००४ प्रजाभी राज्ञः संवरणम्

००४ प्रजाभी राज्ञः संवरणम् ...{Loading}...

Whitney subject
  1. To establish a king.
VH anukramaṇī

प्रजाभी राज्ञः संवरणम्।
१-७ अथर्वा। इन्द्रः, २ पञ्च प्रदिशः, ४ अश्विनौ, मित्रावरुणौ, विश्वे देवाः, मरुतः, ५ द्यावापृथिवी। त्रिष्टुप्, १ जगती, ४-५ भुरिक्।

Whitney anukramaṇī

[Atharvan.—saptakam. āindram. trāiṣṭubham: 1. jagatī; 4, 5. bhurij.]

Whitney

Comment

Found in Pāipp. iii. Used in Kāuś. only with the next preceding hymn (as there explained), although the two are of essentially different application, this one referring to a king who has been called or chosen, and has to be inaugurated as such. In Vāit. (13. 2), in the agniṣṭoma sacrifice, vs. 7 accompanies, with vii. 28, oblations to pathyā svasti and other divinities.

Translations

Translated: Ludwig, p. 252; Zimmer, p. 164; Weber, xvii. 190; Griffith, i. 84; Bloomfield, 113, 330.—Cf. Bergaigne-Henry, Manuel, p. 141.

Griffith

A benediction at the election of a king

०१ आ त्वा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

आ त्वा॑ गन्रा॒ष्ट्रं स॒ह वर्च॒सोदि॑हि॒ प्राङ्वि॒शां पति॑रेक॒राट्त्वं वि रा॑ज।
सर्वा॑स्त्वा राजन्प्र॒दिशो॑ ह्वयन्तूप॒सद्यो॑ नम॒स्यो॑ भवे॒ह ॥

०१ आ त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Unto thee hath come the kingdom; with splendor rise forward; [as]
    lord of the people (víśas), sole king, bear thou rule (vi-rāj); let
    all the directions call thee, O king; become thou here one for waiting
    on, for homage.
Notes

The translation implies in a agan, which is very probably the true
reading, though the pada-mss. divide tvā:gan. The metrical
redundancy in a, b is best removed by omitting prā́n̄ (for which
Ppp. and the comm. read prāk), which seems (as meaning also ‘in the
east’) to have been added in order to make yet more distinct the
comparison with the sun implied in úd ihi; the pada-text reckons the
word wrongly to b, and the comm. renders it pūrvam ‘formerly’; he
takes ví rāja as “be resplendent,” which is of course possible. The
verse has but one real jagatī pāda (a). ⌊With d (= vi. 98. 1
d), cf. námasopasádyas, used twice in RV.⌋

Griffith

To thee hath come the kingship with its splendour: On! shine as lord, sole ruler of the people. King! let all regions of the heavens invite thee. Here let men wait on thee and bow before thee.

पदपाठः

आ। त्वा॒। ग॒न्। रा॒ष्ट्रम्। स॒ह। वर्च॑सा। उत्। इ॒हि॒। प्राङ्। वि॒शाम्। पतिः॑। ए॒क॒ऽराट्। त्वम्। वि। रा॒ज॒। सर्वाः॑। त्वा॒। रा॒ज॒न्। प्र॒ऽदिशः॑। ह्व॒य॒न्तु॒। उ॒प॒ऽसद्यः॑। न॒म॒स्यः᳡। भ॒व॒। इ॒ह। ४.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • अथर्वा
  • जगती
  • राजासंवरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक का उत्सव।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (राजन्) हे राजन् ! (राष्ट्रम्) यह राज्य (त्वा) तुझको (आ, गन्=अगमत्) प्राप्त हुआ है। (वर्चसा सह) तेज के साथ (उत्+इहि=उदिहि) उदय हो। (प्राङ्) अच्छे प्रकार पूजा हुआ, (विशाम्) प्रजाओं का (पतिः) रक्षक, (एकराट्) एक महाराजाधिराज (त्वम्) तू (वि, राज) विराजमान हो। (सर्वाः) सब (प्रदिशः) पूर्वादि दिशायें (त्वा) तुझको (ह्वयन्तु) पुकारें। (उपसद्यः) सबका सेवनीय और (नमस्यः) नमस्कार योग्य (इह) यहाँ पर [अपने राज्य में] (भव) तू हो ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा सिंहासन पर विराजकर महाप्रतापी और प्रजापालक हो, सब दिशाओं में उसकी दुहाई फिरे और सब प्रजागण उसकी न्यायव्यवस्था पर चलकर उसका सदा आदर और अभिनन्दन करते रहें ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(त्वा)। त्वां शूरवीरम्। (आ, गन्)। गमेर्लुङि। मन्त्रे घस०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। मो नो धातोः। पा० ८।२।६४। इति नत्वम्। आगमत्। प्राप्तम्। (राष्ट्रम्)। अ० १।२९।१। राज्यम्। (सह)। सहितम्। (वर्चसा)। तेजसा। (उदिहि)। उदितः प्रख्यातो भव। (प्राङ्)। ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। इति प्र+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। सम्यक् पूजितः। (विशाम्)। प्रजानाम्। (पतिः)। पालकः। (एकराट्)। सत्सूद्विष०। पा० ३।२।६१। इति एक+राजृ-क्विप्। मुख्यो राजा। (वि राज)। विशेषेण दीप्यस्व, ईश्वरो भव। (सर्वाः)। निखिलाः। (राजन्)। हे नृपते। (प्रदिशः)। अ० १।११।२। प्रकृष्टा दिशः। प्राच्याद्याः। तत्रस्था जनाः। (ह्वयन्तु)। स्वामित्वेन अनुजानन्तु। (उपसद्यः)। उप+षद्लृ गतौ-यत्। सर्वैरुपसदनीयः। सेवनीयः। (नमस्यः)। नमस्य नामधातुः+कर्मणि यत्। नमस्कारयोग्यः। (इह)। अस्मिन् राज्ये। (भव)। वर्त्तस्व ॥

