००२ शत्रुसेनासंमोहनम्

००२ शत्रुसेनासंमोहनम् ...{Loading}...

Whitney subject
  1. Against enemies.
VH anukramaṇī

शत्रुसेनासंमोहनम्।
१-६ अथर्वा। सेनामोहनम्, १-२ अग्निः, ३-४ इन्द्रः, ५ द्यौः, ६ मरुतः। त्रिष्टुप्, २-४ अनुष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Atharvan.—senāmohanam. bahudevatyam. trāiṣṭubham: 2-4. anuṣṭubh.]

Whitney

Comment

Found in Pāipp. iii., next before the hymn here preceding. Used in Kāuś. only with the latter, as there explained.

Translations

Translated: Weber, xvii. 183; Griffith, i. 82; Bloomfield, 121, 327.—Cf. Bergaigne-Henry, Manuel, p. 139.

Griffith

A rifaccimento or recension of I

०१ अग्निर्नो दूतः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒ग्निर्नो॑ दू॒तः प्र॒त्येतु॑ वि॒द्वान्प्र॑ति॒दह॑न्न॒भिश॑स्ति॒मरा॑तिम्।
स चि॒त्तानि॑ मोहयतु॒ परे॑षां॒ निर्ह॑स्तांश्च कृणवज्जा॒तवे॑दाः ॥

०१ अग्निर्नो दूतः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let Agni our messenger, knowing, go against [them], burning against
    the imprecator, the niggard; let him confound the intents of our
    adversaries; and may Jātavedas make them handless.
Notes

All the mss. have in a the false accent praty étu (seemingly
imitated from 1. 2 d, where requires it), and SPP. retains it;
our edition makes the necessary emendation to práty etu. Ppp. appears
to have śatrūn instead of vidvān at end of a.

Griffith

May Agni, he who knows, our envoy, meet them, burning against ill-will and imprecation. May he bewilder our opponent’s senses. May Jatavedas smite and make them handless.

पदपाठः

अ॒ग्निः। नः॒। दू॒तः। प्र॒ति॒ऽएतु॑। वि॒द्वान्। प्र॒ति॒ऽदह॑न्। अ॒भिऽश॑स्तिम्। अरा॑तिम्। सः। चि॒त्तानि॑। मो॒ह॒य॒तु॒। परे॑षाम्। निःऽह॑स्तान्। च॒। कृ॒ण॒व॒त्। जा॒तऽवे॑दाः। २.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्नि [के समान तेजस्वी] (दूतः) अग्रगामी वा तापकारी (विद्वान्) विद्वान् राजा (नः) हमारेलिये (अभिशस्तिम्) मिथ्या अपवाद और (अरातिम्) शत्रुता को (प्रतिवहन्) सर्वथा भस्म करता हुआ (प्रत्येतु) चढ़ाई करे। (सः) वह (जातवेदाः) प्रजाओं का जाननेवाला [सेनापति] (परेषाम्) शत्रुओं के (चित्तानि) चित्तों को (मोहयतु) व्याकुल कर देवे (च) और [उनको] (निर्हस्तान्) निहत्था (कृणवत्) कर डाले ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा सेनादि से ऐसा प्रबन्ध रक्खे कि प्रजा गण आपस में मिथ्या कलङ्क न लगावें और न वैर करें और दुराचारियों को दण्ड देता रहे कि वे शक्तिहीन होकर सदा दबे रहें, जिससे श्रेष्ठों को सुख मिले और राज्य बढ़ता रहे ॥१॥ यह मन्त्र इसी काण्ड के सूक्त १ मन्त्र १ में कुछ भेद से है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−(दूतः)। अ० १।७।६। दु गतौ-यद्वा, टुदु उपतापे-क्त। अग्रेसरः। उपतापकः (चित्तानि)। अन्तःकरणानि। अन्यद् व्याख्यातम्-सू० १ म० १ ॥

०२ अयमग्निरमूमुहद्यानि चित्तानि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒यम॒ग्निर॑मूमुह॒द्यानि॑ चि॒त्तानि॑ वो हृ॒दि।
वि वो॑ धम॒त्वोक॑सः॒ प्र वो॑ धमतु स॒र्वतः॑ ॥

०२ अयमग्निरमूमुहद्यानि चित्तानि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Agni here hath confounded the intents that are in your heart; let him
    blow (dham) you away from [our] home; let him blow you forth in
    every direction.
Notes

Ppp. has dhamātu for -matu both times. The comm. renders amūmuhat
by mohayatu, in accordance with his doctrine that one verbal form is
equivalent to another.

