००७ यक्ष्मनाशनम् ...{Loading}...
Whitney subject
- Against the disease kṣetriyá.
VH anukramaṇī
यक्ष्मनाशनम्।
१-७ भृग्वङ्गिराः। १-३ हरिणः, ४ तारके, ५ आपः, ६-७ यक्ष्मनाशनम्। अनुष्टुप्, ६ भुरिक्।
Whitney anukramaṇī
[Bhṛgvan̄giras.—saptarcam. yakṣmanāśanadāivatam uta bahudevatyam. ānuṣṭubham: 6. bhurij.]
Whitney
Comment
Found in Pāipp. iii., with few variants, but with vs. 5 at the end. Used by Kāuś. (27. 29) in a healing ceremony (its text does not specify the disease); and reckoned (26. 1, note) to the takmanāśana gaṇa. And the comm. quotes it as employed by the Nakṣ. ⌊śānti?⌋ K. (17, 19) in the mahāśānti called kāumāri.
Translations
Translated: Weber, xvii. 208; Grill, 8, 105; Griffith, i.89; Bloomfield, 15, 336.
Griffith
A charm with an amulet of buck horn to drive away hereditary disease
०१ हरिणस्य रघुष्यदोऽधि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ह॑रि॒णस्य॑ रघु॒ष्यदोऽधि॑ शी॒र्षणि॑ भेष॒जम्।
स क्षे॑त्रि॒यं वि॒षाण॑या विषू॒चीन॑मनीनशत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ह॑रि॒णस्य॑ रघु॒ष्यदोऽधि॑ शी॒र्षणि॑ भेष॒जम्।
स क्षे॑त्रि॒यं वि॒षाण॑या विषू॒चीन॑मनीनशत् ॥
०१ हरिणस्य रघुष्यदोऽधि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- On the head of the swift-running gazelle (hariṇá) is a remedy; he
by his horn hath made the kṣetriyá disappear, dispersing.
Notes
Viṣā́ṇā is divided (vi॰sā́nā) in the pada-text, as if from vi +
sā ‘unfasten’—which is, indeed, in all probability its true
derivation, as designating primarily a deciduous horn, one that is
dropped off or shed; and in this peculiarity, as distinguished from the
permanent horns of the domestic animals, perhaps lies the reason of its
application to magical remedial uses. The verse occurs also in ĀpśS.
xiii. 7. 16 ⌊where most mss. have raghuṣyato⌋. For the kṣetriya, see
above, ii. 8.
⌊☞ See p. 1045.⌋
Griffith
The fleet-foot Roebuck wears upon his head a healing remedy. Innate disease he drives away to all directions with his horn.
पदपाठः
ह॒रि॒णस्य॑। र॒घु॒ऽस्यदः॑। अधि॑। शी॒र्षाणि॑। भे॒ष॒जम्। सः। क्षे॒त्रि॒यम्। वि॒ऽसान॑या। वि॒षू॒चीन॑म्। अ॒नी॒न॒श॒त्। ७.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- हरिणः
- भृग्वङ्गिराः
- भुरिगनुष्टुप्
- यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रघुष्यदः) शीघ्रगामी (हरिणस्य) अन्धकार हरनेवाले सूर्यरूप परमेश्वर के (शीर्षणि अधि) आश्रय में ही (भेषजम्) भय जीतनेवाला औषध है, (सः) उस [ईश्वर] ने (विषाणया) विविध सींगों से (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (विषूचीनम्) सब ओर से (अनीनशत्) नष्ट कर दिया है ॥१॥ दूसरा अर्थ−(रघुष्यदः) शीघ्रगामी (हरिणस्य) हरिण के (शीर्षणि अधि) मस्तक के भीतर (भेषजम्) औषध है। (सः) उस [हरिण] ने (विषाणया) [अपने] सींग से (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (विषूचीनम्) सब ओर (अनीनशत्) नष्ट कर दिया है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने आदि सृष्टि में वेद द्वारा हमारे स्वाभाविक और शारीरिक रोगों की औषधि दी है, उसी के आज्ञापालन में हमारा कल्याण है ॥१॥