)। शरीरस्थं प्राणिनम् ॥

०२ यदि क्षितायुर्यदि

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यदि॑ क्षि॒तायु॒र्यदि॑ वा॒ परे॑तो॒ यदि॑ मृ॒त्योर॑न्ति॒कं नी॑त ए॒व।
तमा ह॑रामि॒ निरृ॑तेरु॒पस्था॒दस्पा॑र्षमेनं श॒तशा॑रदाय ॥

०२ यदि क्षितायुर्यदि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. If of exhausted life-time, or if deceased, if gone down even to the
    presence (antiká) of death, him I take from the lap of perdition; I
    have won (spṛ) him for [life] of a hundred autumns.
Notes

The translation implies in d áspārṣam, which is the reading of our
edition, supported by RV., and also by the comm. (= prabalaṁ karomi!),
and two of SPP’s mss. that follow the latter; the áspārśām of nearly
all the mss. (hence read by SPP.), and of Ppp., can be nothing but a
long-established blunder. Ppp. has at the beginning yad ukharāyur y-.
⌊At ii. 14. 3 SPP. used the “long ſ” to denote the kṣāipra circumflex;
with equal reason he might use it here for the praśliṣṭa of nī̀ta =
ní-ita.

Griffith

Be his days ended, be he now departed, be he brought very near to death already, Out of Destruction’s lap again I bring him, save him for life to last a hundred autumns.

पदपाठः

यदि॑। क्षि॒तऽआ॑युः। यदि॑। वा॒। परा॑ऽइतः। यदि॑। मृ॒त्योः। अ॒न्ति॒कम्। निऽइ॑तः। ए॒व। तम्। आ। ह॒रा॒मि॒। निःऽऋ॑तेः। उ॒पस्था॑त्। अस्पा॑र्शम्। ए॒न॒म्। श॒तऽशा॑रदाय। ११.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम्
  • ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

रोग नाश करने के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) चाहे [यह] (क्षितायुः) टूटी आयुवाला, (यदि वा) अथवा (परेतः) अङ्ग-भङ्ग है, (यदि) चाहे (मृत्योः) मृत्यु के (अन्तिकम्) समीप (एव) ही (नीतः=नि−इतः) आ चुका है। (तम्) उसको (निर्ऋतेः) महामारी की (उपस्थात्) गोद से (आ हरामि) लिये आता हूँ, (एनम्) इसको (शतशारदाय+जीवनाय) सौ शरद् ऋतुओंवाले [जीवन] के लिये (अस्पार्षम्) मैंने प्रबल किया है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे चतुर वैद्यरत्न यत्न करके भारी-२ रोगियों को चङ्गा करता है, ऐसे ही मनुष्य शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक कठिन संकट पड़ने पर अपने आत्मा को प्रबल रक्खे ॥२॥ अथर्व० १।३५।१। में दीर्घायुत्वाय शतशारदाय पाठ है, यहाँ जीवनाय पद मन्त्र १ से लाया गया है ॥ अन्य दो संहिताओं, सायणभाष्य और ऋग्वेद में अस्पार्षम् पाठ है, परन्तु बम्बई गवर्नमेंट संहिता में शोधा हुआ और अथर्व० का० २० सू० ९६ म० ७ में अस्पार्शम् पाठ है। हमने अस्पार्षम् लिया है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(यदि)। चेत्। (क्षितायुः)। क्षीणजीवनः। (यदि वा)। अथवा। (परेतः)। परा भङ्गे+इण् गतौ-क्त। भङ्गं प्राप्तः। (मृत्योः)। मरणस्य, (अन्तिकम्)। अन्त-मत्वर्थीयो ठन्, तस्य इकः। निकटम्। (नीतः)। नि+इतः। नीचैर्गतः। (एव)। अवश्यम्। (तम्)। रोगिणम्। (आ हरामि)। आ नयामि। (निर्ऋतेः)। अ० २।१०।१। निर्ऋतिः=कृच्छ्रापत्तिः-निरु० २।७। महारोगस्य। अलक्ष्म्याः। (उपस्थात्)। उपस्थानात्। अङ्कात्। (अस्पार्षम्)। स्पृ प्रीतिबलनयोः, छान्दसो लुङ्। प्रबलं कृतवानस्मि। (एनम्)। समीपस्थम्। आत्मानम्। (शतशारदाय)। अ० १।३५।१। शतशरदृतुयुक्ताय, जीवनाय, इति शेषः-म० १ ॥