Griffith

This Agni hath bewildered all the senses that were in your hearts: Now let him blast you from your home, blast you away from every side.

पदपाठः

अ॒यम्। अ॒ग्निः। अ॒मू॒मु॒ह॒त्। यानि॑। चि॒त्तानि॑। वः॒। हृ॒द‍ि। वि। वः॒। ध॒म॒तु॒। ओक॑सः। प्र। वः॒। ध॒म॒तु॒। स॒र्वतः॑। २.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) इस (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी राजा] ने (चित्तानि) उन ज्ञानों को (अमूमुहत्) उलट-पलट कर दिया है (यानि) जो (वः) तुम्हारे (हृदि) हृदय में [थे]। वह (वः) तुमको (ओकसः) घर से (वि, धमतु) निकाल देवे, वह (वः) तुमको (सर्वतः) सब स्थान से (प्र धमतु) बाहिर कर देवे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जिस सेनापति राजा ने दुष्टों को वश में करके रक्खा था, वह राजा विरोधियों को प्रतिज्ञा भङ्ग करने पर देशनिकाला आदि दण्ड देवे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−(अयम्)। समीपवर्ती। प्रसिद्धः। (अग्निः)। ज्ञानवान्। अग्निवत्तेजस्वी। (अमूमुहत्)। मुहेर्ण्यन्ताद् लुङि चङि रूपम्। व्याकुलीकृतवान्। (चित्तानि)। ज्ञानानि। (वः)। युष्माकम्। (हृदि)। हृञ् हरणे-क्विप्, तुक्, तस्य दः। हृदये। (वि)। विशेषेण। (वः)। युष्मान्। (धमतु)। धमति, गतिकर्मा-निघ० २।१४। वधकर्मा-निघ० २।१९। सौत्रो धातुः। अन्तर्भावितण्यर्थः। धमयतु। गमयतु। निःसारयतु। (ओकसः)। उच समवाये-असुन्, गुणः, न्यङ्क्वादित्वात् कुत्वम्। गृहात्। (सर्वतः)। सर्वप्रकारेण। अन्यत् सुगमम् ॥

०३ इन्द्र चित्तानि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

इन्द्र॑ चि॒त्तानि॑ मो॒हय॑न्न॒र्वाङाकू॑त्या चर।
अ॒ग्नेर्वात॑स्य॒ ध्राज्या॒ तान्विषू॑चो॒ वि ना॑शय ॥

०३ इन्द्र चित्तानि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. O Indra! confounding [their] intents, move hitherward with
    [their] design (ā́kūti); with the blast of fire, of wind, make them
    disappear, scattering.
Notes

The second half-verse is identical with 1. 5 b, c. Pāda b
apparently means ’take away their design, make them purposeless’; the
comm., distorting the sense of arvān̄, makes it signify “go against
[their army], with the design [of overwhelming it].” Ppp. reads
ākūtyā ’dhi (i.e. -tyās adhi?). In our edition, restore the lost
accent-mark over the -dra of índra in a.

Griffith

Dazing their senses, Indra, come hitherward with the wish and will. With Agni’s, Vata’s furious rush drive them to every side away.