हरिण शब्दकल्पद्रुम कोष में विष्णु, शिव, सूर्य, हंस और पशुविशेष मृग का नाम है और पहिले चारों नाम प्रायः परमेश्वर के हैं ॥ दूसरा अर्थ−मृग के सींग आदि से मनुष्य बड़े-२ रोग नष्ट करें। मृग की नाभि में प्रसिद्ध औषधि कस्तूरी होती है। उसका सींग पसली आदि की पीड़ा में लगाया जाता है, प्रायः घरों में रक्खा रहता है और उसमें नौसादर भी होता है। विषाणम्=सींग कुष्ठ का औषध है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−(हरिणस्य)। श्यास्त्याहृञविभ्य इनच्। उ० २।४६। इति हृञ्हरणे-इनच्। दुःखहरणशीलस्य परमेश्वरस्य। सूर्यस्य। पशुविशेषस्य मृगस्य। (रघुष्यदः)। लङ्घिबंह्योर्नलोपश्च। उ० १।२९। इति लघि अभुग्गत्योः-कु, नलोपः। बालमूललघ्वसुरालम० वा० पा० ८।२।१८। इति लस्य रत्वम्। स्यन्देः क्विप्। अनिदिताम्०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। शीघ्रगामिनः। (अधि)। सप्तम्यर्थानुवादी। (शीर्षणि)। श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। उ० ४।१९४। इति श्रिञ् सेवने-असुन्। इति शिरः। शीर्षंश्छन्दसि। पा० ६।१६०। इति शिरः शब्दस्य शीर्षन्, इत्यादेशः। आश्रये। मस्तके। (भेषजम्)। अ० १।४।४। भयजेतृसामर्थ्यम्। (सः)। पूर्वोक्तो हरिणः। (क्षेत्रियम्)। अ० २।८।१। क्षेत्र-घच्। क्षेत्रं देहे वंशे वा जातं रोगं दोषं वा। (विषाणया)। वि+षणु दाने, सेवने च-घञ् टाप्। विषाणं विशेषेण मदस्य दातारम्-इति सायणः-ऋ० ५।४४।११। विषाणेन। विविधदानेन। शृङ्गेण। (विषूचीनम्)। विषु+अञ्चतेः-क्विन्। अनिदितां हल उप०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। विभाषाञ्चतेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति स्वार्थे खः। अचः। पा० ६।४।१३८। इत्यकारलोपे। चौ। पा० ६।३।१३८। इति दीर्घः। विष्वक्, सर्वतः। (अनीनशत्)। णश अदर्शने-णिच्, लुङ्। नाशितवान् ॥
०२ अनु त्वा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अनु॑ त्वा हरि॒णो वृषा॑ प॒द्भिश्च॒तुर्भि॑रक्रमीत्।
विषा॑णे॒ वि ष्य॑ गुष्पि॒तं यद॑स्य क्षेत्रि॒यं हृ॒दि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अनु॑ त्वा हरि॒णो वृषा॑ प॒द्भिश्च॒तुर्भि॑रक्रमीत्।
विषा॑णे॒ वि ष्य॑ गुष्पि॒तं यद॑स्य क्षेत्रि॒यं हृ॒दि ॥
०२ अनु त्वा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- After thee hath the bull-gazelle stridden with his four feet; O
horn, do thou unfasten (vi-sā) the kṣetriyá that is compacted (?) in
his heart.
Notes
Ppp. has a different d: yadi kiṁcit kṣetriyaṁ hṛdi. The word-play
in c, between viṣāṇā and vi-sā, is obvious; that any was
intended with viṣūcīna in 1 d is very questionable. This verse,
again, is found in ĀpśS. ib., but with considerable variants: anu
tvā hariṇo mṛgaḥ paḍbhiś caturbhir akramīt: viṣāṇe vi ṣyāi ’taṁ
granthiṁ yad asya gulphitaṁ hṛdi; here it is a “knot” that is to be
untied by means of the horn. One of our mss. (O.) has in c
paḍbhís, like ĀpśS. The comm., followed by a couple of SPP’s mss.,
further agrees with ĀpśS. by reading gulphitam in c, and explains
it as gulphavad grathitam. The occurrence of the rare and obscure
guṣpita ⌊misprinted guṣṭitam⌋ in śB. iii. 2. 2. 20 is also in
connection with the use of a deer’s horn.
Griffith
With his four feet the vigorous Buck hath bounded in pursuit of thee. Unbind the chronic sickness, Horn! deeply inwoven in the heart.