०३ सहस्राक्षेण शतवीर्येण

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स॑हस्रा॒क्षेण॑ श॒तवी॑र्येण श॒तायु॑षा ह॒विषाहा॑र्षमेनम्।
इन्द्रो॒ यथै॑नं श॒रदो॒ नया॒त्यति॒ विश्व॑स्य दुरि॒तस्य॑ पा॒रम् ॥

०३ सहस्राक्षेण शतवीर्येण ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. With an oblation having a thousand eyes, a hundred heroisms, a
    hundred life-times, have I taken him, in order that Indra may lead him
    unto autumns, across to the further shore of all difficulty (duritá).
Notes

RV. has in a śatáśāradena for śatávīryeṇa, and makes much better
sense of c, d by reading śatám for índras, and índras for
áti (it also has imám for enam).

Griffith

With sacrifice thousand-eyed and hundred-powered, bringing a hundred lives, have I restored him, That Indra through the autumns may conduct him safe to the farther shore of all misfortune.

पदपाठः

स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षेण॑। श॒तऽवी॑र्येण। श॒तऽआ॑युषा। ह॒विषा॑। आ। अ॒हा॒र्ष॒म्। ए॒न॒म्। इन्द्रः॑। यथा॑। ए॒न॒म्। श॒रदः॑। नया॑ति। अति॑। विश्व॑स्य। दुः॒ऽइ॒तस्य॑। पा॒रम्। ११.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम्
  • ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

रोग नाश करने के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्राक्षेण) सहस्रों नेत्रवाले, (शतवीर्येण) सैकड़ों सामर्थ्यवाले (शतायुषा) सैकड़ों जीवनशक्तिवाले (हविषा) आत्मदान वा भक्ति से (एनम्) इस [आत्मा] को (आ अहार्षम्) मैंने उभारा है। (यथा) जिससे (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् मनुष्य (एनम्) इस [देही] को (विश्वस्य) प्रत्येक (दुरितस्य) कष्ट के (पारम्) पार (अति=अतीत्य) निकालकर (शरदः) [सौ] शरद् ऋतुओं तक (नयाति) पहुँचावे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब मनुष्य एकाग्रचित्त होकर अनेक प्रकार से अपनी दर्शनशक्ति, कर्मशक्ति और जीविकाशक्ति बढ़ाकर अपने को सुधारता है, तब वह इन्द्र पुरुष सब उलझनों को सुलझाकर यशस्वी होकर चिरंजीवी होता है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(सहस्राक्षेण)। सहस्रम् बहुनाम-निघ० ३।१। सहो बलम्-निघ० २।९। रो मत्वर्थीयः। सहस्रं सहस्वत्-निरु० ३।१। बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात् षच्। पा० ५।४।११३। इति षच्। सहस्रं बहूनि अक्षीणि चक्षूंषि दर्शनशक्तयो यस्य तेन तथोक्तेन। (शतवीर्येण)। शतम्। शो तीक्ष्णीकरणे-डतच्। बहुनाम। निघ० ३।१। शतं दशदशतयः-निरु० ३।१०। बहुसामर्थ्योपेतेन। (शतायुषा)। बहुजीवनसाधनयुक्तेन। (हविषा)। आत्मदानेन। भक्त्या। (आ अहार्षम्)। हृञ् हरणे-लुङ् समन्ताद् अनैषम्। उन्नीतवानस्मि। (एनम्)। आत्मानम्। देहिनम्। (इन्द्रः)। प्रतापी जीवः। (यथा)। येन प्रकारेण। (शरदः)। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया। शतं शरदः संवत्सरान्। (नयाति)। णीञ् प्रापणे लेटि आडागमः। नयेत्। प्रापयेत्। (अति)। अतीत्य। (विश्वस्य)। सर्वस्य। प्रत्येकस्य। (दुरितस्य)। अ० २।६।५। पापस्य। कष्टस्य। (पारम्)। पार कर्मसमाप्तौ-अच्। तीरम्। अन्तम् ॥