पदपाठः

इन्द्र॑। चि॒त्तानि॑। मो॒हय॑न्। अ॒र्वाङ्। आऽकू॑त्या। च॒र॒। अ॒ग्नेः। वात॑स्य। ध्राज्या॑। तान्। विषू॑चः। वि। ना॒श॒य॒। २.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे महाप्रतापी राजन् ! [शत्रुओं के] (चित्तानि) चित्त को (मोहयन्) व्याकुल करता हुआ (अर्वाङ्) हमारे सन्मुख (आकूत्या) उत्तम संकल्प से (चर) आ। (अग्नेः) अग्नि के और (वातस्य) पवन के (ध्राज्या) झोंके से (तान्) उन (विषूचः) विरुद्ध गतिवालों को (वि, नाशय) नाश कर डाल ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे अग्नि और वायु मिलकर प्रचण्ड हो जाते हैं, इसी प्रकार राजा प्रचण्ड होकर दुष्टों को दण्ड देवे और सत्कर्मी पुरुषों का शिष्टाचार करे ॥३॥ इस मन्त्र का दूसरा आधा अ० ३।१।५। में आ चुका है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−(इन्द्र)। हे परमैश्वर्यवन् राजन्। (चित्तानि)। मनांसि। (मोहयन्)। व्याकुलीकुर्वन्। (अर्वाङ्)। अवरे काले देशे वा अञ्चति। अवर+अञ्च-क्विन्, अर्वादेशः। अस्मदभिमुखः। (आकूत्या)। आङ्+कूञ् शब्दे-क्तिन्। संकल्पेन। अन्यद् व्याख्यातं सू० १ म० ५ ॥

०४ व्याकूतय एषामिताथो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

व्या॑कूतय एषामि॒ताथो॑ चि॒त्तानि॑ मुह्यत।
अथो॒ यद॒द्यैषां॑ हृ॒दि तदे॑षां॒ परि॒ निर्ज॑हि ॥

०४ व्याकूतय एषामिताथो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Go asunder, ye designs of them; also, ye intents, be confounded; also
    what is today in their heart, that smite thou out from them.
Notes

All the mss. have in b cittā́ni, as if not vocative, and SPP.
retains the accent, while our text emends to cittāni; the comm.
understands a vocative. The comm. further takes vyākūtayas as one
word, explaining it as either viruddhāḥ saṁkalpāḥ or else (qualifying
devās understood) as śatrūṇāṁ vividhākūtyutpādakāḥ. ⌊For d,
rather, ’that of them smite thou out from [them].’⌋

Griffith

Vanish, ye hopes and plans of theirs, be ye confounded, all their thoughts! Whatever wish is in their heart, do thou expel it utterly.

पदपाठः

वि। आ॒ऽकू॒त॒यः॒। ए॒षा॒म्। इ॒त॒। अथो॒ इति॑। चि॒त्तानि॑। मु॒ह्य॒त॒। अथो॒ इति॑। यत्। अ॒द्य। ए॒षा॒म्। हृ॒दि। तत्। ए॒षा॒म्। परि॑। निः। ज॒हि॒। २.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • इन्द्रः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - हे (एषाम्) इन [शत्रुओं] के (आकूतयः) विचारो ! (वि) उलट-पलट होकर (इत) चले जाओ, (अथो) और हे (चित्तानि) इनके चित्तो ! (मुह्यत) व्याकुल हो जाओ। (अथो) और [हे राजन्] (यत्) जो कुछ [मनोरथ] (अद्य) अब (एषाम्) इनके (हृदि) हृदय में है, (एषाम्) इनके (तत्) उस [मनोरथ] को (परि) सर्वथा (निर्जहि) नाश कर दे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - नीतिकुशल राजा दुराचारियों में परस्पर मतभेद करा दे और उनका मनोरथ सिद्ध न होने दे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−(आकूतयः)। म० ३। हे सङ्कल्पाः। मनोरथाः। (एषाम्)। शत्रूणाम्। (वि, इत्)। विरोधेन गच्छत। (अथो)। अपि च। (चित्तानि)। मनांसि। (मुह्यत)। व्याकुलानि भवत। (यत्)। प्रयोजनम्। (अद्य)। इदानीम्। (हृदि)। मनसि। (तत्)। प्रयोजनम्। (परि)। परितः। सर्वतः। (निः)। नितराम्। (जहि)। नाशय ॥