०२ त्वां विशो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

त्वां विशो॑ वृणतां रा॒ज्या॑य॒ त्वामि॒माः प्र॒दिशः॒ पञ्च॑ दे॒वीः।
वर्ष्म॑न्रा॒ष्ट्रस्य॑ क॒कुदि॑ श्रयस्व॒ ततो॑ न उ॒ग्रो वि भ॑जा॒ वसू॑नि ॥

०२ त्वां विशो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Thee let the people (víśas) choose unto kingship (rājyà), thee
    these five divine directions; rest (śri) at the summit of royalty, at
    the pinnacle (kakúd); from thence, formidable, share out good things
    to us.
Notes

The verse is found also in TS. (iii. 3. 9²) and MS. (ii. 5. 10), with
nearly accordant differences of reading: gā́vo ‘vŗņata rājyā́ya in
a; tvā́ṁ havanta (MS. vardhanti) marútaḥ svarkā́ḥ for b;
kṣatrásya kakúbhi (MS. kakúbbhiḥ) śiśriyāṇás in c. TB.,
moreover, has the second half-verse (in ii. 4. 7⁷; the first half is our
iv. 22. 2 a, b), agreeing with AV. except by giving kṣatrásya
kakúbhis.
Ppp. further varies the word by reading kakudhi; it also
has in a vṛṇutām, and for d ato vasūni vi bhajāsy ugraḥ. A
number of the mss. (including our O.Op.) read in a rā́jyāya, as,
indeed, they generally disagree ⌊in threefold wise⌋ as to the accent of
this word. P.M.W. have in a vṛṣatām. The comm. renders várṣman
by śarīre, śrayasva by āssva.

Griffith

The tribesmen shall elect thee for the Kingship, these five celestial regions shall elect thee. Rest on the height and top of kingly power: thence as a mighty man award us treasures.