पदपाठः
अनु॑। त्वा॒। ह॒रि॒णः। वृषा॑। प॒त्ऽभिः। च॒तुःऽभिः॑। अ॒क्र॒मी॒त्। विऽसा॑ने। वि। स्य॒। गु॒ष्पि॒तम्। यत्। अ॒स्य॒। क्षे॒त्रि॒यम्। हृ॒दि। ७.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- हरिणः
- भृग्वङ्गिराः
- अनुष्टुप्
- यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (वृषा) परम ऐश्वर्यवाला (हरिणः) विष्णु भगवान् (चतुर्भिः) माँगने योग्य [अथवा चार, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष] (पद्भिः) पदार्थों के साथ (त्वा अनु) तेरे साथ-२ (अक्रमीत्) पद जमाकर आगे बढ़ा है। (विषाणे) [परमेश्वर के] विविध दान में [उस रोग को] (विष्य) नाश कर दे (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (अस्य) इसके (हृदि) हृदय में (गुष्पितम्=गुफितम्) गुँथा हुआ है ॥२॥ दूसरा अर्थ−[हे मनुष्य !] (वृषा) बलवान् (हरिणः) हरिण (चतुर्भिः पद्भिः) चारों पैरों से (त्वा अनु) तेरे अनुकूल (अक्रमीत्) प्राप्त हुआ है। (विषाणे) हे सींग ! [उस रोग को] (विष्य) नाश कर दे (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (अस्य हृदि) इसके हृदय में (गुष्पितम्) गुंथा हुआ है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर अनेक उत्तम-२ पदार्थ देकर सदा सहायक रहता है। उसकी अनन्त दया से औषधि द्वारा नीरोग रहकर अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥२॥ दूसरा अर्थ−मनुष्य हरिण के सींग आदि औषधि से रोगनिवृत्ति करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−(अनु)। सह। अनुकूलं व्याप्य। (त्वा)। त्वां मनुष्यम्। (हरिणः)। म० १। विष्णुः। परमेश्वरः। मृगः। (वृषा)। कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१५६। इति वृषु सेचनप्रजननैश्येषु कनिन्। ऐश्वर्यवान्। इन्द्रः। (पद्भिः)। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति पद स्थ्यैर्ये गतौ च-अच्। पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३ इति। पद् आदेशः। स्थातव्यैः। प्राप्तव्यैः। पदार्थैः। पादैः (चतुर्भिः)। चतेरुरन्। उ० ५।५८। इति चते याचने-उरन्। याचनीयैः। चतुःसंख्याकैर्धर्मार्थकाममोक्षैर्वा। (अक्रमीत्)। क्रमु पादविक्षेपे, गतौ-लुङ्। पादविक्षेपेण प्राप्तवान्। (विषाणे)। म० १। वि+षणु दाने-घञ्। विविधदानेन अथवा (विषाणा) इत्यस्य संबोधनम्। हे शृङ्ग। (वि, स्य)। षो अन्तकर्मणि-लोट्। विनाशय। (गुष्पितम्)। गुफ, गुम्फ ग्रन्थे-क्त। छान्दसं रूपम्। गुफितं गुम्फितं वा ग्रन्थितम्। (यत्)। यत्किंचित्। (अस्य)। समीपवर्तिनः पुरुषस्य। (क्षेत्रियम्)। रोगजातम्। (हृदि)। हृदये ॥
०३ अदो यदवरोचते
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अ॒दो यद॑व॒रोच॑ते॒ चतु॑ष्पक्षमिव छ॒दिः।
तेना॑ ते॒ सर्वं॑ क्षेत्रि॒यमङ्गे॑भ्यो नाशयामसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒दो यद॑व॒रोच॑ते॒ चतु॑ष्पक्षमिव छ॒दिः।
तेना॑ ते॒ सर्वं॑ क्षेत्रि॒यमङ्गे॑भ्यो नाशयामसि ॥
०३ अदो यदवरोचते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What shines down yonder, like a four-sided roof (chadís), therewith
we make all the kṣetriyá disappear from thy limbs.
Notes
In our edition, téna in c should be ténā, as read by nearly all
the saṁhitā-mss. (all save our P.M.), and by SPP. The sense of a,
b is obscure to the comm., as to us; he guesses first that it is “the
deer-shaped thing extended in the moon’s disk,” or else “a deer’s skin
stretched on the ground”; chadís is “the mat of grass with which a
house is covered.” Weber takes it as a constellation; Grill
(mistranslating pakṣa by “post”), as the gazelle himself set up on his
four legs, with his horns for roof! If a constellation, it might be the
Arab “manzil” γ, ζ, η, π Aquarii, which its shape and name connect with
a tent: see Sūrya-Siddhānta, note to viii. 9 (under 25th asterism);
this is not very far from the stars mentioned in the next verse ⌊λ and ν
Scorpionis⌋.