०४ शतं जीव

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श॒तं जी॑व श॒रदो॒ वर्ध॑मानः श॒तं हे॑म॒न्तान्छ॒तमु॑ वस॒न्तान्।
श॒तं त॒ इन्द्रो॑ अ॒ग्निः स॑वि॒ता बृह॒स्पतिः॑ श॒तायु॑षा ह॒विषाहा॑र्षमेनम् ॥

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Whitney
Translation
  1. Live thou increasing a hundred autumns, a hundred winters, and a
    hundred springs; a hundred to thee [may] Indra, Agni, Savitar,
    Brihaspati [give]; with an oblation of a hundred life-times have I
    taken him.
Notes

Our text, in the second half-verse, ingeniously defaces the better meter
and sense given by RV., which reads indrāgnī́ for ta índro agníḥ in
c, and ends with havíṣe ’mám púnar duḥ. The verse is fairly
correctly defined by the Anukr., its c having 14 syllables
(śakarī), and making the whole number 47 syllables (jagatī less 1).

Griffith

Live, waxing in thy strength a hundred autumns, live through a hundred springs, a hundred winters! Indra, Agni, Savitar, Brihaspati give thee a hundred! With hundred-lived oblation have I saved him,

पदपाठः

श॒तम्। जी॒व॒। श॒रदः॑। वर्ध॑मानः। श॒तम्। हे॒म॒न्तान्। श॒तम्। ऊं॒ इति॑। व॒स॒न्तान्। श॒तम्। ते॒। इन्द्रः॑। अ॒ग्निः। स॒वि॒ता। बृह॒स्पतिः॑। श॒तऽआ॑युषा। ह॒विषा॑। आ। अ॒हा॒र्ष॒म्। ए॒न॒म्। ११.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम्
  • ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः
  • शक्वरीगर्भा जगती
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

रोग नाश करने के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वर्धमानः+त्वम्) बढ़ती करता हुआ तू (शतम् शरदः) सौ शरद् ऋतुओं तक (शतम् हेमन्तान्) सौ शीत ऋतुओं तक (उ) और (शतम् वसन्तान्) सौ वसन्त ऋतुओं तक (जीव) जीता रह। (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (अग्निः) तेजस्वी विद्वान्, (सविता) सबका चलानेवाला, (बृहस्पतिः+अहं जीवः) बड़ों-बड़ों के रक्षक मैंने (शतम्) अनेक प्रकार से (ते) तेरेलिये (शतायुषा) सैकड़ों जीवन शक्तिवाले (हविषा) आत्मदान वा भक्ति से (एनम्) इस [आत्मा] को (आ अहार्षम्) उभारा है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य उचित रीति से वर्षा, शीत और उष्ण ऋतुओं को सहकर बहु प्रकार मन्त्रोक्त विधि पर विद्यादिबल से शक्तिमान् होकर जीविका उपार्जन करता हुआ आत्मा की उन्नति करे ॥४॥ ऋग्वेद में (इन्द्रः अग्निः)=इन्द्राग्नी और (आ अहार्षम् एनम्)=[इमम् पुनः दुः] ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(शतम्)। बहुनाम। (जीव)। प्राणान् धारय। (शरदः)। शरदृतून् वर्षाकालान् इत्यर्थः। (वर्धमानः)। वृद्धिं कुर्वाणः। हेमन्तान्। हन्तेर्मुट् हि च। उ० ३।१२९। इति हन वधगत्योः-झच्, हन्तेर्हि, मुडागमः। हन्ति उष्णत्वम्। शीतकालान्। (उ)। समुच्चये। (वसन्तान्)। तॄभूवहिवसिभासि०। उ० ३।१२८। इति वस वासे, निवासे, आच्छादने च-झच्। पुष्पसमयान्। ग्रीष्मकालान्। (शतम्)। यथा तथा। बहुप्रकारेण। (ते)। तुभ्यम्। (इन्द्रः)। ऐश्वर्यवान्। (अग्निः)। अगि गतौ-नि। ज्ञानवान्। (सविता)। सर्वस्य प्रेरकः। (बृहस्पतिः)। अ० १।८।२। तथा २।१३।२। बृहत्+पतिः, सुट्, तलोपः। बृहतां विदुषां कर्मणां वा पालकः। इन्द्रादीनि चत्वारि (अहम्) इति पदस्य विशेषणानि। अन्यद् व्याख्यातम्-म० ३ ॥