पदपाठः

त्वाम्। विशः॑। वृ॒ण॒ता॒म्। रा॒ज्या᳡य। त्वाम्। इ॒माः। प्र॒ऽदिशः॑। पञ्च॑। दे॒वीः। वर्ष्म॑न्। रा॒ष्ट्रस्य॑। क॒कुदि॑। श्र॒य॒स्व॒। ततः॑। नः॒। उ॒ग्रः। वि। भ॒ज॒। वसू॑नि। ४.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • राजासंवरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक का उत्सव।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे राजन् !] (त्वाम्) तुझको (राज्याय) राज्य के लिये (विशः) प्रजायें और (त्वाम्) तुझको ही (इमाः) यह सब (पञ्च) विस्तीर्ण वा पाँच (देवीः=०−व्यः) दिव्य गुणवाली (प्रदिशः) महा दिशायें (वृणताम्) स्वीकार करें। (राष्ट्रस्य) राज्य के (वर्ष्मन्=०−णि) ऐश्वर्ययुक्त वा ऊँचे (ककुदि) शिखर पर (श्रयस्व) आश्रय ले। (ततः) फिर (उग्रः) तेजस्वी तू (नः) हमारेलिये (वसूनि) धनों का (वि, भज) विभाग कर ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा को सब प्रजागण चुनें। और सब मनुष्यादि प्रजा और चारों पूर्वादि दिशाएँ और पाँचवी ऊपर नीचे की दिशा के पदार्थ [जैसे आकाश मार्ग और भूगर्भादि के पदार्थ] सब राजा के आधीन रहें और यह बड़ा ऐश्वर्यवान् होकर राजभक्त सुपात्रों को विद्या और सुवर्णादि धनों का दान करता रहे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(त्वाम्)। राजानम्। (विशः)। प्रजाः। (वृणताम्)। वृङ् सम्भक्तौ-लोट्। संभजताम्। सेवन्ताम्। (राज्याय)। पत्यन्तपुरोहितादिभ्यो यक्। पा० ५।१।१२८। इति राजन्-यक्। राजकर्मणे। राष्ट्राय। (इमाः)। परिदृश्यमानाः। (प्रदिशः)। प्रधानदिशाः। (पञ्च)। अ० १।३०।४। षचि विस्तारे-कनिन्। विस्तीर्णाः। प्राच्याद्या मध्यदिशा सह पञ्चसंख्याकाः। (देवीः)। देव्यः। प्रकाशमानाः। दिव्याः। (वर्ष्मन्)। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति वृष प्रजननैश्ययोः-मनिन्। सप्तम्या लुक्। वर्ष्मन् शब्द उन्नतवचनः। स्थिरवचनो वा, इति सायणः, ऋग्वेदभाष्ये म० १०।२८।२। ऐश्वर्ययुक्ते। उन्नते। स्थिरे)। (राष्ट्रस्य)। राज्यस्य। (ककुदि)। क+कु शब्दे-क्विप्, तुक् च, तस्य दः, अतर्भावितण्यर्थः। कं सुखं कावयति गृहस्थस्य औन्नत्यं प्रापयतीति ककुद्। वृषस्कन्धपृष्ठस्थमांसपिण्डे। नृपचिह्ने। पर्वतशिखरे। (श्रयस्व)। श्रिञ् सेवने आश्रितो भव। आस्स्व। (ततः)। तदनन्तरम्। (नः)। अस्मभ्यम्। (वि, भज)। सांहितिको दीर्घः। यथाभागं देहि। (वसूनि)। धनानि ॥

०३ अच्छ त्वा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अच्छ॑ त्वा यन्तु ह॒विनः॑ सजा॒ता अ॒ग्निर्दू॒तो अ॑जि॒रः सं च॑रातै।
जा॒याः पु॒त्राः सु॒मन॑सो भवन्तु ब॒हुं ब॒लिं प्रति॑ पश्यासा उ॒ग्रः ॥

०३ अच्छ त्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Unto thee let thy fellows come, calling [thee]; Agni shall go along
    as speedy messenger; let the wives, the sons, be well-willing; thou,
    formidable, shalt see arrive (prati-paś) much tribute.
Notes

Ppp. has in a, b yantu bhuvanasya jālā ’gnir dūto ‘va jarase
dadhāti
, and combines in c jāyāṣ p-. The comm. finds in b an
incomplete simile: “thy messenger, unassailable like fire, shall” etc.

Griffith

Kinsmen, inviting thee, shall go to meet thee, with thee go Agni as an active herald. Let women and their sons be friendly-minded. Thou mighty one, shalt see abundant tribute.