Griffith
That which shines younder, like a roof resting on four walls, down on us,– Therewith from out thy body we drive all the chronic malady,
पदपाठः
अ॒दः। यत्। अ॒व॒ऽरोच॑ते। चतु॑ष्पक्षम्ऽइव। छ॒दिः। तेन॑। ते॒। सर्व॑म्। क्षे॒त्रि॒यम्। अङ्गे॑भ्यः। ना॒श॒या॒म॒सि॒। ७.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- हरिणः
- भृग्वङ्गिराः
- अनुष्टुप्
- यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अदः) वह (यत्) जो [वा पूजनीय ब्रह्म] (चतुष्पक्षम्) याचनीय व्यवहारों से युक्त, अथवा चार पक्षवाले (छदिः इव) घर के समान (अवरोचते) चमकता है। (तेन) उसके द्वारा (ते अङ्गेभ्यः) तेरे अङ्गों से (सर्वम्) सब (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (नाशयामसि=०−मः) हम नाश करते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ज्ञानी पुरुष उस सर्वत्र विराजमान परब्रह्म की रचनाओं में उत्तम कर्मों से युक्त घर के समान आनन्द पाकर अपने सब विघ्नों का सब जगह नाश करके आगे बढ़े चले जाते हैं ॥३॥ २−हरिण के सींग आदि औषध से रोग नष्ट करना चाहिये ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−(अदः)। न+दसु उत्क्षेपे-क्विप्। एतत्। पुरोवर्त्ति। (यत्)। त्यजितनियजि०। उ० १।१३२। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-अदि, स च डित्। सर्वत्र संगतं सर्वपूजनीयं ब्रह्म। अथवा, सर्वनामैतत्। (अवरोचते)। निश्चयेन व्याप्य वा दीप्यते। (चतुष्पक्षम्)। चते याचने-उरन्। म० २। गृधिपण्योर्दकौ च। उ० ३।६९। इति षणङ् व्यवहारे स्तुतौ च-स, कश्चान्तादेशः। यद्वा। पक्ष परिग्रहे-घञ्। याचनीयव्यवहारयुक्तम्। चतुकोषो वा। (छदिः)। अर्चिशुचिहुसृपिछदिछर्दिभ्य इसिः। ड० २।१०८। इति छद संवृतौ+णिच्-इसि। इस्मन्त्रन्क्विप्। पा० ६।४।९७। इति ह्रस्वः। पटलम्। गृहम्। आच्छादनम्। (तेन)। ब्रह्मणा। (ते)। तव। (सर्वम्)। अखिलम्। (क्षेत्रियम्)। नाशकरं रोगम्। (अङ्गेभ्यः)। शरीरावयवेभ्यः। (नाशयामसि)। वयं नाशयामः ॥
०४ अमू ये
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अ॒मू ये दि॒वि सु॒भगे॑ वि॒चृतौ॒ नाम॒ तार॑के।
वि क्षे॑त्रि॒यस्य॑ मुञ्चतामध॒मं पाश॑मुत्त॒मम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒मू ये दि॒वि सु॒भगे॑ वि॒चृतौ॒ नाम॒ तार॑के।
वि क्षे॑त्रि॒यस्य॑ मुञ्चतामध॒मं पाश॑मुत्त॒मम् ॥
०४ अमू ये ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The two blessed stars named Unfasteners (vicṛ́t), that are yonder in
the sky—let them unfasten of the kṣetriyá the lowest, the highest
fetter.
Notes
The verse is nearly identical with ii. 8. 1 above, which see ⌊b
recurs at vi. 121. 3 b; v. Schroeder gives the Kaṭha version of a,
b, Zwei hss., p. 15, and Tübinger Kaṭha-hss., p. 75⌋. Ppp. makes
it in part yet more nearly so, by beginning with ud agātām bhagavatī,
but reads in c vi kṣetriyaṁ tvā ’bhy ānaśe ⌊cf. our 6 b⌋; and
its end and part of vs. 6 (which next follows) are defaced.