०५ अमीषां चित्तानि

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒मीषां॑ चि॒त्तानि॑ प्रतिमो॒हय॑न्ती गृहा॒णाङ्गा॑न्यप्वे॒ परे॑हि।
अ॒भि प्रेहि॒ निर्द॑ह हृ॒त्सु शोकै॒र्ग्राह्या॒मित्रां॒स्तम॑सा विध्य॒ शत्रू॑न् ॥

०५ अमीषां चित्तानि ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Confounding the intents of those yonder, seizing their limbs, O Apvā,
    go away; go forth against [them]; consume [them] in their hearts
    with pangs (śóka); pierce the enemies with seizure (grā́hi), the foes
    with darkness.
Notes

The verse is RV. x. 103. 12, which reads in a cittám
pratilobháyantī
, and, for d, andhéna ’mítrās támasā sacantām; and
SV. (ii. 1211) and VS. (xvii. 44) agree with RV. Both pada-texts give
in b gṛhāṇá, as impv.; but the word is translated above (in
accordance with Grassmann’s suggestion) as aor. pple. fem. gṛhāṇā́,
because this combines so much better with the following páre ’hi. A
number of the saṁhitā-mss. (including our P.s.m.E.s.m.I.H.p.m.) make
the curious blunder of accenting apvè in b: the comm. explains it
as a pāpadevatā, adding the precious etymology apavāyayati
apagamayati sukham prāṇāṅś ca.
⌊Weber, ix. 482, thinks apvā has
reference to impurity (root ) and to diarrœha as caused by fear. To
Weber’s citation (xvii. 184) from the Purāṇa, add the line near the
beginning of the Bhīṣma book, MBh. vi. i. 18, śrutvā tu ninadaṁ yodhāḥ
śakṛn-mūtram prasusruvuḥ.
⌋ The Anukr. ignores the redundancy in a;
emendation to cittā́ would remove it.

Griffith

Bewildering the senses of our foemen, seize on their bodies and depart, O Apva! Go meet them, flame within their hearts and burn them. Smite thou the foes with darkness and amazement.