पदपाठः

अच्छ॑। त्वा॒। य॒न्तु॒। ह॒विनः॑। स॒ऽजा॒ताः। अ॒ग्निः। दू॒तः। अ॒जि॒रः। सम्। च॒रा॒तै॒। जा॒याः। पु॒त्राः। सु॒ऽमन॑सः। भ॒व॒न्तु॒। ब॒हुम्। ब॒लिम्। प्रति॑। प॒श्या॒सै॒। उ॒ग्रः। ४.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • राजासंवरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक का उत्सव।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (हविनः) पुकार करनेवाले (सजाताः) सजातीय लोग (त्वा) तुझको (अच्छ) सन्मुख आकर (यन्तु) मिलें। (अग्निः) आग के समान (दूतः) तापकारी और (अजिरः) वेगवान् [आप] (सम्) यथायोग्य (चरातै) आचरण करें। (जायाः) हमारी धर्मपत्नियाँ और (पुत्राः) कुलशोधक वा बहुरक्षक सन्तान (सुमनसः) प्रसन्नमन (भवन्तु) रहें। (उग्रः) तेजस्वी तू (बहुं बलिम्) बहुत भेंट को (प्रति) सन्मुख (पश्यासै) देखे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब भाई-बन्धु और प्रजागण राजा से मिले रहें और प्रसन्न होके (बलि) राजग्राह्य भागकर आदि देवें और वह राजा भी उनकी रक्षा में सर्वथा तत्पर रहे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(अच्छ)। (अभिमुखम्)। (यन्तु)। गच्छन्तु, प्राप्नुवन्तु। (हविनः)। हव इनि। आह्वानशीलाः। (सजाताः)। समानजन्मानः। बान्धवाः। (अग्निः)। पावकवद् राजा। (दूतः)। अ० ३।२।१। (तापकारी)। गतिशीलः। (अजिरः)। अजिरशिशिरशिथिल०। उ० १।५३। इति अज गतिक्षेपणयोः-किरच्। गमनशीलः। प्रजाप्रेरकः। (सम्)। सम्यक्। विधिवत्। (चरातै)। चरतेर्लेटि आडागमः। वैतोऽन्यत्र। पा० ३।४।९६। इत्यैकारः। आचरतु भवान्। (जायाः)। जनेर्यक्। स० ४।१११। इति जन जनने-यक्, आत्वम्, टाप्। जनयति वीरान्। भार्याः। (पुत्राः)। अ० १।११।५। षूञ् शोधे-क्त्र। पुत्रः पुरु त्रायते निपरणाद् [पालनात्] वा पुं नरकं ततस्त्रायत इति वा-निरु० २।११। कुलशोधकाः। बहुरक्षका वा दुःखनाशका वा सन्तानाः। वीराः पुत्री पुत्राः। (सुमनसः)। शोभनमनस्काः। प्रसन्नचित्ताः। (भवन्तु)। सन्तु। (बहुम्)। लङ्घिबंह्योर्नलोपश्च। उ० १।२९। बहि वृद्धौ-कु, नलोपः। विपुलम्। (बलिस्)। सर्वाधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति बल संवरणे, दाने-इन्। बल्यते दीयते स बलिः। राजग्राह्यं भागम्। करम्। उपहारम्। पूजासामग्रीम्। (प्रति)। अभिमुखम्। (पश्यासै)। दृशेर्लेटि आडैत्वे, यथा (चरातै) शब्दे। आत्मनेपदम्। पश्य। (उग्रः) उत्कटः। तेजस्वी ॥

०४ अश्विना त्वाग्रे

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अ॒श्विना॒ त्वाग्रे॑ मि॒त्रावरु॑णो॒भा विश्वे दे॒वा म॒रुत॒स्त्वा ह्व॑यन्तु।
अधा॒ मनो॑ वसु॒देया॑य कृणुष्व॒ ततो॑ न उ॒ग्रो वि भ॑जा॒ वसू॑नि ॥

०४ अश्विना त्वाग्रे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let the (two) Aśvins thee first,—let Mitra-and-Varuṇa both, let all
    the gods, the Maruts, call thee; then put (kṛ) thy mind unto the
    giving of good things; from thence, formidable, share out good things to
    us.
Notes

With c compare RV. i. 54. 9 d, which rectifies the meter by
reading kṛṣva. The second half-verse is quite different in Ppp.:
sajātānāṁ madhyameṣṭhe ’ha masyā (cf. ii. 6. 4 c; iii. 8. 2 d)
sve kṣetre savite vi rāja. The third pāda is made bhurij by the
change of kṛṣva to kṛṇuṣva.

Griffith

First shall the Asvins, Varuna and Mitra, the Universal Gods, and Maruts call thee. Then turn thy mind to giving gifts of treasures, thence, mighty one, distribute wealth among us.