Griffith
May those twin stars, auspicious, named Releasers, up in yonder sky. Loose of the chronic malady the uppermost and lowest bond.
पदपाठः
अ॒मू इति॑। ये इति॑। दि॒वि। सु॒भगे॒ इति॑। सु॒ऽभगे॑। वि॒ऽचृतौ॑। नाम॑। तार॑के॒ इति॑। वि। क्षे॒त्रि॒यस्य॑। मु॒ञ्च॒ता॒म्। अ॒ध॒मम्। पाश॑म्। उ॒त्ऽत॒मम्। ७.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- तारागणः
- भृग्वङ्गिराः
- अनुष्टुप्
- यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अमू) वे (ये) जो (सुभगे) बड़े ऐश्वर्यवाले (विचृतौ) [अन्धकार से] छुड़ानेवाले (नाम) प्रसिद्ध (तारके) दो तारे [सूर्य और चन्द्रमा] (दिवि) आकाश में हैं, वे दोनों (क्षेत्रियस्य) शरीर वा वंश के दोष वा रोग के (अधमम्) नीचे और (उत्तमम्) ऊँचे (पाशम्) पाश को (वि+मुञ्चताम्) छुड़ा देवे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य और चन्द्रमा परस्पर आकर्षण से प्रकाश, वृष्टि और पुष्टि आदि देकर संसार का उपकार करते हैं, इसी प्रकार मनुष्य सुमार्ग में चलकर सब विघ्नों को हटाकर स्वस्थ और यशस्वी हों ॥४॥ यह मन्त्र अ० २।८।१। में कुछ भेद से आ चुका है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−(अमू)। परिदृश्यमाने। (ये)। ज्ञाते। (दिवि)। द्युलोके। आकाशे। (सुभगे)। शोभनैश्वर्ययुक्ते। शिष्टं व्याख्यातम्-अ० २।८।१ ॥
०५ आप इद्वा
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आप॒ इद्वा उ॑ भेष॒जीरापो॑ अमीव॒चात॑नीः।
आपो॒ विश्व॑स्य भेष॒जीस्तास्त्वा॑ मुञ्चन्तु क्षेत्रि॒यात् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आप॒ इद्वा उ॑ भेष॒जीरापो॑ अमीव॒चात॑नीः।
आपो॒ विश्व॑स्य भेष॒जीस्तास्त्वा॑ मुञ्चन्तु क्षेत्रि॒यात् ॥
०५ आप इद्वा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The waters verily [are] remedial, the waters disease-expelling, the
waters remedial of everything; let them release thee from kṣetriyá.
Notes
The first three pādas are RV. x. 137. 6 a, b, c, save that RV. has
sárvasya in c; but vi. 91. 3 below represents the same verse yet
more closely.
Griffith
Water, indeed, hath power to heal, Water drives malady away. May water–for it healeth all–free thee from permanent disease.
पदपाठः
आपः॑। इत्। वै। ऊं॒ इति॑। भे॒ष॒जीः। आपः॑। अ॒मी॒व॒ऽचात॑नीः। आपः॑। विश्व॑स्य। भे॒ष॒जीः। ताः। त्वा॒। मु॒ञ्च॒न्तु॒। क्षे॒त्रि॒यात्। ७.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- आपः
- भृग्वङ्गिराः
- अनुष्टुप्
- यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (आपः) सर्वव्यापक परमेश्वर वा जल (इत् वै उ) अवश्य ही (भेषजीः=०−ज्यः) भयनिवारक है, (आपः) परमेश्वर, वा जल (अमीवचातनीः=०−न्यः) पीड़ानाशक है। (आपः) परमेश्वर वा जल (विश्वस्य) सबका (भेषजीः) भयनिवारक है, (ताः) वह (त्वा) तुझको (क्षेत्रियात्) शरीर वा वंश के दोष वा रोग से (मुञ्चन्तु) छुड़ावे ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने मनुष्य को बुद्धि, नेत्र, हस्तादि, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि और अन्नादि पदार्थ देकर बड़ा उपकार किया है, सो हम भी उसको धन्यवाद देते हुए सबके साथ उपकार करें और खेती आदि में जल के सुप्रयोग से पुरानी और नवी दरिद्रता और स्नान आदि में प्रयोगों से सब रोग नाश करें ॥५॥ आपः शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त है, इसी से उसके विशेषण भी स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त हैं। आपः शब्द परमेश्वरवाची भी है, प्रमाण में अगला मन्त्र है। उसमें एकवचनान्त शब्दों के साथ प्रयोग से उसका अर्थ एक परमेश्वर का है ॥ तदे॒वाग्निस्तदा॑दि॒त्यस्तद्वा॒युस्तदु॑ च॒न्द्रमा॑। तदे॒व शु॒क्रं तद् ब्र॒ह्म ता आपः॒ स प्र॒जापतिः ॥ (तत्) विस्तार करनेवाला प्रसिद्ध ब्रह्म (एव) ही (अग्निः) ज्ञानस्वरूप, (तत्) ब्रह्म ही (आदित्यः) प्रकाशस्वरूप, (तत्) ब्रह्म ही (वायुः) गतिशील बलवान् और (तत् उ) ब्रह्म ही (चन्द्रमाः) आनन्दकारक है। (तत् एव) ब्रह्म ही (शुक्रम्) शुक्ल वा शुद्धस्वभाव, (तत्) सब में विस्तृत ब्रह्म (ब्रह्म) महान् (ताः) वही (आपः) सर्वव्यापक और (सः) वही (प्रजापतिः) प्रजापालक है ॥ तनोति विस्तारयतीति तद् ब्रह्म। तनु विस्तारे अदिः, स च डित् (उ० १।१३२) ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−(आपः)। अ० १।४।३। सर्वव्यापकः परमेश्वरः। जलानि। (इत्, वै, उ)। इति सर्वेऽवधारणे। अत्यन्तनिश्चयेन। (भेषजीः)। भेषं भयं जयतीति भेषजम्। भेष+जि-उ। केवलमामकभागधेय०। पा० ४।१।३०। इति भेषज, ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। भेषज्यः। भयनिवारिकाः। (अमीवचातनीः)। अ० १।२८।१। रोगाणां नाशयित्र्यः। पीडानाशिकाः। (विश्वस्य)। सर्वस्य। (त्वा)। त्वां मनुष्यम्। (मुञ्चन्तु)। मोचयन्तु। वियोजयन्तु, इत्यर्थः। (क्षेत्रियात्)। महारोगात् ॥
०६ यदासुतेः क्रियमाणायाः
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यदा॑सु॒तेः क्रि॒यमा॑णायाः क्षेत्रि॒यं त्वा॑ व्यान॒शे।
वेदा॒हं तस्य॑ भेष॒जं क्षे॑त्रि॒यं ना॑शयामि॒ त्वत् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यदा॑सु॒तेः क्रि॒यमा॑णायाः क्षेत्रि॒यं त्वा॑ व्यान॒शे।
वेदा॒हं तस्य॑ भेष॒जं क्षे॑त्रि॒यं ना॑शयामि॒ त्वत् ॥
०६ यदासुतेः क्रियमाणायाः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- If from the drink (? āsutí) that was being made the kṣetriyá hath
come upon (vi-aś) thee, I know the remedy of it; I make the kṣetriyá
disappear from thee.
Notes
The word āsutí is of doubtful and disputed sense; Weber says “infusio
seminis” ⌊as immediate cause of the “Erb-übel,” which is Weber’s version
of kṣetriyá⌋; Grill, “gekochter Zaubertrank”; the comm., dravībhūtam
annam ’liquidized food.’
Griffith
Hath some prepared decoction brought inveterate disease on thee, I know the balm that healeth it: we drive the malady away.