पदपाठः

अ॒मीषा॑म्। चि॒त्तानि॑। प्र॒ति॒ऽमो॒हय॑न्ती। गृ॒हा॒ण। अङ्गा॑नि। अ॒प्वे॒। परा॑। इ॒हि॒। अभि। प्र। इ॒हि॒। निः। द॒ह॒। हृ॒त्ऽसु। शोकैः॑। ग्राह्या॑। अ॒मित्रा॑न्। तम॑सा। वि॒ध्य॒। शत्रू॑न्। २.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • द्यौः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अप्वे) हे शत्रुओं को मार डालने वा हटा देनेवाली सेना (अमीषाम्) उन [शत्रुओं] के (चित्तानि) चित्तों और (अङ्गानि) शरीर के अवयवों और सेनाविभागों को (प्रतिमोहयन्ती) व्याकुल करती हुई (गृहाण) पकड़ ले और (परा, इहि) पराक्रम से चल। (अभि) चारों ओर से (प्र, इहि) धावा कर (हृत्सु) उनके हृदयों में (शोकैः) शोकों से (निर्दह) जलन कर दे और (ग्राह्या) ग्रहणशक्ति [बन्धनादि] से और (तमसा) अन्धकार से (अमित्रान्) पीड़ा देनेवाले (शत्रून्) शत्रुओं को (विध्य) छेद डाल ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सेनापति इस प्रकार व्यूह रचना करे कि उसकी उत्साहित सेना धावा करके अश्ववार अश्ववारों को, रथी रथियों को, पदाति पदातियों को व्याकुल कर दें, अर्थात् आग्नेय अस्त्रों से धूँआ धड़क और वारुणेय अस्त्रों से बन्धन में करके जीत लें ॥५॥ इस मन्त्र का ऋग्वेद १०।१०३।१२। यजुर्वेद १७।४४। सामवेद उ० ९।३।५ तथा निरुक्त ९।३३ में इस प्रकार समान पाठ है ॥ अ॒मीषां॑ चि॒त्तं प्र॑तिलो॒भय॑न्ती गृहा॒णाङ्गा॑न्यप्वे॒ परे॑हि। अ॒भि प्रेहि॒ निर्द॑ह हृ॒त्सु शोकै॑र॒न्धेनामित्रा॒स्तम॑सा सचन्ताम् ॥ (अप्वे) हे शत्रुओं को मार डालने वा हटा देनेवाली सेना ! (अमीषाम्) उनके (चित्तम्) चित्त को (प्रतिलोभयन्ती) व्याकुल करती हुई (अङ्गानि) अङ्गों को (गृहाण) पकड़ ले और (परा, इहि) पराक्रम से चल। (अभि) चारों ओर से (प्र, इहि) आगे बढ़ (हृत्सु) उनके हृदयों में (शोकैः) शोकों से (निर्दह) जलन कर दे। (अन्धेन) गाढ़े [दृष्टि रोकनेवाले] (तमसा) अन्धकार से (अमित्राः) पीड़ा देनेवाले लोग (सचन्ताम्) संयुक्त हो जावें ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५−(अमीषाम्)। अदस्-इत्यस्य रूपम्। परिदृश्यमानानां शत्रूणाम्। (चित्तानि)। मनांसि। (प्रतिमोहयन्ती)। मुह वैचित्ये-हेतौ शतृ। सर्वथा व्याकुलीकुर्वती। (गृहाण)। वशीकुरु। (अङ्गानि)। शरीरावयवान्। सेन विभागान्। (अष्वे)। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति अपपूर्वात् वा गतिहिंसनयोः, अथवा, वेञ् तन्तुसन्ताने, अन्तर्णीतण्यर्थात् उ प्रत्ययः। अथवा। शेवायह्वजिह्वाग्रीवाऽप्वामीवाः। उ० १।१५४। इति आप्लृ व्याप्तौ-वन्। टाप्। छान्दसं रूपम्। अप्वा यदेनया विद्धोऽपवीयते। व्याधिर्वा भयं वा। निरु० ६।१२। अपवाति हिनस्ति, यद्वा, अपवयति अपगमयति वा आप्नोति शत्रून् सा अप्वा तत्संबुद्धौ। (परा)। पराक्रमेण। (इहि)। गच्छ। (अभि)। अभितः सर्वतः। (प्र)। प्रकर्षेण (निः)। नितराम्। (दह)। दहनं कुरु। (हृत्सु)। हृदयेषु। (शोकैः)। शुच शोके-घञ्। खेदैः। (ग्राह्या)। अ० २।९।१। ग्रह आदाने इञ्। ग्रहण-शक्त्या। बन्धनादिना। (अमित्रान्)। अ० १।१९।२। पीडकान् (तमसा)। अन्धकारेण। आग्नेयास्त्रोत्थितेन धूमेनेत्यर्थः। (विध्य)। व्यध ताडने, छेदने। ताडय। छिन्धि। (शत्रून्)। अ० २।५।३ शातयितॄन्। हिंसकान् ॥

०६ असौ या

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒सौ या सेना॑ मरुतः॒ परे॑षाम॒स्मानैत्य॒भ्योज॑सा॒ स्पर्ध॑माना।
तां वि॑ध्यत॒ तम॒साप॑व्रतेन॒ यथै॑षाम॒न्यो अ॒न्यं न जा॒नात् ॥

०६ असौ या ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Yonder army of our adversaries, O Maruts, that comes contending
    against us with force—pierce ye it with baffling darkness, that one of
    them may not know another.
Notes

The verse is an addition (as vs. 14) to RV. x. 103 ⌊Aufrecht, 2d ed’n,
vol. ii. p. 682⌋, but forms a proper part of SV. (ii. 1210) and VS.
(xvii. 47). RV. VS. read in b abhyāíti nas (for asmā́n āíty
abhí
); SV. has abhyéti; all have in c gūhata for vidhyata;
and with the latter Ppp. intends to agree, but has guhata. For eṣām
in d, RV. gives amī́ṣām, SV. etéṣām, and VS. amī́ and
accordingly at the end jānán. It takes violence to compress our b
into a triṣṭubh pāda.