पदपाठः

अ॒श्विना॑। त्वा॒। अग्रे॑। मि॒त्रावरु॑णा। उ॒भा। विश्वे॑। दे॒वाः। म॒रुतः॑। त्वा॒। ह्व॒य॒न्तु॒। अध॑। मनः॑। व॒सु॒ऽदेया॑य। कृ॒णु॒ष्व॒। ततः॑। नः॒। उ॒ग्रः। वि। भ॒ज॒। वसू॑नि। ४.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • अथर्वा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • राजासंवरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक का उत्सव।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्रे) अगले वा मुख्य पद पर [विराजमान] (त्वा) तुझको (अश्विना=०−नौ) सूर्य और चन्द्र और (उभा=उभौ) दोनों (मित्रावरुणा=०−णौ) प्राण और अपान वा दिन और रात और (विश्वे देवाः) सब व्यवहारकुशल (मरुतः) शूर पुरुष (त्वा) तुझको (ह्वयन्तु) पुकारें [मार्गदर्शक हों]। (अधा) और तू (मनः) अपने मन को (वसुदेयाय) धन का दान करने के लिये (कृणुष्व) स्थिर कर। (ततः) फिर (उग्रः) तेजस्वी तू (नः) हमारेलिये (वसूनि) धनों का (वि, भज) विभाग कर ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य और चन्द्र परस्पर आकर्षण से, दिन और रात, प्राण और अपान अपने-२ क्रम से और शूर विद्वान् पुरुष नियम पर चलने से संसार का उपकार करते हैं, इसी प्रकार ऐश्वर्यवान् राजा विचारपूर्वक सुपात्रों को दान देकर प्रजा की उन्नति करें ॥४॥ इस मन्त्र का अन्तिम पाद (ततो न उग्रो….) मन्त्र २ में आ चुका है। ऋ० म० ५ सू० १५ म० १५ का भी मिलान करें ॥ स्व॒स्ति पन्था॒मनु॑चरेम सूर्याचन्द्र॒मसा॑विव ॥ (सूर्याचन्द्रमसौ इव) सूर्य और चन्द्रमा के समान (स्वस्ति) कल्याणयुक्त (पन्थाम्) मार्ग पर (अनुचरेम) हम चलते रहें ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(अश्विना)। अ० २।२९।६। सूर्याचन्द्रमसावित्येके-निरु० १२।१। सूर्यचन्द्रौ। (अग्रे)। मुख्यपदे वर्त्तमानम्। (मित्रावरुणा)। अ० १।२०।२। प्राणापानौ। अहोरात्रौ। (उभा)। उभौ। (विश्वेदेवाः)। सर्वे व्यवहारिणः। (मरुतः)। अ० १।२०।१। शूराः पुरुषाः। (ह्वयन्तु)। आह्वयन्तु। (अधा)।=अथ। पुनः। (मनः)। चित्तम्। (वसुदेयाय)। अचो यत्। पा० ३।१।९७। इति वसु+दाञ् दाने-भावे यत्। ईद्यति। पा० ६।४।६५। ईकारादेशः। वसुनो धनस्य प्रदानाय। अन्यत् सुगमम्। (ततो न) इत्यादि व्याख्यातं म० २ ॥

०५ आ प्र

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

आ प्र द्र॑व पर॒मस्याः॑ परा॒वतः॑ शि॒वे ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे स्ता॑म्।
तद॒यं राजा॒ वरु॑ण॒स्तथा॑ह॒ स त्वा॒यम॑ह्व॒त्स उ॑पे॒दमेहि॑ ॥

०५ आ प्र ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Run forth hither from the furthest distance; propitious to thee be
    heaven-and-earth both; king Varuṇa here saith this thus; he here hath
    called thee; ⌊therefore ()⌋ do thou come to this place.
Notes

Ppp. has babhūtām for ubhe stām at end of b, and ahvat svenam
ehi
at end of d. SPP. reports all his pada-mss. as reading aha
instead of āha in c; no such blunder has been noted in ours. His
ms. of the comm. also appears to have āhvat in d, but doubtless
only by an oversight of the copyist (under the next verse it gives
ahvat in an identical phrase of exposition). MS. (ii. 2. 11; p. 24. 3)
gives a pratīka reading ā́ préhi paramásyāḥ parāvátaḥ, while no
corresponding verse is found in its text—or elsewhere, so far as is
known, unless here.

Griffith

Speed to us hither from the farthest distance. Propitious unto thee be Earth and Heaven. Even so hath Varuna this King asserted, he who himself hath called thee: come thou hither.