पदपाठः
यत्। आ॒ऽसु॒तेः। क्रि॒यमा॑णायाः। क्षे॒त्रि॒यम्। त्वा॒। वि॒ऽआ॒न॒शे। वेद॑। अ॒हम्। तस्य॑। भे॒ष॒जम्। क्षे॒त्रि॒यम्। ना॒श॒या॒मि॒। त्वत्। ७.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यक्ष्मनाशनम्
- भृग्वङ्गिराः
- अनुष्टुप्
- यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (क्रियमाणायाः) बिगड़ते हुए (आसुतेः) काढ़े से (त्वा) तुझमें (व्यानशे) व्याप गया है। (अहम्) मैं (तस्य) उसका (भेषजम्) औषध (वेद) जानता हूँ। (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के रोग को (त्वत्) तुमसे (नाशयामि) नाश करता हूँ ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विकृत औषध और विकृत अन्न के काढ़े वा पाक रस आदि से शरीर में भारी रोग व्याप जाते हैं, मनुष्य हितकारक पदार्थों का सेवन प्रयत्न करके किया करें ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−(यत्)। यत्किञ्चित्। (आसुतेः)। आङ्+षुञ् सन्धानपीडनमन्थनेषु-क्तिन्। ओषधिपाकात्। क्वाथात्। (क्रियमाणायाः)। कृञ् वधे कर्मणि शानच्, मुक् आगमः। बध्यमानायाः। नश्यमानायाः। (क्षेत्रियम्)। म० १। महारोगः। (त्वा)। त्वां मनुष्यम्। (व्यानशे)। वि+अशू व्याप्तौ-लिट्। अश्नोतेश्च। पा० ७।४।७२। इति दीर्घीभूताद् अभ्यासाद् नुट्। व्याप्नोत्। (वेद)। जानामि। (अहन्)। उपासकः। (तस्य)। क्षेत्रियस्य। (भेषजम्)। भयनिवारकमौषधम्। (नाशयामि)। निवारयामि। (त्वत्)। त्वत्तः सकाशात् ॥
०७ अपवासे नक्षत्राणामपवास
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॑पवा॒से नक्ष॑त्राणामपवा॒स उ॒षसा॑मु॒त।
अपा॒स्मत्सर्वं॑ दुर्भू॒तमप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑पवा॒से नक्ष॑त्राणामपवा॒स उ॒षसा॑मु॒त।
अपा॒स्मत्सर्वं॑ दुर्भू॒तमप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥
०७ अपवासे नक्षत्राणामपवास ...{Loading}...
Whitney
Translation
- In the fading-out of the asterisms, in the fading-out of the dawns
also, from us [fade] out all that is of evil nature, fade out
(apa-vas) the kṣetriyá.
Notes
Ppp. has tato ’ṣasām at end of b, and in c āmayat for
durbhūtam. Emendation of asmát in c to asmāt (as suggested by
Weber) would notably improve the sense. The second pāda has a syllable
too many, unless we make the double combination vāsó ’ṣásām.
Griffith
What time the starlight disappears, what time the gleams of Dawn depart, May evil fortune pass from us, the chronic sickness disappear.
पदपाठः
अ॒प॒ऽवा॒से। नक्ष॑त्राणाम्। अ॒प॒ऽवा॒से। उ॒षसा॑म्। उ॒त। अप॑। अ॒स्मत्। सर्व॑म्। दुः॒ऽभू॒तम्। अप॑। क्षे॒त्रि॒यम्। उ॒च्छ॒तु॒। ७.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यक्ष्मनाशनम्
- भृग्वङ्गिराः
- अनुष्टुप्
- यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नक्षत्राणाम्) नक्षत्रों के (अपवासे) छिपने पर (उत) और (उषसाम्) प्रभात वेलाओं के (अपवासे) चले जाने पर (अस्मत्) हमसे (सर्वम्) सब (दुर्भूतम्) अनिष्ट (अप=अप उच्छतु) चला जावे और (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (अप) हट जावे ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यह मन्त्र उपसंहार है, अर्थात् जैसे प्रतापी सूर्य के चमकने पर तारे छिप जाते और उषाओं का रङ्ग फीका पड़ जाता है, वैसे ही उद्योगी पुरुष आलस्यादि अनिष्टों और रोगों को दबाकर आनन्द भोगता है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७−(अपवासे)। अप+वस वासे, आच्छादने-भावे घञ्। अन्तर्धाने। अपगमने। (नक्षत्राणाम्)। अमिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। इति णक्ष गतौ-अत्रन्। नक्षत्राणि नक्षत्रतेर्गतिकर्मणः-निरु० ३।२०। तारकाणाम्। (उषसाम्)। उषः किच्च। उ० ४।२३४। इति उष वधे दाहे च-असि। प्रभातप्रकाशानाम्। (उत)। अपि। (अप)। अप उच्छतु। (अस्मत्)। अस्मत्तः। (सर्वम्)। निखिलम्। (दुर्भूतम्)। दुर+भू-क्त। दुर् दुःखेन भूतं युक्तम्। अभिष्टम्। दुःखम्। (क्षेत्रियम्)। महारोगजातम्। (अप उच्छतु)। उछ विवासे। अपगच्छतु। निवर्तताम् ॥