Griffith

That army of our enemies, O Maruts, that comes against us with’ its might, contending– Meet ye and strike it with unwelcome darkness so that not one. of them may know another.

पदपाठः

अ॒सौ। या। सेना॑। म॒रु॒तः॒। परे॑षाम्। अ॒स्मान्। आ॒ऽएति॑। अ॒भि। ओज॑सा। स्पर्ध॑माना। ताम्। वि॒ध्य॒त॒। तम॑सा। अप॑ऽव्रतेन। यथा॑। ए॒षा॒म्। अ॒न्यः। अ॒न्यम्। न। जा॒नात्। २.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • मरुद्गणः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मरुतः) हे शूर पुरुषों ! (परेषाम्) वैरियों की (असौ) वह (या) जो (सेना) सेना (अस्मान्) हम पर (अभि) चारों ओर से (ओजसा) बल के साथ (स्पर्धमाना) ललकारती हुई (आ-एति) चढ़ी आती है। (ताम्) उसको (अपव्रतेन) क्रियाहीन कर देनेवाले (तमसा) अन्धकार से (विध्यत) छेद डालो, (यथा) जिससे (एषाम्) इनमें से (अन्यः) कोई (अन्यम्) किसी को (न) न (जानात्) जाने ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सेनापति अपनी पलटनों को घातस्थानों में इस प्रकार खड़ा करे कि आती हुई शत्रुसेना को रोककर सब नष्ट कर देवें ॥६॥ (मरुतः) शब्द के लिये अ० १।२०।१। देखो ॥ यह मन्त्र यजुर्वेद में इस प्रकार है−अ॒सौ या सेना॑ मरु॒तः परे॑षाम॒भ्यैति॑ न॒ ओज॑सा॒ स्पर्ध॑माना। तां गू॑हत तम॒साप॑व्रतेन॒ यथा॒मी ऽअ॒न्योऽअ॒न्यन्न जा॒नन् ॥ यजु०। १७।४७ ॥ (मरुतः) हे शूरों ! (परेषाम्) वैरियों की (असौ या सेना) वह जो सेना (नः) हमको (अभि) चारों ओर से (ओजसा स्पर्धमाना) बल के साथ ललकारती हुई (आ, एति) चली आती है। (ताम्) उसको (अपव्रतेन तमसा) क्रियाहीन कर देनेवाले अन्धकार से (गूहत) ढक दो, (यथा) जिससे (अमी) वे लोग (अन्यः, अन्यम्) एक दूसरे को (न जानन्) न जानें ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६−(असौ)। परिदृश्यमाना। (वा सेना)। सू० १ म० १। सैन्यम्। (मरुतः)। अ० १।२०।१। हे शत्रुमारणशीलाः। शूराः। (आ-एति)। आगच्छति। (अभि)। सर्वतः। (ओजसा)। बलेन। (स्पर्धमाना)। स्पर्ध संघर्षे-लटः शानच्। संघर्षं युद्धोद्यमं कुर्वाणा। (ताम्)। सेनाम्। (विध्यत)। ताडयत। छिन्त। (तमसा)। अन्धकारेण। (अपव्रतेन)। व्रतं कर्म-निघ० २।१। अपगतकर्मणा। सर्वव्यापारविघातकेन। (यथा)। येन प्रकारेण। (एषाम्)। उपस्थिनां शत्रूणाम्। (अन्यः)। कश्चित्। (अन्यम्)। कमपि। (न)। निषेधे। (जानात्)। ज्ञा अवयोधने-लेट्। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इकारलोपः। जानीयात् ॥