पदपाठः

आ। प्र। द्र॒व॒। प॒र॒मस्याः॑। प॒रा॒ऽवतः॑। शि॒वे इति॑। ते॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। उ॒भे इति॑। स्ता॒म्। तत्। अ॒यम्। राजा॑। वरु॑णः। तथा॑। आ॒ह॒। सः। त्वा॒। अ॒यम्। अ॒ह्व॒त्। सः। उप॑। इ॒दम्। आ। इ॒हि॒। ४.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • अथर्वा
  • भुरिक्त्रिष्टुप्
  • राजासंवरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक का उत्सव।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (परमस्याः) अत्यन्त (परावतः) दूर देश से (आ, प्र, द्रव) आकर पधार। (ते) तेरेलिये (उभे) दोनों (द्यावापृथिवी=०−व्यौ) सूर्य और पृथिवी (शिवे) मङ्गलकारी (स्ताम्) होवें। (तथा) वैसा ही (अयम्) यह (राजा) राजा (वरुणः) सबमें श्रेष्ठ परमेश्वर (तत्) वह (आह) कहता है। सो (सः अयम्) इस [वरुण परमेश्वर] ने (त्वा) तुझको (अह्वत्) बुलाया है। (सः=सः त्वम्) सो तू (इदम्) इस [राज्य] को (उप) आदरपूर्वक (आ) आकर (इहि) प्राप्त कर ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रजागण श्रेष्ठ राजा को दूर देश से भी बुला लेवें और वह अपने बुद्धिबल से ऐसा प्रबन्ध करे कि राज्यभर में दैवी और पार्थिव शान्ति रहे, अर्थात् अनावृष्टि और दुर्भिक्षादि में भी उपद्रव न मचे और आकाश, पृथिवी और समुद्रादि के मार्ग अनुकूल रहें। यही आज्ञा परमेश्वर ने वेदों में दी है, उसको राजा यथावत् माने ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(आ)। आगत्य। (प्र द्रव)। द्रु गतौ। प्रकर्षेण प्राप्नुहि। (परमस्याः)। स्याडागमः। अत्यन्तात्। (परावतः)। उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे। पा० ५।१।११८। इति उपसर्गसाधने धात्वर्थे स्वार्थे वतिः प्रत्ययः। परावतः प्रेरितवतः परागताद्वा-निरु० ११।४८। दूरदेशात्। (शिवे)। मङ्गलकारिण्यौ। (ते)। तुभ्यम्। (द्यावापृथिवी)। सूर्यभूमी। तत्रस्थाः पदार्था इत्यर्थः। (स्ताम्)। भवताम्। (तत्)। प्रसिद्धं वचनम्। (अयम्)। सर्वव्यापकः। (राजा)। ईश्वरः। समर्थः। (वरुणः)। वरणीयः। परमेश्वरः। (तथा)। तेनैव प्रकारेण। (आह)। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-लट्। ब्रुवः पञ्चानामादित आहो ब्रुवः। पा० ३।४।८४। इति आहादेशः परस्मैपदे। ब्रवीति। कथयति। (अह्वत्)। ह्वेञ्-लुङ्। आहूतवान्। (उप)। पूजायाम्। (इहि)। इण् गतौ। प्राप्नुहि। अन्यत् सुगमम् ॥

०६ इन्द्रेन्द्र मनुष्याः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इन्द्रे॑न्द्र मनु॒ष्याः३॒॑ परे॑हि॒ सं ह्यज्ञा॑स्था॒ वरु॑णैः संविदा॒नः।
स त्वा॒यम॑ह्व॒त्स्वे स॒धस्थे॒ स दे॒वान्य॑क्ष॒त्स उ॑ कल्पया॒द्विशः॑ ॥

०६ इन्द्रेन्द्र मनुष्याः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Like a human Indra, go thou away; for thou hast concurred (sam-jñā)
    in concord with the castes (?); he here hath called thee in his own
    station; he shall sacrifice to the gods, and he shall arrange the people
    (víśas).
Notes

The translation of this obscure and difficult verse implies much and
venturesome emendation in the first half: namely, in a, índra iva
manuṣyàḥ
, and in b várṇāis. Weber also takes manuṣyā̀s as meant
for a nom. sing., and renders it “menschengestaltet”; the other
translators understand manusyā̀ víśas, as does the Pet. Lex. The Ppp.
version, indro idam manuṣya pre ’hi, suggests -ṣyaḥ, and is
decidedly better in prehi (to be resolved into pṛ-e-hi, whence
perhaps the corruption to parehi); the repeated vocative índra॰indra
(so the pada-text) is not to be tolerated. For b, Ppp. has saṁ hi
yajñiyās tvā varuṇena saṁvidānaḥ
, which is too corrupt to give us aid;
the emendation to várṇāis is a desperate and purely tentative one, as
there is no evidence that várṇa had assumed so early the sense of
‘caste.’ Weber suggests that varuṇa here is equal to varaṇa
’elector’; Zimmer takes it as virtually for devāis: both entirely
unsatisfactory. Ppp. ends the verse with so kalpayād diśah. To the
comm. there is no difficulty; the repeated vocative is out of reverence
(ādarārtham); manuṣyās is a Vedic irregularity for -ṣyān, or else
qualifies prajās understood; the plural varuṇāis is plur.
majestaticus for varuṇena; kalpayāt, finally, is svasvavyāpāreṣu
niyun̄ktām
. The Anukr. passes without notice the jagatī pāda d, it
being easy to read the verse into 44 syllables.