०५ प्र विशतम्

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प्र वि॑शतं प्राणापानावन॒ड्वाहा॑विव व्र॒जम्।
व्य॒न्ये य॑न्तु मृ॒त्यवो॒ याना॒हुरित॑रान्छ॒तम् ॥

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Whitney
Translation
  1. Enter in, O breath-and-expiration, as two draft-oxen a pen (vrajá);
    let the other deaths go away (), which they call the remaining
    hundred.
Notes

In this verse, as in the preceding and in vs. 7 and elsewhere, SPP.
makes the indefensible combination n ch, instead of ñ ch, as the
result of mutual assimilation of n and ś ⌊cf. note to i. 19. 4⌋.

⌊As to the “one hundred and one deaths,” cf. viii. 2. 27; xi. 6. 16; i.
30. 3; ékaśata in Index; and the numbers in the notable passage, xix.
47. 3 ff.; Kuhn’s most interesting Germanic parallels, KZ. xiii. 128
ff.; Wuttke, Deutscher Volksaberglaube², 301, 335; Hopkins, Oriental
Studies
…papers read before the Oriental Club of Philadelphia,
1888-1894, p. 152; Zimmer, p. 400. Cf. also the words of the statute, 18
Edward I., §4, concerning the “Fine of Lands,” “unless they put in their
claim within a year and a day ."⌋

Griffith

Breath, Respiration, come to him, as two car-oxen to their stall! Let all the other deaths, whereof men count a hundred, pass away.

पदपाठः

प्र। वि॒श॒त॒म्। प्रा॒णा॒पा॒नौ॒। अ॒न॒ड्वाहौ॑ऽइव। व्र॒जम्। वि। अ॒न्ये। य॒न्तु॒। मृ॒त्यवः॑। यान्। आ॒हुः। इत॑रान्। श॒तम्। ११.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम्
  • ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

रोग नाश करने के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्राणापानौ) हे श्वास और प्रश्वास तुम दोनों, [इस शरीर में] (प्र विशतम्) प्रवेश करते रहो, (अनड्वाहौ-इव) रथ ले चलनेवाले दो बैल जैसे (व्रजम्) गोशाला में (अन्ये) दूसरे (मृत्यवः) मृत्यु के कारण (वि यन्तु) उलटे चले जावें (यान्) जिन (इतरान्) कामनानाशक [मृत्युओं] को (शतम्) सौ प्रकार का (आहुः) बतलाते हैं ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य प्राणायाम, व्यायामादि से अपने प्राण और अपान को अनुकूल रखकर शारीरिक अवस्था सुधारे रहें और दुराचारों से बचकर अपना जीवन शुभ कामों में लगावें ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(प्र विशतम्)। अन्तः प्राप्नुतम्। (प्राणापानौ)। शरीरधारकौ श्वासप्रश्वासौ। (अनड्वाहौ)। अनः शकटं वहतीति अनड्वान्। अनसि वहेः क्विप्, अनसो डकारः। अनसः शकटस्य रथस्य वोढारौ बलीवर्दौ। (इव)। यथा। (व्रजम्)। गोचरसंचर०। पा० ३।३।११९। इति व्रज गतौ-घञोऽपवादत्वेन घप्रत्यायन्तो निपातितः। गोष्ठम्। (वि यन्तु)। विमुखा गच्छन्तु। (अन्ये)। धार्मिकमरणाद् भिन्नाः। (मृत्यवः)। मरणकारणानि। (यान्)। मृत्यून्। (आहुः)। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-लट्। ब्रुवन्ति। कथयन्ति विद्वांसः। (इतरान्) अ० ३।१०।४। इ+तृ अभिभवे-अप्। सुकामनाशकान्। (शतम्)। बहून् ॥

०६ इहैव स्तम्

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इ॒हैव स्तं॑ प्राणापानौ॒ माप॑ गातमि॒तो यु॒वम्।
शरी॑रम॒स्याङ्गा॑नि ज॒रसे॑ वहतं॒ पुनः॑ ॥

०६ इहैव स्तम् ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Be ye just here, O breath-and-expiration; go ye not away from here;
    carry his body, his limbs, unto old age again.
Notes

At the end of b, the comm. reads javam (= śīghram, akāle)
instead of yuvám, and two or three of SPP’s mss., as often, follow
him.

Griffith

Breath, Respiration, stay ye here. Go ye not hence away from him, Bring, so that he may reach old age, body and members back again.

पदपाठः

इ॒ह। ए॒व। स्त॒म्। प्रा॒णा॒पा॒नौ॒। मा। अप॑। गा॒त॒म्। इ॒तः। यु॒वम्। शरी॑रम्। अ॒स्य॒। अङ्गा॑नि। ज॒रसे॑। व॒ह॒त॒म्। पुनः॑। ११.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम्
  • ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

रोग नाश करने के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्राणापानौ) हे श्वास-प्रश्वास ! (युवम्) तुम दोनों (इह एव) इसमें ही (स्तम्) रहो, (इतः) इससे (मा अप गातम्) दूर मत जाओ। (अस्य) इस [प्राणी] के (शरीरम्) शरीर और (अङ्गानि) अङ्गों को (जरसे) स्तुति के लिये (पुनः) अवश्य (वहतम्) तुम दोनों ले चलो ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्राण और अपान वायु का संचार ठीक न होने से रुधिर जमकर रोग उत्पन्न होता है, इससे मनुष्य सब शरीर में वायु संचार ठीक रखकर दृढ़ शरीरवाले हों और स्तुति प्राप्त करें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(इह एव)। अस्मिन्नेव शरीरे। (स्तम्)। भवतम्। (प्राणापानौ)। श्वासप्रश्वासौ। (मा अप गातम्)। इण् गतौ-माङि लुङ्। माप गच्छतम्। (इतः)। अस्माच्छरीरात्। (युवम्)। युवाम्। (शरीरम्)। अ० २।१२।८। कायम्। (अस्य)। पुरुषस्य। (अङ्गानि)। देहावययवान्। (जरसे)। अ० १।३०।२। जृ स्तुतौ, यद्वा, गृ शब्दे=स्तुतौ-असुन्। गस्यजः। स्तुत्यर्थम्। (वहतम्)। युवां प्रापयतम्। (पुनः) अवधारणे ॥

०७ जरायै त्वा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ज॒रायै॑ त्वा॒ परि॑ ददामि ज॒रायै॒ नि धु॑वामि त्वा।
ज॒रा त्वा॑ भ॒द्रा ने॑ष्ट॒ व्य॒न्ये य॑न्तु मृ॒त्यवो॒ याना॒हुरित॑रान्छ॒तम् ॥

०७ जरायै त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Unto old age do I commit thee; unto old age do I shake thee down
    (ni-dhū); may old age, excellent, conduct thee; let the other deaths
    go away, which they call the remaining hundred.
Notes

The Anukr. scans the verse as 9 + 8: 7 + 8 + 8 = 40, not admitting any
resolution in c.