Griffith

Pass to the tribes of men. O Indra, Indra. Thou the Varunas hast been found accordant. To his own place this one hath called thee, saying, Let him adore the Gods and guide the clansmen.

पदपाठः

इन्द्र॑ऽइन्द्र। म॒नु॒ष्याः᳡। परा॑। इ॒हि॒। सम्। हि। अज्ञा॑स्थाः। वरु॑णैः। स॒म्ऽवि॒दा॒नः। सः। त्वा॒। अ॒यम्। अ॒ह्व॒त्। स्वे। स॒धऽस्थे॑। सः। दे॒वान्। य॒क्ष॒त्। सः। ऊं॒ इति॑। क॒ल्प॒या॒त्। विशः॑। ४.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • राजासंवरण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक का उत्सव।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रेन्द्र) हे राजराजेश्वर ! (मनुष्याः=मनुष्यान्) मनुष्यों को (परेहि) समीप से प्राप्त कर, (हि) क्योंकि (वरुणैः) श्रेष्ठ पुरुषों से (संविदानः) मिलाप करता हुआ तू (सम्) यथाविधि (अज्ञास्थाः) जाना गया है। (सः अयम्) सो इस [प्रत्येक मनुष्य] ने (त्वा) तुझको (स्वे सधस्थे) अपने समाज में (अह्वत्) बुलाया है। (सः=सः भवान्) सो आप (देवान्) व्यवहारकुशल पुरुषों का (यक्षत्) सत्कार करें, (सः उ=सः उ भवान्) वही आप (विशः) प्रजाओं को (कल्पयात्) समर्थ करें ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - प्रजापालक राजा विद्वान् चतुर मनुष्यों से मिलता रहे और सुपात्रों को योग्यतानुसार पदाधिकारी करे ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(इन्द्रेन्द्र)। हे इन्द्राणामिन्द्र। राजराजेश्वर। (मनुष्याः)। मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च। पा० ४।१।१६१। इति मनु-यत्-षुक् च। मनुर्मननम्। शसो नत्वाभावश्छान्दसः। मनुष्यजातीन् मनुष्यान्। मननशीलान् प्रजागणान् (परा)। समीपे। (इहि)। गच्छ। प्राप्नुहि। (हि)। यस्मात् कारणात्। (सम्, अज्ञास्थाः)। ज्ञा अवबोधने-लुङि। सम्प्रतिभ्यामनाध्याने। पा० १।३।४६। इत्यात्मनेपदम्। सम्यक्, यथाविधि ज्ञातोऽसि। (वरुणैः)। वरणीयैः। श्रेष्ठैः। वरयितृभिः। (संविदानः)। अ० २।२८।२। सम्+विद ज्ञाने-शानच्। संगच्छमानः। (सः)। स प्रत्येकजनः। (अह्वत्)। आह्वयति स्म। (स्वे)। स्वकीये। (सधस्थे)। सह+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-क। सधमादस्थयोश्छन्दसि। पा० ६।३।९६। इति सहस्य सधादेशः। समाजे। (सः)। स भवान् राजा। (देवान्)। व्यवहारिणः पुरुषोत्तमान्। (यक्षत्)। यजतेर्लेटि अडागमः। सिब् बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप्। यजतु। सत्करोतु। (उ)। अवधारणे। (कल्पयात्)। कृपू सामर्थ्ये णिचि लेटि आडागमः। कल्पयतु। समर्थयतु। (विशः)। प्रजाः ॥

०७ पथ्या रेवतीर्बहुधा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प॒थ्या॑ रे॒वती॑र्बहु॒धा विरू॑पाः॒ सर्वाः॑ सं॒गत्य॒ वरी॑यस्ते अक्रन्।
तास्त्वा॒ सर्वाः॑ संविदा॒ना ह्व॑यन्तु दश॒मीमु॒ग्रः सु॒मना॑ वशे॒ह ॥

०७ पथ्या रेवतीर्बहुधा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The wealthy roads, of manifoldly various form, all, assembling, have
    made wide room for thee; let them all in concord call thee; to the tenth
    [decade of life] abide here formidable, well-willing.
Notes