Griffith

I give thee over to old age, make thee the subject of old age. Let kindly old age lead thee on. Let all the other deaths, whereof men count a hundred, pass away!

पदपाठः

ज॒रायै॑। त्वा॒। परि॑। द॒दा॒मि॒। ज॒रायै॑। नि। धु॒वा॒मि॒। त्वा॒। ज॒रा। त्वा॒। भ॒द्रा। ने॒ष्ट॒। वि। अ॒न्ये। य॒न्तु॒। मृ॒त्यवः॑। यान्। आ॒हुः। इत॑रान्। श॒तम्। ११.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम्
  • ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः
  • उष्णिग्बृहतीगर्भा पथ्यापङ्क्तिः
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

रोग नाश करने के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्राणी !] (त्वा) तुझे (जरायै) स्तुति पाने के लिये (परि) सब प्रकार (ददामि) दान करता हूँ। (जरायै) स्तुति के लिये (त्वा) तेरे (नि धुवामि) निहोरे करता हूँ [अथवा, तुझे झकझोरता हूँ] (जरा) स्तुति (त्वा) तुझे (भद्रा=भद्राणि) अनेक सुख (नेष्ट) पहुँचावे। (अन्ये) दूसरे (मृत्यवः) मृत्यु के कारण (वि यन्तु) उलटे चले जावें, (यान्) जिन (इतरान्) कामनानाशक [मृत्युओं] को (शतम्) सौ प्रकार का (आहुः) बतलाते हैं ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य कभी नम्र, कभी कठोर होकर स्तुति के लिये अपनी आत्मा लगावे और निर्धनता, रोगादि मृत्यु के कारणों को हटाकर सुखी रहे ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(जरायै)। षिद्भिदादिभ्योऽङ् पा० ३।३।१०४। इति जॄ स्तुतौ-अङ्, टाप्। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। स्तुतिप्राप्तये। (परि ददामि)। अ० १।३०।२। समर्पयामि। (नि)। आदरे। निश्चये। अधोभागे। (धुवामि)। धूञ् कम्पने, तुदादिः सकर्मकः। कम्पयामि। प्रेरयामि। (त्वा)। प्राणिनम्। (भद्रा)। भद्राणि। मङ्गलानि। (नेष्ट)। लेट्। नयतु प्रापयतु। अन्यद् गतम्-म० ५ ॥

०८ अभि त्वा

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अ॒भि त्वा॑ जरि॒माहि॑त॒ गामु॒क्षण॑मिव॒ रज्ज्वा॑।
यस्त्वा॑ मृ॒त्युर॒भ्यध॑त्त॒ जाय॑मानं सुपा॒शया॑।
तं ते॑ स॒त्यस्य॒ हस्ता॑भ्या॒मुद॑मुञ्च॒द्बृह॒स्पतिः॑ ॥

०८ अभि त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Old age hath curbed (abhi-dhā) thee, as it were a cow, an ox, with
    a rope; the death that curbed thee, when born, with easy fetter—that
    Brihaspati released for thee, with the (two) hands of truth.
Notes

The verb-forms represent the noun abhidhā́nī ‘halter, or bridle, or
rope for confining and guiding.’ ⌊A case of “reflected meaning”:
discussed, Lanman, Transactions of the Am. Philol. Association, vol.
xxvi, p. xiii (1894). Cf. note to iv. 18. 1.⌋ As in many other cases,
the comm. renders the aorist ahita (for adhita) as an imperative,
baddhaṁ karotu. On account of jāyamānam in d (virtually ‘at thy
birth’) Weber entitles the hymn “on occasion of difficult parturition,”
which is plainly wrong. Perhaps it is for the same reason that the comm.
regards it as relating to a child, or to a person diseased from improper
copulation. In our text, at the beginning, read abhí (an accent-sign
lost under a-). There is no bṛhatī element in the verse.