Pathyā revatīs, divinities of good roads and welfare, are explained by
the comm. as patho ‘napetā mārgahitahāriṇya etatsaṁjñā devatāḥ; or
else pathyās is pathi sādhavaḥ, and revatīs is āpas. Both
editions read in d vaśe ’há, but the comm., with SPP’s śrotriyas
V. and K., read vase ’há, and the translation implies this. Ppp.
offers no variants for the verse. Many of our saṁhitā-mss.
(P.M.W.E.I.H.) retain the final visarga of saṁvidānāḥ before hv-
in c; SPP. does not report any of his as guilty of such a blunder.
⌊V. and K. recognize vaśehá as a variant.⌋ Ppp. appends another verse:
yadi jareṇa haviṣā datvā gamayāmasi: atrā ta indraṣ kevalīr viśo
balihṛtas karat
(cf. RV. x. 173. 6 c, d).

Griffith

The Bounteous Paths in sundry forms and places, all in accord, have given thee room and comfort. Let all of these in concert call thee hither. Live thy tenth decade here, a strong kind ruler.

पदपाठः

प॒थ्याः᳡। रे॒वतीः॑। ब॒हु॒ऽधा। विऽरू॑पाः। सर्वाः॑। स॒म्ऽगत्य॑। वरी॑यः। ते॒। अ॒क्र॒न्। ताः। त्वा॒। सर्वाः॑। स॒म्ऽवि॒दा॒नाः। ह्व॒य॒न्तु॒। द॒श॒मीम्। उ॒ग्रः। सु॒ऽमनाः॑। व॒श॒। इ॒ह। ४.७।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • सोमः, पर्णमणिः
  • अथर्वा
  • पुरोऽनुष्टुप्त्रिष्टुप्
  • राजा ओर राजकृत सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक का उत्सव।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (पथ्याः) मार्ग पर चलनेवाली, (रेवतीः=०−त्यः) धनवाली, (बहुधा) प्रायः (विरूपाः) विविध आकार वा स्वभाववाली (सर्वाः) सब [प्रजाओं] ने (संगत्य) मिलकर (ते) तेरेलिये (वरीयः) अधिक विस्तीर्ण वा श्रेष्ठ [पद] (अक्रन्) किया है। (ताः सर्वाः) वे सब [प्रजायें] (संविदानाः) एकमत होकर (त्वा) तुझको (ह्वयन्तु) पुकारें। (उग्रः) तेजस्वी और (सुमनाः) प्रसन्न चित्त तू (इह) इस [राज्य] में (दशमीम्) दसवी [नव्वे वर्ष से ऊपर] अवस्था को (दश) वश में कर ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सब प्रजागण मिलकर और सुमार्ग में चलकर राजा को सिंहासन पर बिठलावें और अपना रक्षक बनावें। और वह राजा भी इस प्रकार से न्याय और आनन्द करता हुआ नीरोग पूर्ण आयु भोगे ॥७॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ७−(पथ्याः)। धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते। पा० ४।४।९२। इति पथिन्-यत्। पथोऽनपेताः। सुमार्गगामिन्यः। (रेवतीः)। रयेर्मतौ बहुलम्। वा० पा० ६।१।३७। इति रयि-मतुप्, संप्रसारणं गुणश्च। छन्दसीरः। पा० ८।२।१५। इति मतुपो वत्वम्। ङीप्। विभक्तौ पूर्वसवर्णदीर्घः। रेवत्यः। धनवत्यः (बहुधा)। प्रायः। (विरूपाः)। विविधाकारा नानास्वभावाः। (सर्वाः)। अखिलाः प्रजाः। (संगत्य)। संभूय। (वरीयः)। प्रियस्थिर०। पा० ६।४।५७। इति उरु+ईयसुनि वरादेशः। यद्वा, वर+ईयसुन्। उरुतरं वरतरं पदं सिंहासनं वा। (ते)। तुभ्यम्। (अक्रन्)। करोतेर्लुङि च्लेर्लुक्। कृतवत्यः। (संविदानाः)। मं० ६। संगच्छमानाः। ऐकमत्यं प्राप्ताः सत्यः। (ह्वयन्तु)। आह्वयन्तु रक्षार्थम्। (दशमीम्)। नवतिसंवत्सरोर्ध्वभाविनीं चरमावस्थाम्। (उग्रः)। पराक्रमी। (सुमनाः)। प्रसन्नचित्तः। दयालुः। (वश)। आयत्तीकुरु। (इह)। अस्मिन् राज्ये ॥