Griffith

Old age hath girt thee with its bonds even as they bind a bull with rope. The death held thee at thy birth bound with a firmly-knotted noose, Therefrom, with both the hands of Truth, Brihaspati hath loose- ned thee.

पदपाठः

अ॒भि। त्वा॒। ज॒रि॒मा। अ॒हि॒त। गाम्। उ॒क्षण॑म्ऽइव। रज्ज्वा॑। यः। त्वा॒। मृ॒त्युः। अ॒भि॒ऽअध॑त्त। जाय॑मानम्। सु॒ऽपा॒शया॑। तम्। ते॒। स॒त्यस्य॑। हस्ता॑भ्याम्। उत्। अ॒मु॒ञ्च॒त्। बृह॒स्पतिः॑। ११.८।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम्
  • ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः
  • त्र्यवसाना षट्पदा बृहतीगर्भा जगती
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

रोग नाश करने के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे प्राणी !] (जरिमा) निर्बलता ने (त्वा) तुझको (अभि अहित) बाँधा है, (उक्षणम्) बलवान् (गाम् इव) बैल को जैसे (रज्ज्वा) रस्सी से (यः मृत्युः) जिस मृत्यु ने (जायमानम्) उत्पन्न वा प्रसिद्ध होते हुए (त्वा) तुझको (सुपाशया) दृढ़ फंदे से (अभि अधत्त) बन्धन में किया है, (तम्) उस [मृत्यु] को (सत्यस्य) सत्य के (ते) तेरे (हस्ताभ्याम्) दोनों हाथों के हित के लिये (बृहस्पतिः) बड़ों-बड़ों के रक्षक [देवगुरु] परमेश्वर वा आचार्य ने [तुझसे] (उत् अमुञ्चत्) छुड़ा दिया है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य जन्म से लेकर भूख, पियास, रोग आदि विपत्तियों से ईश्वरदत्त ज्ञान और विद्वानों की रक्षा तथा शिक्षा द्वारा छूटकर दोनों हाथों अर्थात् सब प्रकार से धर्म आचरण के लिये आगे बढ़ता है ॥८॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ८−(अभि अहित)। अभिपूर्वो दधातिर्बन्धने। अश्वाभिधानी=अश्वबन्धनरज्जुः। ततो लुङ्। स्थाध्वोरिच्च। पा० १।२।१७। इति इत्त्वकित्त्वे। बद्धं कृतवान्। (त्वा)। त्वां प्राणिनम्। (जरिमा)। हृभृधृसृस्तृशॄभ्य इमनिच्। उ० ४।१४८। इति जॄष् वयोहानौ-इमनिच्। जरा। निर्बलता। (गाम्)। वृषभम्। (उक्षणम्)। श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति उक्ष सेचने वृद्धौ च-कनिन्। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु० १२।९। वा षपूर्वस्य निगमे। पा० ६।४।९। इति दीर्घाभावः। उक्षाणाम्। बलवन्तम्। (इव)। यथा (रज्ज्वा)। सृजेरसुम् च। उ० १।१५। इति सृज त्यागे-उ। रूपसिद्धिर्निपातः। सृज्यते रच्यते इति। बन्धनसाधनवस्तुना। (यः)। (त्वा)। (मृत्युः)। (अभि-अधत्त)। धाञो लङ्। अबध्नात्। (जायमानम्)। उत्पद्यमानम्। प्रसिद्धिं कुर्वन्तम्। (सुपाशया)। सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेया०। पा० ७।१।३९। इति तृतीयाविभक्तौ या। सुपाशेन। दृढबन्धनेन। (तम्)। (मृत्युम् ते)। तव। (सत्यस्य)। यथार्थनियमस्य। (हस्ताभ्याम्)। कराभ्याम् तयोर्हितार्थम्। (उत् अमुञ्चत्)। उदमोचयत्। (बृहस्पतिः)। म० ४। बृहतां पतिः। देवगुरुः। परमेश्वरः। (आचार्यः) ॥